Home / इतिहास / प्राचीन मंदिरों के मूर्ति शिल्प में उत्कीर्ण आभूषण

प्राचीन मंदिरों के मूर्ति शिल्प में उत्कीर्ण आभूषण

स्त्री एवं पुरुष दोनों प्राचीन काल से ही सौंदर्य के प्रति सजग रहे हैं। स्त्री सौंदर्य अभिवृद्धि के लिए सोलह शृंगार की मान्यता संस्कृत साहित्य से लेकर वर्तमान तक चली आ रही है। कवियों ने अपनी कविताओं में नायिका के सोलह शृंगार का प्रमुखता से वर्णन किया है तो शिल्पकार भी क्यों पीछे रहते, उन्होंने भी प्रतिमा शिल्प में सौंदर्य वृद्धि की सभी युक्तियों को कुशलता के साथ उकेरा है। मंदिरों की भित्तियों में स्थापित जब हम प्रतिमा शिल्प को देखते हैं तो नख-शिख अलकंरण दिखाई देता है, जिसमें वस्त्राभूषण अलंकरण प्रमुखता से उकेरे गए हैं।

पायल धारिणी (राजा रानी मंदिर भुवनेश्वर उड़ीसा) फ़ोटो ललित शर्मा

गुप्तकाल से मंदिर शिल्प योजना में भित्तियों में प्रतिमा शिल्प का प्रयोग दिखाई देता है। इसके पश्चात के काल में प्रतिमा शिल्प के अलंकरण में भिन्नता स्पष्ट दिखाई देती है। वस्त्रों के छापे, पहने का ढंग एवं आभूषणों की बनावट भी पृथक दिखाई देती है। इन प्रतिमाओं में हम देखते हैं कि पुरुष सौंदर्य की वृद्धि के लिए केश विन्यास, वस्त्र, माला, बाजूबंद पहने दिखाई देते हैं। जबकि स्त्रियों के आभूषण अलग दिखाई देते हैं। जिस तरह वर्तमान काल में वस्त्रों एवं आभूषणों में बदलाव फ़ैशन के आधार पर होता है उसी तरह प्राचीन काल में बदलाव दिखाई देता है।

संध्या काल ( सूर्य मंदिर कोणार्क उड़ीसा) फ़ोटो ललित शर्मा

लगभग तीस वर्षों के भ्रमण काल में मैने विभिन्न कालों में निर्मित मंदिरों के स्थापत्य एवं प्रतिमा शिल्प को देखा है। आप प्रतिमा अलंकरण को देखकर उसके निर्माण काल का अंदाजा लगा सकते हैं। आभूषण (आभरण) प्राचीन काल से ही अलंकरण का साधन रहे हैं। भारत के निवासी प्राचीन काल से आभूषन प्रिय रहे हैं जो आभूषण केश से लेकर पैरों तक धारण करते थे। केशों में चिमटी, माथे पर बेन्दा, कानों में कुंडल, गले में हार, बाजू पर बाजूबंद, कलाई में चूड़ी, कमर में कमरधनी, उंगली में अंगूठी एवं पैरों में पायल का अलंकरण होता था। वर्तमान में इन आभूषणों का प्रयोग उसी रुप में विद्यमान है।

संध्या काल ( शिवालय देवर बीजा, जिला बेमेतरा छत्तीसगढ़) फ़ोटो ललित शर्मा

प्रतिमाओं के शीर्ष पर कीरीट मुकुट दिखाई देता है। स्त्री एवं पुरुष कानों को समान रुप से विभूषित करते थे। तत्कालीन साहित्य में कुंडल एवं कर्णिका का वर्णन होता है। विविध धातुओं से निर्मित रत्नकर्णिका, दारुकर्णिका, त्रपुकर्णिका कहलाती थी। इसके अतिरिक्त आमुक्तिका आभूषण का उल्लेख मिलता है। इसमें कुंडल, आधुनिक झुमके, कर्णिका, बाली एवं आमुक्तिका को टॉप्स माना जा सकता है। घोंघे की खोल जैसे टॉप्स वर्तमान में भी दिखाई देते हैं।

नर्तकी (गणेश मंदिर हम्पी कर्नाटक) फ़ोटो ललित शर्मा

समकालीन साहित्य में कंठ में पहने जाने वाले विभिन्न प्रकार के हारों का उल्लेख है।  जिसमें सुवर्ण सूत्र, कंठ सूत्र, अर्ध हार, हार के साथ मुक्ता हारों में नील मुक्ताहार, लोहित मुक्ताहार एवं श्वेत मुक्ताहार तथा विभिन्न धातुओं से निर्मित रत्नहार, रुचक हार, हिरण्यहार, सुवर्णहार, दंतहार, काषार्पण हार चन्द्रहार प्रमुख हैं, इसके परवर्ती राजपूत काल में नौलखा हार की खूब धूम रही। कंठ आभूषणों में वनमाला का उल्लेख भी आवश्यक है। अधिकतर विष्णु की मूर्ति में वनमाला का अंकन मिलता है। बाजू में धारण करने वाले आभूषण वलय, केयूर एवं अंगद नाम से जाने गए। वलय हाथीदांत से युक्त होता था, केयूर स्वर्ण से बनता था तथा अंगद स्वर्ण एवं रजत के तारों से बनाया जाता था।

