जनजातीय धार्मिक मान्यताओं में महादेव का प्रमुख स्थान है। प्रायः अधिकांश वनवासी जातियों की उत्पत्ति की मूल कथा में माता पार्वती एवं भगवान शंकर का वर्णन मिलता है। वे अपने आराध्य देव की पूजा-अर्चना अपने-अपने ढंग से करते हैं। ‘गौरा उत्सव’ गोंड जाति का एक प्रमुख पर्व है। ‘गौरा’ का तात्पर्य माता पार्वती से है। इस उत्सव में शंकर-पार्वती विवाहोत्सव का आयोजन किया जाता है जिसे वे अपने जातीय विधि-विधान से करते हैं।
‘बैगा’ इस कार्य में प्रमुख पुजारी होता है। इस अवसर पर मिट्टी से गौरा एवं शंकर जी की प्रतिमा बनाकर उसे सुंदर रंगों और चमकीले कागजों से सजाया जाता है। विवाह मंडप बनाया जाता है जहां कमल सहित अन्य पुष्पों की आकर्षक साज-सज्जा होती है। गौरा विवाह का मंगल कार्य कार्तिक अमावस्या अर्थात् दीपावली के दिन होता है। परंतु गौरा स्थापना लगभग सप्ताह भर पूर्व से हो जाती है।
इन दिनों रात्रि में गौरा गीत गाये जाते हैं और मांदर की ध्वनि के साथ ज्यों-ज्यों रात बीतती है, त्यों-त्यों उपस्थित किन्हीं स्त्री-पुरुषों में ‘भाव’ जागृत होने लगता है जिसे देवता (काछन) चढ़ना कहते हैं। इन देवताओं को मनाने के लिये कुश-घास से बने हुए कोड़े जिसे ‘सांट’ कहते हैं, उससे कलाईयों पर सड़ासड़ मारते हैं और मांदर की धुन के साथ वे नाचने लगते हैं।
गौरा विशेषकर गोंड जनजाति का महत्वपूर्ण धार्मिक उत्सव है। इसमें जो धार्मिक प्रक्रिया होती है, उससे स्पष्ट है कि मानों ‘गौरा-गौरी’ के विवाह का ही यह महोत्सव किया जा रहा है। रात्रि में मंडपाच्छादित प्रांगण में ‘बैगा’ द्वारा पूजा-पाठ करने के साथ ही महिलाएँ गीत गाती रहती हैं इसे ही “गौरा गीत” कहा जाता है। किन्हीं पुरुष या महिला को देवता चढ़ने पर ज्यों-ज्यों मांदल के गंभीर नादों के साथ महिलाओं के कोमल-कंठो से देव गान की गति व स्वर बढ़ते जाते हैं, त्यों-त्यों देव-उन्माद भी बढ़ता जाता है।
इस प्रकार रात्रि में गौरा पूजन तथा दिन में एक मिट्टी या लकड़ी से सुग्गे/तोते की प्रतिमा बनाकर उसे धान युक्त बांस की टोकरी में सजाकर महिलाओं की टोली सुआ गीत गाते हुए नृत्य करती हैं जिसे ‘सुआ गीत’ कहा जाता है। इसे छत्तीसगढ़ का गरबा भी कहा जाता है। सुआ गीत के माध्यम से ग्रामवासियों को गौरा-विवाह का निमंत्रण दिया जाता है और इसमें प्राप्त होने वाले चांवल, रुपया आदि को गौरा विवाह की व्यवस्था में लगाया जाता है।
गौरा-गौरी का ब्याह मान्यता अनुसार 3 से 5 दिन का होता है सामान्यतः दीपावली से गोवर्धन पूजा तक जिसमें सबसे पहले सभी की सलाह से ब्याह का दिन तय किया जाता है तथा ग्राम के गौंटिया को आमंत्रण दिया जाता है। ‘फूलकूट’ यह प्रथम दिवस का विधान होता है जो बैगा के द्वारा संपन्न किया जाता है, दूसरे दिवस ‘चूलमाटी’ अर्थात् ग्राम के निश्चित स्थान से मिट्टी लाने का विधान किया जाता है और इसी मिट्टी से गौरा-गौरी तथा अन्य मूर्तियों का निर्माण किया जाता है इसमें गौरा को नंदी बैल की सवारी तथा गौरी को कछुए पर सवार बनाया जाता है फिर उसे विभिन्न रंगों-चमकीले कागजों से सजाया जाता है।
