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सब धरती कागद करूँ , लेखनी सब बनराय : गुरु पूर्णिमा विशेष

“गु अँधियारी जानिये, रु कहिये परकाश। मिटि अज्ञाने ज्ञान दे, गुरु नाम है तास।” कबीरदास ने गुरु के अर्थ और उनके बारे में अंनत लिखा है ।यहाँ तक की सभी महापुरुषों ने गुरु को दुर्लभ मनुष्य जीवन की अत्यंत अनिवार्य कड़ी बताया है।

कबीर कहते है-“गुरु गोविंद दाऊ खड़े काके लागूं पाएं, बलिहारी गुरु आपने जिन गोविंद दियो मिलाए।” इसी संदर्भ में सहजो बाई जी कहती है कि” हरि तजूँ पर गुरु न विसारूं, गुरु के सम हरि को न निहारूँ।”

भारतीय सनातन धारा में गुरु को इतना बड़ा स्थान आखिर दिया क्यों गया? वह कौन गुरु है जो हरि से भी बढ़कर कहा गया है।आखिर क्यों व्यास पूर्णिमा को गुरु पूर्णिमा के रूप में इतने धूमधाम से  सदियों से मनाया जाता है?

वैसे तो हम गुरु उस हर व्यक्ति ,घटना या परिस्थिति के अनुभव को मान लेते हैं जिसने हमें कुछ न कुछ सिखाया हो मगर बात यह उस गुरु की नही हो रही जिसके बारे में कबीर कहते है कि “सीस दिए जो गुरु मिले तो भी सस्ता जान।तो फिर गुरु पूर्णिमा किस गुरु के लिए समर्पित है।

गुरु शिष्य की परंपरा हमारे यहां अत्यंत प्राचीन काल से चली आ रही है। यहां तक कि राम और कृष्ण के भी अपने अपने गुरु रहे है तभी कहा गया कि “राम कृष्ण ते को बड़ो तिन ने भी गुरु किन, तीन लोक के नायक तो गुरु आगे आधिन।” क्योंकि राम और कृष्ण के भी दो -दो गुरु हुए। एक शस्त्र या शास्त्र गुरु या सामान्य गुरु जिन्होंने उन्हें अध्ययन करवाया।

जैसे विश्वामित्र राम के और सांदीपनि कृष्ण के शस्त्र -शास्त्र गुरु हुए। किंतु एक दूसरी और वे गुरु जिन्हने उन्हें परम् तत्व के अंतर्जगत में दर्शन करवाए वे गुरु परम् गुरु कहलाते है जिन्हें गुरु पूर्णिमा समर्पित है जैसे राम के वशिष्ठ एवं कृष्ण के दुर्वासा हुए। वैसे दोनो ही तरह की पूजा अर्चना शिष्य इस दिन करते ही रहे है किंतु सनातन शास्त्र धारा में गुरु पूर्णिमा उन्ही परम् गुरु की चरण पूजा को समर्पित है। उन्ही परम् गुरुओं को सनातन धर्म में गुरु को भगवान से भी श्रेष्ठ माना जाता है।

गुरु ही भगवान के बारे में बताते हैं और इनके बिना ब्रह्मज्ञान और मोक्ष की प्राप्ति नहीं होती है। गुरु अपने ज्ञान से शिष्य को सही मार्ग पर ले जाते हैं और जीवन में अध्यात्म और कर्म का नीति-अनीति का बोध करवाते हैं। इसलिए गुरुओं के सम्मान में हर वर्ष यह पर्व मनाया जाता है। गुरु पूर्णिमा के दिन गुरु के अलावा भगवान शिव और माता पार्वती की भी पूजा की जाती है क्योंकि भगवान शिव ही उनके और हमारे भी आदि गुरु कहे गए है।

इस के संदर्भ स्कंद पुराण की गुरु गीता में शिव पार्वती संवाद के रूप में आता है जहां गुरु की शिव द्वारा पूर्ण व्याख्या भी की गई है और महत्व व जीवन मे ऐसे गुरु की प्राप्ति की आवश्यकता पर भी बल दिया गया है।

गुरु गीता में एक स्थान पर शिव पार्वती को बताते है कि गुरु –” यह गुरु गीता अत्यंत गोपनीय एवं अत्यंत रहस्यमयी व सारभूत महत्वपूर्ण ज्ञान है जिसे हर व्यक्ति के सम्मुख नही कहा जा सकता और ऐसे सदगुरु न ही सबके  लिए होते हैं किंतु उच्चकोटि के साधकों के लिए कही जा रही है।”ऐसे गुरु को मिलना भी दुर्लभ होता है।विशेष भगवद कृपा से ही उनको पाया जाता है।

