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स्वातंत्र्य समर और गोपाल कृष्ण गोखले : जयंती विशेष

गोपाल कृष्ण गोखले का जन्म 9 मई 1866 को रत्नागिरी जिले के गुहालक तालुका के कोटलक ग्रामवासी चितपावन ब्राह्मण परिवार में हुआ था। परिवार की आर्थिक स्थिति बहुत अच्छी नहीं थी फिर भी इनके लिए अंग्रेजी शिक्षा की व्यवस्था की गई ताकि गोपाल कृष्ण गोखले ब्रिटिश शासन में क्लर्क की नौकरी प्राप्त कर सके और उनका जीवन सुखी हो सके।

प्रारंभिक शिक्षा कोल्हापुर के राजाराम कॉलेज में हुई तथा स्नातक की उपाधि इन्होंने एलफिंस्टन कॉलेज मुंबई से प्राप्त की। वे शिक्षक हो गए। शीघ्र ही वे फर्ग्युसन कॉलेज पुणे में प्रधानाचार्य हो गए। उन्होंने अपनी योग्यता और समर्पण के बल पर तेजी से प्रगति की।मात्र 22 वर्ष की उम्र तक मुंबई विधानसभा के सदस्य बन गए।

इस समय तक यह स्पष्ट हो चुका था कि भारत की दशा में सुधार लाने के लिए वहाबी आंदोलन की दिशा और तरीके अनुपयोगी हैं। हिंसात्मक आंदोलन असफल होना ही था। अट्ठारह सौ सत्तावन का प्रथम स्वतंत्रता संग्राम का दमन किया जा चुका था। शेर अली द्वारा लॉर्ड मेयो की हत्या तथा वासुदेव बलवंत फाड़के प्रकार की गतिविधियां भी प्रतिरोध को आगे नहीं ले जा सकती थी। परंतु एक लाभ होता था कि इस तरह की घटनाओं से सनसनी फैलती थी तथा संबंधित व्यक्ति की वीरता के किस्से बनते थे। आम धारणा बनती थी कि अंग्रेज कुछ तो गड़बड़ करते हैं । तभी ये क्रांतिकारी लोग होशो-हवास में जानते बुझते देश के हित में अपने आप को शहीद कर रहे हैं।

अंग्रेजों की जहां तक बात है वे भारत में व्यापार करने के लिए आए थे। भारतीय शासकों की कृपा के आकांक्षी थे। भारतीयों की जीवन शैली से पूरी तरह प्रभावित थे। उन्होंने यहां की जीवन शैली के तहत पान खाना, तंबाकू सेवन करना, भारतीय फैशन के वस्त्र पहनना तथा परिवार बनाना शुरू किया था। कुछ ने तो भारतीयों की देखा देखी में छेद कर दांत में सोना मढ़वाना शुरू किया था। कंपनी की फौज में भारतीयों और यूरोपियनों का सामाजिक जीवन समानता के आधार पर था। उत्सव में संग साथ होता था। दोनों कौम के पहलवान आपस में कुश्ती भी लड़ते थे। इस तरह के घटनाक्रम की जानकारी डेल रिंपल ने White Mughals में विस्तार से वर्णित किए हैं। विलियम डेलरिंपल की पुस्तक ‘आखरी मुगल’ में भी घटनाएं वर्णित है।

लेकिन यह हालात बदल रहे थे। 1820 तक अंग्रेजों ने मराठों को पूरी तरह पराजित कर दिया तो वे अपने आपको विजेता समझने लगे। इसका उनको हक था। लेकिन वह भारतीयों को अपने से हीन समझने लगे। सामाजिक दूरी बढ़ी। उत्सव और कुश्ती में दूरी आने लगी। सहभागिता समाप्त होने लगी।

अंग्रेज अपने को उदारवादी विचारधारा की शिक्षा का पालन करने वाले बताते तथा भारतीयों को बर्बर जीवन शैली वाला। हर हाल में वे अपने को बेहतर सभ्यता वाला सिद्ध करते रहते। इस परिवेश में यह स्पष्ट था कि मध्यकालीन ढंग से अंग्रेजों का मुकाबला नहीं किया जा सकता था। अंग्रेजों को उन्हीं की प्रणाली से पराजित किया जा सकता था।