वर्तमान में ये मूर्तियाँ बाजार में भी उपलब्ध हो जाती हैं। इसके पश्चात् सभी एक स्थान पर एकत्रित होकर शिव जी की बारात निकालते हैं जिसमें क्रमशः कलश, ठाकुरदेव और गौरा को लेकर चलते हैं। बैगा अपने हाथ में सांट लेकर चलते हैं जिनपर देवता का भाव ‘काछन’ चढ़ता है उन्हें मनाने के लिये उनके हाथ पर सांट से मारते हैं। जिन महिलाओं पर देवी आती है उन्हें शाँत करने या मनाने के लिये उनके हाथों से देवी पूजन कराया जाता है जिसके पश्चात् ही वे महिलाएँ शाँत होती हैं।
महिलाएं गौरा गीत गाती हैं तथा पुरुष मांदर, दफड़ा, गुदुम, झांझ, मंजीरा आदि पारंपरिक वाद्ययंत्र बजाते हुए उनका साथ देते हैं तथा ब्याह के निश्चित स्थान पर जाकर उन प्रतिमाओं को स्थापित कर देते हैं और विवाह की रस्में निभाते हैं। अंतिम दिवस गौरा का विसर्जन किया जाता है जिसमें पूजा-हवन इत्यादि के पश्चात् गाते-बजाते ग्रामवासी स्थानीय तालाब या नदी में इन मूर्तियों का विसर्जन कर देवताओं से गाँव और अपने परिवार की खुशहाली की कामना करते हैं।
गोवर्धन पूजा के दिन गौरा-गौरी की विदाई के पश्चात् गोवर्धन पूजा की तैयारी की जाती है इसे ‘देवारी तिहार’ भी कहा जाता है। गोवर्धन पूजा में गाय के गोबर से गोवर्धन पर्वत तथा गोवर्धन भगवान की स्थापना की जाती है जिसे विभिन्न प्रकार के फूल और पत्तियों से सजाया जाता है भगवान के साथ सभी अपने गायों की पूजा भी करते है तथा विशेष पकवान और कई प्रकार की सब्जियों से बना भोग भगवान और गायों को खिलाया जाता है। गौरा स्थापना के समय महिलाएँ गीत गाती हैं-
माई कुकरी ल मार के दच्छ राजा
झोर-झोर देवतन ल दिहिस बुलाव,
एक नहिं दिहिस गौरा-गौरी ला
मन मा रहिस ठहराव।
गावा बजावा डोलिया बजनिया रे
हमर बेटी लावा परघाय,
छै झन सुवासिन दुवरा मा रहिन रे
गौरा ला दिहिन परघाय ।
मँय फिरी जाहों अकासे-पताले
नई आवौं दाई तोरे पास।
ये तन क्षर के माटी मिल जईहों
के जईहौं मँय शिवजी के पास।।
भावार्थ – इस गीत में राजा दक्ष के यज्ञ-विध्वंस से संबंधित कथा है। ‘गौरा’ अर्थात् महादेव को राजा दक्ष ने उक्त यज्ञ का नेवता नहीं भेजा फिर भी ‘गौरी’ अर्थात् माता पार्वती अकेली ही पिता के यहां जाने लगी। माता को संभवतः ज्ञात हो गया कि उनकी बेटी गौरी रानी आ रही हैं तो मातृ-स्नेह-जनित स्वाभाविक रुप से वह गौरी रानी की आगवानी के लिए पालकी, बाजे-गाजे व सुहागिनों को आदेश देती हैं कि उनको पूर्ण आदर के साथ लावें। परंतु गौरी रानी अपने पति का निरादर सहते हुए इस आगवानी को कैसे स्वीकार कर सकती थीं? अतः वे अपनी माँ से कहतीं हैं कि मेरे पिता द्वारा किये गये इस अपमान के कारण मैं या तो आकाश-पाताल में चली जाऊँगी या इस शरीर को क्षार-क्षार करके मिट्टी में मिला दूंगी और अपने प्रियतम भगवान शिवजी से जा मिलूँगी। ‘गौरा’ की स्थापना के अवसर पर गाया जाने वाला एक और गीत-
सम्हरो-सम्हरो डोलिया-बजनिया हो
गौरी रानी ला जाबौ परिघाय हो,
कइसे सम्हरे मोर डोलिया बजनिया हो
कइसे सम्हरे बराते हो।
दसे सम्हरै मोर हथिया अऊ घोरवा हो
बीसे सम्हरे बराते हो!