आगे आदिगुरु शिव स्वयं पार्वती को गुरु को परिभाषित करते हुए कहते है कि-“यो गुरुः स शिवः प्रोक्तो यः शिवः स गुरुः स्मृतः। विकल्पं यस्तु कुर्वीत स नरो गुरुतल्पगः,दुर्लभं त्रिषु लोकेषु तच्छृणुश्व वदाम्यहम्। वदाम्यहम् गुरुब्रह्म विना नान्यः सत्यं सत्यं वरानने॥  (गुरु गीता २०)

क्रमशः इसी क्रम में  गुरु के बारे में बताते हुए भगवान सदाशिव गुरु गीता के दूसरे अध्याय के उन्तीसवें श्लोक में कहते है कि ऐसे परमगुरु करते क्या है शिष्य के जीवन में!शिव कहते है कि-  ” करुणाखड्गपातेन छित्वा पाशाष्टकं शिशोः। सम्यगानन्दजनकः सद्गुरुः सोऽभिधीयते॥१२९॥”

अर्थात करूणा रूपी तलवार के प्रहार से जो शिष्य के आठों पाशों अर्थात बन्धनों यथा-संशय, दया, भय, संकोच,प्रतिष्ठा, कुलाभिमान और संपति  को काटकर चित को निर्मल कर सम्यक आनंद देनेवाले को मतलब सभी प्रकार के विकारों को दूर कर देते है वही सद्गुरु कहलाते हैं।

गुरु गीता भगवान शिव ने तब कही है जब उन्होंने स्वयं अमरनाथ की गुफा में देवी पार्वती को ब्रह्मज्ञान दिया था। इसलिए इसमे गुरु तत्व एवं सता की महत्ता एव प्रकारों के बारे में बहुत गहन व्याख्या की गई है और बताया गया है कि सदगुरु के बिना मनुष्य जीवन निरर्थक है कि क्योंकि सदगुरु ही परमगुरु होते है जो अपने शिष्य के सभी बन्धनों को अपनी करुणा से शक्तिपात दीक्षा द्वारा तृतीय नेत्र खोल कर भीतर ही परमात्मा के दर्शन करवा देते है।

इसलिए ऐसे सद्गुरु के चरणों की पूजा कर गुरु पूर्णिमा पर शिष्य उनके चरणों को धो कर चरणोदक को ग्रहण करते है-“अज्ञानमूलहरणं जन्मकर्मनिवारकम् ।ज्ञानविज्ञानसिद्ध्यर्थं गुरुपादोदकं पिबेत् ॥”(गुरु गीता ३१”ऐसे सद्गुरु को ही शिव कहते है कि ऐसा सद्गुरु ही ब्रह्म ,विष्णु व महेश तीनों देव होते हैं।

क्योंकि ब्रह्मा के रूप में वे अपने तप का अंश करुणा वश दे कर उसे जीव से ब्रह्म की यात्रा का मार्ग पर ले जाता है, शिष्य को अंतर्जगत में ले जाकर ब्रह्मदर्शन करवा कर ‘द्विज’ बनाता है अर्थात शिष्य दोबारा जन्म होता है, विष्णु रूप में गुरु भीतर हाथ का सहारा दे कर बाहरी थपकियां या चोट दे दे कर कच्ची मिट्टी से सुंदर घड़े का रूप देता है अर्थात विष्णु की तरह शिष्य के पूरे जीवन का योगक्षेम वहन करता है और महेश के रूप में वह शिष्य के सभी मोहपाशों को कांट कर ,विकारों का नाश करते है।

गुरु गीता में भगवान शिव स्वयं तीन बार उमा से कहते है कि ऐसे गुरु के चरणों की पूजा करने के बाद किसी देव की पूजा करनी शेष नही रह जाती है क्योंकि ऐसे परमगुरु के चरणों मे सारे तीर्थ निवास करते है।

तुलसीदास ने भी लिखा कि ऐसे सदगुरु स्वयं चलती फिरती ज्ञान गंगा है अतः गुरु पूर्णिमा ऐसे परम् गुरू को समर्पित है लेकिन वर्तमान में गुरु पूर्णिमा को सभी प्रकार के गुरुओं के उनके शिष्य पूजन करते है।