इस सूत्र को पकड़ते हुए फर्ग्यूसन कॉलेज के दौरान गोपाल कृष्ण गोखले जस्टिस महादेव गोविंद रानाडे के संपर्क में आए। रानाडे की देखरेख में ही उन्होंने अपना राजनीतिक जीवन प्रारंभ किया और इसी कारण वे जस्टिस रानाडे को अपना राजनीतिक गुरु मानते थे।

इस समय तक यह दिखने लगा था कि गोपाल कृष्ण गोखले एक असाधारण बुद्धिजीवी थे। न्यायमूर्ति रानाडे तथा जी.वी. जोशी ने उन्हें भारत की आर्थिक स्थितियों और समस्याओं का अध्ययन कराया था। गोखले वक्ता के तौर पर बहुत कुशल नहीं थे। वह लोकमान्य तिलक, दादा भाई नौरोजी तथा आर.सी. दत्त की तरह कठोर और शक्तिशाली भाषा का प्रयोग नहीं करते थे। वे फिरोज शाह मेहता की तरह से परिहास व्यंग्य और कटाक्ष में भी दक्ष नहीं थे।

एक वक्ता के रूप में गोखले विनम्र, तर्कपूर्ण, शिष्ट, अलंकार रहित लेकिन पूरी तरह से स्पष्ट होते थे। उनका ज्ञान काफी विस्तृत था सो वे अपने भाषण में तथ्यों के सतर्क, शांत और तार्किक प्रस्तुतीकरण एवं विश्लेषण पर अधिक निर्भर करते थे। उनके भाषणों से ना तो किसी का मनोरंजन होता था और ना ही कोई आहत महसूस करता था। हां यह जरूर होता था कि अपनी बौद्धिक शक्ति के कारण वे अपने पाठक और श्रोता को धीरे -धीरे अपनी गिरफ्त में ले लेते थे।

1889 में गोपाल कृष्ण गोखले भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के सदस्य बने। उनकी कार्यक्षमता और बौद्धिकता से प्रभावित नेताओं ने उन्हें 1895 में कांग्रेस का सचिव बना दिया और लंबे समय तक इस पद पर उन्होंने काम किया। 1897 के वर्ष लंदन में “भारत में खर्च पर रॉयल कमिशन” के समक्ष उन्होंने अपने विचार प्रस्तुत किए थे। इस अवसर पर मीडिया एवं लोकधारणा में वे तत्कालीन बड़े नेताओं सुरेंद्रनाथ बनर्जी, डी.ई.वाचा, दादा भाई नौरोजी तथा जी. सुब्रमण्यम अय्यर से अधिक उभरे थे।

स्वास्थ्य ठीक नहीं रहने के कारण सर फिरोजशाह मेहता 1901 में औपनिवेशिक विधान परिषद से रिटायर हुए तो उन्होंने अपनी जगह गोपाल कृष्ण गोखले को निर्वाचित करवाया। 35 वर्षीय गोखले इस समय तक सुधारक के संपादक तथा पूना सार्वजनिक सभा के सचिव के तौर पर प्रसिद्ध हो चुके थे।

गोखले न्यायमूर्ति रानाडे के योग्य शिष्य तथा फिरोजशाह मेहता के सफल उत्तराधिकारी से कुछ अधिक ही सिद्ध हुए। 26 मार्च 1902 को उनके पहले बजट भाषण ने उन्हें भारत का सबसे बड़ा संसदीय व्यक्तित्व सिद्ध कर दिया। इस मौके पर वित्त सदस्य एडवर्ड ला ने 7 करोड़ की बचत वाला बजट प्रस्तुत किया था। सदन में हर तरफ उनकी वाहवाही हो रही थी।

इस वाहवाही के माहौल में गोखले बोलने के लिए खड़े हुए। सार रूप में उन्होंने कहा “मैं अंतरात्मा के कारण बचत की इस बड़ी राशि पर बधाई देने वालों में शामिल नहीं हो सकता। यह बजट देश की स्थिति और वित्तीय स्थिति के बीच समन्वय के अभाव का नमूना है। गंभीर मंदी और गरीबी के समय इस तरह की बचत समुदाय के प्रति अन्याय है।”

गोखले के भाषण का प्रमुख बिंदु भारत की गरीबी थी। सूखे और अकाल के समय भी नमक कर की वसूली गई राशि लगातार बढ़ रही है। भारत गरीब होता जा रहा है। अपने भाषण में उन्होंने लगातार आंकड़े दिए।

लोगों पर गोखले के भाषण का असर बिजली की तरह हुआ। ऐसा लिखा गया कि “लार्ड बायरन की तरह वे भी कह सकते थे एक सुहानी सुबह वे सो कर उठे और पाया कि वे प्रसिद्ध हो चुके हैं।” उनके कटुतम आलोचकों ने भी प्रशंसा की तथा राष्ट्रीय प्रेस ने तो सिर पर उठा लिया।

अगले 10 वर्षों तक गोखले ने साहस और दृढ़ता के साथ प्रत्येक वार्षिक बजट और विधेयक का विश्लेषण किया जिससे किसानों की गरीबी भारतीय संपत्ति का दोहन, गरीबों पर टैक्स का बोझ, चिकित्सा तथा लोक कल्याणकारी सुविधा का अभाव, भारतीय अर्थव्यवस्था का पिछड़ापन तथा शासकों द्वारा भारतीय हित का दमन उजागर होता रहा।

दक्षिण अफ्रीका में गांधीजी आंदोलन चला रहे थे। लोग जेल जाते। छूटने पर फिर आंदोलन में शामिल होते और फिर जेल भेज दिये जाते। गोखले ने इस विषय पर कलकत्ते की बड़ी काउंसिल में प्रस्ताव पेश किया था। भारत में जॉर्ज पंचम का राज दरबार आयोजित होना था। सब जगह की सरकारें मामले को शांति से सुलझाना चाहती थी ताकि राज दरबार का माहौल सुखद रहे।

1912 में ब्रिटिश सरकार ने गोखले को दक्षिण अफ्रीका भेजना तय किया। गांधी जी के साथ उनका लगभग 15 वर्षों से संबंध चला आ रहा था। गोखले दक्षिण अफ्रीका पहुंचे तो वहां की सरकार ने उन्हें सरकारी अतिथि माना। रेलवे ने उनकी यात्रा के लिए सैलून की व्यवस्था की। गांधीजी मिलने केपटाउन पहुंचे और महीने भर की यात्रा में दुभाषिए और अनुचर का काम किया। वह जिस स्टेशन पर उतरते वहां उनका स्वागत शाही ढंग से होता। स्टेशन को सजाया जाता। रोशनी की जाती। गलीचा बिछाया जाता। मानपत्र दिया जाता। गोखले को लगता कि भारतीयों पर लागू किया जाने वाला काला कानून कैंसिल हो जाएगा। उन्होंने गांधी जी को ऐसा कहा भी पर गांधी सहमत नहीं हुए। गोखले के लौटते ही साउथ अफ्रीका की सरकार ने खुलेआम घोषित कर दिया कि काले कानून को कैंसिल करने में असमर्थ हैं। गोखले का आकलन गलत हो चुका था। आंदोलन फिर से प्रारंभ कर दिया गांधी जी ने।

गोखले संवैधानिक सुधारों के माध्यम से नौकरशाही को नियंत्रित करना चाहते थे। उदारवादी गोखले 1907 में सूरत कि फूट को नहीं रोक सके। लाल-बाल-पाल के समर्थक गोखले को “कमजोर दिल का नरम नेता” कहते थे। कुछ अन्य उनकी नीति को “राजनैतिक भिक्षावृत्ति” कहते थे। अंग्रेजी सरकार उन्हें “एक छिपा हुआ राजद्रोही”कहती थी।

इस महान देशभक्त की मृत्यु 48 वर्ष की अल्पायु में 19 फरवरी 1915 को हुई तो महात्मा गांधी ने कहा – “सर फिरोजशाह मुझे अपराजेय हिमालय जैसे दिखते थे और लोकमान्य एक समुद्र की भांति पर गोखले तो गंगा थे जो सबको अपनी गोद में आमंत्रित करती है।”

गोखले से सैद्धांतिक मतभेद रखने वाले लोकमान्य तिलक ने इस अवसर पर कहा- “भारत भूमि का यह हीरा महाराष्ट्र का रत्न, देश का श्रेष्ठ सेवक आज इस श्मशान भूमि में चिरंतन सो रहा है…. इस पर निगाह डालिए और इसका अनुकरण करने की कोशिश कीजिए।”

सह लेखक_ 
श्री सनबरसन साहू
सहा. प्राध्यापक (राजनीति शास्त्र)
नवीन शासकीय महाविद्यालय मैनपुर
जिला -गरियाबंद (छ.ग.)

लेखक

प्रो. डॉ ब्रजकिशोर प्रसाद सिंह, प्राचार्य शासकीय महाविद्यालय, मैनपुर जिला गरियाबंद

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