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अंग्रेजों की प्रताड़ना से प्राण त्यागने वाले स्वतंत्रता संग्राम सेनानी : यतीन्द्र मोहन सेनगुप्त

22 जुलाई, बलिदान दिवस विशेष आलेख

भारत तो स्वतंत्रता सैकड़ों वर्षों के संघर्ष एवं लाखों की संख्या में बलिदानों को उपरांत प्राप्त हुई। जिनमें कुछ बलिदानियों का नाम तो लोग जानते हैं परन्तु असंख्य ऐसे हैं, जिनके विषय में बहुत कम ही ज्ञात हो पता है। हम प्रसिद्ध एवं सिद्ध स्वतंत्रता संग्राम सेनानियों की चर्चा कर रहे हैं।

सुप्रसिद्ध स्वतंत्रता संग्राम सेनानी यतीन्द्र मोहन सेनगुप्त उन विरली विभूतियों में एक हैं जिन्होंने एक साथ तीन दिशाओं में संघर्ष किया। नागरिक अधिकारों और नागरिक सम्मान के लिये, दूसरा समाज की आर्थिक उन्नति के लिये और तीसरा देश को अंग्रेजों से मुक्ति केलिये भी। उन्हें जेल में इतनी प्रताड़ना दी गई कि रांची जेल में उनका बलिदान हो गया और उन्होंने स्वतंत्रता की राह में वीर गति प्राप्त की।

यतीन्द्र मोहन सेनगुप्त का जन्म 22 फ़रवरी 1885 को चटगांव में हुआ था। यह क्षेत्र अब बंगलादेश में है। उनके पिता जात्रमोहन सेनगुप्त समाज में एक प्रतिष्ठित व्यक्ति थे तथा बंगाल विधान परिषद के सदस्य भी थे। परिवार में आधुनिक शिक्षा का वातावरण था।

यतीन्द्र मोहन अपनी आरंभिक शिक्षा पूरी करके 1904 में वकालत करने इंग्लैंड गए और 1909 में वकील बनकर भारत लौटे। इंग्लैड में रहते हुये उनकी निकटता एक यूरोपीय सहपाठी नेल्ली ग्रे से हुई। यह दोस्ती प्यार में बदली और दोनों ने विवाह कर लिया। वे नेल्ली से विवाह करके ही भारत लौटे।

बंगाल में परिवार एक प्रतिष्ठित परिवार था अतएव यहाँ उन्हे अंग्रेजों द्वारा भारतीयों के साथ किये जाने वाले असम्मानजनक व्यवहार का उतना अनुभव नहीं था जितना लंदन में पढ़ाई के दौरान हुआ। उनके मन समानता के व्यवहार और समान नागरिक अधिकार के लिये संकल्प बना। भारत लौटकर यतीन्द्र मोहन इसी काम में लगे। उनका साथ उनकी यूरोपीय पत्नी नेल्ली ने भी दिया और वे भी इसी अभियान में लग गईं।

भारत लौटकर यतीन्द्र मोहन ने अपना आरंभिक व्यवसायिक जीवन कोलकाता उच्च न्यायालय में वकालत और रिपन लॉ कॉलेज में अध्यापक के रूप में आरम्भ किया। वे अदालत में भी समान सम्मान करने का अभियान चलाते और अपने लॉ कालेज में भी।

अपने इसी अभियान को बल देने के लिये वे 1911 में कांग्रेस के सदस्य बने। काँग्रेस में सम्पर्क और सक्रियता दोनों बढ़ीं। वे अपने समय के सुप्रसिद्ध वकील मोतीलाल नेहरू के भी संपर्क में आये। 1920 उन्होंने कांग्रेस में सक्रियता के साथ किसानों और मज़दूरों को संगठित करने का काम आरंभ किया।

उन्होने अपने इस नये संकल्प के अंतर्गत सिलहट में चाय बाग़ानों के श्रमिकों के शोषण के विरुद्ध आवाज उठाई। श्रमिकों को संगठित किया और चाय बागान में हड़ताल हो गई। इसका प्रभाव रेलवे और पानी के जहाजों में काम करने वाले श्रमिकों पर भी पड़ा और वहाँ भी हड़ताल हो गई। इससे रुष्ट होकर अंग्रेज सरकार ने 1921 में उन्हें इस गिरफ्तार कर लिया गया।

