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याद रखनी चाहिए भारत विभाजन की त्रासदी

विभाजन विभिषिक स्मृति दिवस 14 अगस्त : विशेष आलेख

देश का विभाजन एक अमानवीय त्रासदी थी जो अपने साथ भारतवर्ष का दुर्भाग्य भी लेकर आई थी। विश्व इतिहास के किसी दौर में ऐसा कोई दूसरा उदाहरण नहीं है कि आप आजादी के लिए संघर्ष करें, आंदोलन चलाएं और जब आजाद हो तो दो खण्ड हो जाये। यह खण्डित स्वतंत्रता देश का अभिशाप है। एक रक्तप्लावित आजादी जिसे फैज ने अपनी नज्म ‘सुबहे आजादी’ में कहा, ‘वो इंतजार था जिसका ये वो सुबह तो नहीं।’ यह विभीषिका तो जैसे दोनों कौमों के बीच सदियों से स्थगित होते आ रहे युद्धविराम के अचानक समाप्त हो जाने का परिणाम हो। यदि बीच में अंग्रेज न आये होते तो मुगल शासन के पटाक्षेप के बाद हिंदू-मुस्लिम सम्बंध संभवतः भीषण गृहयुद्ध के द्वारा परिभाषित हुए होते। उसके बाद सामाजिक-राजनैतिक स्थिरता के एक स्वाभाविक स्तर आ गया होता। दो शताब्दियों बाद ब्रिटिश शासन के द्वारा जनित देश का रक्तरंजित विभाजन भी कोई समाधान नहीं बना। देश के विभाजन ने भीषण साम्प्रदायिक युद्ध के बाद भी समस्या का अंतिम समाधान नहीं किया। फिलहाल हम सभी एक अस्थायी युद्धविराम में है।

पाकिस्तान से बेदखल शरणार्थियों की कितनी ही ऐसी ट्रेनें ऐसी आयी जिनमें कटे हुए गलों, शरीरों के अलावा कोई जिंदा नहीं था। वहां मजहबी हिंसा, आतंक, अपहरण, बलात्कार, लूट और बलात् धर्मपरिर्वतनों का नंगा नाच हुआ। मंदिरों गुरुद्वारों में शरण लिये लोगों को जलाकर मार डालती उन्मादी भीड़ का राज था। कहीं हिंदू थे तो कहीं मुसलमान थे। विभीषिकाएँ निर्दोषों को ही मारती है। लेकिन यहां भारत में मुसलमानों को बचाने के लिए गांधी-नेहरू थे। उन्होंने बचाया ही नहीं, बहुतों को भारत में रोक भी लिया।

भारत में तो सेकुलर राजनीति के कार्यकर्ता व प्रशासन अल्पसंख्यकों की सुरक्षा के लिए सक्रिय थे ही। लेकिन वहां लाहौर मुल्तान स्यालकोट पेशावर और पंजाब के गांवों कस्बों में हिंदुओं-सिखों के लिए भला कौन खड़ा था? वहां हिंदू आबादी जो 21 प्रतिशत थी वह आज 2 प्रतिशत रह गयी है। आज भी उनकी प्रताड़नाओं का हाल यह है कि प्रतिमाह सैकड़ों नाबालिग हिंदू बच्चियों का अपहरण कर उनका बलात् धर्मपरिवर्तन व निकाह कराया जा रहा है। संवेदनाएं मर चुकी हैं। अब तो वहां कोई सवाल भी नहीं पूंछता. हमारे देश की वोटपरस्त राजनीति ने अपने उन भाइयों को कभी घूमकर पूंछा भी नहीं।

नेहरू-लियाकत पैक्ट 1950 में यह शर्त थी कि दोनों देश अपने अपने अल्पसंख्यकों की सुरक्षा, उनके कल्याण के लिए प्रतिबद्ध रहेंगे। भारत सरकार, नेहरू-गांधी ने यहां अल्पसंख्यकों को सर माथे पर बैठाया लेकिन पाकिस्तान में उन पर अत्याचार बुरी तरह बढ़ते गये। नेहरू-लियाकत पैक्ट 1950 ने पाकिस्तान के हिदुओं का भारत आना रोक दिया। उसका परिणाम यह हुआ कि वे हिंदू सिख जो एक बड़ी संख्या में वहां छूट गये थे उनमें से बहुत से लोग तो मार दिये गये, एक बड़ी संख्या बलात् धर्मपरिवर्तन की शिकार बनी।

पाकिस्तान के ये अवशेष हिंदू आज विश्व के सबसे प्रताड़ित समाजों में से हैं। मोदी सरकार ने जनप्रतिबद्धता के क्रम में नागरिकता संशोधन कानून द्वारा नेहरू-लियाकत पैक्ट से पीड़ित पाकिस्तान, बांग्लादेश व अफगानिस्तान के प्रताड़ित हिंदुओं-सिखों को शरण देने की कानूनी पहल की है। इस संशोधन कानून का शाहीनबाग धरने जैसा अप्रत्याशित व प्रायोजित विरोध यह स्पष्ट करता है कि भारत का साम्प्रदायिक परिदृश्य इन 75 वर्षों में बहुत बुरी तरह असंतुलन का शिकार हो गया है।

अंग्रेजों की बनाई उस नकली सरहद रेडक्लिफ लाइन के पार छूट गये हिंदू-सिखों का गुनाह क्या था? वे भी तो देश के वैसे ही नागरिक थे जैसे कि दिल्ली, लखनऊ, भोपाल, मुंबई के रहने वाले थे। जैसे नेहरू, पटेल, राजगोपालाचारी, आचार्य कृपलानी और गांधी देश के नागरिक थे। हमारे नेताओं की संवेदनहीनता का आलम यह था कि लाहौर में हिंदू-सिख महिलाएं बेटियां जौहर कर रही हैं। लोग अपने हाथों से अपनी बेटियों को कत्ल करने को बाध्य हैं और दिल्ली में जश्ने आजादी की तैयारी है। नेहरू जी ‘नियति से मुलाकात’ का अपना मशहूर भाषण लिख रहे हैं। गांधीजी कलकत्ते में जूझ रहे थे। आप को तो लाहौर में होना चाहिए था। माऊंटबेटन की ब्रिटिश इंडियन सेना क्या कर रही थी? उन्हें सीमाओं पर क्यों तत्काल तैनात नहीं किया गया? गांधी जी ने कलकत्ते को विभीषिका से बचा लिया था लेकिन पूर्वी बंगाल में अल्पसंख्यक भीषण हिंसा के शिकार हुए।

इस देश में राजधानियों से लेकर दूरदराज के कस्बों, गांवों तक उजड़े, लुटे पिटे, मोहताज हो चुके शरणार्थियों का जो रेला आता रहा, वह इस देश ने देखा है। उन्होंने यहां अपनी जिंदगी की नयी शुरुआत की, वे योरोप से इजरायल आ रहे यहूदियों की तरह थे। वे पहाड़ों जंगलों तक बसे। तराई के जंगलों में उन्होंने खेत बनाए। सड़कों के किनारे ठेलों, गुमटियों में कारोबार जमाया। मिस्र की कथाओं के फीनिक्स पक्षी की तरह वे अपनी राख से जिंदा होकर फिर उठ खड़े हुए। विभाजन की विभीषिका को उन्होंने अपने सीने पर झेल लिया। कांग्रेस की सरकार ने उन्हें उस समय बोझ समझा था। वे लोग तो तुम्हारी गलतियों, तुम्हारे नाकारेपन के कारण यह त्रासदी झेल रहे थे। उनकी सम्पत्ति लुटी, हत्याएं हुईं, बेटियां लुटी, सब कुछ छूट गया। फिर भी उन्हें अहिंसकों द्वारा यह कहा जा रहा था कि तुम क्या करने यहां आ गये ? वहीं शहीद क्यों नहीं हो गये?

असहयोग आंदोलन में गांधी जी के द्वारा तुर्की के खलीफा की बहाली के मुद्दे को प्रमुखता देने का तात्कालिक प्रभाव तो यह रहा कि गांधी रातोंरात मुस्लिम समाज के स्टार बन गये। जिन्ना को उन्होंने हाशिये पर ढकेल दिया जो उनका प्रछन्न लक्ष्य भी रहा होगा। लेकिन इस मांग ने राजनीतिक परिदृश्य पर साम्प्रदायिकता की स्थायी आमद दर्ज करा दी। तुर्की में खलीफत की बहाली हमारे देश की समस्या नहीं थी। यहां तक कि अरब ईरान जैसे देशों में भी इस पर कोई प्रतिक्रिया नहीं थी। भारत के मौलवियों में इस विषय पर बहुत सी धार्मिक चर्चाएं चल रही थीं। लेकिन गांधी जी इस मुद्दे को हाशिये से उठा कर राजनैतिक परिदृश्य के केंद्र में ले आये। यह भारत की राजनीति में साम्प्रदायिक तुष्टीकरण का पहला प्रयोग था जो इतिहास के पड़ावों से गुजरता हुआ अंततः विभाजन फिर पाकिस्तान की ओर चला गया।

देश में साम्प्रदायिक दंगों का जो सिलसिला खलीफत आंदोलन की असफलता की प्रतिक्रिया में 1921 के मोपला साम्प्रदायिक नरसंहार से प्रारंभ हुआ था, वह लगातार सैकड़ों दंगों, कलकत्ता नरसंहार से होता हुआ विभाजन की विभीषिका तक लाखों देशवासियों की बलि लेता गया। अहिंसक आंदोलनों की उर्वर भूमि ने दंगाइयों का काम बड़ा आसान बना दिया था। भारत के बंट जाने के बाद भी वोटबैक की राजनीति ने साम्प्रदायिकता के माहौल को जिंदा बनाए रखा है। दुर्भाग्य है कि इस साम्प्रदायिक जिन्न का स्थायी समाधान करना हमारी राजनीति का लक्ष्य नहीं था। विभाजन ने देश की सीमाओं पर रेडक्लिफ व डूरंड लाइनें ही नहीं खींची, बल्कि देश के मानस पटल पर भी साम्प्रदायिक विभाजन की एक स्थायी लकीर खींच दी है।

गोरखा रेजिमेंट के कैप्टेन एटकिन्स ने दंगों में लाहौर शहर के हालात का बयान किया है। इतनी हत्यायें हुईं कि लाहौर का गटर खून से लाल हो गया था। कोई हिंदू सिख घर नहीं था जो जल न रहा हो। नहरें थीं कि सैकड़ों हिंदू-सिखों की लाशों से भरी चल रही थीं। इस विभीषिका ने कितने भारतीयों की बलि ली, कोई हिसाब ही नहीं। देश की आजादी के बाद तो वोटबैंक की शक्ल में हमने अपने यहां साम्प्रदायिक ब्लैकमेल को स्थायी अभयदान दे दिया। यह हमारी मुख्य समस्या बनी हुई है। जब हमारी संसद ने अपनी प्रतिबद्धता प्रदर्शित करते हुए नागरिकता संशोधन कानून पारित किया तो अब सीमापार के उन प्रताड़ित हिंदू-सिखों को यह ढांढस बंधा है कि उनका मातृदेश उन्हें भूला नहीं है बल्कि उनके साथ खड़ा है।

नोट : लेखक अखिल भारतीय पूर्व सैनिक सेवा परिषद् उ.प्र के उपाध्यक्ष हैं।

आलेख

कैप्टन आर.विक्रम सिंह आईएएस (से.नि.)

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