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सभ्यता एवं लोक संस्कृति संवाहक चित्रोत्पला गंगा महानदी

नदियाँ हमारी धरती को प्रकृति की सबसे बड़ी सौगात हैं। जरा सोचिए! एक नदी के कितने नाम हो सकते हैं? छत्तीसगढ़ और ओड़िशा की जीवन रेखा 885 किलोमीटर की महानदी के भी कई नाम हैं। इसकी महिमा अपरम्पार है। इसके किनारों पर इसका उद्गम वह नहीं है, जिसे आम तौर पर माना और बताया जाता है।

दक्षिण कोसल यानी प्राचीन छत्तीसगढ़ और उधर उत्कल प्रदेश का हजारों वर्षों का भौगोलिक और सांस्कृतिक इतिहास इससे जुड़ा हुआ है । छोटी-बड़ी कई सहायक नदियों को अपने आँचल में सहेजकर यह नदी बंगाल की खाड़ी में पहुँचने तक विशाल से विशालतम आकार धारण करती जाती है।

महानदी बालूका मिलन

महानदी के बारे में कहा जाता है कि यह छत्तीसगढ़ के सिहावा पर्वत में श्रृंगी ऋषि के आश्रम के पास से निकली है । लेकिन यह अर्धसत्य है । इसका उदगम क्षेत्र धमतरी जिले में सिहावा का पर्वतीय अंचल जरूर है, लेकिन वहाँ इसका प्रवाह फरसिया कुण्ड से शुरू होता है । वहां पर यह महानन्दा के नाम से जानी जाती है । इस कुण्ड को महानन्दा कुण्ड भी कहते हैं । यह कुण्ड नगरी कस्बे से आठ किलोमीटर पर है। सेवानिवृत्त वरिष्ठ राजस्व अधिकारी जी.आर. राणा के अनुसार तत्कालीन ब्रिटिश प्रशासन के टोपोशीट में भी इसका उल्लेख है ।

उल्लेखनीय है कि छत्तीसगढ़ के एक बहुत बड़े भू -भाग में यह नदी दक्षिण से उत्तर दिशा में बहती है और राज्य के प्रसिद्ध तीर्थ शिवरीनारायण में आकर शिवनाथ और जोंक नदियों के साथ त्रिवेणी संगम का निर्माण करने के बाद वहाँ से पूर्वी दिशा में ओड़िशा की ओर बढ़ जाती है । इसके पहले यह राजिम में भी यह पैरी और सोंढूर नदियों के साथ मिलकर त्रिवेणी संगम का निर्माण करती है।

महानदी उद्गम

फरसिया कुण्ड के अपने उदगम से निकलकर महानदी ग्राम मोदे के पुराने पुल से होते हुए कर्णेश्वर धाम (देवपुर ) पहुँचती है। यहाँ पर देवहृद नामक जलकुण्ड है। कर्णेश्वर धाम में हर साल प्रसिद्ध मेले का भी आयोजन होता है। यहीं पर महानन्दा यानी महानदी से बालका नदी का भी मिलन होता है। इस वन क्षेत्र में सीता नदी का उदगम है । सीता नदी और वालका नदी एक चट्टान से निकलती हैं। दोनों नदियों के नामों से रामायण कालीन इतिहास का भी सम्बन्ध जुड़ता है। वालका से आशय महाकाव्य रामायण के रचयिता महर्षि वाल्मीकि से है और सीता नदी माता सीता के नाम से।

सिहावा पर्वत के नीचे एक अक्षयवट है। वहाँ के झरने का पानी महानन्दा और वालका नदियों में मिलता है। दोनों नदियाँ एकाकार होकर चित्रोत्पला गंगा के नाम से आगे प्रवाहित होती हैं। वहाँ से लगभग दो-ढाई किलोमीटर पर पाँव द्वार नामक एक पवित्र स्थान है, जहाँ भगवान श्रीगणेश जी की मूर्ति को जंजीर से बांधकर रखा गया है।

