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जनजातीय कथाओं की लोक दृष्टि

जनजातीय कथा साहित्य की दृष्टि से देखें तो वनवासियों का व्यावहारिक जीवन सदैव से विद्यमान है। वनवासी जंगलों में रहकर अपना जीवन पूर्वजों की धरोहर को समेटने में समय लगा देते हैं। प्रकृति के नाना रूपों में दृश्यों के खुले वातावरण में जीवन व्यतीत करने के कारण लोक संस्कृति के माध्यम से अपनी ओर आकर्षित करते हैं। प्रकृति के आनंद को भावोद्गार की तरह प्रस्तुत करते हैं। जनजातीय कथा के कारण हम अपनी सांस्कृतिक जड़ों से जुड़े रहते हैं। वनवासियों का हृदय, व्यवहार और आचरण आज भी वैसा का वैसा ही है। आशा- निराशा, हंसना- रोना, सुख -दुःख, खुशी उत्साह यह सभी भाव कहानियों में सामर्थ्य के साथ प्रकट करते हैं।

वनवासियों का साहित्य युग का साहित्य है। वह चिर पुरातन भी है और चिर नवीन भी है। वाचिक परंपरा के प्रभाव पीढ़ी दर पीढ़ी वह नित्य नवीन रस प्राप्त करता है। उसकी सुदीर्घ जीवंतता का रहस्य यही है। हमारे बाप दादा के जमाने से यही चला आ रहा है। यही जनजातीय लोककथाएं हैं जो सुदूर अंचलों में खिलखिलाती मुस्कुराती नजर आती है। जनजातीय साहित्य अनुभूति का साहित्य है । इससे अनुभूत किया जा सकता है। इसी में छत्तीसगढ़ के वनवासियों की आत्मा बसती है।

छत्तीसगढ़ में गोंड़ जाति बहुत चतुर मानी जाती है, तो कुछ चतुराई का एक उदाहरण प्रस्तुत है- एक गांव में एक अत्यंत चतुर गोड़िन अकेली ही रहती थी। परिवार का कोई भी सदस्य उसके साथ न था । निर्भीक होने के साथ-साथ वह स्वावलंबी भी थी। उसका विवाह नहीं हुआ था। विवाह के अनेक प्रस्ताव उसके पास आते थे, किंतु उसका यह निश्चय था कि वह प्रस्ताव स्वीकारने के पूर्व सब की परीक्षा लेगी जो भी व्यक्ति उस परीक्षा में खरा उतरेगा या जो व्यक्ति उसे हरा देगा, तब गोड़िन आए हुए विवाह प्रस्ताव पर हामी भर देगी। एक समय के बाद एक गोंड़ निश्चय करके गोड़िन के घर आया कि वह गोड़िन को हराकर उससे विवाह करके ही अपने घर वापस लौटेगा। यह सत्य है दृढ़ निश्चय के समक्ष सभी कठिनाइयां दूर हो जाती हैं।

एक दिन गोड़िन ने देखा कि उसका स्वजातीय घर आया है। उसके आगमन का अभिप्राय गोड़िन समझ गई और उसने कहा – ’’तुम मेरे मेहमान हो तुम्हारा आतिथ्य करना मेरा धर्म है। पर मैं तो गरीब हूं मेरे पास कुछ अन्न भी नहीं है, मैं गांव में किसी के यहां से चावल -दाल, आटा मांग कर लाती हूं ताकि तुम्हें तुम्हें भोजन दे सकूं। तुम यहीं बैठो मैं अभी लौट आती हूं।’’ यह कहकर वह चली गई, और बहुत शाम होने पर वह घर लौटी, तो उसके विस्मय का ठिकाना न रहा, उसने पाया कि वह अतिथि वहीं विराजमान था। उसे ऐसी उम्मीद ना थी क्योंकि कितनी ही बार उसने आए हुए मेहमानों के साथ ऐसा किया था पर कोई भी उसके लौटने तक नहीं रुका था, इसलिए उसका विस्मृत होना स्वाभाविक ही था। पर इधर अतिथि भी दृढ़ था। किंतु गोड़िन इतनी चतुर थी कि उसने कहा कि गांव के किसी घर से उसे अन्न प्राप्त नहीं हुआ और अब वह आए हुए गोंड़ को क्या खिलाए। इतना सुनना था कि गोंड़ ने अपना नाटक शुरू किया । गोड़िन ने देखा कि इस गोंड़ से चतुराई में पार पाना कठिन है तो उसने कहा कि – हे संबंधी, हमारे यहां एक परंपरा है कि जब भी कोई संबंधी आता है हम उसके साथ एक ही थाली में भोजन करते हैं। गोंड़ ने प्रसन्नता से स्वीकृति दे दी। हर तरह की कोशिशों के बावजूद भी गोंड़िन जीत ना सकी, अतः उसने इसी गोंड़ से विवाह करने का निश्चय किया, और अपना अभिप्राय सुना दिया। गोड़ भी प्रसन्न हुआ। दोनों ने एक दूसरे को एक – एक कौर खिलाया और दूसरे दिन उनका विवाह संपन्न हुआ।