भावार्थ – गौरी रानी के परघाने का अवसर आ गया है। पालकी, बाजे, हाथी, घोड़े सभी को सजने के लिए आदेश दे दिया गया और उनकी सजावट में कोई कमी न रहे, इसलिए मानों दोनों हाथों से धन की वर्षा की जा रही है। इसी प्रकार इस गीत में मांगलिक प्रक्रियाओं की ध्वनि गुंजित होती है –
पईयाँ मँय लागौं गौरी अऊ दुर्गा के
दूसर मा लागौं महादेव हो,
तीसर मँय लागौं डिहे-डिहेरिन के
चौथे मा ठाकुर देव हो।
सुरहिन गैंया के दूध दुहाएन
ठाकुर देवता नहवाएन हो,
एक पलरी चघाएन गौरी अऊ दुर्गा
चौथे मा ठाकुर देव हो।
फूल फूलै पड़ोरा अस फल
गौरा रानी होइन हुसियार हो।
भावार्थ – मानों जिस प्रकार ‘पड़ोरा’ (तरोई) की कली बढ़कर पुष्प के रुप में विकसित हो गई, उसी प्रकार गौरी रानी भी अब बड़ी हो गईं। ‘पड़ोरा’ के फूल के समान ही गौरी रानी में भी स्निग्धता, मधुरता, सुगंध, कोमलता, पवित्रता मानों टपक रही है। गौरी रानी के विवाह की तैयारियाँ हो रही है। कुलदेवता, स्थानदेवता, ठाकुरदेव, ग्रामदेवता, महादेव, दुर्गा देवी सभी की पूजा अर्चना की जा रही है। देवताओं का स्नान ‘कामधेनु’ (सुरहिन गैया) के दुग्ध से कराया जा रहा है। क्यों नहीं, आखिर विवाह के वर-कन्या दिव्य एवं देव-देवी श्रेणी के हैं, तो उनकी ब्याह सामग्री भी साधारण मृत्युलोक की कैसे हो सकती है? भावना की उत्कृष्टता व पहुँच सराहनीय है। इस गीत में शिवजी के बारात आगमन के दृश्य खिंचा गया है –
बाजे लागिस बाजा, चमके लागिन घोरवा
हमर राजा ला सबो सहराय,
जावा रे जावा सबो सुआसिन
हमर राजा ला लाहा परिघाय।
छै झिन सुआसिन देहरिन मा खड़े रहिन
परीक्षन के मन मा आस,
छोड़-छुड़इके सबो भीतर भागिन
जब आइन सिवजी पास।
मँय फिरी जाईहौं अकासे पतलवा
नई-आवौ गौरी तोर पास।
यह तन क्षारि के माटि मिली जइहो
जिहौं मँय काकर आस।
भावार्थ – इस अवसर पर विभिन्न बाजों के तुमुलनाद एवं घोड़ों की हिनहिनाहट से बारात आगमन की मानों भनक पड़ गई। सभी सहेलियाँ गौरी रानी के भाग्य एवं सुंदर वर की सराहना कर रहीं हैं। सुवासिनें मंगल घट लेकर द्वार-पूजा के लिए खड़ी हैं और साथ ही मन में शिवजी के दर्शन एवं पूजन का इस प्रकार उन्हें प्रथम सौभाग्य मिला है, इससे मन ही मन प्रफुल्लित हो रही हैं। परंतु, शिवजी के ‘अंग-भभूत-बगल मृग छाला’ एवं कंठ व भुजाओं में फनयुक्त सांपों के भूषण को देखते ही वहाँ से भाग पड़ी। गौरी की माता रानी मैना को जब यह ज्ञात हुआ तो पौराणिक कथा के अनुसार, अपनी बेटी को ब्याहने से उन्होंने इंकार कर दिया। शिवजी को