कर्णेश्वर महादेव देवपुर सिहावा

पाँव द्वार के पास सीता नदी चित्रोत्पला यानी महानदी से मिलती है। वहाँ से करीब दो या ढाई किलोमीटर आगे जाकर चित्रोत्पला कंक पर्वत की ओर मुड़ जाती है, जहाँ वह इसके पर्वतीय झरने से मिलकर आगे कंक नन्दिनी के नाम से बहने लगती है।

केशकाल घाटी की दो छोटी नदियाँ कंक नन्दिनी में मिल जाती हैं। इनके नाम हैं – हटकुल और दूध नदी। ग्राम पुरी (पटौद)के पास हटकुल और ग्राम कुरना के पास दूध नदी का मिलन कंक नन्दिनी यानी महानदी से होता है। फिर वह मुरूमसिल्ली से होती हुई आगे राजिम की दिशा में मुड़ जाती है ।

पैरी एवं सोंढूर नदी संगम स्थल पनटोरा गरियाबंद

इस बीच गरियाबंद के भाटीगढ़ में एक चट्टान से पैरी नदी और उधर सिहावा पर्वत के दूसरे छोर से सोंढूर नदी राजिम से कुछ आगे बारुका के पास ( पनटोरा ग्राम ) में आकर एकाकार होती हैं और आगे पाण्डुका के पास सिरकट्टी में मकरवाहिनी के नाम से प्रवाहित होकर राजिम में महानदी के साथ पवित्र त्रिवेणी संगम का में समाहित हो जाती है । सिरकट्टी में प्राचीन बन्दरगाह के भी अवशेष मिले हैं । इससे पता चलता है कि छत्तीसगढ़ में महानदी और उसकी सहायक नदियों के जलमार्गों से नौकाओं द्वारा भारत के दूर -दराज के इलाकों तक व्यापार होता था ।

राजिम को अनेक धर्माचार्यों ने पौराणिक सन्दर्भों के आधार पर ‘पद्म क्षेत्र ‘ या ‘कमल क्षेत्र’ के नाम से भी चिन्हांकित किया है। यहाँ का राजीवलोचन मन्दिर छत्तीसगढ़ सहित देश -विदेश के लाखों-करोड़ों लोगों की आस्था का प्रमुख केन्द्र है। राजेश्री डॉ. महन्त रामसुन्दर दास ने छत्तीसगढ़ के मन्दिरों पर केन्द्रित अपने ग्रन्थ ‘श्रीराम संस्कृति की झलक’ में इतिहासविदों को संदर्भित करते हुए लिखा है कि आठवीं शताब्दी में नलवंशीय राजा विलासतुंग ने भगवान श्री राजीवलोचन की चतुर्भुजी मूर्ति के लिए इस मन्दिर का निर्माण करवाया, जबकि कल्चुरि शासक पृथ्वीदेव द्वितीय के सेनापति जगतपाल ने बारहवीं शताब्दी में इसका जीर्णोद्धार करवाया था। इसका उल्लेख मन्दिर के महामण्डप की पार्षवभित्ति पर अंकित कल्चुरि सम्वत 896 अर्थात सन 1154 ईस्वी के एक शिलालेख में किया गया है।

राजीव लोचन मंदिर राजिम

राजिम में कुलेश्वर महादेव के मन्दिर के पास महानदी, पैरी और सोंढूर नदियों का जो त्रिवेणी संगम है, उसे भगवान शंकर का ही कुल माना जाता है। यहाँ महानदी का एक नाम ‘महानन्दी’ यानी शिव भी है । पैरी को पार्वती और सोंढूर को उनके पुत्र भगवान गणेश का प्रतीक माना जाता है। राजिम का परम्परागत पुन्नी मेला भी काफी प्रसिद्ध है, जो माघ पूर्णिमा से महाशिवरात्रि तक चलता है। सैकड़ों वर्ष पहले तीर्थ नगरी राजिम का नामकरण भक्तिन माता राजिम के नाम पर हुआ था।

