छत्तीसगढ़ की समृद्ध संस्कृति का हिस्सा है सुआ गीत। यह छत्तीसगढ़ प्रदेश की गोंड जाति की स्त्रियों का प्रमुख नृत्य-गीत है लेकिन अन्य जाति के महिलाएं भी इसमें सम्मिलित होकर नृत्य करती हैं। जिसे सामूहिक रुप से किया जाता है। यह मुख्यतः महिलाओं के मनोभावों सुख-दुख आदि की अभिव्यक्ति का माध्यम होता है।
कार्तिक मास में दीपावली के समय मनाये जाने वाले ‘गौरा उत्सव’ जो कि गोंड जाति का एक प्रमुख पर्व है गौरा अर्थात् माता पार्वती तथा गौरा उत्सव शिव-पार्वती के विवाह का उत्सव है। गौरा पर्व से प्रारंभ हो कर यह अगहन मास तक चलता है। यह दिन के समय किया जाने वाला नृत्य है तथा इसमें केवल महिलायें ही सहभागी होती हैं इसमें पुरुषों का सहयोग अपेक्षित नहीं होता।
माता पार्वती की तपस्या को मानों अपने जीवन में चरितार्थ करने के लिये वे ‘गौरा’ की स्थापना कर शिव जी को सुआ (शुक/तोता) के माध्यम से अपने मनोव्यथा का संदेश भेजती हैं। शीतकाल में जब ये महिलायें लय और ताल के साथ गीत गाते हुए नृत्य करती हैं तो मानों इनके गीतों की स्वर लहरियों की उष्णता से शरद की शीतलता भी उष्णमय हो जाती है।
सर्वप्रथम वृत्ताकार खड़े होकर ये दो दलों में विभाजित हो जाती हैं, एक दल नृत्य एवं गीत आरंभ करता है और दूसरा दल उसे दोहराता है। एक मिट्टी अथवा लकड़ी के दो सुआ या सुग्गा की मूर्ति जिसे सुंदर रंगों से सजाकर एक टोकरी में जिसमें धान भरा होता है उस पर एक साफ कपड़ा बिछाकर रखा जाता है। इसे एक बालिका अपने सिर पर उठाये रखती है। इस बालिका को “सुग्गी” कहा जाता है जो गायन टोली के सम्मुख अपना मुख बदल-बदल कर नृत्य करती रहती है।
गीत का आरंभ “तरी हरी ना मोर ना ना रे सुवना…से कर यह टोली गाँव में तथा आस-पास के क्षेत्रों में घर-घर जाकर अपना नृत्य और गीत गोल घूमते हुए दायें तथा बायें ओर तालियाँ बजाते हुए प्रस्तुत करती हैं। इसके बदले उन्हें ग्रामीणों से अनाज या धन की प्राप्ति होती है और संध्याकाल के पूर्व वे अपने घरों को लौट आती हैं। यही क्रम अनवरत अगहन मास तक चलता रहता है।
इस नृत्य में किसी प्रकार के वाद्य यंत्र का प्रयोग नहीं किया जाता है महिलाएं केवल एक लय में ताली बजाकर ही इस कमी को पूरा कर देती हैं। इस अवसर पर महिलाएं पारम्परिक छत्तीसगढ़ी परिधान और गहनों से अपना श्रृंगार करती हैं।
छत्तीसगढ़ी लोक गीतों में सुआ और करमा मानों वियोग और संयोग के गीतों के प्रतिनिधि हैं। सुआ गीत तो मानों साक्षात विरह गीत ही है। जब ललनाएं एक स्वर में सुआ को सम्बोधित करते हुए पुकार उठती हैं-
पईयाँ मैं लागँव चन्दा सुरुज के,
रे सुअना तिरिया जनम झनि देय।
अर्थात् मैं चंद्रमा और सूर्य को प्रणाम करती हूँ कि मुझे स्त्री का जन्म मत देना।
तब समस्त नारी जाति की विरह व्यंजना मानों तीव्रतम रुप में अभिव्यंजित हो उठती है और मानव मन के तार-तार को मानों झनझना देती है। इसमें आगे वह कहती है-
तिरिया जनम मोर गऊ के बराबर,
रे सुअना ! जहँ पठौए तहँ जाए।
अर्थात् स्त्री का जीवन तो एक सीधी-साधी गाय के समान है। जिसके साथ उसका सम्बंध जोड़ दिया जाता है उसे निबाहना ही पड़ता है।
इसी प्रकार एक गीत में प्रियतम के विदेश चले जाने पर ससुराल के कष्टमय जीवन को अभिव्यक्त करती हैं-
सास मोर मारय-ननद गारी देवय,
रे सुअना! के राजा मोर गये हें बिदेस!
लहुरा देवर मोरे जनम के बैरी,
रे सुअना! ले जाबे तिरिया संदेस।
इसी प्रकार जब नायिका अपने मायके में थी तब प्रियतम से अभी ससुराल में प्रथम भेंट भी नहीं हो पाई कि वे विदेश चले गये। तभी वह कह उठती है-
पहिली गवन करि डेहरी बइठारे,
रे सुअना! अब छाड़ि चले बनझारी!
जे धनिरुप रहेंव मँय अपने बपनवा,
ते धनि नाहि नया बनझारि!
