छत्तीसगढ़ की संस्कृति अद्भुत है। वन्य प्रांतर, नदियों और पहाड़ियों से आच्छादित छत्तीसगढ़ की प्राकृतिक छटा देखते ही बनती है। मैदानी इलाकों में अनेक परंपराएं देखने को मिलती है। वैसे ही सुदूर वनांचल क्षेत्रों में निवासरत जनजातियों की भी अपनी समृद्ध परंपरा और संस्कृति है। छत्तीसगढ़ में निवासरत कई जनजातियों में से एक विशिष्ट जनजाति है भुंजिया जनजाति। इनका सादगीपूर्ण जीवन शैली, प्राकृतिक रहन सहन और आहार व्यवहार उल्लेखनीय एवं अनुकरणीय है।
छत्तीसगढ़ के गरियाबंद जिलांतर्गत गरियाबंद, छुरा, मैनपुर, महासमुंद जिले का बागबाहरा विकासखण्ड और धमतरी जिले के नगरी सिहावा विकासखण्ड में ही इस जनजाति का निवास है। पड़ोसी राज्य ओडिशा में भी ये जनजाति पाई जाती है। भुंजिया जनजाति की अपनी विशिष्ट बोली है। रहन सहन के तौर तरीके हैं। महिलाएं प्रायः ब्लाउज नहीं पहनती। श्वेत साड़ी ही पहनती है। महिला-पुरुष दोनों के लिए चप्पल पहनना वर्जित होता है। हालांकि अब आधुनिक दौर में सभी पुरातन परंपराओं का निर्वहन संभव नहीं है।
भुंजिया जनजाति की तीन शाखाएं हैं। चोकटिया भुंजिया, चिंडा भुंजिया और खोल्हारजिया भुंजिया। इसमें से चोकटिया भुंजिया अपनी पुरातन परंपराओं के निर्वहन में अग्रणी है। उनकी लाली बंगला की संस्कृति अद्भुत है। जिसमें वे पृथक रसोई घर का निर्माण करते हैं। जिसे अगर उनके समाज के अलावा कोई अन्य व्यक्ति स्पर्श भी कर दे तो जला देते हैं। बहुत सी परंपराएं आधुनिक दौर में लुप्तप्राय हो रही है फिर भी कुछ परंपराओं का निर्वहन आज भी किया जाता है।
पडोसी राज्य ओडिशा और हमारे छत्तीसगढ की विभिन्न जनजातियों में भादो-क्वांर मास में नुआखाई की परंपरा है। जिसमें सभी जनजातियों द्वारा अपने इष्ट देवी देवताओं को नये अन्न का भोग लगाया जाता है। सामान्यतः नये धान का घर में बनाया चिवड़ा चढ़ाया जाता है। तत्पश्चात नये चावल का उपयोग भोजन के रुप मे प्रारंभ हो जाता है। लेकिन भुंजिया जनजाति में चांउर धोनी परब मनाने के बाद ही चावल को भात बनाकर या अन्य व्यंजन बनाकर खाया जा सकता है।
चांउर धोनी का सरल अर्थ है चावल को धोकर उपयोग करना। नुआखाई पर्व के बाद भी भुंजिया जनजाति में नये चावल का उपयोग सिर्फ चिवड़े के रुप में इस्तेमाल किया जाता है। उसे पीसना या भात बनाकर खाना वर्जित होता है। चांउर धोनी पर्व अगहन मास के सप्तमी तिथि से अगहन पूर्णिमा तक मनाया जाता है।
विभिन्न स्थानों पर निवासरत भुंजिया परिवारों के द्वारा इस तिथि के भीतर अपनी सुविधानुसार मनाया जाता है। कई वर्षो से यह परंपरा चली आ रही हैं। सर्वप्रथम इस पर्व की शुरुआत भुंजिया जनजाति की उत्पत्ति से सम्बद्ध साल्हेपाडा (ओडिशा) में विराजित ठाकुर देव और अन्य आराध्य देवी देवताओं के पूजन से होती है। इसे ठाकुर देव जात्रा कहा जाता है।जहां पर भिन्न भिन्न क्षेत्रों में निवासरत भुंजिया जनजाति के लोग एकत्रित होते हैं।इस अवसर पर मुर्गे, मुर्गियों और बकरों की बलि भी दी जाती है।
भुंजिया जनजाति के वरिष्ठ सदस्यों और बईगा (पुजेरी)के द्वारा देवी देवताओं का आवाहन किया जाता है और समुदाय की सुख समृद्धि की कामना की जाती है। इस अवसर पर नये चावल को धोया जाता है तत्पश्चात सिल बट्टे से पीसकर उसका आटा बनाया जाता है। आटे से पारंपरिक पकवान बनाए जाते हैं और उपस्थित जनों को प्रसाद के रुप में वितरित किया जाता है।
प्रसाद का वितरण सिहारी पान के पत्तों के दोने में किया जाता है। जहां सभी लोग एक साथ बैठकर भोजन ग्रहण करते हैं। ठाकुर देव जात्रा के बाद भुंजिया जनजाति के लोग अपने अपने घरों में भी चाउर धोनी परब मनाते है जिसमें बेटी बहिनी सगा भाई सभी को आमंत्रित किया जाता है और बड़े हर्षोल्लास के साथ ये पर्व संपन्न होता है।
नोट :- ग्राम केडीआमा निवासी भुंजिया जनजाति के श्री शत्रुघ्न नेताम (शिक्षक) के माध्यम से प्राप्त जानकारी
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बहुत सुंदर जानकारी👌👌👌👌