छत्तीसगढ़ में तालाबों के साथ अनेक किंवदंतियां जुड़ी हुई है और इनके नामकरण में धार्मिक, ऐतिहासिक तथा सामाजिक बोध होते हैं। प्रदेश की जीवन दायिनी सरोवर लोक कथाओं तथा लोक मंगल से जुड़े हुए हैं। यहा तालाबों की बहुलता के पृष्ठभूमि में प्राकृतिक भू-संरचना, उष्ण-कटिबंधीय जलवायु नगर और ग्रामों का विस्तार, व्यापारिक पथ, वाणिज्य केन्द्रों का विकास और इन सबसे अधिक महत्वपूर्ण कृषि आधारित जीविका प्रमुख घटक रहे हैं।
इस क्षेत्र में राज्य करने वाले प्राचीन राजवंशों के द्वारा निर्मित मंदिरों के साथ-साथ उतनी ही संख्या में ‘सरोवर’ का निर्माण भी होता रहा, यह श्रृंखला यहा हजारों वर्ष से चलती रही है। वर्षा के जल का अधिकतम संचय कर अनावृष्टि और अकाल से जुझने के लिए प्राचीनकाल से तालाब, सरोवर, कूप और बड़े-बड़े जलाशय का निर्माण करने के लिए राजा प्रजा संदियों से कटिबद्ध रहे हैं।
कूप, बावडी, सरोवर, कुंड, पोखर, ताल-तलैया एवं स्त्रोत परम्परा से ज्योतिष शकुन, मुहुर्त प्रतीक, परोपकार और लोक परम्परा के विविध मान्यताओं से जुड़े हुए है। जल से उत्पन्न होने वाले कमल, धर्म, अध्यात्म और दर्शन से जुड़े पवित्र प्रतीक है। छत्तीसगढ़ के विस्तृत भू-भाग में बसे गांव और नगर तालाबों की संख्या के लिए विशेष रूप से जाने जाते हैं।
प्राचीन ऐतिहासिक नगर और स्थलों के साथ जुड़ी किवंदतियों में तालाबों की संख्या और उनकी बची-खुची भौतिक उपस्थिति आश्चर्य चकित करती है। मल्हार, रतनपुर, महेशपुर, पाटन, बारसूर, रायपुर जैसे अनेक ऐतिहासिक स्थलों के साथ छःकोरी छ आगर अर्थात 6 X 20) एक सौ छब्बीस तालाब होने की अनुश्रुतियां जुड़ी हुई हैं।
पुराने समय के राजस्व अभिलेखों से भी उनकी जानकारी मिलती है। सैकड़ों वर्ष बीत जाने के बाद भी इनमें से कुछ तालाब अभी भी लबालब जल से भरे-पूरे अपनी भूमिका पर अचल अटल हैं और अनेक अवरूद्ध तालाब नगर-ग्रामों के अपशिष्ट संग्रह के उपयोग केन्द्र बनते जा रहे हैं। पलारी के प्राचीन सिद्धेश्वर मंदिर से जुड़ा विशाल ‘बालसमुंद’ दक्षिण कोसल के 7वीं सदी के महाशिवगुप्त बालार्जुन की स्मृति को आलोकित करता है। इन्हीं दोनों शब्दों के जोड़-घटाव से महासमुंद नामक जिला विद्यमान हैं।
सरोवर के महत्व से जुड़े हुए महाभारत के आख्यान में सरोवर में रहने वाले यक्ष और युधिष्ठिर के संवाद में जल का महत्व प्रदर्शित है। तृषा से व्याकृल सहदेव, नकुल, अर्जुन और भीम जैसे योद्धा यक्ष के प्रश्न की अवहेलना कर सरोवर में जल को पीते ही मृत हो गए थे। अंत में युधिष्ठिर ने यक्ष के प्रश्नों का समुचित उत्तर देकर अपने चारों मृत भाईयों को पुन:र्जीवित कर अपनी तृषा बुझाई थी।
इस कथा में दुर्गम्य वनों में जलाशयों की उपयोगिता और युधिष्ठिर के संवाद का प्रश्न था खेती करने वालों के लिए कौन सी वस्तु श्रेष्ठ है? युधिष्ठिर के मतानुसार उत्तर था- खेती करने वालों के लिए वर्षा श्रेष्ठ है। (महाभारत-वनपर्व, अध्याय 313, श्लोक 56) जातक कथाओं में सरोवरों से संबंधित अनेक मनोरंजक तथा नीतिप्रद कथाएं हैं।
