“घोड़ा रोवय घोड़ासार म, हाथी रोवय हाथीसार म …मोर रानी ये या, महलों में रोवय …” भरथरी की विधा में इस गीत का राग-संगीत तबले की थाप, बांसुरी के सुर में जीवन की सच्चाई को ब्यक्त करता है। छत्तीसगढ़ को इतिहास को झांक कर देंखें तो यहाँ का इतिहास यहाँ की संस्कृति ,तीज -त्यौहार, गीत -संगीत अपनी सांस्कृतिक गौरव गाथा को समेटे रखा है।
यहाँ की प्राचीन संस्कृति, प्रसिद्ध ऐतिहासिक स्थल और प्राकृतिक सुंदरता छत्तीसगढ़ की समृद्धि की बोध कराती है । यहाँ का लोक साहित्य, यहाँ के नदी -नाले समाज को जोड़ती है। चाहे वह शबरी का धाम हो, चाहे गिरौदपुरी धाम या सोनाखान की भूमि। महानदी की अविरल धारा पैरी-सोंढुर का संगम हमारी धार्मिक आस्था एव विश्वास के प्रतीक हैं। छतीसगढ़ की पहचान है भरथरी, पंडवानी, ढोला-मारू, चंदैनी लोक कथा है।
छत्तीसगढ़ की अंतर्राष्ट्रीय भरथरी लोककथा गायिका श्रीमती सुरुज बाई खांडे का नाम प्रदेश ही नहीं वरन विदेशों में भी जाना जाते हैं। सुरुज बाई खांडे ने भरथरी विधा में छत्तीसगढ़ का गौरव और मान बढ़ाया। आज हमारे बीच नहीं है पर उनकी आवाज आज भी हमें उनकी याद दिलाती रहेगी ।
बड़ों का बचपन, उनकी आत्मकथा नई पीढ़ी मार्गदर्शन कराने वाली होती है। वैसे ही सुरुज बाई खांडे के जीवन संस्मरणों को जब-जब इतिहास के पन्नों में दर्ज किया जाएगा तो गांव के एक गरीब परिवार और उनकी तकलीफ़ों से दो चार होना पड़ेगा। उनके पारिवारिक जीवन पर जब -जब प्रकाश डाला जायेगा उनकी तकलीफ़ों की एक लंबी दास्तान हमेशा याद रहेगी।
उनके साक्षात्कारों पर नजर डालें तो उनकी प्रबल इच्छाओं में एक बड़ी इच्छा थी उन्हें भरथरी विधा पर पद्मश्री मिले, पर ऐसा नहीं हो पाया और उनकी आवाज के साथ यह इच्छा भी इतिहास के पन्ने में दब गई ।
रायपुर के वरिष्ठ साहित्यकार सुशील भोले अपने संस्मरण में खांडे जी को याद करते हुए लिखते हैं कि रायपुर के मोती बाग में पहली बार “जगार” कार्यक्रम में सुरुज बाई खांडे के भरथरी गायन की प्रस्तुति देखा था उसी समय उनसे मुलाकात हुई थी, और तब उनके जीवन के अनछुए पहलुओं को जाना था। वे अपने बारे में कहती थी कि मैं पढ़ी -लिखी नहीं हूं, मेरे नाना राम साय घृतलहरे मुझे जो बताते हैं जो सिखाते हैं वह सभी कंठस्त हो जाता है। वरिष्ठ साहित्यकार लिखते हैं कि जो लोकप्रियता सुरुज बाई खांडे को भरथरी में मिली वह और किसी को नहीं मिल पाई ।
भरथरी गायिका सुरुज बाई खांडे का जन्म बिलासपुर जिला के कस्बा बिल्हा के गांव पौंसरी में 12 जून 1949 में हुआ था। माता का नाम रेवती बाई और पिता का घसिया था। उनका विवाह महज 10 -11 वर्ष में ही हो गया था । उनका विवाह रतनपुर के कछार में लखन लाल खांडे से हुआ था। उन्होंने चार बच्चों को जन्म दिया पर, चिकित्सा के अभाव में अपने बच्चों को खो दिया, उन्हें बच्चों का प्यार नहीं मिल सका और रोजी रोटी के लिए बिलासपुर के सरकंडा में रहने लगे वही जीवन यापन करने लगे ।
उनका जीवन संघर्ष भरा रहा । वे बचपन से ही भरथरी गायन के प्रति रुचि रखती थी उनके नाना रामसाय भरथरी गाते थे उनकी ही जीवन शैली से प्रभावित रही और वे भरथरी लोकविधा में पारंगत हो गई । वे जब तक रही भरथरी की प्रस्तुति देती रहीं । 10 मार्च 2018 की वह सुबह सुरुज बाई खांडे के जीवन का अंतिम दिन था और उनकी हृदयघात हो गया। वे 69 वर्ष की थी। इस दिन भरथरी की सुरमोहनी आवाज अस्त हो गई। सुरुज बाई खांडे ने अपने नाना से भरथरी, ढोला -मारू, चंदैनी लोककथा विधा सीखी थी और भरथरी लोक विधा में अपने और छत्तीसगढ़ का गौरव और मान बढ़ाया था जो समाज के लिए और नई पीढ़ी के लिए धरोहर के रूप में जाना जाएगा ।
सुरुज बाई खांडे छत्तीसगढ़ ही नहीं, विदेशों में भी अपनी प्रस्तुति दी थी। यही नहीं 1986 -87 में सोवियत रूस में भारत महोत्सव में अपना छाप छोड़ी थी। यही नहीं वे 18 से अधिक प्रदेशों में भरथरी विधा की अलख जगाते हुए अपनी प्रस्तुति दी थी ।
उन्हें कई सम्मान से नवाजा भी गया था जिसमें मध्यप्रदेश शासन ने देवी अहिल्या बाई सम्मान और छत्तीसगढ़ में दाऊ रामचन्द्र देशमुख, स्वर्गीय देवदास बंजारे स्मृति सम्मान से सम्मानित किया गया था।
भरथरी विधा में सुरुज बाई खांडे का नाम इतिहास के पन्नों में हमेशा याद किया जाएगा। उनकी इस विधा में उनके पति लखन लाल खांडे अंतिम समय तक उनके सहयोगी के रूप में साथ देते रहे। आज सुरुज बाई खांडे जी का 05 वां पुण्यतिथि पर उन्हें सादर भावांजलि अर्पित करता हूँ । उनकी भरथरी विधा नई पीढ़ी के लिए धरोहर के रूप में जिंदा रहेगी।
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