Home / इतिहास / बौद्ध धर्म एवं उसका विकास : छत्तीसगढ़

बौद्ध धर्म एवं उसका विकास : छत्तीसगढ़

(अभिलेखीय साक्ष्यों के आधार पर)

भारतीय संस्कृति में धर्म का स्थान उसी प्रकार सुनिश्चित किया जा सकता है, जिस प्रकार शरीर में प्राण। धर्म को प्राचीनकाल से ही एक पवित्र प्रेरक के रूप में आत्मसात् किया गया है। भारत की यह धरा अनेक धर्मों के उत्थान एवं पतन की साक्षी रही है। भारतीय संस्कृति के निर्माण एवं विकास में यहां के प्रत्येक धर्म का योगदान रहा है।

भारतीय धर्मों के विकास में बौद्ध धर्म का एक विशिष्ट स्थान है। एक धर्म के रूप में बौद्ध धर्म की महत्ता उसके करूणा, मानवता एवं समता संबंधी विचारों के कारण ही है। किसी भी धर्म के प्रवर्तन के लिए एक संघ एवं उसके चिरस्थायित्व महत्व के लिए नैतिक आचरण की अपरिहार्यता अनिवार्य है। गौतम बुद्ध तात्कालीन सामाजिक एवं धार्मिक व्यवस्था की स्थिति देखकर यह अनुभव कर चुके थे कि वर्ण व्यवस्था और जाति, मनुष्य – मनुष्य में भेद करती है, इसके परिणाम स्वरूप ही उन्होंने अपने धर्म की नींव समानता के आधार पर रखी।

उनका मानना था कि कोई भी धर्म तभी सद्धर्म हो सकता है जब वह तमाम सामाजिक भेदभाव को मिटा सके। वह अपने धर्म के जरिये जनमानस में यह संदेश देना चाहते थे, कि किसी भी व्यक्ति का मूल्यांकन उसके कर्म से किया जाना चाहिए न कि उसके जन्म से। तथागत की धारणा के अनुसार मनुष्य के जीवन का सबसे बड़ा यथार्थ, जीवन से दुःखों का अन्त अर्थात् निर्वाण की प्राप्ति थी, मानव जीवन में निर्वाण प्राप्ति के मार्ग में सबसे बड़ा अवरोध दुःख है तथा इन दुःखों के निराकरण के पश्चात् ही निर्वाण की प्राप्ति संभव है। इस विचारधारा के परिणाम स्वरूप ही बुद्ध ने आष्टाग्ङिक् मार्ग का निर्देश दिया।

बौद्ध धर्म, गौतमबुद्ध के जीवन काल में ही लगभग पूरे भारत में फैलने लगा था, किन्तु छत्तीसगढ़ क्षेत्र में बौद्ध धर्म के आगमन के बारे में कोई निश्चित जानकारी नहीं प्राप्त होती है। हालांकि नेपाली परम्परा के एक अपेक्षाकृत परवर्ती साहित्य अवदानशतक से ज्ञात होता है कि महात्मा बुद्ध उत्तर कोसल के शासक प्रसेनजित तथा दक्षिण कोसल के अज्ञात नाम्ना शासक के मध्य संघर्ष की स्थिति निर्मित होने पर दोनों के बीच संधि कराने के उद्देश्य से दक्षिण कोसल की राजधानी आए थे और यहां के शासक के अनुरोध पर चार्तुमास व्यतीत किया था। परन्तु बाद के इस नेपाली परम्परा के अपेक्षाकृत परवर्ती संस्कृत साहित्य के द्वारा दक्षिण कोसल से संबंधित विवरण को ठीक से निर्धारित नहीं किया जा सकता। अब तक बौद्ध धर्म के छत्तीसगढ़ पर आगमन के संदर्भ में निश्चित रूप से जानकारी चीनी तीर्थयात्री युआन च्वांग (ह्वेनसांग) के यात्रा विवरण से ज्ञात होता है, कि सातवीं सदी ईसवी में ह्वेनसांग सोलह वर्ष भारत में व्यतीत करते हुए, तात्कालीन प्रमुख बौद्ध केन्द्रो का भ्रमण किया था। उसने कलिंग (उड़िसा) से उत्तर-पश्चिम दिशा में पहाड़ों तथा जंगलों के रास्ते से होते हुए किआओं-सा-लो अर्थात् (दक्षिण) कोसल में प्रवेश किया था। इस यात्रा विवरण से यह भी जानकारी प्राप्त होती है कि मौर्य सम्राट अशोक ने दक्षिण कोसल की राजधानी में उस स्थान पर एक स्तूप बनवाया था, जहां पर तथागत द्वारा अलौकिक शक्ति का परिचय दिया गया है।

