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जानिए बस्तर की जनजातीय भाषा भतरी एवं उसकी व्याकरणिक संरचना

बस्तर की जनजातीय अथवा लोक-भाषाओं की चर्चा करते हुए अनायास ही इन लोक भाषाओं में प्रचलित रही लोक कथाओं की सुध आ जाती है। और फिर जब लोक कथाओं की बात हो तो इन पर बात करते हुए मुझे अपनी नानी स्व. चन्द्रवती वैष्णव (खोरखोसा) और छोटे नाना स्व. तुलसीदास वैष्णव एवं छोटी नानी स्व. प्रेमवती वैष्णव (नारायणपुर) की बरबस याद आ जाती है।

कारण, सर्वाधिक लोक-कथाएँ मैंने अपने बचपन में इन्हीं तीनों से सुनी थी। मैं जब भी ननिहाल (खोरखोसा) जाता या नानी हमारे घर आतीं तो बस! मेरी एक ही फर्माइश होती, “कहानी सुनाओ ना, नानी’। इसी तरह नारायणपुर वाले छोटे नाना या नानी कभी हमारे घर आते या मुझे नारायणपुर जाने का अवसर मिलता तब भी मेरी एक ही मनुहार होती, “कहानी सुनाइये, न।’।

उन्हीं सुनी हुई लोक-कथाओं से मैं अपने तीनों बच्चों का भी मनोरंजन किया करता था। वे बड़े ध्यान से कहानियाँ सुना करते थे। और अभी कुछ वर्षों पहले तक मेरे दोनों नाती सोमू (सोमेश) और सागर (कुबेर) जब कभी कोंडागाँव आते या मैं उनके घर बेमेतरा जाता तो भोजन के बाद उनकी एक ही माँग होती थी, “नानू! कहानी सुनाइये, न।’ अब तक मैं उन्हें मुझे याद लोक-कथाओं के साथ-साथ अपने संग्रह की कई प्रकाशित-अप्रकाशित लोक-कथाएँ सुना चुका हूँ।

उन्हें प्रतिदिन लोक-कथाएँ सुनाने के लिये मुझे कई बार पूर्व तैयारी करनी पड़ती थी। कई बार तो ऐसा होता कि मैं पूर्व में सुनायी गयी कथा ही सुनाने लगता किन्तु तभी छोटा नाती सोमेश तड़ से टोकता, “”नानू, होशियारी नहीं! यह कहानी तो आप पहले ही सुना चुके हैं।” तब ऐसे में विवश हो कर कई बार मुझे किसी नयी कथा का सृजन करना पड़ता।

किन्तु यदि वह नयी कथा किसी लोक-कथा की तरह की नहीं हुई तो फिर से चेतावनी, “नहीं, नहीं। यह कहानी तो आप मन से गढ़ कर सुना रहे हैं। हमें तो वही कहानियाँ चाहियें, जो आपने अपने नाना-नानी से सुनी हैं।” और मैं उन कहानियों में लोक-तत्त्व का थोड़ा-सा तड़का लगा देता। और इस तरह मेरी वह कहानी बन जाती लोक-कथा।

लेकिन ऐसा हमेश नहीं। कभी-कभार, जब मैं किन्हीं कारणों से अपने संग्रह की लोक-कथाओं को पढ़ने या टेप से सुनने का समय नहीं निकाल पाता। सागर नींद के मामले में अव्वल है। कहानी सुनते-सुनते निंदिया रानी उसे अपनी बाँहों में समेट लेती किन्तु सोमू नींद को धता बता कर पूरी कहानी सुने बिना नहीं सोता। और यदि कहानी छोटी हुई तो अगली कहानी की फर्माइश भी कर बैठता,”यह भी कोई कहानी हुई! दस मिनट भी नहीं लगे सुनाने में। कोई लम्बी कहानी सुनाइये, न।” उन्हें कहानियों में पशु-पक्षी, विशेष तौर पर जंगली पशु-पक्षी वाली और रहस्यमयी कहानियाँ मजेदार लगतीं। किन्तु अब, जबसे मोबाईल फोन उनके हाथों में आ गये हैं तब से उन्हें किसी लोक कथा की सुध ही नहीं आती। अफ़सोस!

नानी का अधिकार भतरी, हल्बी और बस्तरी पर एक समान था। उनके पूर्वज छुईखदान (छत्तीसगढ़) के राज-परिवार से थे। इसी तरह नारायणपुर वाले छोटे नाना जी के पूर्वजों का सम्बन्ध भी राजनाँदगाँव (छत्तीसगढ़) के राज-परिवार से था। छोटे नाना जी की भाषा मिश्रित हुआ करती थी। हल्बी, बस्तरी और हिन्दी। उनकी भाषा की एक बानगी देखें, “”एक ठन गाँव में दुय झन मनुक रते रहोत। दुनो आकट ठग रहिन। एक झन का बायले बिकट झगड़हिन रहिस।”

इसमें बस्तरी, हल्बी और हिन्दी तीनों का ही मिश्रण इस तरह मिलता है : “एक ठन गाँव में दुय झन (बस्तरी), मनुक रते रहोत (हल्बी), दुनो आकट (हल्बी) ठग रहिन (बस्तरी), एक झन (बस्तरी), का (हिन्दी), बायले (हल्बी), बिकट (बस्तरी), झगड़हिन रहिस (बस्तरी)।’ मुझे इस बात का अब मलाल होता है कि मैं उन लोक-कथाओं में से अधिसंख्य लोक-कथाएँ भूल गया हूँ।

राजा-रानी की कथाएँ, डोकरा-डोकरी की कथाएँ, परियों की कथाएँ, शेर और भालू की कथाएँ, लोमड़ी और तेन्दुआ की कथाएँ आदि आदि। कुछेक लोक-कथाओं के कुछ अंश याद रह गये हैं जिन्हें मैं आज भी अपने ननिहाल के लोगों को सुना कर चाहता हूँ कि वे वह लोक-कथा पूरी-की-पूरी मुझे सुनाएँ किन्तु अफसोस! वे सब भी भूल चुके हैं।

अब मूल बात पर आते हुए भतरी लोक-भाषा की व्याकरणिक संरचना पर चर्चा करते हैं। किन्तु चर्चा आरम्भ करने से पूर्व यहाँ मैं बिना किसी संकोच के यह स्पष्ट कर देना चाहता हूँ कि मैं कोई भाषा वैज्ञानिक अथवा व्याकरणाचार्य नहीं हूँ। मैंने बस्तर की लोक-भाषाओं और यहाँ की लोक-संस्कृति के एक अकिंचन विद्यार्थी के रूप में जो कुछ अनुभव किया उसी के आधार पर इस लोक-भाषा की व्याकरणिक संरचना पर बहुत कम शब्दों में अपनी बात निम्नानुसार रखना चाहूँगा। अत: मेरे इन विचारों को इसी तरह लिये जाने और जहाँ कहीं मेरी त्रुटि दिखे वहाँ मेरा ध्यान आकृष्ट कराये जाने, मेरी गलती सुधारे जाने का विनम्र अनुरोध सुधी पाठकों, विद्वानों और व्याकरणाचार्यों से है। अस्तु।

वर्ण

ओड़िया भाषा और हल्बी लोक-भाषा के मिश्रण से उपजी पारम्परिक भतरी (भतरनी) लोक-भाषा में महाप्राण वर्णों का उच्चारण नहीं के बराबर है तथापि इनका मूल स्वरूप महाप्राण ही है। यह भेद स्पष्ट होता है पारम्परिक भतरी तथा आधुनिक भतरी के बीच। पारम्परिक भतरी में जहाँ केवल अल्प प्राण ध्वनियाँ ही उच्चरित होती हैं और महाप्राण ध्वनियाँ नहीं, वहीं आधुनिक भतरी में इनका उपयोग किया जाने लगा है। इसके लिखित स्वरूप में इसके दोनों प्रकार उपयोग में लाये जाते हैं। कुछ लोग इसके अल्प प्राण वाले स्वरूप को उचित मानते हैं तो कुछ लोग महाप्राण वाले रूप को तथा कुछ लोग मध्यमार्ग अपनाते हुए दोनों ही स्वरूपों को मान्यता देने के पक्ष में खड़े दीखते हैं। इनका तर्क है कि चूँकि भतरी ओड़िया और हल्बी के सम्मिश्रण से प्रादुर्भूत लोक भाषा है अत: उच्चारण में भले ही अल्पप्राण ध्वनियाँ आयें किन्तु इसके लिखित स्वरूप में महाप्राण ध्वनियों को स्थान देना उपयुक्त लगता है। भतरी में निम्न स्वर एवं व्यंजन वर्ण हैं :

  1. स्वर : हिन्दी की ही तरह इस लोक-भाषा में भी दो प्रकार के स्वर वर्ण हैं। पहला ह्मस्व स्वर वर्ण और दूसरा दीर्घ स्वर वर्ण। ह्मस्व स्वर वर्ण ये हैं, जिनकी संख्या 5 है : अ, इ, उ, ए, ओ। इसी तरह दीर्घ स्वर वर्णों की संख्या भी 5 है, जो ये हैं : आ, ई, ऊ, ऐ, औ। इसमें हिन्दी का “ऋ’ स्वर नहीं है। इस तरह कुल मिला कर 10 स्वर वर्ण हैं।
  2. व्यंजन : इसमें व्यंजन वर्णों की संख्या 28 है। वे इस तरह हैं : क, ख, ग, घ, च, छ, ज, झ, ट, ठ, ड, ढ, त, थ, द, ध, न, प, फ, ब, भ, म, य, र, ल, व, स, ह। इसमें हिन्दी के ड;, ञ, ण, श, ष वर्ण नहीं हैं। इसी तरह हिन्दी के संयुक्ताक्षर क्ष, त्र और ज्ञ भी नहीं हैं। अनुस्वार ( ं ) तथा अनुनासिक या चन्द्रबिन्दु ( ँ ) तथा आधा न ( न् ) अस्तित्व में हैं किन्तु विसर्ग (:) नहीं है।

कारक

इस लोक-भाषा में भी हिन्दी की ही तरह कारकों की संख्या 8 है किन्तु कर्ता कारक का कोई विभक्ति चिन्ह नहीं है। बहरहाल, ये कारक इस तरह हैं :

ह्मस्व एवं दीर्घ स्वर में परिवर्तन

जब इ/ईकार या उ/ऊकार किसी भी शब्द के आरम्भ या मध्य में आए तो उसका स्वरूप ह्मस्व हो जाता है तथा अन्त में आने पर दीर्घ। उदाहरणार्थ :

  1. जिबार = ज+इ+ब+ा+र, 02. तिकतिका = त+इ+क+त+इ+क+ा, 03. निल = न+इ+ल, 04. बलसी = ब+ल+स+ी, 05. पुरे= प+उ+र+ े, 06. सुरवाँ = स+उ+र+व+ा+ ँ, 07. हिरामनी = ह+इ+र+ा+म+न+ई, 08. कोटी = क+ो+ट+ई, 09. खाऊँ = ख+ा+ऊ+ ँ, 10. जूँ = ज+ऊ+ ँ

 

पूर्वी प्रभाव

इस लोक-भाषा पर पूर्वी प्रभाव का ही परिणाम है कि इस में कोई भी तरल पदार्थ “पी’ नहीं अपितु “खाई’ जाती है। उदाहरणार्थ : 01. चाहा खायलिस (चाय खाई)? 02. पेज खायलास (पेज खाया)? 03. पानी खायलास (पानी खाया)? 04. मुईं मँद ना खाएँ (मैं मदिरा नहीं खाता)।

 

मौलिक शब्द

इस लोक-भाषा के कुछ मौलिक शब्दों की बानगी देखें :

  1. रगरगा : पूरी तरह से (लालपन के लिए)। हयँ करेला रगरगा पाकला आचे (वह करेला पक कर लाल हो गया है)।
  2. फटफटा : परेशानी, झगड़ा। मुर्इं बायले-मुनिसर फटफटा ने ना पड़ें (मैं पति-पत्नी के झगड़े में नहीं पड़ूँगा)।
  3. लिटलिटा : बहुत संख्या या मात्रा में। हयँ मँद ने लिटलिटा होयला आचे (उसने बहुत मात्रा में मदिरा पी रखी है)।
  4. लिटोलाटो : बहुत संख्या या मात्रा में। हयँ गछ मन ने लिटोलाटो पाक-फर मन धरी रलाय (उन पेड़ों पर बहुत से फल लगे हुए थे)।
  5. लटलटा : पूरी तरह से। हयँ पानी ने लटलटा भिजी रला (वह पानी में पूरी तरह भीग गया था)।
  6. दड़ँग्-दड़ँग् : धम-धम की आवाज। हयँ दड़ँग्-दड़ँग् हिंडते आसते रला (वह धम-धम की आवाज करता आ रहा था)।
  7. अटपट : विकट। ताके पार पाय के ना होय, हयँ अटपट आय (उससे पार पाना कठिन है, वह विकट है)।
  8. फकफका : खुल कर। बाबी फकफकाय करी हाँसी देला (राजकुमारी खिलखिला/खुल कर हँस पड़ी)।
  9. रटारट : कड़ाई से। हयँ काकेय बले रटारट बली देउआय (वह किसी को भी बहुत कड़े शब्द बोल देता है)।
  10. बटबट-बटबट : बड़ी-बड़ी आँखों से एकटक। टेंगनू सुरवाँ लड़ई देव राजा के बटबट-बटबट दखी देला (टेंगनू असुर ने लड़ई देव राजा को बड़ी-बड़ी आँखों से एकटक देखा)।

 

अंक-प्रयोग का रूढ़ होना

 

बस्तर अंचल की लोक-भाषाओं में प्रचलित वाचिक परम्परा, विशेषत: लोक-कथाओं और मिथ कथाओं में सात के अंक-प्रयोग की रूढ़ि दिखायी देती है। किसी कहानी में सात भाई मिलते हैं, तो किसी में  सात बहिनें और किसी में सात बेटे या बेटियाँ। किसी कहानी में सात सखियों और नदी के सात घाटों का वर्णन है, तो किसी में सात समुन्दरों की बानगी। कभी-कभी नौ, बारह और सोलह के अंक-प्रयोग की रूढ़ि भी दिखायी पड़ती है। उदाहरणार्थ सात धार (सात धाराएँ), सात समुँदर सोरा धार (सात समुद्र सोलह धाराएँ), सात आगर सात कोड़ी तरई (एक सौ सैंतालीस तालाब या सरोवर), नौ जलकामनी (नौ जलकामिनियाँ), नै सै ओड़या नै सै ओड़िन (नौ सौ ओड़िया नौ सौ ओड़िन), बारा (बारह) भाई भिमा, बारा-बारा चोबिस कोस (बारह-बारह चौबीस कोस) आदि आदि।

कथा-वाचिका सुखदई कोर्राम की मातृ भाषा हल्बी है तथापि इसके साथ ही भतरी और बस्तरी का भी उन्हें गजब का ज्ञान है। वे चूँकि बस्तर से सटे पश्चिचमी ओड़िसा के ओड़िया तथा भतरी भाषियों एवं बस्तरी भाषियों के सहज सम्पर्क में रही हैं इसीलिये उनके उच्चारण में कहीं-कहीं अल्पप्राण ध्वनियों के साथ-साथ ओड़िया के अनुरूप महाप्राण ध्वनियों का प्रयोग भी दिखलायी पड़ता है। इसी तरह यद्यपि मेरी मातृ-भाषा छत्तीसगढ़ी है तथापि हल्बी-भतरी-बस्तरी क्षेत्र में जन्म लेने, पलने और बढ़ने के कारण एवं इसके साथ ही साथ मेरी ससुराल में ओड़िया, भतरी और हल्बी बोली जाने के कारण मैं स्वाभाविक रूप से इन लोक-भाषाओं को आत्मसात कर सका हूँ। यही कारण है कि मैंने उनकी एवं अन्य दोनों प्रकार के लोगों की दृष्टि को ध्यान में रखते हुए इस प्रस्तुति में इन दोनों रूपों का प्रयोग किया है और यथास्थान इसे स्पष्ट भी किया है। उदाहरण के तौर पर कुछ ध्वनियाँ इस तरह हैं :

ध्यान देने योग्य तथ्य यह भी है कि भतरी का स्वरूप एक जैसा नहीं है। जगदलपुर-रायपुर राजमार्ग से लगे पूर्वी क्षेत्र में इस पर हल्बी का तथा इससे आगे ओड़िसा सीमा के निकट जाते-जाते इस पर ओड़िया का प्रभाव स्पष्ट दिखलायी पड़ता है। इस प्रभाव को दर्शाने वाले कुछ शब्दों का उदाहरण इस तरह है :

इसके पूर्व कि हम आगे बढ़ें “पचारबार’ शब्द के विषय में यह स्पष्ट करना लाजिमी होगा कि इस शब्द का प्रसंगानुसार “निंदा करना’ के रूप में भी प्रयोग होता है। उदाहरण के लिये एक वाक्य लें, “खुआ-पिआ करी पचारी देले तार खुआ-पिआ करलार काईं ने ना पड़ला’। इस वाक्य में “पचारना’ शब्द का निंदा के अर्थ में प्रयोग हुआ है। यानी खिलाने-पिलाने के बाद उससे यह कहना कि मैंने खिलाया-पिलाया, उसके द्वारा खिलाने-पिलाने की सार्थकता को खो देता है। लेकिन जब इसका प्रयोग पूछने के साथ (“पुछा-पचारा’) होता है तब इसका अर्थ पूछताछ करना होता है। उदाहरण के लिये, “दखा री! निको पुछा-पचारा करी आसबास।’ यहाँ अर्थ हुआ, “देखो री! अच्छे से पूछताछ कर आना।’

बहरहाल, भतरी लोक-भाषा पर क्षेत्रीय भिन्नता के साथ-साथ काल-क्रम के अनुसार भी भिन्नता देखने में आयी है। और दो मत नहीं कि इसके साथ-साथ अन्य लोक-भाषाओं पर भी काल-क्रम के अनुसार भिन्नता पायी जाती रही है। बहरहाल। उदाहरण के लिये मेरी पत्नी और उनके सगे तथा चचेरे भाई-बहन की ही बात लें। मेरी ससुराल खोरखोसा गाँव में है जहाँ भतरी के साथ-साथ हल्बी, बस्तरी तथा छत्तीसगढ़ी भी बोली-समझी जाती है। इस परिवार में मुख्यत: ओड़िया मिश्रित भतरी बोली जाती रही है क्योंकि मेरे श्वसुर के पूर्वज ओड़िसा से यहाँ आ कर बस गये थे। मैंने उन्हें ओड़िया, भतरी, हल्बी और बस्तरी बोलते देखा-सुना है। समय के साथ इनके परिवार की ओड़िया भाषा तथा भतरी लोक-भाषा में जो परिवर्तन हुए हैं उसे इस तरह देखा जा सकता है :

सहायक क्रिया का प्रयोग

भतरी के सहायक क्रिया पद हल्बी की तरह वर्तमान काल के उत्तम पुरुष, एकवचन एवं बहुवचन तथा अन्य पुरुष एकवचन के लिये नहीं हैं। इनमें सहायक क्रिया (आछें, आछूँ, आछी, आछे) हिन्दी की तरह अलग से लगे हैं जबकि ¶ोष कालों के सभी वचनों के वाक्यों में यह अँग्रेजी की तरह क्रियापद (Go: goes, Look: looks, Come: comes, Play: plays, See: sees, Say: says, Work: works, Do: does आदि) में समाहित है। यह अलग बात है कि कुछ लोग सभी वचनों में सहायक क्रिया को हिन्दी की तरह क्रियापद से अलग रख कर लिखते हैं। उदाहरण के तौर पर क्रिया पद “जिबार (जाना)’ के तीनों कालों के (“जि’ धातु एवं “बार’ प्रत्यय के योग से बने क्रिया शब्द के) वाक्य-विन्यास को देखा जाये …

शब्दों के विभिन्न रूप

यहाँ थोड़ी-सी चर्चा भतरी लोक-भाषा के शब्दों के विभिन्न रूपों पर भी। इस लोक-भाषा में प्रमुखत: शब्दों के ये रूप पाये जाते हैं : 01. ऊनार्थी शब्द, 02. पर्यायवाची शब्द, 03. अनेकार्थी या भिन्नार्थी शब्द, 04. समानार्थी शब्द, 05. विरुद्धार्थी या विलोम शब्द, 06. समोच्चरित भिन्नार्थी शब्द, 07. तद्भव एवं तत्सम शब्द तथा 08. संख्यावाचक (गूढ़ार्थक) शब्द। इनके उदाहरण संक्षेप में इस तरह हैं :

 

  1. ऊनार्थी शब्द

भतरी में प्राय: ऊनार्थी शब्दों की भरमार है। उदाहरण के तौर पर : लँदी, ढोड़ी, झोरकी, बादरी, घगरी, मेंडकी, डोंगरी, टुकनी, मोडरी, कडरी, छुरी, माची, सगरी, सागरी, बरखी, राती आदि।

  1. पर्यायवाची शब्द

यों तो भतरी में पर्यायवाची शब्द भी कई हैं तथापि विस्तार-भय से यहाँ केवल कुछ ही शब्द उदाहरण के तौर पर उनके प्रयोग सहित प्रस्तुत हैं :

01.नानी (हल्बी प्रभावित) = उ नन्हा/नन्ही, सुरू (ओड़िया प्रभावित) = उ छोटा/छोटी, सान (ओड़िया प्रभावित) उ छोटा/छोटी।

प्रयोग : मोर नानी भाई/मोर नानी बइन/भइन = उ मेरा नन्हा (छोटा) भाई/मेरी नन्ही (छोटी) बहिन।

सबू ले सुरू बइन/भइन = उ सबसे छोटी बहिन।

सुरू-सुरू चाटी मन = उ नन्ही-नन्ही (छोटी-छोटी) चींटियाँ।

मोर सान भाई = उ मेरा छोटा भाई।

सान और सुरू में अन्तर : सान उ छोटा/छोटी,  सुरू उ बहुत छोटा/छोटी।

  1. जों (ओड़िया एवं हल्बी प्रभावित), जावँ (हल्बी प्रभावित), जूँ (ओड़िया प्रभावित) = उ चलो/चलें।

प्रयोग : आले ना जों बे। आाले ना जावँ बे। आले ना जूँ बे।

आछोत (आचोत) : हैं। आछे (आचे) : है। आछे (आचे), आछें (आचें) : हूँ।

प्रयोग : हयँमन आछोत (आचोत)। हयँ आछे (आचे)। मुईं आछे (आचे)। मुईं आछें (आछें)।

  1. खिंडिक (हल्बी प्रभावित), खिंडमाहा (भतरी), अजिक, इजिक (हल्बी प्रभावित)।

प्रयोग : खिंडिक धुँगेया दियास। खिंडमाहा धुँगेया दियास। अजिक फयले जाहा। इजिक पेज दियास।

  1. अनेकार्थी या भिन्नार्थी शब्द

अन्य भाषाओं/लोक-भाषाओं की ही तरह भतरी में भी कई अनेकार्थी शब्द हैं किन्तु यहाँ विस्तार-भय से केवल ऐसे कुछ ही शब्दों का उल्लेख है, जिनके गलत प्रसंग-सन्दर्भ में प्रयोग होने पर अर्थ का अनर्थ हो सकता है :

  1. लुगा : (अ)- कोई भी कपड़ा, (ब)- साड़ी, (स)- धोती, (द)- अशुद्ध कपड़ा (रजस्वला के कपड़े)।

प्रयोग :  अ- लुगा-पाटा देबार आय (कपड़े-लत्ते देने चाहियें।

ब- तोर लुगा के आन री (तुम्हारी साड़ी लाओ री)।

स- दुला के लुगा पिंदाय दियास (दूल्हे को धोती पहना दो)।

द- हयँ बायले लुगा लगायला (उस रजस्वला औरत ने अशुद्ध कपड़े धोने के लिये डुबोये)।

  1. फटई : (अ)- कोई भी कपड़ा, (ब)- कपड़े का टुकड़ा जिसे मासिक धर्म के समय महिलाएँ अन्त:वस्त्र के रूप में पहनती हैं।

प्रयोग :   अ- आले हो, तमर फटई-फटेया के धरा बे (अच्छा जी, आप अपने कपड़े-लत्ते ले लें)।

ब- पानी पड़ले टोकी मन फटई पिंदुआत (रजस्वला होने पर लड़कियाँ अन्त:वस्त्र पहनती हैं)।

  1. भिड़ायबार : (अ)- काम में लगाना, (ब)- सम्भोग करना।

प्रयोग :   अ- आले ना, सबू लोक के बुता ने भिड़ाय दियास नू (अच्छा जी, सभी लोगों को काम पर लगा दो तो)।

ब- आजी तुय मोके भिड़ाय के देस नू (आज तुम मुझे सम्भोग करने दो तो)!

  1. सोयबार : (अ)- सोना, (ब)- रति-कर्म करना।

प्रयोग :   अ- राती होयबा के लोक मन सोई देलाय (रात होने पर लोग सो गये)।

ब- तोर मुनिस गाँव गला आछे घोड़ा सँगे सो (तुम्हारा पति गाँव गया है तुम घोड़े के साथ रति-कर्म करो)।

  1. मारबार : (अ)- मारना (मरते दम तक), (ब)- पीटना

प्रयोग :   अ- ताके हयँ मरते मारी देला (उसे उसने मरते दम तक मार दिया/उसे उसने मार डाला)।

ब- ताके हयँ दुड़दुड़ा मारी/पेटी देला (उसे उसने कूट-कूट कर पीट डाला)।

  1. समानार्थी शब्द

समान अर्थ में प्रयुक्त होने वाले कुछ शब्द इस तरह हैं : ठिंया : उबा। गोटक : गोटोक। आवरी : आउरी, आउर। तार : हँतार। निको : नँगत। मांतर : मातर। आमे : आमी। तमे : तमी। बयला : बुइल। असन : एमती, माहा। निसक : निकर आदि।

  1. विरुद्धार्थी या विलोम शब्द

विरोधी अर्थ में प्रयुक्त होने वाले शब्द इस तरह हैं :

आसबार : जिबार। सोयबार : चेतबार। बसबार : उठबार। जुगे : खिंडिक। मोट : पातर। लाम : आकुड़। बड़े : नानी। सान या सुरु : बड़े। मिठ : कड़ू, झार, आमट। सुआद : सेटसेटा। उजर : अँधार। अतक : दतक। इदली : दिदली।

  1. समोच्चरित भिन्नार्थी शब्द

ऐसे शब्द जो समोच्चरित तो हैं किन्तु उनके अर्थ प्रसंगानुसार भिन्न-भिन्न हैं :

जुगे : अधिक। ए ना जुगे ना पिव।

जुगे : युग में। कोन जाने कोन जुगे आसुआय की?

धरा-धरी : आपस में एक दूसरे को पकड़ना। हयँ मन हात धरा-धरी होई करी जायते रलाय।

धरा-धरी : आपस में झगड़ना। हयँ रानी मन धरा-धरी होयबा आछेत।

तिनपुर : तीन लोक। तिनपुरर देव-धामी के थोपी देला आचेत।

तिनपुर : अति। हयँ तिनपुर आय, तार सँगे सकी ना होय।

जितबार : जीतना। लड़ई ने हयँ जितला।

जितबार : अधिक हो जाना। तार बेमार जिती रला, ना।

जितायबार : जितवा देना (विजयी बनाना)। हयँ मन ताके जिताय देलाय।

जितायबार : अधिक बढ़ा लेना। बेमारी के जिताय करी ओसो-ओखद करले कोन थान ले उजरता गुने!

बला-बली : एक-दूसरे से बोलना (सामान्यत:)। दुनो माय-बेटी काय मँजा सुसारे बला-बली होयते रलाय।

बला-बली : आपस में गाली-गलौज करना (झगड़ना)। अतक ने दुनो सउत बला-बली होय के धरलाय।

ठगबार : मूर्ख बनाना। हयँ पिला ताके पक्की ठगी देला।

ठग होयबार : आलसी होना। काम-कमानी काजे ठग ना होयबार आय।

  1. तद्भव एवं तत्सम शब्द

इस लोक-भाषा में कुछ तद्भव एवं तत्सम शब्द इस तरह हैं :

  1. संख्यावाचक (गूढ़ार्थक) शब्द

सम्बन्ध कारक एवं सहायक क्रिया का प्रयोग

यद्यपि सहायक क्रिया के प्रयोग के विषय में ऊपर पहले ही कहा जा चुका है किन्तु यहाँ इसे पुन: स्पष्ट करने का प्रयास किया जा रहा है। वस्तुत: कई लोग सम्बन्ध कारक चिन्ह यानी षष्ठी विभक्ति (“का’, “के’, “की’, “रा’, “रे’, “री’, “ना’, “ने’, “नी’) का प्रयोग शब्दों के साथ मिला कर करते हैं तो कई लोग अलग से। इसी तरह सहायक क्रिया (“है’, “हैं’, “हूँ’) का भी प्रयोग कुछ लोगों द्वारा क्रियापद के साथ मिला कर तो कुछ लोगों द्वारा पृथक से किया जाता है। अत: कुछ उदाहरण उनके युक्तियुक्तकरण सहित इस तरह हैं :

 

जैसा कि मैंने पहले ही स्पष्ट कर दिया है कि मैं कोई भाषा वैज्ञानिक अथवा व्याकरणाचार्य नहीं हूँ, अत: किस ध्वनि को मान्यता मिलनी चाहिये और किसे नहीं, इसका निर्णय करना मेरा काम नहीं है। मैं लोक साहित्य का एक अकिंचन विद्यार्थी मात्र हूँ और विद्वानों के मार्गदर्शन का अभिलाषी हूँ। यह प्रस्तुति केवल स्मृति-परम्परा को लिखित स्वरूप में सामने रखने का एक अकिंचन उद्यम है और इस उद्यम में मैं कितना सफल हूँ और कितना असफल, इसका निर्णय तो सुधी पाठकों, विद्वानों एवं मर्मज्ञों के हाथों है।

कीर्तिशेष लाला जगदलपुरी के अनुसार “मौखिक साहित्य में संशोधन नहीं होता’। 2003 में मैं जब बस्तर में वाचिक परम्परा के सहारे पीढ़ी-दर-पीढ़ी मुखान्तरित होते आ रहे चार जगारों (लोक महागाथाओं/महाकाव्यों) में से एक “लछमी जगार’ पर काम कर रहा था तब मैंने उनसे इस महाकाव्य में आयी ध्वनियों के विषय में मार्गदर्शन माँगा था और उन्होंने “मौखिक साहित्य में संशोधन नहीं होता’ शीर्षक से मुझे अपने महत्त्वपूर्ण सुझाव दिये थे।

उन्होंने लिखा था, “”कोई भी भाषा या बोली, किसी एक जगह स्थिर नहीं रहा करती। वह जब अपने क्षेत्र में इधर-उधर घूमती-फिरती है, तब उस के कतिपय शब्दों में स्वभावत: बदलाव आता है और उन में उच्चारण-भेद के लिये गुंजाइश बनती है। जैसे, हल्बी में “काके’ को “कोके’ (किसे), “काचो’ को “कोचो’ (किसका), “तुचो’ को “तोचो’ (तेरा) और “हुनचो’ को “तेचो’ (उसका) बोलते मैंने अपने गाँव तोतर में सुना है।

बोली या भाषा का ऐसा परिवर्तन, किसी व्याकरणिक-सुधार को नहीं स्वीकारता। जन-भाषाएँ और जन-ध्वनियाँ संशोधन से परहेज करती हैं। “जगार’ लोक-गाथाओं में हल्बी, भतरी और बस्तरी बोलियों की त्रिवेणी-धारा प्रवाहित मिलती है। इन लोक भाषाओं में सर्वाधिक प्रभाव भतरी का ध्वनित पाया जाता है।

भतरी की एक प्रमुख ध्वनि “ओ’ उड़िया से आई है। जिन संज्ञा शब्दों के अन्त में “अकार’ आता है, उन में “अ’ के स्थान पर “ओ’ ध्वनि स्वभावत: उच्चारित होती आ रही है। जैसे दासो काठी (दास काठी) और जगन्नाथो (जगन्नाथ), डरो (डर), भयो (भय), मेंगपुरो (मेंघपुर) आदि।

भतरी बोली के साथ एक विडम्बना यह रही है कि भतरी बोलने वाले लोग आदतन अक्षरों की महाप्राण-ध्वनियों के बदले प्राय: अल्पप्राण-ध्वनियों का उच्चारण करते रहे हैं। जैसे, मँझपुरे के बदले मँजपुरे आदि। उड़िया से अप्रभावित हल्बी बोली में भी “ओ’ ध्वनि का प्राचुर्य पाया जाता है, परन्तु क्यों? उदाहरणार्थ एवं विचारार्थ विस्तृत विवरण की आव¶यकता है। व्याकरण का उपयोग लिखित साहित्य में होता है। मौखिक साहित्य में नहीं होता। मौखिक साहित्य, संशोधन-निरपेक्ष हुआ करता है। इसलिये “लछमी जगार’ (मौखिक साहित्य) में उच्चारित ध्वनियाँ, ज्यों की त्यों रहें, यही मेरा सुझाव है।”

किन्तु मेरा मानना है कि उच्चारण के कारण यदि हम महाप्राण ध्वनियों की जगह अल्प प्राण ध्वनियों का ही उपयोग करते हैं तो यह भी एक तरह से गलत ही होगा। कारण, अन्तत: भतरी जन-भाषा ओड़िया और हल्बी के मिश्रण से प्रादुर्भूत है और इन दोनों में ही महाप्राण ध्वनियाँ उच्चारित होती हैं। यदि हम उच्चारण को ही आधार मान कर चलेंगे तो हमें हिन्दी और अँग्रेजी में भी उच्चरित कई ध्वनियों को यथावत लिखना पड़ेगा। उदाहरण के तौर पर :

  1. इसमें हिन्दी एवं हल्बी के उलट समस्त पदार्थों, पंच तत्त्वों और सूर्य, चाँद, तारों, पहाड़ों, नदी-नालों, झरनों, प्रपातों तथा पेड़-पौधों आदि सभी के लिए एक वचन में पुÏल्लग का ही प्रयोग होता है। उदाहरणार्थ : “पानी गिरा’ कहना हो तो “पानी घसरला’ (पानी गिरा), “बाघ खा गया’ के लिए “बाग खायला’ (बाघ खा गया), “सूर्योदय हुआ’ के लिए “बेर निकरला’ (सूरज निकला) आदि तथापि आधुनिक प्रभाव के चलते अब यथा-स्थान स्त्रीलिंग का प्रयोग भी प्रचलन में आने लगा है। कहने का तात्पर्य यह कि पुÏल्लग का प्रयोग अधिकांशत: होता है, जबकि बस्तरी में उभयलिंग का :

इसी तरह प्रथम पुरुष एक वचन के लिए स्त्रीलिंग प्रयोग तथा अन्य पुरुष एक वचन के लिए पुÏल्लग प्रयोग देखने में आता है :

आलेख

हरिहर वैष्णव
सरगीपाल पारा,  कोंडागाँव 494226 (बस्तर-छत्तीसगढ़)
मोबाईल : 7697174308

 

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