मानों यह अपमान-सा लगा और वे वापस जाने की तैयारी करने लगे। जब तक पार्वती माता मैना को ‘बरऊँ शंभु न तो रहऊँ कुंवारी’ कह कर समाधान करें, तब तक शिवजी के वापस जाने की खबर सुन वे मानों दौड़कर उन्हें वापस आने के लिए पुकार उठी हों। तब शिवजी कहते हैं कि मैं इस मृत्यलोक को छोड़कर आकाश व पाताल कहीं भी चला जाऊँगा परंतु तुम्हारे पास हे गौरी नहीं आऊँगा। गौरी रानी मानों नारी की समस्त शक्ति को बटोर कर कह उठती हैं- मैं आपके बिना किसके सहारे जीऊंगी। इसलिए मैं भी इस शरीर को भस्म कर मिट्टी में मिल जाऊँगी। इस गीत में शिव विवाह का सजीव वर्णन मिलता है-
जल-हल के देवता मन एके मति धरे माई,
चलि जावो मैना के देस,
ठूंठना-मन बरदा भोले शंकर चढ़िन भाई,
चले आइन मैना के देस।
अंग भभूत बगल मृगछाला-सांपन के गहना अऊ भेस,
ओतका ला देखिन मैना मति रानी रे,
रोई-रोई छोरे लागिन अपन केस।
कहाँ के जोगिया कहाँ के बैरगिया ला,
कइसे देहौं गौरी के दान,
का तो बिगारेंव मँय नारदमुनि के,
देई देहौं अपन-परान।
ओतका ला देखिस मोरे गौरीरानी,
माता ला दिहिस समुझाय,
नोहय माई ये मन जोगिया बैरगिया,
तीनों लोक के देव कहराय।
बारा बछर माई पूजा करत रहेंव,
जल-हल मा पाएंव बखाने,
तन मोर सुखाय के लकड़ी होगे माई,
तौ पाएंव मँय ए ही बरदाने।
गहना मढ़ाले अऊ बमहना बुलाले,
फेर गौरी रानी के लगन धराय,
उगती ला बांच दे बुड़ती ला बांच दे,
छानि डार तीनों लोक घलाय।
बांचि-बुचायके भयेन तैयारे,
फेर गौरी रानी के लगन धराय,
नवमी के तेला हो ही-दसमी के मड़वा,
फेर एकादसी भांवर पराय।
भावार्थ- ब्याह के समय शंकर जी अपनी अजीब वेशभूषा में अपने गणों सहित पधारे हैं। उन्हें देखकर रानी मैना एकदम दुखित हो क्षोभ से भर गईं हैं। उन्होंने नारदमुनि को कोसते हुए निश्चय कर लिया कि चाहे जो कुछ हो, प्यारी सुकुमारी पार्वती का ब्याह इस जोगी से तो नहीं करुंगी। माता की दशा देखकर गौरी रानी उन्हें स्वयं समझाने लगीं कि जिन्हें पाने के लिये मैंने बारह वर्ष कठोर तप किया है, जिन्हें सब तीनों लोकों का स्वामी कहते हैं, वही शिवजी साक्षात् जोगी के रुप में आये हैं। हे माता! उठो! पुनः गहनों व आभूषणों को पहनो और पश्चाताप् छोड़कर पंडित को बुलाओ और ब्याह की तैयारी करो। इतना ही नहीं पूर्व-पश्चिम, उत्तर-दक्षिण तथा तीनों लोक में निमंत्रण भेज दो और शुभ मुहुर्त में ब्याह रचने की तैयारी करो।
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अब्बड़ सुग्घर प्रस्तुति धन्यवाद सादर पैलगी भईया🙏🌺🙏