गुरु गीता में भगवान शिव देवी उमा को अपने संवाद में बताते है कि पूरे संसार मे सात प्रकार के गुरु होते है जिन्हें क्रमशः ‘सूचक गुरु’, ‘वाचक गुरु’, बोधक गुरु’, ‘निषिद्ध गुरु’, ‘विहित गुरु’, ‘कारणाख्य गुरु’, तथा ‘परम गुरु’ कहा जाता है।

भगवान शिव के कथानुसार इनमें से निषिद्ध गुरु का तो सर्वथा त्याग कर देना चाहिए तथा अन्य गुरुओं में परम गुरु ही श्रेष्ठ हैं, वही सद्गुरु हैं और केवल वही गुरु पूजन के योग्य होते है। इसमे शिव उनका महत्व बताते हुए गुरु के पूजन की विधि और नियमों का पालन भी बताया गया है।

लेकिन यहां केवल सन्दर्भ ही दिए जा सकते है। गुरु पूजा ऐसे सद्गुरुओं को समर्पित  पर्व है किंतु आजकल गुरुपूजा में व्यासपीठ पर विराजमान होने वाले हर कथा वाचक और सूचक, बोधक गुरुओं की भी पूजा की जाने लगी है। खैर यह अपनी अपनी आस्था श्रद्धा का विषय है।

गुरु पूर्णिमा हर वर्ष आषाढ़ मास के शुक्ल पक्ष की पूर्णिमा तिथि को मनाई जाती है। इस पूर्णिमा को आषाढ़ पूर्णिमा, व्यास पूर्णिमा और वेद व्यास जयंती के नाम से भी जाना जाता है। पौराणिक संदर्भों की बात करें तो गुरु पूर्णिमा के साथ महर्षि वेदव्यास का प्रसंग भी जुड़ा है।

अनेक धार्मिक ग्रंथों की रचना करने वाले महर्षि वेदव्यास को मानव जाति का प्रथम जगत् गुरु,आदिगुरु माना जाता है। ऐसी मान्यता है कि आज से लगभग 3000 ईसवी पूर्व आषाढ़ मास की पूर्णिमा को ही महर्षि वेदव्यास ने इसी दिन जन्म लिया था। गुरु पूर्णिमा जगत् गुरु माने जाने वाले वेद व्यास को समर्पित कर इसे व्यास पूर्णिमा भी कहा जाता है।

माना जाता है कि वेदव्यास का जन्म इसी दिन हुआ था इसलिए वर्तमान में जितने भी व्यासपीठ पर बैठेते है उन कथावाचकों को भी व्यास ऋषि का प्रतीक मान कर इस दिन उनकी भी पूजा की जाती है।

वेदों के सार ब्रह्मसूत्र की रचना भी वेदव्यास ने आज ही के दिन की थी। ऐसे जगत् गुरु के जन्म दिवस पर गुरु पूर्णिमा मनाने की परंपरा है।व्यास’ का शाब्दिक अर्थ होता है संपादक।वेदों का व्यास यानी विभाजन भी संपादन की श्रेणी में आता है। कथावाचक शब्द भी व्यास का पर्याय है।

कथावाचन भी देश-काल औरपरिस्थिति के अनुरूप पौराणिक कथाओं का विश्लेषण और संपादन करते है। भगवान वेदव्यास ने वेदों का संकलन किया, 18 पुराणों और उपपुराणों की रचना की। ऋषियों के बिखरे अनुभवों को लोकहितार्थ समाजभोग्य बना कर व्यवस्थित किया।

पंचम वेद ‘महाभारत’ की रचना इसी पूर्णिमा के दिन पूर्ण की और विश्व के सुप्रसिद्ध आर्ष ग्रंथ ‘ब्रह्मसूत्र’ का लेखन इसी दिन आरंभ किया। तब देवताओं ने वेदव्यासजी का पूजन किया। तभी से व्यास पूर्णिमा मनायी जा रही है।

बंगाली साधु सिर मुंडाकर परिक्रमा करते हैं, क्योंकि आज के दिन सनातन गोस्वामी का तिरोभाव हुआ था। ब्रज में इसे ‘मुड़िया पूनों’ कहा जाता है और इस दिन गुरु स्वरूप मानकर गोवर्धन पर्वत की श्रद्धालुओं द्वारा  परिक्रमा देने का भी विधान है।

हिंदू सनातन शास्त्र परम्परा मे इस तिथि पर परमेश्वर शिव ने दक्षिणामूर्ति का रूप धारण किया और ब्रह्मा के चार मानसपुत्रों को वेदों का अंतिम ज्ञान प्रदान किया था। इसी दिन को हमारे राष्ट्र पिता महात्मा गांधी अपने आध्यात्मिक गुरु श्रीमद राजचन्द्र सम्मान देने के लिए उत्सव मनाते थे।

