मनुष्य में जन कल्याण की भावना तो जन्म के पश्चात संस्कारों के साथ ही पल्लवित एवं पुष्पित होती है, जब मनुष्य आत्म कल्याण के साथ जग कल्याण के विषय में अग्रसर होता है तो तब वह संत कहलाता है। उसके हृदय में समस्त समष्टि के लिए कल्याण की भावना होती है। ऐसा कार्य बिना ईश्वरीय प्रेरणा के नहीं होता। कहीं वह सुक्ष्म तरंगे होती हैं जो मनुष्य की चेतना को प्रभावित करती हैं और वह लोक कल्याण के लिए निकल पड़ता है, यह सनातन परम्परा है। ऐसे ही एक संत श्री गहिरा गुरु जी थे।
सनातन धर्म संत समाज के संस्थापक एवं सूत्रधार परम् पूज्य संत श्री गहिरा गुरु जी का जन्म रायगढ़ जिले के गहिरा नामक ग्राम में एक जनजातीय कँवर परिवार में सन 1905 में श्रावण मास में हुआ था। गहिरा ग्राम लैलूंगा से 15 किलो मीटर की दूरी पर उड़ीसा से लगा सघन वनों से घिरा पर्वतीय क्षेत्र है। इनकी माता का नाम सुमित्रा और पिता का नाम बुदकी कँवर था। इनका नाम रामेश्वर था ,किंतु गहिरा ग्राम में जन्म लेने के कारण इनका नाम गहिरा गुरु हो गया।
अलौकिक शक्ति के धनी गहिरा गुरु के लिए दीन-दुखियों की निःस्वार्थ सेवा ही प्रथम कर्त्तव्य और धर्म था। गृहस्थ आश्रम में रहते हुए उन्होंने निष्काम योगी की तरह सदैव भक्ति, ज्ञान एवं कर्म का अद्भुत आदर्श लोक के समक्ष प्रस्तुत किया।
श्रावण मास की अमावस्या, सन् 1943 में इन्होंने सनातन धर्म संत समाज की स्थापना की। सुदूर वनांचल में इतनी ख्याति हो गयी की लोग इन्हें भगवान का अवतार मानने लगे। वनवासी समाज को सनातन धर्म के दैनिक संस्कारों से परिचित कराने का कार्य भी इन्होंने किया। सोलह संस्कार, वैदिक विधि से विवाह करना, शुभ्र ध्वज लगाना एवं उसे प्रतिमाह बदलना आदि गहिरा गुरु द्वारा स्थापित सनातन धर्म संत समाज के प्रमुख सूत्र थे।
श्री गहिरा गुरु जी राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ से प्रथम परिचय अम्बिकापुर के प्रचारक श्री भीमसेन चोपड़ा द्वारा हुआ। आगे चलकर भीम सेन भी गहिरा गुरु के सानिध्य में आध्यात्म मार्ग पर चल पड़े। गहिरा गुरु जी ने रायपुर, कापू, मुंडेकेला, सीतापुर, प्रतापगढ़, कोतवा आदि सहित अन्य स्थानों पर भी अपने शिष्य बनाए। उनके शिष्यों की संख्या दो लाख पहुंच गई।
राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के द्वितीय सरसंघचालक श्री माधवराव सदाशिव गोलवलकर (गुरुजी) से गहिरा गुरु जी का प्रथम परिचय जशपुर के कल्याण आश्रम के नवीन भवन के उद्घाटन के समय हुआ। इसके पश्चात गहिरा गुरु जी के संघ से निकट संबध बन गये।
वनवासी समाज एवं ग्रामवासियों के प्रति गहिरा गुरु जी के हृदय में दया, प्रेम और सहानुभूति की भावना सदैव रही। वनवासी समाज के लोगों के उत्थान हेतु इन्होंने अथक प्रयास किया। उनके रहन-सहन, आचार-विचार, जीवन स्तर को सुधारने एवं उन्हें समाज में प्रतिष्ठित करने के लिए अपना सम्पूर्ण जीवन समर्पित कर दिया।
पिछड़े, दलित जनजाति वर्ग को उनकी सभ्यता व संस्कृति के महत्व से परिचित कराते हुए उनमे नवचेतना का संचार किया। अपनी सभ्यता व संस्कृति से विमुख हो धर्मांतरण कर के ईसाई धर्म अपनाने में लगे वनवासी समाज को उनके मूल धर्म में लाने के लिए प्रयास किया दीन हीन, उपेक्षित, कमजोर उरांव जाति के लोगो का हौसला बढ़ाया। उनका मार्ग दर्शन करते हुए उन्हें बताया कि वे पराक्रमी और महाबली भीम के पुत्र घटोत्कच के वंशज हैं, वे निरीह, कमजोर नही हैं वे शक्ति पुंज है।
संत गहिरा गुरु ने सामरबार, कुसुमी, कैलाश गुफा, सरगुजा, जशपुर, रायगढ़ जैसे सुदूर वनांचलों में भ्रमण कर सनातन धर्म के प्रति वनवासी समाज एवं ग्रामवासियों के मन में आस्था की ज्योति जलाई। आत्मसम्मान व स्वाभिमान की भावना को जाग्रत करते हुए उनका उद्धार किया। फलस्वरूप वनवासी उन्हें भगवान का अवतार मान कर उनकी पूजा-अर्चना करते हैं।
संत गहिरा गुरु ने समाज में फैली कुप्रथा बलि प्रथा का त्याग कराते हुए वैदिक विधि विधान से पूजन करना सिखाया। साथ ही गुरु-शिष्य परम्परा का भी निर्वाह किया। आज उनके बताये गए अध्यात्म मार्ग पर चलने वाले लाखों शिष्य और अनुयायी हो गए हैं।
संत गहिरा गुरु ने धर्म, सद्ज्ञान और ईश्वर की उपासना के द्वारा ना केवल सामाजिक वरन आर्थिक परिवर्तन का संदेश दिया। मानव समाज में सदभावना, प्रेम, शांति का पाठ सिखाने एवं अपनी सभ्यता -संस्कृति की रक्षा और इसके अस्तित्व को बचाये रखने के उद्देश्य से इन्होंने सुदूर वनवासी अंचलों में संस्कृत पाठ शालाओं, आश्रम, विद्यालय एवं संस्कृत महाविद्यालय की स्थापना भी की।
परमपूज्य गुरु जी एवं सनातन समाज गहिरा के सिद्धांतों व सेवा कार्यों से प्रभावित होकर छत्तीसगढ़ शासन ने परम् पूज्य गहिरा गुरूजी की स्मृति में गहिरा गुरु पर्यावरण पुरस्कार स्थापित किया गया है। साथ भूतपूर्व मुख्यमंत्री डॉक्टर रमन सिंह जी ने अंबिकापुर सरगुजा विश्वविद्यालय को संत गहिरा विश्वविद्यालय नाम से अलंकृत किया ।
ऐसे महान संत गहिरा गुरु 21 नवम्बर सन 1996 को देवोत्थानी एकादशी के दिन ब्रम्हलीन हो गए। संत गहिरा गुरु के सिद्धान्त, उनकी संकल्पशीलता, सतत साधना, निःस्वार्थ सेवाभावना, वर्तमान में भी समस्त मानव समाज का मार्ग प्रशस्त कर नई ऊर्जा प्रदान कर रही है।
फ़ोटो – ललित शर्मा
आलेख