जीवनदात्री पर लोगों को, घोर जुल्म करते देखा है ।
शोषित नदियों की आँखों से, अश्रुधार झरते देखा है ।
बड़े-बड़े बाँधों की बेड़ी, बँधी पाँव में सरिताओं के।
ढोने को कचरे की ढेरी , सिर लादी नगरों- गाँवों के।
रोग प्रदूषण का है जकड़ा, तिल-तिल कर मरते देखा है।
शोषित नदियों की आँखों से,अश्रुधार झरते देखा है।
कहते लोग विकास करेंगे, बिजली की फसल उगाएंँगे ।
चला कारखानों को इससे, हम धन की भूख मिटाएँगे।
किंतु सत्य है इन कृत्यों से, जल में मल भरते देखा है।
शोषित नदियों की आँखों से, अश्रुधार झरते देखा है।
चीर पहाड़ों के सीने को, क्षत-विक्षत कर डाले हैं ।
अंधाधुंध वनों को काटे,अब वर्षाजल के लाले हैं।
धरती की हरियाली को नित, सड़कों को चरते देखा है।
शोषित नदियों की आँखों से, अश्रुधार झरते देखा है।
सप्ताह के कवि