इस कहानी में बुद्धि की परीक्षा बड़ी सुंदरता से दी गई है। नारी और पुरुष की होड़ है, और अंत में मनोहर समझौता है। ऐसी अनेक कहानियां हैं जिनमें लड़कों या लड़कियों को सही रास्ते पर लाने का प्रयास दिखाया गया है, जीवन में कई सामान्य घटनाएं होती है। हर कहानियों में उपदेश या उद्देश्य निहित होते हैं। यह जनजाति समाज की कहानी है जिनमें जीवन की ही अनुकृति है,उसी से निरूसृत है। यथार्थ जीवन का सामीप्य अपेक्षाकृत अधिक ही होती है।

बस्तर अंचल की सबसे अधिक आबादी एवं क्षेत्रफल में बोली जाने वाली लोक भाषा गोंडी का मौखिक साहित्य भी काफी समृद्ध रहा है। ’’छत्तीसगढ़ की लोक एवं मिथक कथाएं’’ पर बस्तर के सुप्रसिद्ध लोक साहित्यकार अन्वेषक श्रद्धेय श्री हरिहर वैष्णव जी को नमन करता हूं जिन्होंने राष्ट्रीय फलक पर बस्तर के लोक साहित्य को स्थापित किया । ’’सुखदई कोर्राम द्वारा प्रस्तुत बस्तर की भतरी लोक कथाएं’’ हरिहर वैष्णव राष्ट्रीय पुस्तक न्यास भारत, नई दिल्ली 2016 में प्रकाशित हुई और काफी प्रसिद्धि मिली। ’’डूमर फूल’’ डॉ. जयमती कश्यप ने गोंडी मिथक कथा के रूप में प्रस्तुत किया है। डूमर फूल कथा का आशय यह है कि हमें फलों का अपमान कभी भी नहीं करना चाहिए। अपमान करने वाले कहीं ना कहीं अपमानित हो ही जाते हैं। इसलिए सभी का सम्मान किया जाना आवश्यक है। ’’दशहरा जाने वाला वृक्ष’’, ’’फूल झाड़ू’’ गोंडी भाषा की कथा है। जंगल में पाए जाने वाले गूलर के पेड़ पर आने वाले नए पत्तों के विषय में लोक में प्रचलित मिथक कथा है। महाप्रलय के समय न केवल मनुष्यों ने अपितु पशु- पक्षी, पेड़- पौधों यहां तक कि देवी-देवताओं ने भी तुलार नामक पहाड़ पर आश्रय लिया और अपने प्राण बचाए। तुलार पहाड़ फूल झाड़ू के पौधों से भरा पूरा है। फूल झाड़ू का मिथक कथा है -’’ओण्ड नारदें ओण्ड लोन मंदुर अलेरा (एक गांव में एक घर था)।’’

’बरहा का रहस्य’ बस्तर अंचल की हल्बी भाषा की लोक कथा है। संतान चाहे कैसी भी क्यों न हो, माता-पिता को प्यारी होती ही है। सूअर के जैसे चेहरे वाले पुत्र को पाकर भी माता-पिता प्रसन्न ही रहते हैं। वही पुत्र जब एक सुंदर कन्या का रूप धारण करता है तब उस राज्य के राजकुमार के मन में उसके प्रति जाग जाता है और वह उसी से विवाह करने का प्रण कर बैठता है। उसके प्रेम का ही प्रतिफल है कि एक दिन जब वह सूअर कन्या के रूप में बस बदलाव होता है, राजकुमार उसके केश पकड़कर कुछ तंत्र मंत्र करता है, जिससे उसका सूअर का रुप हमेशा के लिए गायब हो जाता है और वह राजकुमार के साथ राजकुमारी के रूप में रहने लगती है। दोनों राजा- रानी के रूप में सुख पूर्वक जीवन -यापन करते हैं।

छत्तीसगढ़ के गरियाबंद जिले में भुंजिया जनजाति रहती है। इस जनजाति की भाषा को ’’भुंजिया’’ कहा जाता है। इसमें छत्तीसगढ़ी, ओड़िया और बस्तर के हल्बी लोक भाषा का मिश्रण पाया जाता है। अपुष्ट सूत्रों के हवाले से यह भी कहा जाता है कि यह मूलतः बस्तर अंचल की हल्बा जनजाति ही है, जिसका बस्तर में ही रहने वाले धाकड़ समुदाय से किसी समय झगड़ा हो गया था। उस झगड़े में हल्बों के कुछ परिवार गरियाबंद की और भाग गये। अपनी पहचान छिपाने के लिए वे लोग अपने आपको हल्बा कहने की बजाए ’भुजिया’ कहने लगे।’ ’’चुटी और लिटी’’ इस जनजाति की प्रचलित लोक कथा है। चुटी याने चूहे की प्रजाति के छोटे से जीव को अपनी लापरवाही के कारण अपना कान गवाना पड़ जाता है। इसीलिए कहा जाता है कि हमेशा सतर्क रहना चाहिए। पता नहीं कौन कब किसके कान काट ले! और यह भी कि अपनी जेब से पैसे खर्च किए बिना दूसरे के खर्च पर कुछ भी खाने से बचना चाहिए।

