आम लोगों का आम, खास लोगों का आम, आम तो आम ही है पर आम खाने वाले लोग खास ही होते हैं। अब समय है वृक्षों पर आम के पकने का। इससे पहले तो कृत्रिम रुप से पकाए आम बाजारों में भरे पड़े है। पर उनमें वो मजा कहाँ जो स्वत: पके हुए आम में है। कृत्रिम रुप से पके हुए आम में छिलका पहले पीला होता है, पर गुठली सफ़ेद ही रहती है। वृक्ष पर पके आम में गुठली नारंगी होती है, चाहे छिलका हरा ही क्यों न हो।
आम के साथ बचपन के दिन भी जुड़े हैं, जब स्कूल से भागकर टिकोरों के चक्कर में मीलों दूर तक की धरती नाप आते थे। ऐसे ही हमारे देश का राष्ट्रीय फ़ल आम को नहीं बनाया गया है। इसमें गुण भरे पड़े हैं, पर आर्युर्वेद की दृष्टि से अवगुण भी हैं। माना जाता है कि यह कुदरत का नायाब तोहफ़ा है। जिसका कोई जवाब नहीं।
आम का विशिष्ठ अर्थ भी है, जैसे आम खास, दीवाने आम, जहां बादशाह जनता के बीच बैठते थे आम दरबार –खुला दरबार, जिसमें सभी लोग जा सके। आम फहम –जो सबकी समझ में आ सके। आम रास्ता, आम राय, आम लोग, आदि आदि। मगर चर्चा यहाँ सिर्फ आम पर है ।
कालीदास ने इसका गुणगान किया है तो शतपथ ब्राह्मण में भी उल्लेख मिलता है तथा अमरकोश में प्रशंसा इसकी बुद्दकालीन लोकप्रियता का प्रमाण है। वैशाली नगरवधू आम्रपाली को कौन नहीं जानता। पौराणिक देवी अम्बिका के शिल्प में पहचान आम्रवृक्ष ही दिखाई देता है। वेदों में आम को विलास का प्रतीक कहा है।
कालिदास का मेघदूत भी आम्रकूट (अमरकंटक) होकर उज्जियनी की ओर बढ़ता है। भारतवर्ष में आम से संबंधित अनेक लोकगीत, आख्यायिकाएँ आदि प्रचलित हैं और हमारी रीति, व्यवहार, हवन, यज्ञ, पूजा, कथा, त्योहार तथा सभी मंगलकायाँ में आम की लकड़ी, पत्ती, फूल अथवा एक न एक भाग प्राय: काम आता है।
संस्कृत साहित्य में इसका ज़िक्र आम्र के नाम से होता है और 4000 साल से इसे उगाया जाता रहा है। अंग्रेज़ी भाषा का मैंगो तमिल शब्द मंगाई से आया है। असल में पुर्तगालियों ने तमिल से लेकर इसे मंगा के रूप में स्वीकार किया, जहां से अंग्रेज़ी का शब्द मैंगो आया। इस पेड़ की छाया के अलावा इससे कई धार्मिक मान्यताएं भी जुड़ी हुई हैं जैसे, राधा कृष्ण का पौराणिक नृत्य, शिव और पार्वती का विवाह आदि।
भारतीय साहित्य में इस पेड़ को काफी लोक प्रियता प्राप्त है। अमराईयों में झूले डालकर झूलती नायिकाओं के नयनाभिराम रूप और मनोहारी किस्से से संस्कृत साहित्य समृद्ध है। लोकगीतों में भी इसकी महिमा कम नहीं है।
“अमुआ के डाली पे बैठी कोयलिया” किसी भी व्यक्ति को, उसके ग्राम्य जीवन, उसके परिवेश की याद दिलाने के लिए काफ़ी है। जब कोयलिया मधुर स्वर से कूकती है, तब मन आत्मविभोर हो जाता है। उसे प्रकृति की यह दूती अपनी सखी सहचरी मालूम पड़ती है। “अमुआ तले डोला रख दे मुसाफिर’ विदा होकर ससुराल जाती बेटियों की विरह वेदना कितनों की आँखों को अश्रुपूरित कर देती है।
सूफ़ी कवि अमिर ख़ुसरो ने फ़ारसी काव्य में आम की खूब तारीफ़ की थी और इसे फ़क्र-ए-गुलशन नाम दिया था.यही नहीं, आम सभी मुग़ल बादशाहों का पसंदीदा था. इसकी फसल को विकसित करने में उन्होंने कोशिशें की थीं और भारत की अधिकांश विकसित क़िस्मों के लिए उन्हीं को श्रेय जाता रहा है.
अकबर (1556-1605 ईस्वी) ने बिहार के दरभंगा में एक लाख आम के पेड़ों का बग़ीचा लगवाया था। आईने-अकबरी (1509 ईस्वी) में भी आम की क़िस्मों और उनकी ख़ासियतों के बारे में काफ़ी तफ़सील है। यहां तक कि बहादुर शाह ज़फ़र के पास भी लाल क़िले में आम का बग़ीचा था, जिसका नाम था हयात बख़्श, जिसमें कुछ मशहूर आम उगाए जाते थे।
माना जाता है कि पूरी दुनिया में आमों की 1500 से ज़्यादा क़िस्में हैं, जिनमें 1000 क़िस्में भारत में उगाई जाती हैं। भारत में उगाई जाने वाली कुछ लोकप्रिय क़िस्में हैं जैसे, हापुस (जिसे अल्फ़ांसो के नाम से भी जाना जाता है), मालदा, राजापुरी, पैरी, सफेदा, फ़ज़ली, दशहरी, तोतापरी और लंगड़ा। अब तो और भी नयी किस्में उद्यानिकी वैज्ञानिकों ने पैदा कर दी हैं।
राजनैतिक गलियारों में इसका अत्यंत महत्वपूर्ण स्थान है। देवगौड़ा के शासन काल में तत्कालीन बिहार के मुख्यमंत्री लालू प्रसाद ने उन्हें बिहारी तरीके से पत्रकारों की उपस्थिति में पानी से भरी बाल्टी से आम निकालकर खाना सिखाया था। बहुत साल पहले जब पाकिस्तानी राष्ट्रपति भारत आए थे तो इस मधुरिम फल को साथ लेकर आए थे, ताकि मीठे मुंह और मूड के साथ गंभीर वार्ता कामयाब हो सके।
वर्षा का आगमन होने को है और आम की फ़सल भी सम्पन्न होने को है, फ़िर एक बरस प्रतीक्षा करनी पड़ेगी। चूकिए नहीं, आम का भरपूर आनंद लीजिए। खुद भी खाईए और दोस्तों, परिजनों को भी खिलाइए। आम के स्वाद का आनंद लेने से चूकना नहीं चाहिए।
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