मल्हार छत्तीसगढ़ का विख्यात पुरातत्वीय एवं ऐतिहासिक स्थल है। शरभपुरीय, सोमवंशी और रतनपुर के कलचुरियों के काल में मल्हार प्रसिद्ध नगर, सैनिक सन्निवेश वाणिज्यिक केन्द्र था। अभिलेखों में इसका नाम ‘मल्लालपत्तन’ मिलता है। प्राचीन काल में यह स्थल लगभग 8 कि.मी. के क्षेत्र में उपनगर और ग्रामों के साथ विस्तृत था।
यह प्राचीन नगर छः आगर, छःकोरी, तालाबों के धरोहर वाला स्थल रहा है। यहां ‘परमेसरा’ तालाब सबसे बड़ा जलाशय है इस सरोवर का नाम ‘पचाप्सर’ तीर्थ के रूप में होने की संभावना की खोज की जानी चाहिए। डिडनेश्वरी देवी के नाम से पूजित राजमहिषी की प्रतिमा, बकरकूदा एवं वेदपरसदा नामक ग्राम, अनेक सर-सरोवर मल्हार के पौराणिक स्वरूप को प्रकट करते हैं।
सरगुजा जिले के प्राचीन ऐतिहासिक स्थलों के कलचा भदवाही और महेशपुर में तालाबों की श्रृंखला विद्यमान हैं। महेशपुर के तालाबों में ‘रणसागर’ और कुर्मिन तालाब इतिहास के साथ-साथ पर्यावरण के परिचायक है। कलचा भदवाही के तालाबों के संबंध में किंवदन्ती है कि यहां के तालाब पथिकों के मांगने पर भोजन बनाने के लिए बर्तन देते थे। मांगे गए बर्तनों के उपयोग के पश्चात् धो-मांजकर तालाब को लौटा देते थे।
इन स्थलों के सरोवर लगभग 8वीं सदी ईस्वी से 12वीं सदी ईस्वी के मध्य निर्मित हैं। धार्मिक और ऐतिहासिक महत्व के स्थलों में निर्मित तालाब सदियां बीत जाने के बाद भी, समुचित रख-रखाव नहीं होने पर भी निरन्तर उपयोग में लाया जा रहे हैं। तथा नैतिक बोध के फलस्वरूप अस्तित्व में हैं। नगरीकरण के साथ-साथ औद्योगिककरण की प्रवृति से छत्तीसगढ़ में अनेक तालाब सिमट गए हैं एवं वर्षा ऋतु में आधे-अधुरे ही भर पाते हैं।
रियासत काल में छत्तीसगढ़ के ताल-तलैया, तरई-मूड़ा प्रसिद्ध रहें हैं। प्रसंगवश यहां के अमराइयों की चर्चा भी जरूरी हैं। यहां के शासक वर्ग और समाज तालाबों के रख-रखाव के साथ-साथ बड़े-बड़े अमराई लगाने की दिशा में भी एक कदम आगे ही रहें हैं। प्रत्येक नगर और कस्बे के आस-पास निर्जन भूमि में और विशेषकर तालाबों के किनारे अमराई का स्थान नियत होता था। तालाब, खेत, मैदान और अमराई के साथ जन-जीवन का गहरा भावात्मक संबंध होता था।
बस्तर जिले के जगदलपुर नगर में रियासतकाल में निर्मित गंगामुड़ा और दलपत सागर अपनी विशालता, गहराई और स्वच्छता के लिए प्रसिद्ध थे। इन्द्रावती नगर के बायें तट पर स्थित जगदलपुर नगर में भिन्न-भिन्न दिशा में निर्मित नामी-गिरामी और बेनामी तालाबों के निर्माताओं ने जल के मूल्य और महत्व को परखकर जन सामान्य के साथ उसे जोड़ा था।
बस्तर क्षेत्र में तालाब एवं पोखरों (तराईयों अथवा तलाइयों) का बाहुल्य है, क्योंकि ये जल प्राप्ति के प्रधान स्त्रोत रहें हैं। अतः इस क्षेत्र में पूजा स्थल भी तालाब के किनारे अधिकता से मिलते हैं। जगदलपुर से लगभग 6 कि.मी. के क्षेत्र में विस्तृत दलपत सागर तत्कालीन तालाब निर्माण तकनीक का जीवंत उदाहरण है।
बस्तर अंचल में स्थित बारसूर सुप्रसिद्ध ऐतिहासिक स्थल है। 11वीं सदी ईस्वी में यह छिन्दक नागों की राजधानी रही है। अनुश्रुति के अनुसार बारसूर में लगभग 147 तालाब थे, ‘चन्द्रादित्येश्वर’ तालाब यहां का सबसे बड़ा तालाब है। बस्तर अंचल के ग्रामिण क्षेत्रों में चैत-वैशाख महिने में एक निश्चित तिथि पर आस-पास के ग्रामिण सम्मिलित होकर सामूहिक रूप से नियत तालाब में परमपरागत तरीके से मछली पकड़ते हैं। यह प्रथा देवभोग अंचल में भी है।
महाभारत युद्ध के अंतिम परिदृश्य में एक रोचक कथा है। कौरव पक्ष के सभी महारथियों के पराभव के पश्चात विचलित दुर्योधन एक सरोवर में गुप्त रूप से छिप जाता है। एक वनचर के द्वारा दुर्योधन के सरोवर में छिपे रहने की जानकारी मिलने पर पांडव उसे (दुर्योधन को) युद्ध के लिए ललकारते है। उसी तट पर भीम और दुर्योधन के मध्य भीषण युद्ध में कौरव वंश का अंतिम योद्धा, अंतिम श्वांस लेता है। धन्य है वह सरोवर जिसके तट पर महाभारत का अंतिम युद्ध हुआ था। इस आख्यान का महत्वपूर्ण अंश यह है कि प्राचीन काल में सरोवर के भीतर गुप्त-आवास निर्मित करने की तकनीक के ज्ञाता निर्माता होते थे।
धर्मशास्त्रों में कूप, सरोवर, तड़ाग, जलाशय, बावड़ी गौशाला आदि बनाने से प्राप्त होने वाले पुण्यो का विशद वर्णन मिलता है। कूप और जलाशय के निर्माण से पुण्य अर्जित करने के अनेकानेक दृष्टांत पौराणिक साहित्य में मिलते है। अपने चोंच भर जल समाने वाले गड्ढा खोदने वाले पडुक पक्षी, फिर अपने खुर भर माप के गड्ढा विस्तार करने वाला पशु पुनः किसी शुकर के खीसे से बित्ता भर गड्ढा किसी गज के चौड़े पैर भर माप का निर्मित गड्ढा और अंत में मानव प्रयास से विस्तार पाकर तालाब के सभी निर्माताओं को समान, पुण्य प्राप्त होने की कथा ‘‘स्कन्द पुराण’’ में पीपल, वर्णित है।
जलाशयों के निर्माण के पश्चात पाल पर पीपल, बट (बरगद) नीम, आम जैसे छायादार और फलदार वृक्ष लगाये जाते थे जिनके नीचे छोटे-छोटे अनगढ़ मूर्तियां रख दी जाती थी, जिनका अप्रत्यक्ष उद्देश्य स्थल को गंदगी और अपवित्रता से बचाना होता था। तालाबों के पार पर निर्मित मढ़िया तथा देवालयों में विराजित देवता, अपनी शक्ति से तालाबों की पवित्रता की रक्षा करते थे। भोजली, गौरा, जवारा गणेश और दुर्गा विसर्जन के समय तालाबों का सांस्कृतिक सौन्दर्य आकर्षण का केन्द्र होता है।
सरिताओं का देवी स्वरूप गंगा-जमुना और सागर का देवता दिक्पाल वरूण की आराधना प्रत्येक मांगलिक कार्यो के अवसर पर की जाती है। ताला नामक पुरातात्वीय स्थल के शिल्पकला में सागर मंथन से उत्पन्न लक्ष्मी के अभिषेक के लिए सरिता रूप में नदी-देवियों के साथ तीर्थ और सरोवर देवता साकार रूप में प्रदर्शित है। कवि रहीम अपने एक दोहे में सज्जन पुरूषों की तुलना सरोवर के साथ करते है।
तरूवर फल नहि खात है, सरवर पीवहि न पानी।
कह रहीम पर काज हित संपति संचहि सुजानि।।
संत तुलसीदास जी ने रामचरित मानस में वर्षा।
ऋतु के माध्यम से तालाब के गुणों का वर्णन करते हैं।।
सिमटि-सिमटि जल भरहि तलाबा।
जिमि सद्गुन सज्जन जहि आवा।।
कवि रहिम तालाबों के महत्व को समझते थे, उनका एक प्रसिद्ध दोहा हैः-
धनि रहीम जल पंक को, लघु जिय-जियत अघाय।
उद्धि बड़ाई कौन है, जगत् पियासो जाय।।
रायपुर नगर में भी प्राचीन सरोवरों की संख्या अत्यधिक थी जिसमें से बूढ़ा तालाब (विवेकानंद सरोवर), महाराजाबंध, तेलीबांधा, कंकाली तालाब, आमा तालाब, मच्छी तालाब, कुकरी तालाब, बीरगांव तालाब, सरोना तालाब, आदि महत्वपूर्ण हैं। कलचुरिकालीन शासकों द्वारा तथा कुछ तालाब गणमान्य प्रतिष्ठित नागरिकों द्वारा निर्मित माने जाते हैं।
बिलासपुर के निकट किरारीगोढ़ी का हीराबंध नामक प्राचीन तालाब से सातवाहन कालीन प्रशासनिक काष्ठ स्तंभ लेख प्राप्त हुआ। 1931 में अवृष्टि के कारण सूखा तालाब से स्तंभ बीजा (साल) नामक काष्ठ का बना लेख युक्त (ब्राम्ही लिपि) प्राप्त हुआ था। यह स्तंभ दूसरी शताब्दी का माना जाता हैं। पुरातत्वविदों के अनुसार यह स्तंभ किसी यज्ञादि के आयोजनोत्तर लगाया गया होगा।
कबीरधाम जिले में फणिनागवंशी कालीन अनेक सरोवर विद्यमान हैं। कवर्धा में महामाया तालाब, राध-कृष्ण मंदिर के पास प्राचीन सरोवर आदि। पचराही में भी पांच तालाबों की श्रृंखला विद्यमान है। अन्य पुरास्थलों में धमधागढ़, बालोद, बेमेतरा, सहसपुर-लोहारा, गंडई में भी प्राचीन सरोवर हैं।
भवदेव रणकेशरी का भांदक से प्राप्त शिलालेख-चांदा जिले के भांदक (भद्रावती) से नागपुर संग्रहालय में पहुंचाया था। 36 वें श्लोक में मंदिरों को विहार कहा गया है। वाणी, कूप, उद्यान, सभाभवन अटारी और चैत्य आदि नाम दिये गये थे। जाजल्लदेव प्रथम का रतनपुर शिलालेख संवत 866 (सन् 1114ई.) में शासक द्वारा तपस्वियों के लिए मठ, उद्यान, आम्र वन और मनोहर सरोवरों के निर्माण का वर्णन हैं।
कलचुरि शासक पृथ्वीदेव द्वितीय के रतनपुर शिलालेख संवत 910 (सन्1158-59) में रत्नेश्वर नामक सरोवर, आम पेड़ों का बगीचा, तालाब, बावड़ी आदि निर्माण का उल्लेख हैं। सोमवंशी शासक भानुदेव का कांकेर शिलालेख संवत् 1242 (सन् 1320 ई.) में सरोवर, बांध, कुंए, बावड़ी, मंदिर आदि का निर्माण धार्मिक कार्य हेतु किया गया था। संस्कृति एवं सभ्यता का उद्गम और पल्लवन जल स्त्रोत के समीप हुआ।
संदर्भ-ग्रंथ :-
- महाभारत-वनपर्व, अध्याय-313, श्लोक 56
- स्कंद पुराण
- जातक कथाएं
4.उत्कीर्ण लेख बालचन्द्र जैन-1961 - एपिग्राफिआ इंडिका, जिल्द-2पृ.174 इत्यादी एवं का, इ.इ. जिल्द-4 क्रमांक 42
- डॉ. रायबहादुर हीरालाल-द्वितीय संस्करण, क्रमांक-48.
- गजेटियर-रायपुर, बस्तर, सरगुजा, बिलासपुर
- रहीम एवं तुलसीदास के दोहे।
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