वहाँ से आगे महानदी महाप्रभु वल्लभाचार्य की जन्म स्थली चम्पारण्य पहुँचती है। महान संत वल्लभाचार्यजी का जन्म संवत 1535 याने कि सन 1479 ईस्वी में हुआ था। उन्होंने विद्या अध्ययन काशी में किया । हिन्दी साहित्य के इतिहास में वह भक्तिकाल के प्रमुख कवियों में से थे। श्रीकृष्ण के परम भक्त वल्लभाचार्य जी ने पुष्टिमार्ग का प्रवर्तन करते हुए स्वयं लगभग दो दर्जन ग्रन्थों की रचना की, जिनमें तत्वार्थ दीप, पुरुषोत्तम सहस्त्र नाम, मधुराष्टक आदि शामिल हैं । सूरदास, कुम्भनदास, परमानन्द दास आदि महाप्रभु वल्लभाचार्य द्वारा प्रवर्तित पुष्टि मार्ग के आठ प्रसिद्ध कवि हुए, जिन्हें अष्टछाप कवि के नाम से जाना जाता है । आगे जाकर महानदी फिंगेश्वर के पास सुखनी नदी को भी अपने आँचल में सहेज लेती है।

बल्लभाचार्य जन्म स्थली चम्पारण अभनपुर

यहां से आगे चलकर राजा मोरध्वज की नगरी आरंग, दक्षिण कोसल की राजधानी के नाम से प्रसिद्ध सिरपुर (श्रीपुर) होते हुए महानदी जांजगीर-चाम्पा जिले में शिवरीनारायण पहुँचती है, जहाँ शिवनाथ और जोंक नदियों के साथ त्रिवेणी संगम बनाकर वह पूर्वी दिशा में चंद्रपुर आती है। यहाँ पर वह माण्ड नदी से मिलकर आगे ओड़िशा की दिशा में सम्बलपुर की तरफ बढ़ जाती है, जहाँ उसकी विशाल जल राशि से बना विश्वप्रसिद्ध हीराकुद बाँध स्थित है ।

हीराकुंड से महानदी ओड़िशा के ही बरगढ़, सम्बलपुर, सोनपुर, बलांगीर आदि जिलों से होते हुए कटक के पास कई धाराओं में बंटकर बंगाल की खाड़ी में समाहित हो जाती है। महानदी पर छत्तीसगढ़ में निर्मित रुद्री, गंगरेल बाँध (रविशंकर जलाशय ), मुरूमसिल्ली जलाशय और समोदा व्यपवर्तन जैसी परियोजनाओं से लाखों एकड़ खेतों को सिंचाई सुविधा मिल रही है। गंगरेल बांध में छत्तीसगढ़ सरकार की एक जलविद्युत परियोजना भी विगत कई वर्षों से संचालित है । इतना ही नहीं बल्कि छत्तीसगढ़ का सबसे लम्बा पुल भी महानदी पर बनाया गया है ,जो रायगढ़ जिले में सूरजगढ़ के पास ग्राम परसरामपुर में है । इसकी लम्बाई 1830 मीटर यानी करीब -करीब दो किलोमीटर है। यह पुल छत्तीसगढ़ के रायगढ़, सरिया, बरमकेला आदि इलाकों को ओड़िशा के बरगढ़ जिले से जोड़ता है ।

कुलेश्वर महादेव राजिम

महानदी के दोनों किनारों पर प्राचीन भारतीय इतिहास के अनेक अमिट स्मृति चिन्ह हमें दक्षिण कोसल और उत्कल प्रदेशों के गौरवशाली अतीत और सांस्कृतिक वैभव की याद दिलाते हैं। छत्तीसगढ़ की यह धरती रामायण काल में माता कौसल्या की जन्म स्थली और उनके मायके के रूप में तो चिन्हांकित है । इसलिए यह प्रदेश मर्यादा पुरुषोत्तम भगवान श्रीराम का ननिहाल भी है। पौराणिक इतिहासकारों के अनुसार चौदह वर्षों के वनवास के लिए अयोध्या से निकले श्रीराम का वनगमन पथ भी छत्तीसगढ़ से होकर गुज़रा है ।

