छत्तीसगढ़ का लोकनाट्य मूलः ग्राम्य जन-जीवन और लोक कलाकारों का उत्पाद है। यह गाँवों से निकलकर नगरों और महा नगरों तक पहुँचा और ख्याति प्राप्त करते हुए एक लम्बी यात्रा की। छत्तीसगढ़ ही नहीं देश के अन्य प्रांतों के भी लोकनाट्य वाचिक परंपरा के ही उद्भव हैं। वाचिक परंपरा से इनका उद्भव होने के कारण ये आने वाली पीढ़ी में स्वतः स्थानांतरित होते गए।
लोक ने अपनी पूँजी को कभी भी गुप्त नहीं रखा, बल्कि उदार मन से आने वाली पीढ़ी को सौंपा। इसमें कहीं भी कॉपीराइट का झगड़ा नहीं रहा। लोक से प्राप्त पूँजी को दूसरी पीढ़ी ने परिवर्तित और संवर्धित करते हुए नए संदर्भों के साथ अभिव्यक्ति दी और उसमें तत्कालीन समाज को निरूपित करते हुए सांकृतिक, धार्मिक और आंशिक पक्षों को भी उद्घाटित किया।
वाचिक परंपरा से इसका जन्म कैसा और कब हुआ यह कहना या इसका काल निर्धारण करना संभव जान नहीं पड़ता, किन्तु यह सत्य है कि इसके पीछे निश्चित ही बड़ा कारण रहा होगा, जिसका संबंध सामाजिक सरोकार से होगा। वाचिक परंपरा में जो भी ज्ञान है, उसका संबंध किसी न किसी रूप में सामाजिक सरोकारों से है। चाहे वह गीत हो, आख्यान हो या कहावतें व मुहावरे। वस्तुतः कहा जाए तो लोकनाट्य मूलतः लोकमत ही है।
भारत में नाट्य की परंपरा अत्यंत प्राचीन काल से चली आ रही है। भरत मुनि ने अपने नाट्य-शास्त्र में इसकी विषद व्याख्या की है। नाट्य-शास्त्र के वर्णन से पता चलता है कि देवताओं की प्रार्थना पर ब्रह्मा ने मानवों के मनोरंजन के लिए नाट्य शास्त्र की रचना की, जिसे पंचम वेद कहा गया। लोकहित में नाट्य-शास्त्र मनोरंजन हेतु सार्थक हुआ।
वास्तव में लोक और लोक की मनोदशा को समझना कठिन है, यदि लोक को समझना है, तो लोक के निकट जाना होगा और उसकी अभिव्यक्ति के पक्षों को जानना होगा। लोकनाट्य भी लोक की अभिव्यक्ति का एक पक्ष है। लोकमत तभी बनता है जब लोक घटनाओं के संबंध में सोचता है और विश्लेषण कर एक निश्चित निष्कर्ष तक पहुँचता है। यदि लोक में कटुता है तो ‘‘मही माँगे बार जाए अउ, ठेकवा लुकाय।’’ जैसी स्थिति होती है।
छत्तीसगढ़ के लोकनाट्य में विविधता है और यह यहाँ की संस्कृति से आप्लवित है। छत्तीसगढ़ लोकनाट्य में नाचा और रहस का प्रमुख स्थान रहा है, किंतु आदिवासी अंचल लंबे समय से बाहरी दुनिया से अलग रहा है। अपनी भौगोलिक स्थिति के कारण आदिवासी कला बाह्य प्रभावों से सदैव बची रही है। बस्तर से लेकर सरगुजा तक आदिवासी समुदायों में विद्यमान लोकनृत्य, लोकगीत, मिथ कथाएँ, संगीत आदि अपने प्राचीन स्वरूप में आज भी सुरक्षित हैं।
सरगुजा और रायगढ़ में सरहुल, कर्मा छत्तीसगढ़ के मैदानी भागों में ददरिया, डंडा, सुआ नृत्य तो बस्तर में हुल्की ककसाड़ और गौर सिंग नृत्य अपने परंपरागत शैलियों में आज भी विद्यमान हैं। इन गीत-नृत्यों के अतिरिक्त छत्तीसगढ़ में कुछ परंपरागत मंचीय कलाओं ने भी अपना अस्तित्व बनाए रखा है, जिसमें भतरा, माओपारा, नाचा, पण्डवानी, रहस, राऊत-नाचा आदि प्रमुख हैं।
