आर्य संस्कृति के दक्षिण में प्रसार के लिए मर्यादा पुरुषोत्तम राम की भूमिका सर्वोपरि है। ऋग्वेद में विंध्याचल के आगे क्षेत्रों का कोई उल्लेख नहीं मिलता विंध्य पर्वत से ही उत्तर व दक्षिण भारत को विभाजित किया गया है। राम ने अपने चौदह वर्ष के वनवासी जीवन में दक्षिण क्षेत्र से असुरों को भगाया। वाल्मीकि रामायण के ‘श्रीराम’ तुलसीदास के रामचरितमानस में ‘मर्यादा पुरुषोत्तम राम’ बन गए। राम कथा के राम ने उन अनजान दुर्गम क्षेत्रों में प्रवास किया जहां प्रकृति को नष्ट करती आसुरी संस्कृति पनप रही थी। ऐसे ही राम की कथा मध्य एशिया, तिब्बत, कंबोडिया, जावा, सुमात्रा, मंगोलिया, बाली आदि देशों में आज भी धरोहर के रूप में सुनी सुनाई जाती है।
आर्यों की दिग्विजय यात्रा –
प्राचीन भारत से आर्यों ने अपनी दिग्विजय यात्रा का ध्येय राम के पद चिन्हों पर चलकर किया। आर्यों के उस काल की यात्रा के प्रमाण आज विश्व के अनेक देशों में देखें जा सकते हैं। प्राचीन मंदिरों और सनातन धर्म के अवशेष अपनी गाथा स्पष्ट कहते हैं। आर्य जहां भी गये वहां के लोगों को सनातन संस्कृति का पाठ पढ़ाया और वहां सभ्यता का नवीन अध्याय हुआ। वसुधैव कुटुंबकम् की भावना को लेकर सनातन धर्म को स्थापित करने में राम ने सर्वप्रथम दक्षिण से श्रीगणेश किया। यहां स्पष्ट कर देना उचित है कि आर्य शब्द एक संबोधन है जातिवाचक नहीं।
दंडकारण्य में राम-
वनवासी राम का अधिकांश समय दक्षिणापथ की ओर ही व्यतीत हुआ। यह क्षेत्र दक्षिण कोसल का कहलाता था जिसमें वर्तमान उड़ीसा व उत्तर कोसल के भूभाग शामिल थे। राम के वनवास काल का लगभग बारह बरस दंडकारण्य में बीता। दंडकारण्य चित्रकूट की पहाड़ियों से शुरू होकर बस्तर के आगे तक फैला हुआ है। वानर राज सुग्रीव ने सीता की खोज करने के लिए अपनी सेना को दक्षिण की ओर जाने का निर्देश दिया सुग्रीव ने सेना को मार्ग निर्देशित करते हुए कहा कि वे अपनी खोज विंध्य से शुरू शुरू करें फिर नर्मदा, गोदावरी, कृष्णा नदी के साथ दक्षिण की ओर बढ़े। राम की दक्षिण यात्रा वर्तमान बुंदेलखंड तथा छत्तीसगढ़ के क्षेत्रों से होकर पूरी हुई।
अयोध्या से वन की ओर प्रस्थान करते हुए राम ने तमसा, वेदश्रुति, गोमती, स्यन्दिका जैसी कई नदियों को पार किया। सभी नदियां दक्षिण पूर्वी उत्तर प्रदेश के भूभाग में प्रवाहित होती हैं। इलाहाबाद जिला के श्रृंगवेरपुर के समीप गंगा नदी को पार कर राम भारद्वाज ऋषि के आश्रम में पहुंचे। इसके बाद राम ने बांदा जिले के चित्रकूट तक पहुंचने के लिए यमुना नदी को पार किया। चित्रकूट में राम ने कुछ समय बिताया वहां अनेक ऋषि मुनि रहते थे। वाल्मीकि रामायण के अयोध्या कांड तथा गोस्वामी तुलसीदास के रामचरितमानस में चित्रकूट का विस्तृत विवरण मिलता है।
दक्षिण कोसल में राम-
चित्रकूट से चल कर राम वर्तमान मध्यप्रदेश में प्रविष्ट हुए। पन्ना, सतना, जबलपुर, शहडोल, बिलासपुर, रायपुर और बस्तर जिलों से राम आगे बढ़े। शहडोल, अमरकंटक के बाद राम दक्षिण पूर्व की ओर मुड़े। बिलासपुर जिले के खरौद, शिवरीनारायण, मल्हार, लवन, होते हुए आगे बढ़े। सिरपुर, राजिम से गुजरते हुए राम दंडकारण्य में प्रविष्ट हुए। यहां अगस्त्य, वाल्मीकि, अत्रि, शरभंग, सुतीक्ष्ण आदि ऋषि के आश्रम स्थापित थे। राम सभी ऋषि मुनियों के आश्रम में मिलने गए। दंडकारण्य के 124 स्थल खोजे गये जहां राम, लक्ष्मण, सीता ने विश्राम किया और वहां से अत्याचारी असुरों को मार भगाया। दंडकारण्य से श्रीराम लंका पहुंचे।
महर्षि, वाल्मीकि वराहमिहिर, कालिदास, बाणभट्ट, भवभूति, राजशेखर और तुलसीदास के ग्रंथों में दिए गए भौगोलिक विवरण व पुरातात्विक प्रमाण से यह निष्कर्ष निकाला गया कि राम चित्रकूट छोड़ने के बाद उपरोक्त मार्ग होते हुए दंडकारण्य पहुंचे। मध्यप्रदेश तुलसी अकादमी ने भी इसी को राम की यात्रा का मार्ग बताया। अस्मिता संस्थान छत्तीसगढ़ ने राम वन गमन मार्ग का ऐसा ही नक्शा तैयार किया। छत्तीसगढ़ सरकार ने श्रीराम वन गमन स्थलों पर एक वृहत्तर निर्माण की शुरुआत की है।
दुर्गम दक्षिण पथ-
विंध्य के दुर्गम जंगलों व पर्वत मालाओं को पार करने का साहस अगस्त मुनि के नेतृत्व में किया गया। राम का दक्षिण प्रवेश विशेषता मैत्री और सांस्कृतिक तालमेल की भावना से था। आर्य सभ्यता धीरे-धीरे दक्षिण भारत में पहुंची और एकाकार ताल हुई। आर्यों ने दक्षिण भारत का नाम ‘दक्षिणा पथ’ रखा। वनवासी राम ने भी यही मार्ग अपनाया जहां सुग्रीव ने उनकी सहायता की।
राम ने लंका विजय प्राप्त कर रावण के भाई विभीषण को ही वहां का राजा बनाया। राम की विजय यात्रा एक सांस्कृतिक तालमेल को उजागर करती है। आर्य और अनार्य एक जाति विशेष ना होकर विशिष्ट संबोधन था जिसे बाद में जातिवाद वाचक बना दिया गया। अरण्य संस्कृति को विकृत करने वाला रावण ब्राह्मण ऋषि पुत्र था। इसी तरह एक दृष्टांत राम की पदयात्रा का मिलता है। राम जिस मार्ग से गुजरे वहां कटीले पेड़ नहीं थे, दंडकारण्य क्षेत्र कंटीले पेड़ों से रहित था।
छत्तीसगढ़ अंचल में राम की यात्रा के संदर्भ में कुछ प्रमाणिक अध्ययन किया गया है। राम के कोसल प्रवास को लेकर डॉ. मिरासी, डॉ.धीरेंद्र वर्मा, प्रोफेसर कृष्ण दत्त बाजपेई, डॉ. प्रभु लाल मिश्रा, डॉ. हीरालाल शुक्ला, पंडित सुंदरलाल त्रिपाठी, हरि ठाकुर, विष्णु सिंह ठाकुर, प्यारेलाल गुप्त, हेमू यदु जैसे लोगों ने तथ्यात्मक जानकारी प्रस्तुत की है।
रावण की लंका-
राम वनवास काल के अंतिम समय में लंका पहुंचे, रावण की लंका कहां थी? प्रोफेसर कृष्ण दत्त बाजपेई ने पुरातात्विक आधार पर छत्तीसगढ़ में राम की यात्रा को प्रमाणिक मानते हुए कहा है, “अब तक ज्ञात पुरातात्विक प्रमाण से यह बात सिद्ध नहीं होती कि श्री राम पन्ना वाले चित्रकूट से आगे दक्षिण पश्चिम की ओर गए। वाल्मीकि रामायण आदि ग्रंथों से यह भी पता नहीं चलता कि उन्होंने नर्मदा या रेवा नदी को कहां पर किया, यदि वे वर्तमान नासिक की ओर जाते तो उन्हें नर्मदा अवश्य पार करनी पड़ती। महाराष्ट्र और कर्नाटक होकर लंका (वर्तमान लंका देश) तक राम के पहुंचने तथा वहां राम रावण युद्ध होने की बात उपलब्ध साहित्य या पुरातात्विक प्रमाण से सिद्ध नहीं होती।”
रावण की लंका कहां थी! यह प्रश्न आज भी एक पहेली बना हुआ है। पिछले कुछ दशकों में अनेक भारतीय तथा पश्चिमी शोधार्थियों के शोध सामने आए हैं। शोधों के अनुसार महाराष्ट्र के कुछ क्षेत्रों में या मध्यप्रदेश के रीवा अंचल के अमरकंटक तथा जबलपुर में अथवा शिम्हला (अब श्री लंका) में रावण की लंका हो सकती है।
दक्षिण कोसल में लंका-
शोध के निष्कर्षों में बताया गया है कि इतिहास के पहले भाग में इससे संबंधित धुंधली तस्वीर मिली है लेकिन बाद के हिस्से में रावण की लंका की गुत्थी उलझी हुई है। सांस्कृतिक इतिहास, तत्कालीन संस्कृति भारत में राज्यों के गठन की स्थिति और रामायण में उल्लेख किए गए भौगोलिक क्षेत्र के पारिस्थितिक अध्ययन से यह संभावना व्यक्त की गई है कि लंका गोदावरी नदी के पूर्व में थी! रावण की लंका के बारे में जितनी भ्रान्तियां हैं, राम के छत्तीसगढ़ प्रवास पर उतनी नहीं है। आधे अधूरे संदर्भ को लेकर छत्तीसगढ़ को रावण की लंका करार देने वाले कथित विद्वानों की कमी नहीं है। तथाकथित अधिकारिक विद्वानों ने छत्तीसगढ़ की एक जनजाति विशेष को रावण का वंशज बना दिया। मध्यप्रदेश पाठ्य पुस्तक निगम की पांचवीं कक्षा की बाल भारती पुस्तक के दशहरा पाठ में यही पढ़ाया जाता रहा। इस पर आपत्ति जाहिर करते रविन्द्र गिन्नौरे ने अप्रमाणिक बताया और सरकार का ध्यान आकर्षित किया। सरकार ने इस पर पुस्तक से ‘दशहरा’ पाठ विलोपित किया गया।
छत्तीसगढ़ राम के वनवास काल का साक्षी रहा है। राम की यात्रा के साक्ष्य छत्तीसगढ़ में बिखरे पड़े हैं जिनकी खोज अभी भी बाकी है। धार्मिक ग्रंथों, लोक कथाओं के साथ भौगोलिक आधार पर गहन अध्ययन की महती आवश्यकता है। राम वनवास काल में दक्षिण कोसल की ओर ही क्यों आए? इस संदर्भ में आर्यों की दिग्विजय यात्रा को देखें जिन्होंने प्राचीन दुनिया के लोगों को आर्य बनाया( सभ्य/श्रेष्ठ बनाया)। राम ने दक्षिण पथ में ऐसी ही सभ्यता नींव रखी। युद्ध में विजय के बाद किसी भी राज्य में अपनी सत्ता नहीं रखी। तापस वेश धारण कर अयोध्या से वनवास को निकले राम ने रावण की लंका पर विजय प्राप्त की। राम अयोध्या लौटे तो उसी तापस वेशभूषा में उत्तर को दक्षिण की संस्कृति को सूत्र में पिरोकर। राम का दक्षिण पर गमन करने का यही उद्देश्य था।
आलेख
जय जय श्री राम🙏🙏
वाल्मीकि रामायण के अनुसार भगवान राम को दंडकारण्य में ही 14 वर्ष का वनवास हुआ था। सबसे पहले तो इतिहासकारों और शोधकर्ताओं को दंड कारण्य की सीमा निर्धारित करनी चाहिए। वह भी भौगोलिक प्रमाण के साथ