पं मोतीलाल नेहरू ने स्वराज पार्टी का गठन किया तो यतीन्द्र मोहन उसके सदस्य बने और इसी पार्टी की ओर से बंगाल विधान परिषद के सदस्य चुने गए। 1925 में वे कोलकाता के मेयर बने। अपनी निरंतर सक्रियता से वे इतने लोकप्रिय हुये कि लगातार पांच बार कोलकाता के मेयर बने। पंडित मोतीलाल नेहरू की अध्यक्षता में हुए 1928 के कोलकाता अधिवेशन के स्वागताध्यक्ष यतीन्द्र मोहन सेनगुप्त ही थे।

अंग्रेज सरकार ने जब रंगून और बर्मा को भारत से अलग करने का निर्णय लिया तो इसका विरोध करने के लिये सबसे पहले यतीन्द्र मोहन ही सामने आये। उनका साथ उनकी पत्नी नेल्ली ने दिया। तब दोनों पति पत्नी को राजद्रोह के आरोप में गिरफ्तार कर लिया गया। 1930 में यतीन्द्र मोहन सेनगुप्त को कांग्रेस ने अपना कार्यवाहक अध्यक्ष घोषित कर दिया गया।

रिहाई के बाद 1931 में उनका नाम कार्ग्रेस के अध्यक्ष पद के लिए आया, किन्तु उन्होंने सरदार वल्लभभाई पटेल के पक्ष में अपना नाम वापस ले लिया। कांग्रेस का अधिवेशन करांची में हुआ था । जेल से जब बाहर आये तब उनका स्वास्थ्य भी बहुत गिरा हुआ था। अधिवेशन के बाद वे उपचार के लिये विदेश गये। 1932 में स्वदेश लौटते ही पुन: गिरफ्तार कर लिये गए। इस नेल्ली गिरफ्तार नहीं की गईं थीं।

1933 में कोलकाता में हुये कांग्रेस का अधिवेशन की अध्यक्षता नेल्ली ने ही की। इस अधिवेशन की अध्यक्षता महामना पं मदन मोहन मालवीय जी को करनी थी पर अंग्रेज सरकार ने अधिवेशन पर रोक लगा दी थी और मालवीय जी को मार्ग में ही गिरफ़्तार कर लिया गया था। यतीन्द्र मोहन पहले से ही जेल में थे इसलिए इस अधिवेशन की अध्यक्षता श्रीमती नेल्ली सेनगुप्त ने की, किन्तु उन्हे भी अधिवेशन स्थल से ही गिरफ्तार करके जेल भेज दिया गया।

यतीन्द्र मोहन सेनगुप्त पूरी तरह स्वस्थ्य नहीं थे फिर भी सामाजिक जागरण में सक्रिय हो गये थे। अंग्रेज सरकार की उनसे नाराजी बढ़ती जा रही थी। इस बार बंदी बनाकर उन्हें अनेक प्रकार के प्रलोभन भी दिया और प्रताड़ित भी किया। जिससे उनका स्वास्थ्य और गिरा। उन्हे जेल में क्रूरतम प्रताड़ना दी गई। वे बंगाल प्रान्तीय कांग्रेस कमेटी के अध्यक्ष भी रहे तथा सविनय अवज्ञा आन्दोलन में उन्होंने सक्रिय नेतृत्व किया।

उन्हें पूना, दार्जिलिंग व राँची में कैद रखा गया। विभिन्न जेलों में दी गई प्रताड़ना से अंततः 22 जुलाई 1933 में उनका बलिदान हुआ तब वे 48 वर्ष के थे। उन्होंने जीवनभर सामाजिक जागरण, नागरिक अधिकार की समानता और स्वाधीनता के लिए संघर्ष किया।

वे ‘देशप्रिय’ उपनाम से विख्यात हुये। उनके निधन के बाद उनकी पत्नी नेल्ली ने उनके काम को आगे बढ़ाया और उनका शैष जीवन समाज सुधार एवं नागरिक अधिकारों की रक्षा के संघर्ष में ही बीता।

आलेख

श्री रमेश शर्मा,
भोपाल मध्य प्रदेश

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