युवान-च्वांग के अनुसार कोसल का राजा बौद्ध धर्म का आदर करता था। वह सातवाहन शासक था तथा उसके आकड़ों के अनुसार कोसल की राजधानी में सौ बौद्ध विहारों में महायान सम्प्रदाय के लगभग दस हजार बौद्ध भिक्षु निवास करते थे। इस वक्तव्य से यह सिद्ध होता है कि सातवीं शताब्दी ईसवी में बौद्ध धर्म के परिप्रेक्ष्य में छत्तीसगढ़ (दक्षिण कोसल) का श्रीपुर अत्यंत प्रसिद्ध स्थान था। इस़ क्षेत्र के सीमावर्ती क्षेत्रों में पूर्व में धौली (जिला पुरी) तथा पश्चिम में रूपनाथ (जबलपुर) से अशोक के शिलालेखों की प्राप्ति से ज्ञात होता है कि यह क्षेत्र अशोक के अधिकार क्षेत्र के अंतर्गत रहा होगा। जैसा कि दक्षिण कोसल और महाकांतार का क्षेत्र मगध एवं दक्षिण भारत के बीच में स्थित है, सम्भवतः बौद्ध भिक्षुओं की इस क्षेत्र में पहली बसाहट मौर्य काल में मगध के प्रयासों द्वारा करायी गयी होगी। इस क्षेत्र के सरगुजा जिले के रामगढ़ की पहाड़ियों में जोगीमारा एवं सीताबेंगा गुफाओं में बौद्ध प्रेरितों/भिक्षुओं का निवास रहा है। जिसका प्रमाण जोगीमारा की गुफाओं के भित्ति चित्रों में बौद्ध धर्म के जातक कथाओं से संबंधित चित्रण से ज्ञात होता है। इस गुफा में अशोक कालीन ब्राह्मीलिपि में एक लेख उत्कीर्ण है, जो यहां तात्कालीन कला के क्षेत्र में अपनी सक्रियता पर प्रकाश डालता है। इस प्रकार पूरी रामगढ़ की पहाड़ी दूसरी शताब्दी ईसा पूर्व के लगभग कला और संस्कृति का केन्द्र मानी जा सकती है।

अभिलेख सभी विश्वस्त ऐतिहासिक साधनों में सबसे महत्वपूर्ण साधन है। छत्तीसगढ़ क्षेत्र से प्राप्त अभिलेखों में मंदिर एवं देव स्थान या देवालय निर्माण संबंधी विवरणों का ऐतिहासिक अनुशीलन करने पर ज्ञात होता है कि ईसा पूर्व द्वितीय शताब्दी से पांचवी शताब्दी ईसवी के मध्य जारी अभिलेखों में किसी प्रकार के देवालय या मंदिर आदि के निर्माण एवं दान से संबंधित कोई भी उल्लेख नहीं मिलता है किन्तु पांचवी शताब्दी से चौदहवी शताब्दी ईसवी के मध्य यहां शासन करने वाले स्थानीय शासकों जैसे – नलवंशीय, शरभपुरीय, पाण्डुवंशीय, एवं कलचुरी राजवंश के शासकों द्वारा जारी विभिन्न शिलालेखों, ताम्रपत्रों तथा मूर्तिलेखों से ज्ञात होता है कि इनके द्वारा बौद्ध, वैष्णव, शैव, शाक्त एवं जैन धर्म से संबंधित मंदिर, देवालय एवं विहार बनवाये गये तथा उनके रखरखाव एवं पुर्ननिर्माण कराए जाने के लिए दान एवं अनुदान दिए गए। इन अभिलेखीय साक्ष्यों में जो विवरण मिलते हैं उनका समसामयिक ऐतिहासिक विश्लेषण कालक्रम एवं वंषक्रम के अनुसार करने पर धार्मिक संभाव का परिचय एवं सांस्कृतिक बाह्म विकास का स्वरूप ज्ञात होता है। इसी क्रम में इतिहासकारों का ध्यान छत्तीसगढ़ से प्राप्त कुछ अभिलेखों की तरफ गया जिसमें बौद्ध धर्म तथा उससे जुड़े हुए तथ्य अंकित है।