’सोने के केश’ बंजारा समुदाय द्वारा बोली जाने वाली ’बंजारी’ भाषा की लोक कथा है। यह समुदाय राजस्थान से निकल कर पूरे देश में फैल गया है। इसी तरह छत्तीसगढ़ के बस्तर अंचल में भी यह समुदाय स्थाई रूप से निवास करने लगा है। यह समुदाय मुल्तान नमक का व्यापार किया करता था। कौड़ी और कांच का उपयोग कर इनके द्वारा बनाए गए परिधान इतने सुंदर हुआ करते हैं कि बस्तर में देवी – देवताओं के लिए इन्हीं के बनाए परिधानों की मांग होती रही है। ’’सोने के केश’’ में पात्रों की चतुराई निकटता से दिखाई गई है। चाहे वह पात्र बकरी हो या कि चरवाहे के माता-पिता या फिर वह बुढ़िया, जो उस सोने के केश वाले लड़के को राजा के पास ले जाते हैं, ले जाने वाले सभी व्यक्ति चतुर हैं। चतुर नहीं था तो केवल वह बाघ जिसने मीठे कुम्हड़े, रखिया कुम्हड़े और दही को उस चरवाहे के शरीर को अंग-प्रत्यंग समझ लिया।

’भतरी’ बस्तर अंचल में बोली जाने वाली तीसरी ऐसी भाषा है, जिस का प्रचलन गोंडी और हल्बी के बाद सबसे अधिक आबादी एवं क्षेत्रफल में है। यह लोकभाषा ओड़िया और हल्बी का मिश्रित रूप है । मूलतः भतरा जनजाति की मातृ भाषा समय के साथ जातीय सीमाओं को लांघ कर अन्य समुदायों के द्वारा भी बोली समझी जाने लगी। इस लोक भाषा का वाचिक साहित्य अत्यंत समृद्ध है। छत्तीसगढ़ के बस्तर और कोंडागांव जिले के पूर्वी भाग में पश्चिमी उड़ीसा से लगे इलाकों में प्रचलित है। ’सात भाइयों की एक बहन’ भतरी लोक भाषा की कथा है। अच्छे या बुरे कर्म व्यक्ति के जीवन पर प्रभाव डालते ही हैं।सात भाइयों ने बहन के साथ बुरा कर्म किया था अतः वे अधिक दिनों तक सुखी नहीं रह सके और उनकी आत्मा ने उन्हें धिक्कारा। उसी धिक्कार के चलते उन्होंने घर – बार छोड़कर सन्यास ले लिया । उदाहरण के लिए वाक्य-हांय मनर गोटोक भइन रए (सात भाई थे।उनकी एक बहन थी)

’नगरिया का नागर’ कवर्धा जिले की बैगानी लोक भाषा की कथा है। इस कथा में लोक मानस में घर कर चुके अंधविश्वास को चित्रित किया गया है। गुनिया के द्वारा किए गए पूजा पाठ से बीमारी का दूर हो जाना अंधविश्वास का ही उदाहरण है किंतु लोकमानस इससे उबर नहीं पाता। पता नहीं कब तक इस तरह के अंधविश्वास समाज में व्याप्त रहेंगे ?

’लदनी’ सरगुजा जिले की प्रचलित लोक कथा है। एक लम्पट साधु की धोखेबाजी की कहानी है वहीं एक ऐसे युवा की भी जो अपनी एकनिष्ठता, दृढ़ता और परोपकारी भावना के चलते प्राप्त आशीर्वाद के बल पर ना केवल पत्थर में परिवर्तित अपने पिता तथा काकाओं को मनुष्य रूप हमें लौटा लाता है बल्कि अपनी काकी को भी उस कपटी साधु के चंगुल से छुड़ा लाता है। उदाहरण -’एगोट गांव में सात ठन भाई रहत रहिन’ (एक गांव में सात जन भाई रहते थे।) इस तरह जनजातीय लोककथाओं का संसार बहुत स्मृद्ध है, जो प्रतीकों के माध्यम से जीवन की सीख देती हैं तथा इतिहास को संरक्षित करती है।

आलेख

डुमनलाल ध्रुव
प्रचार-प्रसार अधिकारी
जिला पंचायत धमतरी
मो. 9424210208

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2 comments

  1. विवेक तिवारी

    अब्बड़ सुग्घर शोधपरक आलेख बधाई हो भईया
    💐💐💐💐💐💐💐💐💐💐💐💐💐

  2. शानदार लेख 🙏

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