श्रीपुर (सिरपुर) जहाँ तत्कालीन दक्षिण कोसल की राजधानी के रूप में विख्यात है ,वहीं यह शैव, वैष्णव और बौद्ध संस्कृतियों के त्रिवेणी संगम के रूप में भी इतिहास में प्रसिद्ध है । जाने -माने कवि और इतिहासविद स्वर्गीय हरि ठाकुर ने अपनी पुस्तक ‘छत्तीसगढ़ गौरव गाथा’ में श्रीपुर को सातवीं शताब्दी के पूर्वार्द्ध की मूर्ति कला के एक अत्यंत महत्वपूर्ण केन्द्र के रूप में वर्णित किया है। वह लिखते हैं – “सन 1955-56 में डॉ. म.गो. दीक्षित के निर्देशन में श्रीपुर में उत्खनन करवाया गया, जिसमें डेढ़ हज़ार वर्ष प्राचीन धर्म, संस्कृति और कला के अनेक रहस्यों का उदघाटन हुआ।”

महानदी सिरपुर

यह भी उल्लेखनीय है कि सन 639 ईस्वी में इतिहास प्रसिद्ध चीनी यात्री हुएनसांग ने अपने यात्रा वर्णन में इसे भारत का एक प्रमुख बौद्ध केन्द्र बताया था । इतना ही नहीं, बल्कि हुएनसांग ने यह भी लिखा है कि बौद्ध दार्शनिक और महायान सम्प्रदाय के संस्थापक बोधिसत्व नागार्जुन भी श्रीपुर (सिरपुर) में रहते थे । हरि ठाकुर के अनुसार नागार्जुन ही वह प्रमुख व्यक्ति थे, जिन्होंने बौद्ध धर्म के दार्शनिक सिद्धांतों को संस्कृत भाषा में लिखा। उनके पूर्व बौद्ध धर्म के ग्रन्थ पाली भाषा में लिखे जाते थे । दर्शन के क्षेत्र में शून्यवाद नागार्जुन की सबसे बड़ी देन है ।

अपनी पुस्तक ‘छत्तीसगढ़ गौरव गाथा” में हरिठाकुर कहते हैं -“हुएनसांग के सिरपुर प्रवास के समय महायानी बौद्धों के 100 संघाराम (बौद्ध मठ या विहार ) थे, जहाँ दस हज़ार भिक्षु महायान धर्म दर्शन की शिक्षा ग्रहण करते थे ।उस समय श्रीपुर नगर दस किलोमीटर की परिधि में बसा हुआ था। यह नगर महाशिवगुप्त बालार्जुन की राजधानी था । बौद्ध धर्म को बालार्जुन का राजाश्रय प्राप्त था ।

लक्ष्मण मंदिर सिरपुर

अब कुछ चर्चा शिवनाथ और जोंक नदियों के साथ महानदी की मिलन भूमि शिवरीनारायण के बारे में भी हो जाए । यह मन्दिरों का शहर है। राजेश्री डॉ. महन्त रामसुन्दर दास कहते हैं -“हमारे देश के उत्तर में श्री बद्रीनाथ धाम, दक्षिण में श्री रामेश्वरम धाम, पूर्व में श्री जगन्नाथपुरी धाम और पश्चिम में श्रीद्वारिकापुरी धाम स्थित हैं । छत्तीसगढ़ का श्री शिवरीनारायण धाम इन सबके बीच ‘गुप्त धाम’ के रूप में स्थित है ।”