छत्तीसगढ़ क्षेत्र का ज्ञात प्रथम क्षेत्रीय राजवंश शरभपुरियों का (लगभग पाचवीं से छठवीं शताब्दी ईसवी) रहा है, तत्पश्चात् पाण्डुवंशियों का काल (लगभग छठवीं से सातवीं शताब्दी ईसवी) तथा बाद का काल कलचुरियों का (नवमीं से तेरहवीं शताब्दी ईसवी) रहा है। इन तीनों राजवंशों का काल छत्तीसगढ़ क्षेत्र के ऐतिहासिक अनुक्रम में बहुत महत्वपूर्ण है। इनके शासन काल में विभिन्न धार्मिक स्मारकों का निर्माण कराया गया तथा बौद्ध मठों और विद्वानों को दान/अनुदान दिया गया था। बौद्ध सिद्धांतो तथा मठों से संबधित अभिलेख छत्तीसगढ़ क्षेत्र के मल्हार, सिरपुर, तुरतुरिया, रतनपुर आदि स्थानों से प्राप्त हुए हैं, इसी परिप्रेक्ष्य में मल्हार से एक अभिलिखित प्रस्तरखंड प्राप्त हुआ है जो प्राकृत भाषा तथा मौर्य कालीन ब्राह्मी लिपि में उत्कीर्ण है। इस शिलालेख में छः बौद्ध भिक्षुओं के नामों का उल्लेख है मिलता है जो निम्न है – (1) रधिकस, उपाध्याय (सम्भवतः विशिष्ठ आाचार्य), (2) धाकलता, (3) मज्झिमा, (4) णिका, (5) नणक और (6) इसिनाग। यह अभिलिखित प्रस्तरखंड बी. एन. मिश्रा महोदय के अनुसार, बौद्ध भिक्षुओं के विषय से संबंधित है और इसे लगभग पहली से दूसरी शताब्दी ईसवी का माना गया है।

शरभपुरियों के पश्चात्, पाण्डुवंशी शासकों ने सिरपुर में बौद्ध धर्मानुयाईयों को संरक्षण दिया, जो इस क्षेत्र का सबसे बड़ा बौद्ध केन्द्र था। उन्होंने कई विहार बनवाए जहां रहने के लिए बौद्ध भिक्षु दूरस्थ क्षेत्रों से आया करते थे। सोमवंशी शासक बौद्ध धर्म के अनुयायी थे, परन्तु इसी राजवंश के बाद के शासक ने शैव धर्म को आत्मसात् कर लिया था। सिरपुर में दो धार्मिक सम्प्रदायों का साथ-साथ उन्नयन की अवस्था यहां के इंर्टों, प्राचीन बौद्ध विहारों एवं शैव मंदिरों के दीवारों से स्पष्ट होती है।

भवदेव रणकेसरी के भांदक से प्राप्त शिलालेख में सूर्यघोष नामक शासक का उल्लेख मिलता है। निश्चित रूप से वह पाण्डुवंशी वंशावली का पूर्वी शासक था, जिसने बुद्ध के एक मंदिर का निर्माण करवाया था। इस शिलालेख में भवदेव द्वारा उपर्युक्त पुराने बौद्ध मंदिर का जीर्णोद्धार कराये जाने का विवरण मिलता है। आगे की पंक्तियों में इस मंदिर को विहार नाम से संबोधित किया गया है, साथ ही वापी (सीढ़ीदार कूप), कूप, बगीचा, सभामंडप, छत और चैत्य के निर्माण ने इसे और अधिक अद्भूत बनाने की जानकारी हमें इस अभिलेख से प्राप्त होती है।