उनका पूरा नाम श्रीमद राजचन्द्र यारायचन्दभाई रावजीभाई मेहता था।उनका जन्म 1867 को वावानिया पोर्ट, गुजरात में हुआ था। वह एक जैन कवि, दार्शनिक और विद्वान थे। महात्मा गांधी जी ने अपनी आत्मकथा “सत्य के साथ प्रयोग” में इनका विभिन्न स्थानों पर उल्लेख करते हुए लिखा है कि “वह मेरे जीवन पर गहरा प्रभाव डालने वाले मेरे आध्यात्मिक मार्गदर्शक थे।”

इस गुरु पर्व को भारत, नेपाल और भूटान में हिन्दू, जैन और बोद्ध धर्म के लाखों अनुयायी उत्सव के रूप में मनाते हैं। हिंदू सनातन धारा में  इस तिथि से ही चतुर्मास का आरंभ माना जाता है। इसके बाद से चार महीने तक हिन्दू,बौद्ध एवं जैन परिव्राजक जो वर्ष भर भ्रमण करते रहते है, किसी एक स्थान पर ही रुक जाते है जिसे चतुर्मास प्रवास कहा जाता है और उसी स्थल पर रुक कर ध्यान, मनन, चिंतन एवं स्वाध्याय,साधना करते हुए साधु-सन्त एक ही स्थान पर रहकर अपने संचित ज्ञान का उपदेश दे कर समाज मे ज्ञान की गंगा बहाते हैं।

ये चार महीने मौसम की दृष्टि से भी सर्वश्रेष्ठ होते हैं। जलवायु और भौगोलिक दृष्टि से भी यह चतुर्मास में न अधिक गर्मी और न अधिक सर्दी होती है और चतुर्मास में वर्षा काल होने से यात्रा और भृमण में बाधा पहुंचती है अतः इस काल को परिवार्जको का भी एक ही स्थल पर रुकना व स्वाध्याय- अध्ययन के लिए उपयुक्त माने जाता हैं।

इस काल मे जैसे सूर्य के ताप से तप्त भूमि को वर्षा से शीतलता एवं फसल पैदा करने की शक्ति मिलती है, वैसे ही गुरु-चरणों में उपस्थित से साधकों को ज्ञान, शान्ति, भक्ति और योग शक्ति प्राप्त करने की शक्ति मिलती है।

समस्त हिन्दू,जैन एवं बौद्ध ग्रंथों में साधु संतों और स्वयं महात्मा बुद्ध का चतुर्मास प्रवास में ठहराव और अनुयायियों को उपदेश देने का वृतांत मिलता है और वर्तमान में भी सभी परिवर्जक इस सनातन परंपरा का निर्वहन करते आ रहे है और प्रायः देखे जाते है।

हिंदू सनातन शास्त्र के अनुसार इस तिथि पर आषाढ़ पूर्णिमा को मेघों से आच्छादित चांद होता है अर्थात प्रतीक रूप में इस तिथि पर गुरु पूर्णिमा-चंद्र का स्वरुप बनकर आषाढ़ रुपी शिष्य के अंधकार को दूर करने का प्रयास करता है।

शिष्य अंधेरे रुपी बादलों से घिरा होता है जिसमें पूर्णिमा रूपी गुरू प्रकाश का विस्तार करता है जबकि शरद पूर्णिमा का चांद स्पष्ट व सुंदर होने पर भी  अकेला होता है, क्योंकि आकाश बादलों से रहित खाली है। वहां शिष्य है ही नहीं, गुरु अकेला होता है…दूसरी ओर आषाढ़ पूर्णिमा गुरु-शिष्य के सम्मिलन का प्रतीक है।

जिस प्रकार आषाढ़ का आकाश बादलों से घिरा ज्योतिर्मय होता है उसमें गुरु अपने ज्ञान रुपी पुंज की ज्योति शिष्यों में बांटकर उन्हें भी ज्योतिर्मय कर देता है। इस ज्योति की सार्थकता से पूर्ण ज्ञान का का आगमन भी होता है और ज्ञान रूपी ज्योति का विस्तार भी होता है।

