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तेल निकालने का प्राचीन यंत्र (तिरही)

जानिये कौन से प्राचीन यंत्र का प्रयोग वर्तमान में भी हो रहा है

वर्तमान में जो भौतिक वस्तुएं एवं सभ्यता दृष्टिगोचर हो रही है, वह मानव के क्रमिक विकास का परिणाम है। पुराविद एवं इतिहासकार वर्षों से यह जानने में लगे हैं कि प्राचीन मनुष्य का रहन-सहन, खान-पान क्या था, उसका भौतिक विकास कितना हुआ था।

पशुबल से संचालित गन्ने का रस निकालने का कोल्हू

उत्खनन में प्राप्त सामग्री के वैज्ञानिक शोध से हम प्राचीन मनुष्य के विषय में जानकारी जुटाने का प्रयास करते हैं। वर्तमान में भी हमें प्राचीन सभ्यता के अवशेष दिखाई देते हैं, जिनका उपयोग मानव प्राचीनकाल से लेकर अद्यतन कर रहा है। ऐसा ही एक यंत्र तिरही है, जिसका उपयोग प्राचीन काल से लेकर आजतक किया जा रहा है।
मनुष्य के दैनिक जीवन में तेल का स्थान महत्वपूर्ण है, अगर तेल न होता तो पकवानों के साथ मशीनों का परिचालन भी नहीं हो पाता। आदि मानव ने जीवन में तेल का महत्व समझा और तिलहन की पहचान कर उससे तेल निकालने के लिए मशीन का अविष्कार किया।

वृषभबल से संचालित कोल्हू (घानी)

बिना मशीन के तेल निकालना दुष्कर एवं कठिन कार्य है। वर्तमान में तो तेल निकालने का कार्य बिजली से चलने वाला मशीनी कोल्हू “स्पेलर” कर देता है, जिससे तेल अलग एवं खली अलग हो जाती है। तिल, सरसों, अलसी, नारियल, मुंगफ़ली, बादाम आदि एवं “राईस ब्रान” (धान के कोड़हे) से तेल मशीनों द्वारा निकाला जाता है जो भोजन में काम आता है।
प्राचीन काल में जब आदि मानव ने तेल का महत्व समझा तो उसे निकालने का जुगाड़ भी बनाया। जिसे तेलही या तिरही कहा जाता है। इसका निर्माण लकड़ी के दो मोटे लट्ठों से होता है, जिसके मध्यम में एक प्रणालिका लगा दी जाती है। प्रणालिका के ऊपर तिलहन को “मोहलाईन” वृक्ष की छाल में गठरी बनाकर उपरी लट्ठे से दबा दिया जाता है।
उपरी लट्ठे के मुहाने पर पत्थर रखकर तिलहन पर दबाव बनाया जाता है। जिससे प्रणालिका से तेल निचुड़कर नीचे रखे बर्तन में टपकने लगता है, तेल निकालने की यह समय खाऊ प्रक्रिया है, जो दाब बल से चलती है। एक अन्य पद्धति में खड़े पेड़ में खांचे बनाकर दो मजबूत लकड़ी फ़िट कर दी जाती थी, फ़िर उसके बीचे में तिलहन रख कर पत्थर से दबाव बना कर तेल निकाला जाता था।

तेल निकालने का प्राचीन यंत्र (तिरही)

तिरही से तेल निकालने के लिए धैर्य की आवश्यकता होती है, समय अधिक लगता है, इसका समाधन निकालने लिए कोल्हू का अविष्कार हुआ, जिसे चलाने के लिए पूर्व में तो मानव बल का उपयोग किया जाता था, फ़िर पशुबल का उपयोग कर अधिक मात्रा में तेल उत्पादन किया जाने लगा।
दो चार कोल्हू लगाकर तेल निकालने का कार्य होने लगा तो वह कारखाना कहलाया और तेल निकालने वाला तेली। वर्तमान में तेल निकालने कोल्हू गायब हो चुके हैं, तेली परम्परागत व्यवसाय को छोड़ खेती किसानी करने लगे या अन्य कार्यों में लग गए। कोल्हू बंद हो गया। अब कहीं कहीं कोल्हू का उपयोग गन्ने से रस निकालने में होता, जिससे गुड़ बनाया जाता है। वरना वहां भी रस पेराई के लिए मशीनों से काम लिया जा रहा है।

ऊष्ट्रबल चलित घानी (कोल्हू)

आदि मानव से लेकर वर्तमान तक वनवासी इस पद्धति से तिलहन से तेल निकाल रहे हैं। कोरबा क्षेत्र में निवासरत पहाड़ी कोरवाओं के गांव “केरा” में यह यंत्र दिखाई दिया। कोरवाओं के निवास स्थाई नहीं होते, पर भी (एक गुफ़ा जिसके मुहाने के पर केले के पेड़ होने के कारण) केरा गुफ़ा के निकट कुछ वर्षों से टिके होने के कारण केरा गाँव नाम प्रचलन में गया। इस केरा गाँव में यह तेल निकालने का प्राचीन यंत्र तिरही दिखाई दे गया। तिरही का चित्र हरि सिंह क्षत्रिय की वाल से साभार लिया है।

 

आलेख

ललित शर्मा
इंडोलॉजिस्ट

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