सावन माह की अमावस्या को छत्तीसगढ़ में हरेली पर्व मनाया जाता है। इस पर्व के साथ जुड़ी हुई अनेक मान्यताएं लोक में प्रचलित हैं। एक मान्यतानुसार यह कृषि पर्व राजा जनक द्वारा हल चलाने के फलस्वरुप माँ सीता के प्रकट होने से जुड़ा हुआ है। ऋषि-मुनियों के रक्त से भरा घड़ा रावण ने अपने दूतों के हाथों से भेजकर राजा जनक के राज्य की सीमा में गड़वा दिया था।
तबसे वहाँ सूखा व दुष्काल पड़ना चालू हो गया। इस तरह बारह वर्ष बीत गये। प्रजा व जीव-जन्तुओं में त्राहि-त्राहि मच गई। राजा जनक बहुत चिंता में पड़ गये। अपनी चिंता से विद्वानों को अवगत कराते हुए इसका निदान पूछा। तब विद्वानों ने सुझाव दिया कि रानी स्वयं हल खींचे और राजा स्वयं हल चलाये तो वर्षा होगी।
जब रानी सुनयना ने सोने से निर्मित हल स्वयं खींचा और राजा जनक ने हल चलाया तो उस हल के सीत (जिसे छत्तीसगढ़ी में नास कहते हैं) की ठोकर से वह घड़ा फूट गया। जिससे जगज्जननी माँ सुन्दर सुशील कन्या के रुप में अवतीर्ण हुई।
चुंकि उसका अवतरण सीत की ठोकर से हुआ इसीलिये उसका नाम सीता पड़ा।सीता के प्राकट्य होते ही तेज वर्षा होने लगी। पेंड-पौधे हरियाने लगे। पूरी धरती हरी-भरी होने लगी। पूरी धरती में हरियाली छा गई। इस खुशी में राजा व प्रजा हल व बैल की पूजा कर हरियाली पर्व मनाया।
त्रेतायुग से प्रत्येक साल मनाते मनाते यह पर्व एक परंपरा के रुप में स्थापित हो गया। देश के अलग अलग भागों में भिन्न भिन्न नामों से भिन्न भिन्न रूपों में यह पर्व मनाया जाने लगा। जो अद्यतन निरंतर जारी है। छ्त्तीसगढ़ में इसे “हरेली तिहार” के नाम से मनाया जाता है।
सबसे पहले गांव में हरेली पर्व मनाने की मुनादी कराई जाती है। गांव का बईगा पूरे गांव की खुशहाली के लिये ग्राम्य (डीही-डोंगर के) देवी-देवताओं की पूजा-पाठ करता है।
जंगल से भेलवा डारा (एक वनौषध पेड़ की शाख) लाकर गांव के सभी घरों के दरवाजों पर खोंसता है। पूरे परिवार के स्वस्थ और दीर्घायु होने की कामना करते हुए आशीर्वाद देता है। उस घर से बईगा को चावल-दाल और कुछ धनराशि दान कर आभार व्यक्त किया जाता है।
किसान भी भेलवा डारा अपनी बाड़ी (बारी-बखरी) ,खेत-खार में जाकर खोंसते हैं। मान्यता है कि इससे विभिन्न आपदा व बिमारियों से फसलों की रक्षा होती है। जंगलों की अंधाधुंध कटाई और प्लान्टेशन से यह पेड अब समाप्त होते जा रहे हैं। वैकल्पिक रुप से इसके स्थान पर नीम के डंगाल (शाख) खोंसे जाते हैं। कस्बाई व शहरी क्षेत्रों में तो नीम के डंगाल ही उपयोग में लाये जाते हैं।
अगले क्रम में पूरे गांव का पशुधन जिसमें प्रमुख रूप से गौवंशी व महीषवंशी होते हैं।गांव के गौठान (खइरखा डांड़ ) में सुबह इकठ्ठा किया जाता है। प्रत्येक पशु स्वामी अपने अपने घरों से खम्हार पत्ते,अरण्ड के पत्तों में नमक बांधकर थाली-परात में लाते हैं।
कोई कोई किसान अपनी हैसियत के मुताबिक गेहूँ आटे में नमक मिला लोई (लोंदी ) लाते हैं और अपने अपने पशुधन को खिलाते हैं। इसी बहाने पशुधन को भले ही न्यून मात्रा में सही खनिज-लवण,पोषण और औषधीय तत्व मिल जाते हैं जो प्रतिरक्षा शक्ति बढ़ाने में सहायक होते हैं।
अनुभवी व अच्छी जानकारी रखने वाला चरवाहा (बरदीहा-पहाटिया) जंगल से केऊकांदा,दसमुर कांदा व अन्य जड़ी-बुटी लाकर उबालकर कृषक परिवार को भेंट करता है। मान्यता है कि इनके सेवन से विभिन्न बरसाती संक्रमणों,रोगों से मुक्ति मिलती है। खनिज लवणों से पोषण मिलता है जिससे प्रतिरक्षा शक्ति बढ़ाने में मदद मिलती है। कृतज्ञता स्वरूप किसान चरवाहे को अन्न,वस्त्र व राशि दान करता है।
