हमारे देश की परम्परा तीज त्यौहारों, उत्सवों, मेलों की है। मनुष्य हमेशा उत्सव में रहना चाहता है, कहा जाए तो हमारी परम्परमा में वर्ष के सभी दिन उत्सवों के हैं। इन्हीं उत्सवों में हम छत्तीसगढ़ में छेरछेरा पुन्नी मनाते हैं। इस त्यौहार में बच्चे बड़े उत्साह से भाग लेते हैं।
कोई भी परिवार अपने बच्चे को भिक्षाटन हुए नहीं देखना चाहता, लेकिन साल में एक दिन ऐसा भी होता है जब परिवार के लोग खुद बच्चों को नहला-धुलाकर तैयार करते हैं। उन्हें अच्छे कपड़े पहनाते हैं और झोला पकड़ाकर घर-घर भिक्षाटन के लिए भेजते हैं।
यह त्योहार प्रतिवर्ष पौष मास की पूर्णिमा को पूरे राज्य में ‘छेर-छेरा पुन्नी’ के रूप में मनाया जाता है। मान्यता है कि इस दिन दान करने से घर में अनाज की कोई कमी नहीं रहती। इस त्योहार के शुरू होने की कहानी रोचक है। बताया जाता है कि कौशल प्रदेश के राजा कल्याण साय ने मुगल सम्राट जहांगीर की सल्तनत में रहकर राजनीति और युद्धकला की शिक्षा ली थी।
कल्याण साय लगभग आठ साल तक राज्य से दूर रहे। शिक्षा लेने के बाद जब वे रतनपुर आए तो लोगों को उनके आने की खबर लगी। खबर मिलते ही लोग बैलगाड़ी एवं पैदल राजमहल की ओर चल पड़े। छत्तीसगढ़ों के राजा भी कोसल नरेश के स्वागत के लिए रतनपुर पहुंचे। अपने राजा को आठ साल बाद देख कोसल देश की प्रजा ख़ुशी से झूम उठी।
लोक गीतों और गाजे-बाजे की धुन पर हर कोई नाच रहा था। राजा की अनुपस्थिति में उनकी पत्नी रानी फुलकैना ने आठ साल तक राजकाज सम्भाला था, इतने समय बाद अपने पति को देख वह ख़ुशी से फूली जा रही थी। उन्होंने दोनों हाथों से सोने-चांदी के सिक्के प्रजा में लुटाए। इसके बाद राजा कल्याण साय ने उपस्थित राजाओं को निर्देश दिए कि आज के दिन को हमेशा त्योहार के रूप में मनाया जाएगा और इस दिन किसी के घर से कोई याचक खाली हाथ नहीं जाएगा।
इस दिन यदि आपके घर में ‘छेर, छेरा! माई कोठी के धान ला हेर हेरा!’ सुनाई दे तो चौंकिएगा नहीं, बस एक-एक मुठ्ठी अनाज बच्चों की झोली में डाल दीजियेगा। नहीं तो वे आपने दरवाजे से हटेंगे नहीं और कहते रहेंगे, ‘अरन बरन कोदो करन, जब्भे देबे तब्भे टरन’।
हमारे प्रदेश में छेरछेरा पुन्नी का मह्त्व दीवाली होली से कम नहीं है। यह त्यौहार पूरे प्रदेश में मनाया जाता है तथा इस दिन सामाजिक बैंक से लेना-देना होता है। जाति समाज में लोग सामाजिक तौर इकट्ठे हुए रुपयों का लेन देन समाज में करते हैं तथा इसे ब्याज पर बांटते हैं, एक तरह से सहकारिता द्वारा आर्थिक सहयोग प्राप्त करते हैं।
सियान कहते हैं कि छेरछेरा के दिन मांगने वाला याचक यानी ब्राह्मण के रूप में होता है, तो देने वाली महिलाएं शाकंभरी देवी के रूप में होती है। छेरी, छै+अरी से मिलकर बना है। मनुष्य के छह बैरी काम, क्रोध, मोह, लोभ, तृष्णा और अहंकार है। बच्चे जब कहते हैं कि छेरिक छेरा छेर मरकनीन छेर छेरा तो इसका अर्थ है कि हे मकरनीन (देवी) हम आपके द्वार में आए हैं।
माई कोठी के धान को देकर हमारे दुख व दरिद्रता को दूर कीजिए। यही कारण है कि महिलाएं धान, कोदो के साथ सब्जी व फल दान कर याचक को विदा करते हैं। कोई भी महिला इस दिन किसी भी याचक को खाली हाथ नहीं जाने देती। वे क्षमता अनुसार धान-धन्न जरूर दान करते हैं।
जनश्रुति है कि एक समय धरती पर घोर अकाल पड़ा। अन्न, फल, फूल व औषधि नहीं उपज पाई। इससे मनुष्य के साथ जीव-जंतु भी हलाकान हो गए। सभी ओर त्राहि-त्राहि मच गई। ऋषि-मुनि व आमजन भूख से थर्रा गए। तब आदि देवी शक्ति शाकंभरी की पुकार की गई।
शाकंभरी देवी प्रकट हुई और अन्न, फल, फूल व औषधि का भंडार दे गई। इससे ऋषि-मुनि समेत आमजनों की भूख व दर्द दूर हो गया। इसी की याद में छेरछेरा मनाए जाने की बात कही जाती है। पौष में किसानों की कोठी धान से परिपूर्ण होता है। खेतों में सरसों, चना, गेहूं की फसल लहलहा रही होती है।
हमारे प्राचीन शिक्षा के केन्द्र गुरुकुलों में भिक्षाटन की प्राचीन परम्परा रही है। इन गुरुकुलों में एक आम नागरिक से लेकर राजकुमार तक शिक्षा ग्रहण करते थे तथा भोजन के लिए उन्हें अध्ययनकाल में उदरपूर्ति के प्रतिदिन भिक्षाटन करना पड़ता था।
भिक्षाटन के पीछे उद्देश्य यह था कि इससे गर्व का शमन होता है तथा राजकुमार भी भिक्षाटन द्वारा समाज को समझ सकें। भिक्षा लेने वाले की दृष्टि हमेशा भूमि पर होती है, अन्न का महत्व समझ आता है तथा करुणा का भाव उदय होता है, इससे भिक्षार्थी गर्व एवं घमंड नष्ट हो जाता है एवं मनुष्यत्व का भाव जागृत होता है। हमारे तीज त्यौहार हमें किसी न किसी रुप में मानव बनने की सीख देते हैं।
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