भतरा :- यह नाच दो रूपों में प्रचलित है।यह उड़ीसा से लगने वाले बस्तर के पूर्वी क्षेत्र में प्रचलित है, जहाँ भतरा जनजाति के लोग निवास करते हैं। इस नाट्य में प्रमुख रूप से भतरा जनजाति के लोग भाग लेते हैं। इसलिए इस शैली का नामकरण उन्हीं के नाम पर हो गया। भतरा लोकनाट्य में भरतमुनि के नाट्य शास्त्र की अनेक बातें विद्यमान हैं। नट-नटी का प्रवेश और प्रस्तावना, मंचन के पूरे समय तक विदूषक का टेढ़ी-मेढ़ी लकड़ी लेकर उपस्थित रहना, नाट्य प्रारंभ होने के पहले गणेश और सरस्वती की आराधना करना आदि अनेक तत्व भतरा लोकनाट्य में आज भी विद्यमान हैं।
माओपाटा:- यह बस्तर का दूसरा लोकनाट्य है। यह विशेषकर मुरिया जनजाति में प्रचलित है। यह लोकनाट्य शिकार कथा पर आधारित है, जिसमें आखेट पर जाने की तैयारी से लेकर शिकार पूर्ण होने तक और शिकारी की घर वापसी पर समारोह मनाने की तैयारी आदि घटनाओं का नाटकीय वर्णन होता है। माओपाटा सामूहिक आखेट पर आधारित नृत्य नाट्य है, जिसे पुरूष एक स्थान पर एकत्र होकर करते हैं। गाँव की स्त्रियाँ उनकी मंगल कामना करते हुए गीत गाकर उन्हें विदा करती हैं। शिकारी वन में जाकर विभिन्न प्रकार की ध्वनियाँ निकालते हैं, जिससे वहाँ एक वन्य-पशु आता है। शिकारी उसे घेरते हैं, वन्य-पशु एक शिकारी पर आक्रमण करके उसे घायल कर घेरा तोड़कर भाग जाता है। शिकारी चेतनाहीन हो जाता है। उसके साथी उसे गाँव में लाकर गुड़ी ले जाते हैं। सिरहा घायल व्यक्ति की जाँच करता है और देवी- देवताओं का स्मरण करते हुए पराशक्तियों का आह्वान करता है। परिणामस्वरूप उसकी चेतना लौट आती है, तब स्त्रियाँ मंगलगान करती हैं।
पण्डवानी:- छत्तीसगढ़ के मैदानी भाग में नाचा और रहस के साथ-साथ एक और विशेष लोकनाट्य पण्डवानी के रूप में प्रचलित है। छत्तीसगढ़ में पण्डवानी की दो शैलियाँ विद्यमान हैं, एक वेदमती और दूसरी कापालिक। पण्डवानी मूलतः पाण्डवों की गौरव गाथा है, जिसे पण्डवानी के गायक कलाकार लोकतत्वों को सम्मिश्रित कर प्रस्तुत करते हैं और उसे लोक रंजक बना देते हैं। इसमें मूल आख्यान के साथ-साथ लोक शिक्षा और हास्य के भाव भी होते हैं।
नाचा:- छत्तीसगढ़ में लोकनाट्य की परंपरा अन्य प्रांतों के सदृश समृद्ध और व्यापक है।यह यहाँ के लोक की अभिव्यक्ति मात्र नहीं है, बल्कि लोक-जीवन के साथ-साथ प्रांत की संस्कृति का प्रदर्शन भी है। छत्तीसगढ़ के लोकनाट्यों में लोक रंजकता के साथ-साथ लोक शिक्षण को भी देखा जा सकता है। छत्तीसगढ़ में लोकनाट्य का आधार स्तंभ नाचा है। यह नाचा मशाल नाचा या खड़े साज का परिवर्तित और आधुनिक स्वरूप है, जो संवाद, गीत, नृत्य और अभिनय का सम्मिश्रण है। हास्य, व्यंग्य और लोक-शिक्षण के साथ सांगीतिक अभिव्यक्ति नाचा की मूल विशेषता है।
छत्तीसगढ़ के मैदानी क्षेत्र में लोकनाट्य के रूप में नाचा प्रमुख लोकनाट्य है, जिसमें छत्तीसगढ़ के जन-जीवन के सुख-दुख, हर्ष-विषाद, संघर्ष और पीड़ाओं के अतिरिक्त तत्कालिक समाज में व्याप्त कुरितियों की मनोरंजक ढ़ंग से प्रस्तुति है। नाचा के कथानक में मूल रूप से लोक शिक्षा ही है, किन्तु लोक कलाकार लोक शिक्षा को सहज रूप से लोक में पहुँचाने के लिए इसमें हास्य का सुन्दर समावेश करते हैं। नाचा में सहज और उन्मुक्त अभिनय तथा मंच पर कथानक रचने का सृजन सुख दिखाई देता है। जोकर और स्त्री वेष में पुरूष की उपस्थिति (जनाना) नाचा की बेहद प्रभावशाली विशेषता है।
नाचा आगे चलकर लोक सांस्कृतिक मंत्र के रूप में परिवर्तित हुआ। दाऊ रामचन्द्र देशमुख और दाऊ महासिंह चन्द्राकर ने इसे परिमार्जित कर संस्कृतिक संस्था के रूप में देश के अन्य भागों में ख्याति प्रदान की। नाट्य निर्देशक श्री रामहृदय तिवारी के लोरिक- चंदा, लक्ष्मण चन्द्राकर की हरेली और दीपक चन्द्राकर का गम्मतिहा ने नाटकों को प्रदर्शित कर नाचा को विशेष ख्याति प्रदान की। छत्तीसगढ़ के नाचा को अन्तरराष्ट्रीय ख्याति दिलवाने में हबीब तनवीर का विशेष योगदान है। मूलतः नाचा अपने परनिष्ठित रूप में दाऊ मंदराजी के प्रयासों से आया।
रहस:- रहस मूलतः कृष्णलीला का ही एक लोक रूप है। यह लोकनाट्य वैष्णव भक्ति आंदोलन से प्रेरित है, इसलिए इसमें धार्मिक अनुष्ठान के भाव भी हैं।रहस का आयोजन एक यज्ञ की भाँति किया जाता है। गाँव में जगह-जगह महाभारत के पात्रों की विशाल प्रतिमाएँ बनाई जाती हैं और उस प्रतिमा स्थल पर तथा मंचों पर मंचन किया जाता है। रहस के भी दो रूप छत्तीसगढ़ में प्रचलित हैं, एक रहस जो मूलतः पौराणिक आख्यानों पर आधारित है और दूसरा पौराणिक आख्यानों के साथ-साथ लोक रंजकता लिए हुए है। जिसमें लोकशिक्षा के साथ-साथ मनोरंजक के पुट भी हैं।
राऊत नाचा:- राऊत नाचा छत्तीसगढ़ अंचल के महत्वपूर्ण लोकनाट्य की शैली है जिसमें छत्तीसगढ़ की लोक संस्कृति सर्वोपरि है। राऊत नाचा मूलतः यदुवंशियों का नृत्य है, जिसमें दोहे के माध्यम से अपने भावों की अभिव्यक्ति की जाती है। ये दोहे कहीं पारंपरिक होते हैं तो कहीं लोक जीवन से संबंधित।। राऊत-नाचा को वीरता और शौर्य के प्रतीक के रूप में भी देखा जा सकता है। यह नृत्य यादव समाज के लोगों द्वारा पारंपरिक वेशभूषा में सुसज्जित होकर किया जाता है।
निष्कर्षतः यह कहा जा सकता है कि लोक लोकनाट्यों के माध्यम से श्रम और उल्लास की अभिव्यक्ति करता है। इस अभिव्यक्ति में कहीं न कहीं उनकी संस्कृति, पर्व और परम्पराओं का समावेश होता है। हम यह भी कह सकते हैं कि लोकनाट्य क्षेत्र विशेष को अभिव्यक्त करता है। ये जाति, धर्म, संप्रदाय से ऊपर उठकर प्रेम और आपसी भाईचारे का संदेश देते हैं। इसके मूल में मनुष्य, उसका जीवन, उसकी कर्मठता उसकी जिजीविषा है।
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