इस पर्व में स्वच्छता का एक अच्छा संदेश है। गांव के गली-कूचों के गड्ढों में मुरम डालने की परंपरा है। इससे कीचड़ और पानी जाम करने वाले गड्ढों से मुक्ति मिल जाती है। घर के आँगन के एक किनारे में मुरम बिछाया जाता है। पवित्रता के लिए उस पर गोबर-पानी का छिड़काव किया जाता है। चौक पूरा जाता है। पीड़हा-पाटा धोकर उस पर धुले हुए हल (नांगर-जुड़ा ), कृषि औजार व अन्य औजार रखे जाते हैं। फिर पूजा का विधान शुरु होता है।
लोटे का साफ पानी छिड़क कर पवित्रीकरण करते हैं। गेहूँ और चावल के लेप का हाथा देते हुए टीका लगाया जाता है। उस पर बंदन का टीका लगाया जाता है। हूम धूप देकर गुरहा-चीला (चावल आटा और गुड़ से बना ) सोंहारी आदि पकवान का भोग चढ़ाया जाता है।
नारियल अर्पित कर फोड़ा जाता है। भोग लगाने के बाद थाली या परात में बचा गुरहा चीला और अन्य पकवान को प्रसाद रूप में पूरे परिवार में बांटा जाता है। प्रसाद पाकर छोटे अपने से बड़ों का पैर छूते हैं और बड़े उन्हे आशीर्वाद देते हैं। घर के सभी सदस्य घर में बना भोजन व पकवान बड़े प्रेम से साथ बैठकर ग्रहण करते हैं।
अब इसके बाद इस पर्व का मुख्य आकर्षण होता है गेंड़ी। जिसका सबसे अधिक आनंद किशोर व युवा लेते हैं और बड़े बुजूर्ग देख देख कर आनंद लेते हुए सावधानी बरतने के सुझाव भी देते हैं। प्रत्येक बच्चे,किशोर व युवा अपनी ऊंचाई और पसंद के अनुरूप गेंड़ी खापते हैं।
बांस के तने में एक निश्चित ऊंचाई में लोहे या बांस की खिली लगी होती है। इसी खिली पर पूरा दारोमदार होता है। इसी में बांस का ही बना पंऊवा बूच की रस्सी से बांधा जाता है। पहले अधिकतर चमड़े की रस्सी (नाहना) से बांधा जाता था। जो अब चलन से बाहर हो गया है। गेंड़ी का असली आनंद बंधी रस्सी में मिट्टीतेल डालकर सूखाकर चर्र-चर्र की गर्बीली धून के साथ चलो तब आता है।
गेंड़ी चढ़ने का पूरा अनुभव रखने वाले दांया बांया गेंड़ी आपस में टकराकर पीटते हुए एक दूसरे स्पर्धी को हुर्र कहकर लड़ने का आमंत्रण देते हैं। फिर गेंड़ी से एक दूसरे को शह-मात देते हुए क्रीड़ा करते हैं। गेंड़ी दौड़ और गेंडी नृत्य से भी मनोरंजन होता है।
दरअसल सावन माह के अमावस्या यानी हरेली पर्व से भादो की अमावस्या यानी पोला पर्व तक पूरे एक माह गेंड़ी चढ़ने की मान्यता है। इस पूरे एक माह तक कीचड़ अपने चरम पर रहता है। इसी कीचड़ परेशानी से बचने के लिए गेड़ी का चलन शुरू हुआ होगा जो कालान्तर में खेल और मनोरंजन का एक उद्यम बन गया। वैसे जमीन से ऊपर अपने को संतुलित बनाये रखना भी कम आश्चर्च नही है।
इसके इलावा इस पर्व में अन्य खेलों के अलावा शाम या रात में रामायण,गीत-गोविंद ,कीर्तन-भजन व अन्य गीत-संगीत कार्यक्रम आयोजित होते हैं। पर्वों को आनंदमय बनाने यह सब समय के साथ घटते,बढ़ते,जुड़ते, टूटते मिलते व छुटते रहते हैं।
दरअसल सावन अमावस्या तक अधिकांश कृषि कार्य सम्पन्न हो गये रहते हैं और इन कार्यों में हल,कृषि औजारों व पशुधन का विशेष योगदान रहता है। किसान हरेली तिहार में उनके इन्ही योगदानों का सजीव व निर्जीव सहयोगियों के प्रति आभार व्यक्त कर मानवीय मूल्य अदा करता है। जो त्रेतायुग से निरंतर चला आ रहा है।
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