गुरु पूर्णिमा पर शिष्य भी अपने गुरु के ज्योतिर्मय रूप से चंद्रमा की तरह उज्जवल और प्रकाशमान होते हैं। गुरु के तेज के समक्ष तो ईश्वर भी नतमस्तक हुए बिना नहीं रह पाते। अतः आषाढ़ पूर्णिमा का जीवन मे गुरु पूर्णिमा के रूप में विशेष महत्व है।

सच्चे गुरु से जुड़कर ही जीव अपनी जिज्ञासाओं को समाप्त करने में सक्षम होता है। उसका साक्षात्कार प्रभु से होता है। हम तो  केवल साध्य हैं किंतु गुरु वह शक्ति का तेजपुंज है जो अपने तप से तपोमयी हो कर हमारे अंतःकरण में अपनी ज्ञान संजीवनी का रोपण और समुचित देखभाल कर चित्त को निर्मल कर देती है और भक्ति के भाव को आलौकिक करके उसमे शक्ति के संचार का कर जीवन के सार्थक अर्थ को अनुभव कराती है। ईश्वर से हमारा मिलन संभव हो पाता है।

भारत में मेदिनी ज्योतिष के अनुसार इस दिन संध्याकाल मे सूर्यास्त के पश्चात वायु परीक्षा के आधार पर वर्षा काल की सम्भावित भविष्यवाणी भी की जाती है। वास्तव में गुरु पूर्णिमा हमारी प्राचीन भारतीय श्रमण संस्कृति के प्रतिवर्ष नवीनतम पुनर्जीवित करने और विस्तार करने का भी पर्व है।

भारतीय धारा में श्रमण संस्कृति अत्यंत प्राचीन है। आर्य तथा आर्येत्तर सांस्कृतिक परंपराओं का यह समन्वय भारतीय सभ्यता के निर्माण की आधार-शिला सिद्ध हुई है। वस्तुतः भारतीय संस्कृति में नवीनता और प्राचीनता में बराबर संघर्ष होता रहा है। इस संघर्ष में नवीनता पनपती रही, किंतु प्राचीनता का भी सर्वथा कभी विनाश नहीं हुआ है।

श्रमण’ शब्द के तीन रूप हो सकते हैं- श्रमण, समन और शमन।श्रमण शब्द ’श्रम’ घातु से बना है जिसका अर्थ होता है परिश्रम करना। तपस्या भी उच्चकोटि का परिश्रम भीहै-‘श्राम्यन्तीतिश्रमणः तपस्यन्तीत्यर्थः’ अर्थात् जो व्यक्ति अपने तपोबल से चर्मोत्कर्ष  की प्राप्ति करते हैं, वे श्रमण कहलाते हैं।

दूसरे अर्थ में जो समान अर्थात सर्वथा समानता का दृष्टिभाव अर्थात जो प्राणीमात्र के प्रति समभाव रखे, जो राग, द्वेष से दूर रहे। यह समदृष्टि विश्वप्रेम की अद्भुत दृष्टि है “वसुधैव कुटुम्बकम” की भावना का चर्मोत्कर्ष है। ‘आत्मवत् सर्वभूतेषु’ की भूमिका पर प्रतिष्ठित साम्य-दृष्टि श्रमण परंपरा का प्राण-तत्त्व है।

श्रमण की ’सम’ अर्थपरकता को श्रीमद्भागवत व्यंजित करता है- ‘आत्मारामाः समदृशः प्रायशः श्रमणाजनाः’और तीसरे अर्थ में शमन का एक अर्थ है- शांत करना, जो अपनी वृत्तियों को शांतकर वासनाओं को त्यागकर स्वयं जितेंद्रीय हो चुका हो एवं अपने शिष्यों को भी ऐसा बनाने में समर्थ हो ,उस हेतुक संकल्प बद्ध हो ,एवं करने की कोशिश करता है, वह श्रमण है।

इतने सारे गुण केवल सद्गुरुओं या परमगुरुओ में होते हैं अतः वे ही सच्चे श्रमण भी होते है इसलिये उन सद्गुरुओं की गुरु पूजा कर शिष्य कृतार्थ होते है। सद्गुरु के गुणों व उनकी कृपा की व्याख्या कोई भी नही कर सकता।

इसलिए कबीर ने यही कहा कि -” सब धरती कागद करूँ,लेखनी सब बनराय । सात समुद्र की मसि करूँ , गुरु गुण लिखा न जाय ।”सत्य ही कहा कबीरदास जी ने..गुरु पूर्णिमा की स्वस्तिकामनाओं के साथ…!–

आलेख

डॉ नीता चौबीसा,
लेखिका, इतिहासकार एवं भारतविद, बाँसवाड़ा,राजस्थान

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