गंधेश्वर मंदिर के तीन शिलालेखों में से प्राप्त, महाशिवगुप्त बालार्जुन के अभिलेख में एक विहार के निर्माण करवाए जाने का उल्लेख मिलता है, साथ ही मंदिर के परिसर में एक बुद्ध की भूमिस्पर्श मुद्रा में प्रतिमा स्थापित है, जिसमें बुद्ध के शीर्ष के ऊपर आभामंडल पर बौद्ध मंत्र अभिलिखित है, जिसकी लिपि आठवीं सदी ई. की ज्ञात होती है।

दीक्षित महोदय को सिरपुर उत्खनन से एक 14 पंक्तियों वाला महाशिवगुप्त बालार्जुन का शिलालेख प्राप्त हुआ है, जिसमें यह उल्लेखित है कि आनन्द प्रभा (बौद्ध भिक्षु) के द्वारा एक विहार का निर्माण करवाया गया था और उसमें महाशिवगुप्त द्वारा एक सत्र (भोजन शाला) की व्यवस्था की गई थी, जो वहां रहने वाले बौद्ध भिक्षुओं हेतु था। यह शिलालेख इसलिए भी महत्वपूर्ण है क्योंकि इससे बौद्ध भिक्षुओं की आर्थिक स्थिति पर प्रकाश पड़ता है। निष्चित रूप से एक विहार का निर्माण करने के लिए अधिक धन की आवश्यकता होगी, चाहे वह निधि भूमि अनुदान द्वारा ही क्यों न प्राप्त हुई हो। इस स्थल के उत्खनन से स्वर्णकारी, बर्तन बनाने एवं कृषि उपकरणों तथा कांस्य प्रतिमाओं के निर्माण से संबंधित 2000 से अधिक उपकरणों का सेट प्राप्त हुआ है, जो इस स्थल के समृद्धशाली तात्कालीन सामाजिक व्यवस्था के परिचायक है। दीक्षित महोदय के मतानुसार यहां के बौद्ध भिक्षु साधारण जीवन व्यतीत करते हुए भी पेशेवर कारीगर थे। परन्तु इस संदर्भ में हमारा मानना है कि बौद्ध भिक्षु सम्भवतः स्वयं कारीगर ना हो कर, कारीगरों को अपनी निगरानी तथा नियंत्रण में कार्य करवाते थे। (क्योंकि बौद्ध भिक्षुओं को स्वर्ण का स्पर्श भी वर्जित था)

महाशिवगुप्त के शासनकाल में मल्हार से जारी किए गए ताम्रपत्र द्वारा यह जानकारी प्राप्त होती है कि, कोरदेव की पत्नि अल्का द्वारा तरडंषक में बनवाए गए विहार को, मामा भास्करवर्मा की विज्ञप्ति से, अषाढ़ महीने की अमवस्या को सूर्यग्रहण के समय तरडंषक भोग (आधुनिक तरोद) में स्थित कैलाशपुर (आधुनिक कोसल) नामक ग्राम जो मल्हार से दक्षिण – पूर्व में लगभग 13 किलो मीटर की दूरी पर अवस्थित है, को आर्य-भिक्षु संघ को दान में दिया गया था। यहाँ इस भूमिदान पत्र में बौद्ध भिक्षुओं को आर्य-भिक्षु संघ के नाम से संबोधित किया गया है, जो विहारिका के निवासी थे।

शिलालेखों से विदित होता है कि बौद्ध धर्म के विकास में शासकों के साथ – साथ जनसामान्य का भी भरपुर योगदान था। विहारों का निर्माण कर, भिक्षु संघों को दान कर दिया जाता था, जिनका संचालन बौद्धाचार्य करते थे। सिरपुर के सीमावर्ती क्षेत्र से बुद्धघोष का एक खंडित शिलालेख प्राप्त हुआ है, जो सम्भवतः किसी विहार से संबंधित है। इस शिलालेख में दो बौद्धाचार्यो जिनघोष तथा बुद्धघोष की प्रशंसा की गई है। इस अभिलेख कि भाषा संस्कृत तथा लिपी नागरी है, जो लगभग सातवीं से आठवीं शताब्दी ईस्वी की मानी जा सकती है, तथा इसकी विषयवस्तु संभवतः इन बौद्धाचार्यो को दिए गए भूमि अनुदान से संबधित है।