यहाँ के प्रमुख मन्दिरों में श्री शिवरीनारायण मन्दिर, श्रीमठ मन्दिर श्रीराम मन्दिर, मां अन्नपूर्णा मन्दिर, श्रीचन्द्रचूड़ महादेव मन्दिर, श्री जगन्नाथ मन्दिर आदि उल्लेखनीय हैं । शिवरीनारायण में पीपल का एक विशाल वृक्ष अपने दोनाकार पत्तों के कारण श्रद्धालुओं के विशेष आकर्षण का केन्द्र है । शिवरीनारायण धाम और महानदी से कुछ ही किलोमीटर के फासले पर बलौदाबाजार जिले में कसडोल के पास पवित्र गिरौदपुरी धाम स्थित है, जो छत्तीसगढ़ के महान सन्त समाज सुधारक और सतनाम पंथ के प्रवर्तक गुरु बाबा घासीदास जी की जन्म स्थली और तपोभूमि के रूप में लाखों-करोड़ों लोगों की आस्था का प्रमुख केन्द्र है।

जैतखांम गिरौदपुरी

महानदी के ही आँचल में पहाड़ियों के प्राकृतिक सौंदर्य से परिपूर्ण ग्राम तुरतुरिया संस्कृत भाषा के महाकवि और ‘रामायण ‘ के रचयिता महर्षि वाल्मीकि की तपोभूमि और उनके आश्रम के नाम से प्रसिद्ध है। यह बलौदाबाजार-भाटापारा जिले में स्थित है । लोकमान्यता है कि माता सीता ने वनवास के दौरान यहीं पर अपने महान सपूतों-लव और कुश को जन्म दिया था। महर्षि वाल्मीकि का आश्रम एक गुरुकुल भी था, जहाँ उन्होंने माता सीता को न सिर्फ़ आश्रय दिया ,बल्कि उनके दोनों पुत्रों को वेद और पुराण सहित विभिन्न धर्म ग्रन्थों की शिक्षा भी दी ।

शिवरीनारायण धाम के निकटवर्ती प्राचीन खरौद नगर भी महानदी के कछार में ही स्थित है, जहाँ का ऐतिहासिक लक्ष्मणेश्वर मन्दिर भी बहुत प्रसिद्ध है । इतिहासकार बताते हैं कि इसका निर्माण सिरपुर (श्रीपुर) के चंद्रवंशी राजाओं द्वारा आठवीं शताब्दी में करवाया गया था। निराकार महालिक की मूल ओड़िया पुस्तक के मेरे द्वारा किए गए हिन्दी रूपांतर ‘तीर्थ क्षेत्र नृसिंहनाथ ‘ पर अपने अभिमत में ओड़िया भाषा के सुपरिचित लेखक डॉ. शंकरलाल पुरोहित ने लिखा है -“महानदी उपत्यका में धर्म की धारा का वेग देखना हो तो ओड़िशा के नृसिंहनाथ, हरिशंकर, सोनपुर और कँटीलो आदि कम प्रचारित तीर्थों की ओर ध्यान लगाना होगा।

लखनेश्वर (लक्षेश्वर) शिवालय खरौद

वह धारा अनुचय स्वर में भारतीय धर्म जगत के इतिहास को आज भी अपने दोनों ओर निनादित कर रही है । प्रचार के शंखनाद में वह कहीं सुनाई नहीं पड़ती, लेकिन इससे क्या इतिहास बदल जाएगा?” हाँ ,रोमांटिक दृष्टि रखने वाले चाहे इतिहास कैसे भी लिखें, ये खण्डहर चाहे लुप्त हो जाएं, पर इनकी धड़कन वर्तमान और इतिहास के बीच की सही कड़ी ढूंढते समय सुनना अपरिहार्य होगा ।”

आख़िर महानदी के पानी में ऐसा क्या जादू है कि धर्म, दर्शन, साहित्य, कला और संस्कृति से जुड़ी अनेक महान विभूतियों ने इसके आँचल में जन्म लेकर या इसे अपना कर्मक्षेत्र बनाकर तत्कालीन कोसल और दक्षिण कोसल (वर्तमान छत्तीसगढ़ )का गौरव बढ़ाया है ।

महानदी शिवरीनारायण

सुदूर अतीत में चाहे महर्षि वाल्मीकि हों या महाप्रभु वल्लभाचार्य और आधुनिक युग अर्थात अठारहवीं सदी में गुरु बाबा घासीदास या उनके पहले पंद्रहवीं शताब्दी में बांधवगढ़ से छत्तीसगढ़ आकर यहाँ कबीरपंथ की शाखा प्रारंभ करने वाले धनी धर्मदास, चाहे सन 1857 के प्रथम भारतीय स्वतंत्रता संग्राम में छत्तीसगढ़ से शहीद होने वाले सोनाखान के वीर नारायण सिंह हों या बीसवीं शताब्दी के प्रारंभ में तीर्थ नगरी राजिम में 21 दिसम्बर सन 1881 को जन्मे साहित्यकार और स्वतंत्रता संग्राम सेनानी पण्डित सुन्दरलाल शर्मा, चाहे कण्डेल नहर सत्याग्रह के सूत्रधार बाबू छोटेलाल श्रीवास्तव हों सबके व्यक्तित्व और कृतित्व में किसी न किसी रूप में महानदी के पवित्र जल का असर हुआ ही है.ऐसी मेरी धारणा है।

वर्तमान युग में देखें तो राजिम सन्त कवि पवन दीवान, कृष्णा रंजन और पुरुषोत्तम अनासक्त जैसे बड़े कवियों की कर्मभूमि रह चुकी है। छत्तीसगढ़ी भाषा का पहला व्याकरण महानदी के ही तटवर्ती धमतरी में सन 1885 में हीरालाल काव्योपाध्याय द्वारा लिखा गया। धमतरी में ही नारायण लाल परमार, त्रिभुवन पाण्डेय, मुकीम भारती, भगवतीलाल सेन और सुरजीत नवदीप जैसे कवियों और लेखकों ने अपनी रचनाओं से देश-विदेश में छत्तीसगढ़ का नाम रौशन किया ।

शिवरीनारायण मठ

महान पुरातत्वविद पण्डित लोचनप्रसाद पाण्डेय और आधुनिक हिन्दी कविता में छायावाद के प्रवर्तक पद्मश्री सम्मानित पण्डित मुकुटधर पाण्डेय का जन्म भी महानदी के किनारे ग्राम-बालपुर में हुआ था । यह गाँव साहित्य, कला और संस्कृति की नगरी रायगढ़ से लगभग 40 किलोमीटर पर है। रायगढ़ दोनों भाइयों का कर्मक्षेत्र रहा ।

राजधानी रायपुर भी महानदी से कोई बहुत दूर नहीं है। यही कोई चालीस किलोमीटर के आस-पास! इसलिए रायपुर की अनेक विभूतियों के जीवन दर्शन पर भी महानदी के पानी का असर साफ़ नज़र आता है । यहाँ का दूधाधारी मठ भी छत्तीसगढ़ वासियों की आस्था का प्राचीन और प्रसिद्ध केन्द्र है। इसकी स्थापना सम्वत 1610 में राजेश्री महन्त बलभद्र दास द्वारा की गयी थी, जिन्हें सिर्फ़ दूध का आहार ग्रहण करने के कारण दूधाधारी महाराज के नाम से प्रसिद्धि मिली ।

प्राचीन मंदिर शिवरीनारायण

अंग्रेज हुकूमत के ख़िलाफ़ सशस्त्र संघर्ष के महानायक सोनाखान के अमर शहीद वीर नारायण सिंह ने इसी रायपुर शहर में 10 दिसम्बर 1857 को फाँसी की सजा को स्वीकार करते हुए देश की आज़ादी के लिए मौत को गले लगा लिया । रायपुर की ही ब्रिटिश फ़ौजी छावनी में सशस्त्र विद्रोह का परचम लहराने वाले वीर हनुमान सिंह और उनके 17 साथी सैनिक 22 दिसम्बर 1858 को मौत की सजा मिली और उन्होंने आज़ादी के आंदोलन में अपने प्राणों की आहुति दे दी । महान दार्शनिक स्वामी विवेकानंद ने अपने बाल्यकाल के दो वर्ष रायपुर में गुजारे। उनके जीवन दर्शन को जन -जन तक पहुँचाने वाले महान दार्शनिक स्वामी आत्मानन्द की जन्मस्थली होने का गौरव भी छत्तीसगढ़ को प्राप्त है।