प्रियतम को गये कुछ समय हो जाने पर वह आज सुआ से प्रार्थना कर रही है कि मेरा संदेश प्रियतम के पास पहुँचा दो। सुआ ने प्रियतम को देखा तो नहीं है अतः वियोगिनी अपने प्रियतम के रुप का वर्णन करती है –
ऊँच मेन सरुवा हय काली रे अखियाँ
रे सुअना! चुहत हय मेछन के रेख।
कोदई सवांर रंग सुग्घर सुहावन
रे सुअना! वीर बरोबर भेख।
कैसा सहज-सरल एवं भारतीय नारी के अनुरुप वर्णन है, पति का नाम नहीं ले सकती अतः उसके स्वरुप का वर्णन करती है। जिस प्रकार सीता जी ने – बहुरि वदन विधु अँचल ढाँकी, पिय तन चितै भौंह करि बांकी, खंजन मंजु तिरीछे नैननि, निज पति कहेउं तिनहहिं सिय सैननि और इशारे से ही ग्राम ललनाओं को बता दिया कि युगल कुमार में से कौन देवर है और कौन प्राणप्रिय पति! वनवासी ललनाओं में भारतीय नारी-सुलभ गुण सीता जी की भाँति आज भी विद्यमान है।
सुआ एक पक्षी है इसलिये वह असहाय है। अतः वियोगिनी को डर है कि कोई उससे संदेशपाती छीन न ले इसलिये उसे नदी-नाले, वन-पर्वत से होकर जाने को कहती है, साथ ही इन मार्गों से जाने में प्रियतम से भेंट भी हो सकती है। क्योंकि प्रिय झिन खेलत होय अहेर।
संभवतः प्रियतम शिकार खेलते हुए मिल जावें, तो वह कहती है- उन्ही ला हाथ जोर-जोर विनती सुनावे रे सुअना! पाती ला देबे गहाय। कितनी अपूर्व वेदना है कितनी मर्मस्पर्शता कितनी सरलता और कितनी गंभीरता है कि मेरी ओर से हाथ जोड़ कर मेरी दशा का वर्णन कर देना जैसे नागमति की विरहाग्नि का वर्णन जायसी ने किया है-
नागमति चितउर-पथ हेरा,
पिउ जो गए पुनि कीन्ह ने फेरा।
नागर काहु नारि बस परा,
लेइ मोर पिउ मोसौं हरा।
सुआ काल होइ लेइगा पीऊ,
पिउ नहिं जात, जात बरु जीऊ।
भएउ नरायन बावन करा,
राज करत राजा बलि छरा।
करन पास लीन्हेउ कै छंदू,
बिप्र रुप धरि झिलमिल इंदू।
मानत भोग गोपिचंद भोगी,
लेइ अपसवा जलंधर जोगी।
लेइगा कृस्नहि गरुड अलोपी,
कठिन बिछोह, जियहिं किमी गोपी।।
प्रियतम का संदेशा पाने को वह इतनी आकुल है कि –
लहुट जवाब तुरत लेईं आवे, रे सुअना!
झिनकोनो राखय बिलमाय।
और यदि तूने मेरा काम कर दिया तो-
मोती के झालर डैना गुथवइहौं,
रे सुअना! लाबे पिया के सन्देस।
सोने के थारी मा जेवन जेवईंहौं, रे सुअना!
पइयाँ टेकि सेहहौं हमेस।
तेरे पंखों में मोती के झालर लगवा दूंगी, तुझे सोने की थाली में अपने हाथ से भोजन कराऊँगी और जन्मभर तेरे चरणों की सेवा करती रहूंगी, यदि तू मेरे पिया का संदेश मेरे पास ले आया। कितना कल्पनातीत वर्णन है! गुरु सुआ जेहि पंथ दिखावा की भाँति सुआ के प्रति श्रद्धा और विश्वास भरा पड़ा है, और तभी तो जन्मभर सेवा करने का वचन देती है।
अतः देखा जाए तो उनकी सरल-सुंदर, मर्मस्पर्शी अभिव्यंजनात्मक पंक्तियाँ अन्य भाषाओं के लोकगीतों से तो क्या वरन् साहित्यिक महाकाव्यों में व्यक्त भावों से भी टक्कर ले सकती हैं।
इस गीत में प्रेमिका अपने प्रेमी की प्रतीक्षा तुलसी के चौरे के पास अपने नयनों के दीप जलाकर कर रही है। राह देख रही है कि कब उसका प्रेमी लौट कर आएगा। उसकी आँखों से आँसू की धार निरंतर बह रही है और इसी अवस्था में वह सुआ से कहती है कि मेरे निरंतर बहने वाले आँसुओं के कारण कहीं मेरे नयनों के दीप न बुझ जावें। वह दीप को अपने आँचल में छिपाकर रखती है और सुआ से कहती है कि काँसे या पीतल की तो अदला-बदली की जा सकती है पर अपने प्रियतम को तो नहीं बदला जा सकता।
तरी हरी ना मोर ना ना रे सुवना
तरी हरी ना मोर ना ना रे…
तुलसी के बिरवा करै सुगबुग-सुगबुग रे सुअना
नयना के दिया रे जलांव
नयनन के नीर झरै जस ओरवाती रे सुअना
अंचरा म लेहव लुकाय
कांसे पीतल के अदली रे बदली रे सुअना
जोड़ी बदल नहि जाय
तरी हरी ना मोर ना ना रे…।।”
आलेख
![](http://dakshinkosaltoday.com/wp-content/uploads/2023/10/विवेक-तिवारी.jpg)
बहुत सुन्दर अभिव्यक्तियों से रचित ये सुआ गीत हैं. छग की सांस्कृतिक विरासत संरक्षित रखी जानी चाहिए क्योंकि यह मानवीय मूल्यों की थाती है.