दीपावली के अगले दिन अर्थात कार्तिक शुक्ल प्रतिपदा को गोवर्धन पूजा किया जाता है। विष्णु पुराण, वराह पुराण तथा पदम् पुराण के अनुसार इसे अन्नकूट भी कहा जाता है। श्रीमद्भागवत महापुराण के अनुसार भगवान कृष्ण के द्वारा सबसे पहले गोवर्धन पूजा की शुरुआत की गईं तब से यह पर्व मनाया जाता है।
भारत देश के हृदय स्थल राज्य छत्तीसगढ़ अंचल में इस दिन गौरी-गौरा विवाह उत्सव शहर नगर कस्बा गाँव गाँव के चौक चौराहों में बहुत ही धूमधाम से मनाया जाता है। यह लोक परम्परा में जनजातीय संस्कृति का उत्सव है। विशेषकर गोंड़ जनजाति के लोग इसे मनाते है लेकिन अब सभी समाज के लोग उत्साह पूर्वक शामिल होकर मनाते है।
इस उत्सव में एक दिन पूर्व शाम (दीपावली की शाम) को सामूहिक रूप से लोक गीत का गायन करते जाकर तालाब आदि शुद्ध स्थान से मिटटी लेकर आते है। फिर उस मिटटी से रात के समय अलग अलग दो पीढ़ा में गौरी(पार्वती)तथा गौरा (शिव जी) की मूर्ति बनाकर चमकीली पन्नी से सजाया जाता है।
सजा-धजा कर उस मूर्ति वाले पीढ़े को सिर में उठाकर बाजे-गाजे के साथ गाँव के सभी गली से घुमाते-परघाते चौक-चौराहे में बने गौरा चौरा के पास लेकर आते है। इस चौरा को लीप पोतकर बहुत सुंदर सजाया गया रहता है।
इसमें गौरी गौरा को पीढ़ा सहित रखकर विविध वैवाहिक नेग किया जाता है। उत्साहित नारी कण्ठ से विभिन्न लोक धुनों से गीत उच्चारित होने लगते है। जिसे गौरा गीत कहा जाता है। इस तरह गीत के माध्यम से समस्त वैवाहिक नेग-चार व पूजा पाठ पूरी रात भर चलता है।
गोवर्धन पूजा के दिन प्रातः विदाई की बेला आती है। परम्परा अनुसार समस्त रस्मों के बाद लोक गीत गाते बाजे गाजे के साथ पुनः गोरी गौरा को लेकर गाँव के सभी गली चौराहों में घुमाते हुए तालाब में इन मूर्तियों को सम्मान पूर्वक विसर्जित किया जाता है।
फिर घर आकर गोवर्धन पूजा की तैयारी किया जाता है। इसे देवारी त्यौहार भी कहा जाता है । सुबह घर के दरवाजे के सामने गाय के गोबर से शिखर युक्त गोवर्धन पर्वत बनाकर वृक्ष-शाखा व पुष्पों से सुशोभित किया जाता है।
गौ माताओं तथा सभी पशु धन को नहला धुला कर, आभूषणों से सुसज्जित कर, गोवर्धनधारी भगवान श्री कृष्ण के साथ षोडशोपचार पूजा किया जाता है। फिर 56 प्रकार के भोग तथा कई प्रकार की सब्जियों को मिलाकर संयुक्त पाक बनाकर भगवान को भोग लगाया जाता है। इस 56 भोग को गौ माता तथा सभी पशु धनों को भी खिलाया जाता है।
छत्तीसगढ़ में गौ पूजन की विशेष महत्ता है। यहाँ गोवर्धन पूजा को राऊत (यदु ) जाति का विशेष त्यौहार कहा जाता है। मूलतः राऊत अपने आपको श्रीकृष्ण जी के वंशज मानते हैं तथा इनकी पोशाक भी पूरी तरह से भगवान कृष्ण जी की तरह ही पैरोँ में घुंघरू, मोर पंख युक्त पगड़ी तथा हाथ में लाठी रहती है।
दशहरा के बाद किसी दिन शुभ समय मे राऊत समाज सुसज्जित होकर नाचते कूदते गांव के बाहर दैहान (गाय बछड़ो के एक जगह ठहरने का स्थान) में अखरा की स्थापना करते है। 4 पत्थरों के बीच एक लकड़ी का खम्भा गडाया जाता है जिसे ये अपना इष्ट देव मानते है। सभी राउत लाठी लिये नृत्य करते हुए बीच-बीच में राम चरित मानस के दोहों का गायन करते है।
गौ पूजन के इस त्यौहार में प्रायः सभी घरों की गायों के गले में एक विशेष प्रकार के हार ( सुहाई ) पहना कर पूजा की जाती है। इस सुहाई को पलाश के जड़ की रस्सी व मोरपंख को गूँथ कर बनाया जाता है। राउत लोग गांव के हर घर में जाकर गायों को सुहाई बांधकर दोहा गायन करके आशीष वचन बोलते है बदले में घर के मुखिया राऊत को अन्न वस्त्र आदि दक्षिणा भेंट देते है।
इसके बाद गाँव के साहड़ा देव के पास गोबर से गोवर्धन बनाकर गाय बैलों के समूह को उसके ऊपर से चलाया जाता है। इसे गोवर्धन खुंदना कहते हैं। फिर इस गोबर को सभी लोग एक दूसरे के माथे पर टीका लगाकर प्रेम से गले मिलते है या आशिर्वाद लेते है।
इस तरह महापर्व के चौथे दिन को बड़े उत्साह पूर्वक मनाया जाता है। इस पर्व को अपने परिवार भाई बन्धुओ सहित मनाने के लिये दूर दराज जीवन यापन के लिये निवास करने वाले लोग भी परिवार सहित अपने मूल निवास पर आते है।
आलेख
बहुत ही बढ़िया,ललित शर्मा भाई।आपने छत्तीसगढ़ की संस्कृति को संवारने और बढ़ाने का प्रयास किया है। हमे सभी को भी इस दिशा में सामूहिक योगदान देना चाहिए। 🤝🤝 @lalit.com