पर्वतीय उपत्यकाओं और सुरम्य वन प्रांतर में बसा सम्पूर्ण केशकाल क्षेत्र प्रकृति एवं पुरातत्व के अतुल वैभव से भरा पड़ा है । इस क्षेत्र में अनेक स्थानों पर प्राचीन मंदिरों के भग्नावशेष, पाषाणकालीन अवशेष, प्रतिमाओं एवं शैलचित्रों आदि की प्राप्ति हुई है, जो बाहरी दुनियाँ से अज्ञात है या अल्पज्ञात है। सैलानियों, पुरातत्व के अध्येताओं, और इतिहास के शोधार्थियों को आकर्षित करने के लिए यहाँ पर्याप्त सामग्री है।
पर्यटन के लिहाज से प्रसिद्ध बारह मोड़ों वाली केशकाल घाटी (बस्तर का प्रवेश द्वार) से ही प्रकृति अपने अलौकिक सौन्दर्य की झलक पर्यटकों को दिखा जाती है। बारह मोड़ो के बीच तेलीन सती मंदिर जन आस्था का केन्द्र है।
घाटी के ठीक ऊपर वन विभाग द्वारा निर्मित पंचवटी आकर्षण का दूसरा केन्द्र है। यहां वाच टॉवर से वादियों के मनोरम दृश्य का आनंद लिया जा सकता है। लेकिन पंचवटी में सी आर पी एफ का केम्प होने के कारण आम पर्यटकों का यहाँ आना-जाना बंद हो गया है । केशकाल नगर के उत्तर पूर्व में स्थित पठार (टाटामारी) को वन विभाग द्वारा पर्यटन स्थल के रूप में विकसित किया जा रहा है।
विकास खण्ड मुख्यालय केशकाल से लगभग तीन किलोमीटर दूर रायपुर-जगदलपुर राष्ट्रीय राजमार्ग पर ग्राम बटराली स्थित है। बटराली से पश्चिम दिशा में तीन कि.मी. दूर गोबरहीन (गढधनोरा) ग्राम है, जहां के भग्नावशेष पुरातात्विक निधि के रूप मे केन्द्र एवं राज्य सरकार द्वारा संरक्षित है। ग्राम बटराली से लगभग आठ कि.मी. दूरी पर बावनीमारी का पठार है, बावनीमारी गांव से एक कि.मी. दूर लिंगदरहा नामक झरना है। झरने का पानी इस स्थान पर 40-50 फुट ऊपर से धारदार गिरता है, इसलिए इसे जलप्रपात भी कहा जा सकता है।
यहां गुफानुमा प्राकृतिक संरचना पर हजारों वर्ष पुराना शैलचित्र है। शैलचित्रों के पुरातात्विक महत्व से अनभिज्ञ ग्रामीण इसे क्षति पहुँचा रहे है। एक मिथ कथा के अनुसार मुरिया जनजाति के आदि देव लिंगो पेन (देव) का जन्म इसी लिंग दरहा के पास स्थित गुफा में हुआ था। मुरिया जनजाति के आदि देव लिंगों पेन का जन्म स्थली होने के कारण लिंगदरहा से जनजातीय मान्यता एवं आस्था जुड़ी हुई है।
लिंगदरहा से लगभग चार कि.मी. दूर दर्जनों की संख्या में शिवलिंग की तरह पत्थर खड़े है। मान्यता है कि आदि देव लिंगो सर्व प्रथम घोटुल की स्थापना यही पर की थी इसलिए जमीन में ऊगे इन पत्थरों को चेलिक मोटियारी (युवक-युवती) के नाम से जाना जाता है। चेलिक मोटियारी से लगभग छ: कि.मी. दूर ग्राम कुए स्थित है जो बाक्साईट भण्डार के लिए प्रसिद्ध है।
कुए से लगभग पांच कि.मी. दूर मुत्ते खड़का नामक जल प्रपात है। यहाँ लगभग सौ फुट ऊपर से पानी धारदार गिरता है, जिसके कारण नीचे एक जल कुण्ड बन गया है। कुण्ड में एकत्रित जल सीढ़ीनुमा चट्टानों से बहता हुआ कल-कल निनादिनी झरना का रुप धारण कर लेता है।
केशकाल एवं अंतागढ़ विकासखण्ड की सीमा में स्थित यह जलप्रपात सुंदर पर्यटन स्थल है। यातायात के लिए सुगम मार्ग न होने तथा प्र्रचार-प्रसार के अभाव में यह पर्यटकों की नजर से ओझल है । प्राकृतिक सुन्दरता के साथ हजारों साल पहले आदि मानव द्वारा बनाये गये शैलचित्र भी यहां पर है। गुफा के पास नुकीले एव तराशे हुएं पत्थर हैं, जो प्रस्तर युगीन अवशेष हो सकते हैं।
मुत्ते खड़का से कुए वापस आने पर यहां से लगभग चार कि.मी. दूर कोडा खड़का नामक जलप्रपात है, जलप्रपात के ऊपर पत्थर का प्राकृतिक घोड़ा है जो जन-जातीय आस्था का केन्द्र है। पुनः कुए आकर कच्चे मार्ग से लगभग तीन कि.मी. दूर कुमुड़ नामक गाँव पहुँचना होगा। गांव के पास लयाह मट्टा नामक पहाड़ी है जहाँ हजारों वर्ष प्राचीन शैलचित्र है, पुरातात्विक महत्व के ये शै।चित्र बाहरी दुनियाँ से सर्वथा अपरिचित है ।
बावनीमारी से लगभग 8 कि.मी. दूर ऊपरबेदी गांव में हुन्ना वड़गों नामक जल प्रपात है। हुन्ना वड़गो से वापस आइये और रुख कीजिये ग्राम मुजालगोंदी की ओर यहाँ मिलेगा सिंगार हुर नामक स्थान, सिंगार हुर में भी हजारों वर्ष पुराने शैलचित्र हैं । यहाँ खोहनुमा स्थान पर मनुष्य के पाँव के चित्र के अलावा अनेक रेखाचित्र बने हुए हैं । ग्राम भण्डार पाल के निवासी पूस कोलांग के अवसर पर मुत्तेखड़का जल प्रपात में जाकर कुण्ड तथा शैलचित्रों की पूजा करते हैं ।
लयाह मट्टा में ग्राम घोड़ाझर के ग्रामीण हरियाली अमावस्या के दिन शैलचित्रों की पूजा करते हैं । खेती-किसानी के पहले बीज निकालने का अवसर आता है, तब मुजालगोंदी के ग्रामीण सिंगार हुर जाकर पूजा करते हैं । शैलचित्रों से जुड़ी अनेक जनश्रुतियाँ एवं मिथ कथाएँ भी हैं, जिसके कारण ग्रामीण इन शैलचित्रों की पूजा करते हैं।
पठार में फैली उपर्युक्त धार्मिक मान्यता, प्राकृतिक सुन्दरता एवं पुरातात्विक महत्व के स्थल से बाहरी दुनिया अपरिचित है । अभी यह क्षेत्र आमजन की पहुंच में नहीं होने के कारण पुरा सामग्री संरक्षित है। इस क्षेत्र के पुरातत्व पर शोध की संभावनाएं हैं एवं इस पर शोध होना चाहिए। इस मारी क्षेत्र (पठार को स्थानीय भाषा में मारी कहा जाता है) में नव शोधार्थियों पहुंचना चाहिए है।