स्वतंत्रता संग्राम सेनानी और छत्तीसगढ़ राज्य निर्माण आंदोलन के प्रमुख सूत्रधार, वामन बलिराम लाखे, डॉ. खूबचन्द बघेल, पण्डित रविशंकर शुक्ल, त्यागमूर्ति ठाकुर प्यारेलाल सिंह, हरि ठाकुर, सुधीर मुखर्जी और केयूर भूषण जैसे अनेक दिग्गज सेनानियों ने यहाँ आज़ादी के आंदोलन का नेतृत्व किया । अपने गहन अध्ययन से युवा अवस्था में हिन्दी, बांग्ला, मराठी और अंग्रेजी सहित देश और दुनिया की अठारह भाषाओं के ज्ञाता के रूप में मशहूर हरिनाथ डे मात्र 34 वर्ष की उम्र में संसार से चले गए, जिनका जन्म 12 अगस्त 1877 को बंगाल में हुआ, लेकिन उनकी प्राथमिक और मिडिल स्कूल की शिक्षा छत्तीसगढ़ के रायपुर में हुई थी ।

प्राचीन बंदरगाह महानदी सिरकट्टी आश्रम

छत्तीसगढ़ के प्रथम पत्रकार पण्डित माधवराव सप्रे का जन्म ज़रुर 19 जून 1871 को वर्तमान मध्यप्रदेश के ग्राम पथरिया (जिला-दमोह )में हुआ, लेकिन उनकी प्रारंभिक शिक्षा छत्तीसगढ़ के बिलासपुर और हाईस्कूल की शिक्षा रायपुर में हुई । इसी रायपुर शहर के गवर्नमेंट स्कूल यानी वर्तमान में प्रोफेसर जे.एन.पाण्डेय शासकीय बहुउद्देश्यीय हायर सेकेंडरी स्कूल से उन्होंने 1890 में मेट्रिक पास किया और आगे की पढ़ाई के लिए जबलपुर चले गए, लेकिन वर्ष 1900 में उन्होंने अपने साथी रामराव चिंचोलकर के साथ मिलकर पेण्ड्रा से छत्तीसगढ़ की प्रथम मासिक पत्रिका ‘छत्तीसगढ़ मित्र’ का सम्पादन शुरू किया ,जिसके प्रकाशक थे पण्डित वामन बलिराम लाखे ।

सर्वोच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश और देश के उपराष्ट्रपति रह चुके न्यायमूर्ति एम. हिदायतुल्लाह की प्रारंभिक शिक्षा भी रायपुर के इसी गवर्नमेंट स्कूल में हुई थी । यह महानदी के पानी और उसकी लहरों का स्पर्श कर बहती हवाओं का ही चमत्कार है कि इस नदी के स्नेहसिक्त आँचल ने अनेक संस्कृतियों को और असंख्य प्रतिभाओं को पुष्पित और पल्लवित किया । एक नदी सिर्फ़ जलप्रदायनी ही नहीं होती, वह लोकसंस्कृति की वाहनी के साथ सभ्यता के विकास में भी संलग्न  होती है। सचमुच अपरम्पार है महानदी की महिमा ।

छायाचित्र – ललित शर्मा

आलेख

स्वराज करुण, रायपुर
वरिष्ठ पत्रकार, साहित्यकार

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One comment

  1. बहुत सुंदर विस्तृत जानकारी वाह इतनी मेहनत करके लिखना भी एक महान कार्य है

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