जाजल्लदेव प्रथम के रतनपुर शिलालेख (कलचुरी संवत् 866) से जानकारी प्राप्त होती है कि उनके राजपुरोहित रूद्रशिव एक शैवाचार्य थे तथा वे दिड्.नाग के बौद्ध सिद्धांतों के भी ज्ञाता थे। उन्होंने ‘प्रमाण समुच्चय’ नामक एक ग्रंथ की रचना की थी। इस ग्रंथ का उल्लेख कालीदास की काव्य रचना मेघदूतम् में भी किया गया है।

रत्नदेव द्वितीय के अकलतरा शिलालेख तथा पृथ्वीदेव द्वितीय के रायपुर शिलालेख, में बौद्ध संप्रदाय के तीन सिद्धांतों – क्षण, सामान्य और प्रमाण की चर्चा ज्ञात होती है तथा वल्लभसागर नामक सरोवर के बारे में उल्लेख कर, श्लेष अलंकार के द्वारा बौद्ध सिद्धांत (संगत-माता) के साथ बहुत ही रोचक ढंग से तुलना की गई है। पृथ्वीदेव द्वितीय के कोनि शिलालेख ( कलचुरी संवत् 900) में बौद्धों के ’त्रिरत्न’ (बुद्ध, धर्म और संघ) का वर्णन किया गया है तथा कासल नामक कवि जो स्वयं तो शैव थे, बौद्ध आगमों एवं अन्य का ज्ञाता बताते हुए उनकी प्रशंसा की गई है। जाजल्लदेव द्वितीय के मल्हार शिलालेख (कलचुरी संवत् 919) में सोमराज ब्राह्मण की प्रशंसा करते हुए कहा गया है कि वह मिमांसा, न्याय, वैषेषिक सिद्धांतों का ज्ञाता तथा चार्वाक, बौद्ध और जैन दर्शनों का खण्डन करने वाला विद्वान था।0 अर्थात् उसने बौद्ध सिद्धातों के अथक् ज्ञान को भी प्राप्त कर लिया था। 

इसी परिप्रेक्ष्य में मल्हार एवं सिरपुर से बौद्ध मंत्र अंकित, विविध मृण्मुद्राएं प्राप्त हुई है। मल्हार से प्राप्त एक अंडाकार मुण्मुद्रा के तीन ओर ‘‘श्री कल्याणार्चिय‘‘ लेख खुदा हुआ है तथा धर्मकारक थाल भी प्राप्त हुआ है। मल्हार में सातवीं से दसवीं सदी ईसवी के बीच तंत्रयान के विकास के साक्ष्य भी स्पष्ट रूप से दृष्टिगोचर होते हैं।

एक महत्वपूर्ण प्राचीन बौद्ध स्थल छत्तीसगढ़ के तुरतुरिया नामक गांव में स्थित है। बैग्लर महोदय ने इस स्थल पर एक इंटों से निर्मित स्तूप तथा बौद्ध भिक्षुणियों के आश्रम के बारे में उल्लेख किया है। यहां से काफी मात्रा में बौद्ध प्रतिमाएं मिली हैं, जिनमें से एक ऐसी बुद्ध की प्रतिमा प्राप्त हुई है, जिसके शीर्ष के चारों ओर ‘‘धर्म‘’ शब्द उत्कीर्ण किया गया है। इसके अलावा बुद्ध की एक और प्रतिमा इस स्थल से प्राप्त हुई है, जिसके खंडित पाद-पीठ पर आठवीं से नवमीं शताब्दी ईसवी में प्रचलित लिपि में ‘‘ये धर्म’’ शब्द उत्कीर्ण हुआ है।

नांदुर-खुर्द (रायगढ़) से बोधीसत्व की एक अभिलिखित प्रतिमा प्राप्त हुई है, जिस पर आठवीं – नवमीं शताब्दी ईसवी के अभिलेख उत्कीर्ण है। इसी तरह सिरपुर से भी ग्यारहवीं सदी ईस्वीं की एक बौद्ध प्रतिमा मिली है, जिसकी पाद-पीठ पर अभिलेख अंकित है। जो वर्तमान समय में रायपुर संग्रहालय में संरक्षित है।

इस प्रकार यह तो स्पष्ट है कि छत्तीसगढ़ क्षेत्र बौद्ध पुरावषेषों तथा स्मारकों से परिपूर्ण रहा है। बौद्ध धर्म का विस्तार लगभग पूरे छत्तीसगढ़ क्षेत्र में था, जिसकी पुष्टी साहित्यिक साक्ष्यों, विहारों, प्राप्त प्रस्तर प्रतिमाओं, अभिलेखों, मुद्रा तथा मुद्रांको द्वारा होती है। इस क्षेत्र में बौद्ध धर्म की प्राचीनता का अनुमान लगभग दूसरी शताब्दी ईसा पूर्व तक लगाया जा सकता है। इसका विकास क्रम निम्नानुसार है –

प्रारंभिक चरण के अंतर्गत पाण्डुवंशी शासकों के पूर्व के काल को लिया जा सकता है, जिसमें बौद्ध भिक्षुओं के राजकीय संरक्षण को सिद्ध करने हेतु अभिलेखीय साक्ष्य उपलब्ध नहीं होते है परन्तु बौद्ध केन्द्रों का इस काल में अस्तित्व स्वयं इस क्षेत्र में बौद्ध धर्म के प्रसार को प्रमाणित करता है।

दूसरे चरण के अंतर्गत पाण्डुवंशी शासकों के शासनकाल को माना जा सकता है, छत्तीसगढ़ क्षेत्र में इनका काल, बौद्ध धर्म का स्वर्णिम – युग माना जाता है। इस काल के षासकों ने बौद्ध सम्प्रदाय को भरपूर संरक्षण और प्रोत्साहन दिया। बौद्ध मठों का निर्माण कर भूमि – दान दिया गया तथा उनके कल्याण के लिए अनेक कार्य भी किए गए। बौद्ध कला की गतिविधियों में परिपक्वता, इस काल में अपने चर्मोत्कर्ष पर थी।

तीसरे चरण के अंतर्गत कलचुरी काल को लिया गया है, जो छत्तीसगढ़ क्षेत्र में बौद्ध धर्म के पतन का द्योतक है। इस संदर्भ में मिराशि महोदय का कथन है कि ’’बौद्ध धर्म, जो कभी छत्तीसगढ़ के कई हिस्सों में फला – फूला था, वहीं कालान्तर में उसके अनुयायियों की संख्या नही के बराबर रह गई, परंतु दक्षिण कोसल क्षेत्र में इस धर्म पर धार्मिक और दार्शनिक अध्ययन का कार्य बारहवीं सदी ईस्वी तक जारी रहा। ’ इस काल में बौद्ध मठों की समृद्धि के संकेत देने हेतु अभी तक कोई भी अभिलेख प्राप्त नहीं हुए है। परंतु बौद्ध दर्शन में रूचि लेकर, ब्राह्मण धर्म (मुख्यतः शैव-सम्प्रदाय) के विद्वानों द्वारा तात्कालीन परिवेश में इस धर्म को जीवित रखा गया था।

हालांकि पुरावशेषों की प्राचीनता अधिक है, परंतु पूर्ण रूप से छत्तीसगढ़ क्षेत्र में बौद्ध धर्म का गौरवशाली काल पाचवीं शताब्दी ईसवी से बारहवीं शताब्दी ईसवी तक का माना जा सकता है।

संदर्भ ग्रंथ –

1.जैन, बी. सी., उत्कीर्ण लेख, पूर्वोक्त, पृ. क्र. 28-36.

कु0 शुभ्रा रजक (शोध छात्रा)
पं. रविशंकर शुक्ल विश्वविद्यालय, रायपुर (छ.ग.)

About noadmin

Check Also

“सनातन में नागों की उपासना का वैज्ञानिक, आध्यात्मिक और जनजातीय वृतांत”

शुक्ल पक्ष, पंचमी विक्रम संवत् 2081 तद्नुसार 9 अगस्त 2024 को नागपंचमी पर सादर समर्पित …

2 comments

  1. मनोज पाठक

    अच्छी जानकारी..

  2. बहुत अच्छी जानकारी

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *