सनातन परंपरा में मनाये जाने वाले तीज त्यौहार केवल उत्सव भर नहीं होते उनमें जीवन को सुन्दर बनाने का संदेश होता है। दशहरा उत्सव में भी संदेश है। यह संदेश है व्यक्ति, परिवार, समाज और राष्ट्र की समृद्धि का जो इसकी कथा और उसे मनाने के तरीके से बहुत स्पष्ट है।
विजय दशमी उत्सव पूरे देश में मनाया जाता है। विभिन्न प्रदेशों में इस उत्सव के नाम अलग हैं मनाने के तरीके भी विभिन्न हैं पर सबमें शक्ति पूजा ही प्रमुख अभीष्ट है। इस उत्सव के दो नाम हैं। एक दशहरा और दूसरा “विजय दशमीं।” इस आयोजन का एक आदर्श वाक्य है- “असत्य पर सत्य की विजय।”
पुराण कथाओं के अनुसार दो महासंग्राम इस उत्सव की पृष्ठभूमि है। एक भगवान राम और रावण के बीच महायुद्ध। यह युद्ध नौ दिन चला और दसवें दिन रामजी को विजय मिली। दूसरी कथा है माता शक्ति भवानी और महिषासुर के बीच हुये महासंग्राम की। यह संग्राम भी नौ दिन चला और दसवें दिन महिषासुर का अंत हुआ। महिषासुर पूरी सृष्टि से सत्य और धर्म के विनाश पर आमादा हो गया था। शक्ति भवानी ने उसका अंत कर सृष्टि को सुरक्षित किया।
दोनों कथाओं की पृष्ठभूमि नौ दिनों के युद्ध और सत्य विजय की है। शक्ति भवानी ने सत्य की स्थापना के लिये स्वयं चंडी का रूप लिया और रामजी ने विराट शक्ति का आव्हान किया। नौ दिन के भीषण युद्ध के बाद दशवें दिन विजय मिली। इसलिए केवल एक दिन का विजय स्मृति दिवस के रूप में यह उत्सव आयोजन हो सकता था।
किन्तु भारतीय ऋषि मनीषी भविष्य के लिये भी समाज को सचेत रखना चाहते थे इसलिये पूरे दस दिनों का उत्सव विधान बनाया गया और दोनों युद्धकाल के नौ दिनों को नवदुर्गा उत्सव के रूप में शक्ति उपासना से जोड़ा गया। शक्ति के विभिन्न रूप होते हैं। जैसे शारीरिक शक्ति, मानसिक शक्ति, बौद्धिक शक्ति, संगठनात्मक शक्ति सामाजिक शक्ति आदि।
इन नौ दिनों की उपासना में शक्ति के इन सभी आयामों को छुआ गया है। एकांत पूजन उपासना, व्रत, साधना और खाद्य पदार्थ सेवन में शारीरिक शुद्धि, मन की एकाग्रता, बौद्धिक विकास की प्रक्रिया निहित है।
नौ दिन की साधना को यदि आयुर्वेद और योग की भाषा में समझें तो यह कायाकल्प की प्रक्रिया है। जो आरोग्य वद्धि और आलौकिक शक्तियों से साक्षात्कार का माध्यम है। यदि साधना एकांत की है तो प्रति दिन शाम को भजन कीर्तन के माध्यम से समाज का एकत्रीकरण एवं दसवें दिन सामूहिक विसर्जन के माध्यम से सभी समाजों का संगठनात्मक एकत्रीकरण का संदेश है।
रामजी का विजय उत्सव मनाने में भी नौ दिन रामलीला होती है और दसवें दिन विजय प्रतीक के रूप में रावण का पुतला जलाया जाता है। दशहरे के दिन शस्त्र और अश्व पूजन होता है। इन नौ दिनों की दिनचर्या का निर्धारण कुछ ऐसा है जिससे हम आरोग्य, मानसिक एवं बौद्धिक सामर्थ्य की वृद्धि, शारीरिक, संगठनात्मक एवं सामरिक सशक्तीकरण की ओर अग्रसर होते हैं।
विजय दशमीं के लिये सर्वाधिक लोकप्रिय कथा श्रीराम जी की लंका विजय करने की है। इस कथा का संदेश समझने के लिये हमें उस महायुद्ध के घटनाक्रम को समझना होगा। न तो रामजी साधारण थे और न रावण। रामजी स्वयं नारायण के अवतार थे और रावण उनका पार्षद जय था जो ऋषि श्राप के कारण धरती पर आया था और नारायण स्वयं उसे लेने आये थे।
तब क्या जय ने अपने स्वामी को न पहचाना होगा? और नारायण ने अपने पार्षद को न पहचाना? फिर भी मानों लीला की या अभिनय किया। यह अभिनय या लीला समाज को शिक्षित करने के लिये थी। यह संदेश रामजी की युक्ति और पूरी योजना में है। रावण परम् शक्तिशाली था। उस पर शिवजी की कृपा थी। जबकि रामजी के साथ अनुज लक्ष्मण के अतिरिक्त कोई न था।
उन्होंने हनुमान जी को जोड़ा, सुग्रीव को जोड़ा, हनुमान जी माध्यम से विभीषण को जोड़ा तब युद्ध हुआ। कब कौन किससे युद्ध करेगा यह भी निश्चित हुआ। कल्पना कीजिए यदि तंत्र साधना करते समय मेघनाथ पर हमला न किया जाता तो सफलता मिलती। यदि विभीषण रावण वध का सूत्र न बताता तो रावण का अंत हो सकता था।
रामजी के अभियान को सफलता संगठन, आंतरिक अनुशासन होना, सबकी एक राय होना, उचित व्यक्ति को उचित काम देने से मिली। जबकि रावण की असफलता का कारण असहयोग, असंगठन था। भाई विरुद्ध हो गया। पत्नि अंत तक सहमत न हो सकी। कितने सभासद, कितने अन्य संबंधी रावण से युद्ध न करने केलिये अंत तक कहते रहे । प्रश्न यहाँ उचित और अनुचित का नहीं सबको एकता के सूत्र में बंधकर किसी अभियान में सहभागी बनने का है।
सफलता के लिये एकता का, सभी स्वजनों के एक स्वर का संदेश परिवार के लिये भी है और राष्ट्र के लिये भी। जिन परिवारों में मतभेद होते हैं। जिन देशों में शासक के निर्णय का समर्थन समाज नहीं करता वहाँ सदैव समस्या आती है। सामान्य स्थिति में मतभेद हों तो भी चलता है लेकिन युद्ध जैसी आपात स्थिति में भी लोग सहयोग न करें तो राष्ट्र पर संकट घिर आना स्वाभाविक है जैसा श्रीलंका पर घिर गया।
महासंग्राम के विवरण से यह तो स्पष्ट है ही सफलता के सूत्र क्या हैं। पर इस उत्सव में यह संदेश भी है कि सफलता के बाद सदैव सावधान रहना आवश्यक है। सावधानी हटी कि दुष्टों की सक्रियता बढ़ी। युद्ध चाहे महिषासुर के विरुद्ध हुआ हो अथवा रावण के विरुद्ध। इन महायुद्धों का उद्देश्य सत्ता का विस्तार अथवा संपत्ति का हरण नहीं था।
न तो देवी ने महिषासुर का वध करके अपनी सत्ता स्थापित की, और न रामजी ने लंका विजय के बाद सिंहासन संभाला। रामजी ने तो लंका में प्रवेश तक न किया था। विजय के बाद विभीषण को ही सिंहासन सौंपा। यह दोनों महासंग्राम सत्य की स्थापना के लिये हुये। दोनों युद्ध मर्यादा के हरण और सीमा के उलंघन पर हुये। महिषासुर ने दूसरों के राज्य का हरण किया तो रावण ने सती नारी का हरण किया। इसलिए दोनों दंड के अधिकारी बने।
इन दोनों लीलाओं में एक और बहुत स्पष्ट संदेश है कि सत्य की स्थापना और सफलता के शीर्ष पर पहुँचने के बाद सावधानी आवश्यक है। सत्य की स्थापना केलिये जितनी शक्ति और समझ की आवश्यकता होती है उतनी सत्य की सुरक्षा के लिये भी होती है।
देवताओं के असावधान होने के कारण ही महिषासुर प्रबल हुआ और वनक्षेत्र के संकट का आकलन न करने के कारण ही सीताजी का हरण हुआ। समृद्धि जहाँ ठग लुटेरों को आकर्षित करती है वहीं व्यक्ति की बढ़ती प्रतिष्ठा ईर्ष्यालुओं को एकत्र कर देती है। इसलिये सफलता की सुरक्षा के लिये भी प्रतिक्षण सतर्कता की आवश्यकता है।
शक्ति भवानी की जीत स्वयं के भीतर अलौकिक शक्ति से हुई और रामजी की जीत स्वयं की शक्ति और संगठन क्षमता से हुई। ये दोनों विशेषताएँ इस उत्सव के नाम में निहित हैं। सामान्यतः दशहरे नाम को तिथि के दसवें अंक से माना जाता है। यह सही है पर दशहरे का एक और अर्थ है।
“दश” का अर्थ गतिमान रहना, चैतन्य रहना और सक्रिय रहना भी होता है । जबकि “हरे” का आशय नारायण एवं शिव दोनों से है। “हर” कहा गया शिवजी को और “हरि” नारायण को। इन दोनों की संधि से शब्द बनता है “हरे” इसलिये कीर्तन में प्रभुनाम के आगे “हरे हरे” उच्चारण आता है । “हरे” में तीनों गुण और पांचों तत्व समाये होते है।
अब “दशहरे” का आशय हुआ पाँचों तत्व और तीनों के अनुरुप कार्य करना। यही प्रभु का काज है। इसके लिये सदैव चैतन्य रहना। सत्य की रक्षा और धर्म की स्थापना प्रकृति का कार्य है इसी के लिये ये दोनों युद्ध हुये। इसलिए इस त्यौहार का नाम “दशहरा” रखा गया।
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