क्
कलश धारिणी देवी (जराय का मठ बरुआ सागर उत्तर प्रदेश) फ़ोटो ललित शर्मा

चूड़ियों को कटक वलय यादि कहा जाता था, इन्हें विभिन्न धातुओं से एवं आकारों में बनाया जाता था। अंगुली में पहने के लिए अंगुलिमुद्रा एवं मुद्रिका या अंगुलीयक होती थी। कई प्रतिमाओं में तो कई अंगुलियों में अंगूठी धारण किए हुए दिखाया गया है। इसके साथ ही मेखला कमर का आभूषण था इसे स्त्रियाँ धारण करती थी, यह रत्न एवं ताम्रयुक्त होती थी। इसे करधनी, किंकणी, कटक, सुवर्णसूत्र, रशना, कांची मेखला आदि कहा जाता है। घुंघरुयुक्त बजने वाली करधनी को कांचीगुण कहा गया है। पैरों में पैजनी, पायल इत्यादि धारण की जाती थी, यह लघुघंटिकायुक्त रजत एवं कांसे से निर्मित की जाती थी।

नदी देवी गंगा ( देऊर मंदिर मल्हार जिला बिलासपुर छत्तीसगढ़) फ़ोटो ललित शर्मा

प्रतिमा शिल्प में अप्सराओं, नायिकाओं एवं देवियों को भिन्न भिन्न तरह के आभूषणों से अलंकृत किया जाता था तथा उनके अनुचरों, परिचारको एवं परिचारिकाओं के शरीर पर आभूषण कम दिखाई देते हैं। उस काल में भी बड़े लोग स्वर्ण, रजत एवं बहुमुल्य रत्न जड़ित आभूषणों का प्रयोग करते थे। जिनके पास (दास दासियाँ) अधिक धन नहीं होता था वे रजत, कांसे एवं तांबे के आभूषण धारण करते थे। वर्तमान में यही परिपाटी दिखाई देती है। आभूषण हमेशा उच्चकुल एवं धनवानों के ही होते हैं।

शाल भंजिका ( मुक्तेशर मंदिर समूह भुवनेश्वर उड़ीसा) फ़ोटो ललित शर्मा

आभूषणों का महत्व सौंदर्य वृद्धि के साथ धार्मिक भी है, जिस प्रकार विवाहित स्त्रियां बेन्दा (टीका) धारण करती हैं, कुछ स्थानों पर मंगलसूत्र विवाहित एवं सौभाग्य का सूचक माना गया है। इसी तरह पुरुष भी ताबीज इत्यादि धारण करते थे। उत्खनन के दौराण अर्ध मूल्यवान रत्न अधिक प्राप्त होते हैं, जिनका आभूषणों में प्रयोग किया जाता था। स्वर्ण एवं रजत के आभूषणों में पत्थर भी जड़े जाते थे, जिन्हें रत्न कहा जाता है। गोमेद, जम्बुमणि, स्फ़टिक, सेलखड़ी, हाथी दांत, शीशा आदि जड़े जाते थे। इसके अतिरिक्त मिट्टी के मनके भी धारण किए जाते थे।

चंवर धारिणी ( विट्ठल मंदिर हम्पी कर्नाटक) फ़ोटो ललित शर्मा

उपरोक्त आलेख के लिए मैने भारत के चारों ओर के विभिन्न मंदिरों की भित्तियों में जड़ित प्रतिमाओं के चित्रों को जुटाया है। इनमे एक चीज समान है, वह है कि किसी भी प्रतिमा की नाक में छिद्र नहीं है अर्थात प्राचीन काल में नाक में नथ, कील, लौंगादि आभूषण धारण नहीं किए जाते थे। कुछ विद्वानों का मत है कि कुषाण काल तक की प्रतिमाओं में नाक का आभूषण प्राप्त नहीं होता। मेरे द्वारा खींचे गए चित्रों में आठवीं शताब्दी से लेकर चौदहवी एवं पन्द्रहवी शताब्दी तक की प्रतिमाएँ जुटाई गई है। जिसमें किसी ने भी नाक का आभूषण नहीं पहना है।

क्षीर सागर में शेष शैया पर भगवान विष्णु एवं देवी लक्ष्मी (लक्ष्मीनारायण मंदिर ओरछा) फ़ोटो ललित शर्मा

अब प्रश्न यह उठता है कि महिलाओं द्वारा नाक में आभूषण कब से पहने जाने लगा। इसका जवाब भी मंदिरों से प्राप्त होता है। जब मैं ओरछा भ्रमण कर रहा था तब लक्ष्मीनारायण मंदिर की भित्तियों पर अठारवीं शताब्दी की भित्ति चित्रकारी दिखाई थी। इस चित्रकारी में रामायण के प्रसंगों से लेकर अंग्रेजों के साथ युद्ध तक को प्रदर्शित किया गया है। इन भित्ति चित्रों में कृष्ण राधा के उपवन विहार का प्रसंग भी दिखाई देता है, इस चित्र में सभी महिलाओं ने नाक में नथ पहन रखी है। शेष शैया पर विश्राम करते विष्णु के चित्र में भी लक्ष्मी की नाक में नथ पहनाई गई है। इससे स्पष्ट होता है कि नाक में आभूषण पहनने की परम्परा मुगल काल में प्रारंभ हुई और अद्यतन जारी है।   

आलेख

ललित शर्मा इण्डोलॉजिस्ट रायपुर, छत्तीसगढ़

About hukum

Check Also

झालावंश की सात पीढ़ियों ने राष्ट्र के लिये प्राण न्यौछावर किये

17 मार्च 1527 : खानवा के युद्ध में अज्जा झाला का बलिदान पिछले डेढ़ हजार …

One comment

  1. छत्तीसगढ़ की सांस्कृतिक विरासत बहुत वैभवशाली रही होगी आपके लेख की प्रस्तुति यह प्रमाणित करने के लिए काफी है बहुत ही सारगर्भित व महत्वपूर्ण है । शानदार लेख

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *