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सिरपुर के प्राचीन बाजार के मध्य स्थित कुंआ

बन बाग उपवन वाटिका, सर कूप वापी सोहाई

दक्षिण कोसल के प्राचीन महानगरों में जल आपूर्ति के साधन के रुप में हमें कुंए प्राप्त होते हैं। कई कुंए तो ऐसे हैं जो हजार बरस से अद्यतन सतत जलापूर्ति कर रहे हैं। आज भी ग्रामीण अंचल की जल निस्तारी का प्रमुख साधन कुंए ही हैं। कुंए का मीठा एवं शीतल जल प्राणदायक होता है। इस अंचल में जल के लिए अधिक गहराई तक कुंए खोदने की आवश्यकता आज भी नहीं पड़ती। दस से बीस हाथ के उत्खनन में जल प्राप्त हो जाता है।

हड़प्पा कालीन लोथल का पांच हजार वर्ष पुराना कुंआ

 

हम जानते हैं कि जल ही जीवन है, क्षितिज, जल, अग्नि, गगन एवं हवा आदि पंच तत्वों में अनिवार्य तत्व जल भी है। बिना जल के जीवन की कल्पना भी नहीं की जा सकती। मानव ने सभ्यता के विकास के क्रम में जल की अनिवार्य आवश्यकता की पूर्ति हेतु नदियों एवं प्राकृतिक झीलों के किनारे अपना बसेरा किया। वह नदियों एवं झीलों के जल से निस्तारी करता था।

जब मानव समूह विशाल रुप लेने लगे तो गाँव एवं नगर बसने  लगे। निवासियों के लिए जल उपलब्ध कराने की दृष्टि से कुंए, तालाब इत्यादि निर्मित किए जाने लगे। आवागमन के मार्गों पर जल की व्यवस्था कुंए एवं प्याऊ के रुप में की जाने लगी। इस तरह भू-गर्भ जल की उपस्थिति को मनुष्य ने जान लिया और मानवकृत जल के संसाधन विकसित होने लगे।

पेयजल की उपलब्धता के लिए प्राचीन काल से मानव ने कुंए, बावड़ियों एवं तालाबों का निर्माण किया। पुरातात्विक स्थलों के उत्खनन के दौरान प्राचीन नगर बसाहटों में कुंए मिलते हैं। हड़प्पा काल में नगर के मध्य एवं व्यापारिक केन्द्रों में पक्के कुंए होते थे। मोहन जोदड़ो, हड़प्पा, लोथल इत्यादि स्थानों पर उत्खनन के दौरान पक्के कुंए प्राप्त हुए हैं। इसी तरह दक्षिण कोसल अंचल के सिरपुर में पक्के प्राचीन कुंए उत्खनन में प्राप्त हुए हैं, जिनमें अभी भी मीठा जल उपलब्ध है। इसके साथ ही प्राचीन व्यापार मार्गों पर भी कुंओं के अवशेष मिलते हैं।

तुलसीदास जी ने रामचरित मानस में रावण की वाटिका वर्णन करते हुए लिखा है – बन बाग उपवन वाटिका, सर कूप वापी सोहाई। जल के बिना जीवन नहीं है, अत: रावण की लंका में भी कूप, वापी सरोवरों की बहुतायता पाई गई। स्नान के लिए सरोवर, पेयजल की प्राप्ति के लिए कूप एवं सिंचाई तथा पशुओं की निस्तारी के लिए बावड़ियों का निर्माण कराया गया था। राज्य द्वारा प्रजा की सुविधाओं को ध्यान में रखते हुए जल की उत्तम व्यवस्था की जाती थी।

संस्कृत साहित्य के प्रसिद्ध कवि बाण अपनी कृति कादंबरी (सातवीं शताब्दी) में पोखर-सरोवर खुदवाने को सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण मानते थे. लोक-कल्याण हेतु इस प्रकार के खुदवाए गए जलकोष को चार वर्गों में विभाजित किया गया है- 1.कूप जिसका व्यास 7 फीट से 75 फीट हो सकता है और जिससे पानी डोल-डोरी से निकाला जाए, 2. वापी, छोटा चौकोर पोखर, लंबाई 75 से 150 फीट हो और जिसमें जलस्तर तक पाँव के सहारे पहुँचा जा सके, 3.पुष्करणी, छोटा पोखर, गोलाकार, जिसका व्यास 150 से 300 फीट तक हो, 4.तड़ाग पोखर, चौकोर, जिसकी लंबाई 300 से 450 फीट तक हो.।

जल की व्यवस्था हमारे समाज के लिए कभी मजबूरी रही होगी परन्तु कालांतर में इसने परम्परा का रुप ले लिया। पोखर की चर्चा ऋग्वेद में भी है. गृह्मसूत्र के अनुसार, किसी भी वर्ग या जाति का कोई भी व्यक्ति, पुरूष या स्त्री पोखर खुदवा सकता है और यज्ञ करवाकर समाज के सभी प्राणियों के कल्याण-हेतु उसका उत्सर्ग कर सकता है. आज भी यह काम पुण्य कमाने का समझा जाता है। कुंआ पोखर आदि निर्माण करने को प्रोत्साहित करने के लिए शास्त्रों द्वारा महिमा मंडन किया गया, कहते है – जो धनी पुरुष उत्तम फल के साधन भूत ‘तडाग’ का निर्माण करता है और दरिद्र एक कुआँ बनवाता है, उन दोनों का पुण्य समान होता है। जो पोखरा खुदवाते हैं, वे भगवान् विष्णु के साथ पूजित होते हैं।

महाभारत में भीष्म पर्व के माध्यम से वेदव्यास ने कोई तालाब कितने समय के लिए पानी संचित रख सकता है उसके अनुरूप उनका विभाजन किया है। उन्होंने इस तरह के तालाबों के निर्माण से मिलने वाले पुण्य की भी व्याख्या की है। हिन्दू संस्कृति में इस तरह के जल-स्रोतों का निर्माण एक धार्मिक कृत्य माना जाता रहा है और इसे अपनी कीर्ति रक्षा का सबसे सहज उपाय भी बताया गया है। कूप या कुएं इस श्रृंखला की सब से छोटी इकाई हुआ करते थे जो कि न केवल पेय जल के स्रोत थे वरन उनके आकार के अनुसार उनसे सिंचाई की भी संभावनाएं बनती थीं।

कवि केशवदास ने कविप्रिया में नगर वर्णन करते हुए लिखा है –  खाई कोट अट ध्वजा, वापी कूप तड़ाग, वार नारी असती सती, वरनहु नगर सभाग। पदमावत में जिक्र है कि वारी सुफ़ल आहि, तुम बालापन में ही फ़ल गई, मध्यकाल में वाटिका लगाने के बाद उसका विवाह किया जाता था। तब तक लगाने वाला उसका फ़ल न खाता था। वाटिका लगाने एवं फ़लने के बाद वापी कूप तड़ाग का विवाह करने के बाद ही स्वामी उनका उपभोग करता था। व्यंग्य करते हुए कहा है कि – तुम्हारी वाटिका तो कुंवारी ही फ़ल गई।

कुंओं का निर्माण करना साधारण कार्य नहीं था। भू-गर्भ से जल निकालने के लिए भू-तल तक उत्खनन करना पड़ता था। कुंओं का निर्माण करने के लिए शिल्पशास्त्रों ने विधान बताया है। शिल्पशास्त्र मयमतम के रचयिता कहते हैं – ग्राम आदि में यदि कूप नैऋत्य कोण में हो तो व्याधि एवं पीड़ा, वरुण दिधा में पशु की वृद्धि, वायव्य कोण में शत्रु-नाश, उत्तर दिशा में सभी सुखों को प्रदान करने वाला तथा ईशान कोण में शत्रु का नाश करने वाला होता है । ऐसा कहा गया है ॥१-२॥ वराह मिहिर ने कहा है –  यदि ग्राम के या पुर के आग्नेय कोण में कूप हो तो वह सदा भय प्रदान करता है तथा मनुष्य का नाश करता है । नैऋत्य कोण में कूप होने पर धन की हानि तथा वायव्य कोण में होने पर स्त्री की हाने होती है । इन तीनों दिशाओं को छोड़कर शेष दिशाओं में कूप शुभ होता है ॥४-५॥

स्थान चयन के लिए परम्परागत साधनों से भू जल की उपस्थिति जांचने के बाद समस्त देवताओं का आहवान एवं पूजन करके कूप का निर्माण निश्चित किया जाता था। सही मुहूर्त में कूप का निर्माण प्रारंभ किया जाता था। भूमि के आधार पर कुंओं को खोदने के पृथक पृथक निर्माण विधि प्रयोग में लाई जाती थी। जहाँ मिट्टी मजबूत होती थी वहाँ वांछित गहराई तक कुंआ खोदने के पश्चात उसे ईंटों या पत्थरों से पक्का बांधा जाता था। जहाँ रेत पाई जाती है वहाँ जमीन पर ही कुंओं की चिनाई करके बाद उसके नीचे की रेत धीरे-धीरे सावधानीपूर्वक निकाली जाती है। इसे स्थानीय भाषा में “कोठी गलाना” कहते हैं। यह विधि खतरनाक भी  है क्योंकि यहाँ कुंओं में जल सामान्य से अधिक उत्खनन के पश्चात निकलता है। कभी कभी ईटों के भसकने के कारण मजदूरो के दब जाने से जान लेवा दुर्घटनाएँ हो जाती हैं।

शास्त्रकार कूप निर्माणकार के प्रोत्साहन की दृष्टि से नारद पुराण कहता है- एकाहं तु स्थितं पृथिव्यां राजसन्तम। कुलानि तारयेत् तस्य सप्त-सप्त पराण्यपि।।65।। अर्थात्-जिसकी खुदवाई हुई पृथ्वी में केवल एक दिन भी जल स्थित रहता है, वह जल उसके सात कुलों को तार देता है। दीपालोक प्रदानेन वपुष्मान् स भवेन्नरः। प्रेक्षणीय प्रदानेन स्मृतिं मेधां च विंदति।।66।। अर्थात्- ‘दीप दान’ करने से मनुष्य का शरीर उत्तम हो जाता है और जल के दान के कारण उसकी स्मृति और मेधा बढ़ जाती है। -बृहस्पति स्मृति।

शास्त्रों में नृपों के लिए स्पष्ट निर्देश देकर जल प्रदुषित एवं जल साधन नष्ट करने वाले के लिए दंड का विधान किया गया है। लिखित स्मृति कहती है- पूर्णे कूप वापीनां वृक्षच्छेदन पातने। विक्रीणीत गजं चाश्वं गोवधं तस्य निर्द्दिशेत्।। अर्थात्- जो मनुष्य कुआँ या बावड़ी को पाट देता है, वृक्षों को काट कर गिरा देता है तथा हाथी या घोड़े को बेचता है, उसे ‘गौ के हत्यारे’ के समान मानकर दण्डित करना चाहिए। ‘तडाग देवतागार भेदकान् घातयेन्नृपः।।‘ ‘अग्नि पुराण’ में राजाओं के लिए स्पष्ट निर्देश है कि यदि कोई व्यक्ति जलाशय या देवमंदिर को नष्ट करता है तो राजा उसे ‘मृत्युदण्ड’ से दण्डित करे। स्कंद पुराण के माहेश्वर खण्ड में कहा गया है कि जो व्यक्ति पोखरा को बेच देते हैं, जो जल में मैथुन करते हैं तथा जो तालाब और कुओं को नष्ट करते हैं, वे ‘उपपातकी’ हैं। ऐसे व्यक्ति जब दुबारा जन्म लेते हैं तो वे अपने ‘हाथों’ से वंचित होते हैं।

जल सर्वकाल में मानव एवं चराचर जगत के लिए जीवन का स्रोत है, इसके महत्व को प्राचीन काल के मानवों ने समझा तथा जल की समुचित व्यवस्था की ओर ध्यान देते हुए जल के संसाधनों के रुप में कूप, तालाबों का निर्माण करवाया। हरियाणा, राजस्थान एवं उत्तर प्रदेश के हरितक्षेत्र में कुंआ पूजन का विधान है। पुत्र जन्म होने पर स्त्रियाँ सद्य: प्रसुता से कुंए की समारोह पूर्वक पूजा करवाती हैं। यह जल संसाधन के प्रति सम्मान एवं कृतज्ञता प्रकट करने का सामाजिक नियम निर्मित किया गया है। इस तरह कुंए प्राचीन काल से मानव सभ्यता एवं प्राणी जगत की जलापूर्ति का साधन बने हुए हैं। बढती हुई जनसंख्या के समक्ष जलापूर्ति एक विकराल समस्या के रुप में सामने आ रही है। भू-जल का स्तर निरंतर गिरता जा रहा है। पर्जन्य से जितना जल पृथ्वी पर आता है उसे बचाकर भू-गर्भ के जल की वृद्धि करने का प्रयत्न करना चाहिए।

 

आलेख एवं छायाचित्र

ललित शर्मा
इंडोलॉजिस्ट

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