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लोक आस्था का केन्द्र : तपेश्वरी माता

दक्षिण बस्तर दन्तेवाड़ा जिले का ग्राम समलूर यद्यपि दूरस्थ वनांचल में बसा है, किन्तु लगभग एक हजार वर्ष पुराना भव्य शिव मंदिर के कारण इस गाँव की पहचान पुरातात्विक स्थल के रुप में हो चुकी है। शिव मंदिर को केन्द्र संरक्षित धरोहर घोषित किया गया है, तत्सम्बंधी सूचना पटल मंदिर परिसर में लगा हुआ है। रख-रखाव की दृष्टि से केन्द्र संरक्षित यह धरोहर अन्दर से असुरक्षित प्रतीत होता है।

मंदिर के गर्भगृह में छत के नीचे (शिवलिंग के ऊपर) चमगादड़ों ने डेरा जमा लिया है। मंदिर के अन्दर घुप्प अँधेरे में चमगादड़ों के हलचल से, पर्यटक मंदिर के अन्दर प्रवेश करते समय अज्ञात भय महसूस करते हैं। मंदिर में तीन स्तरीय भव्य एवं आकर्षक जलहरि के ऊपर शिवलिंग स्थापित है । शिवलिंग के अलावा अन्य मूर्तियाँ भी रखी हुई हैं, जो खण्डित और क्षतिग्रस्त हैं। शिवलिंग के सामने पश्चिमाभिमुख नंदी स्थापित है। नंदी की आकर्षक सजावट के साथ पीठ पर उत्कीर्ण ऊमा-महेश्वर, उत्कृष्ट शिल्पकला का बेजोड़ नमूना है।

ग्राम समलूर में ही बीहड़ जंगल के किनारे जन आस्था का एक केन्द्र है, जिसकी जानकारी आस-पास के ग्रामीणों को ही है। बाहरी दुनियाँ से अनजान ये आस्था का केन्द्र है, तपेश्वरी माता का तप स्थल। जनमान्यता है कि जल कामनी माता यहाँ तपस्या में बैठी हैं, इसलिए जल कामनी माता को तपेश्वरी माता भी कहते हैं।

सदरसिंह जिया ने बताया कि तपेश्वरी माता खुले आसमान के नीचे तप में बैठी हैं, इसलिए यहाँ मंदिर नही बनाया जा सकता। आस-पास प्राचीन मंदिर का भग्नावशेष दिखाई नही देता। किन्तु माताजी का एक प्रस्तर विग्रह है, जिसे स्वयंभू बताया जाता है। सामने 20-25 फुट की दूरी पर एक चौकोर पत्थर है, जिस पर यंत्र की आकृति बनी हुई है। संभवतः यह भैरवी यंत्र हो सकता है। यंत्र खुदे इस पत्थर को माता जी का खप्पर कहा जाता है। यह माता जी का भोजन पात्र या थाली है, जिसे खप्पर कहते हैं।

जब भी माताजी को कोई बलि दी जाती है, तो बलि के बकरे का कटा हुआ सिर इसी पत्थर (खप्पर) पर रख दिया जाता है । मान्यता है कि माताजी इसी खप्पर में रखे भोजन सामग्री को ही ग्रहण करती हैं। उत्तर दिशा में नंदी की एक प्राचीन प्रस्तर प्रतिमा है। दक्षिणाभिमुखी इस प्रतिमा का मुखाकार बैल की तरह नही अपितु तोता जैसे पतला मुख है। नंदी को देखने से आभास होता है कि आस-पास कहीं शिवलिंग अवश्य होगा। शिवलिंग के आकार का एक पत्थर पेड़ के नीचे रखा हुआ है, जो नारियल तोड़ने का काम आता है ।

संभावना है कि यही पत्थर पहले शिवलिंग के रुप में पूजित होता रहा होगा। क्योंकि इसका आकार शिवलिंग जैसा ही है। कहीं जलहरि भी होगा, अनुमान है कि जलहरि से अलग होने के कारण सामान्य पत्थर समझकर इसे नारियल तोड़ने के काम में लाया जाता है। पास में ही पत्थर का एक गोल पीढ़ा है, पायायुक्त यह गोल और चिकना पीढ़ा हजारों वर्ष पुराना लगता है। इस गोल पीढ़ा में माँई जी के लिए चंदन घीसते हैं। काले ग्रेनाइट पत्थर से बनी नंदी की प्रतिमा, भैरवी यंत्र, पीढ़ा, शिवलिंग के आकार का पत्थर आदि को देखने से यह पुरातात्विक स्थल होने का आभास देता है। इस स्थल का पुरातात्विक अध्ययन आवश्यक है ।

बैसाख शुक्ल पक्ष सप्तमी तिथि को यहाँ प्रतिवर्ष जातरा का आयोजन किया जाता है। जातरा में बारह गाँव के देवी-देवता के साथ ग्रामीण जन प्रत्यक्ष रुप से भाग लेते हैं। बारह गाँव के अलावा आस-पास के अन्य गाँवों के ग्रामीण भी जातरा देखने आते हैं, जिससे यह देवी जातरा, मेला का स्वरुप ले लेता है। जातरा में ग्रामीणों द्वारा सामूहिक रुप से बकरे की बलि दी जाती है। मन्नत पूरी होने पर व्यक्तिगत रुप से भी बकरे की बलि चढ़ाई जाती है। उल्लेखनीय है कि जलकामनी (तपेश्वरी) माता को बस्तर की आराध्य देवी माँई दन्तेश्वरी की बहन बताई जाती है।

नवरात्रि के अवसर पर यहाँ मनोकामना ज्योत जलाये जाते हैं। नवरात्रि पर्व में बलि नही दी जाती। क्षेत्र की जनता का माता जी पर गहरी आस्था है। ग्रामीण बताते हैं कि तपेश्वरी माता अपनी तप के बल पर हर मनोकामना को पूर्ण करती हैं। मन्नत (तपेश्वरी माता की कृपा) से ही आस-पास के बहुत से युवक अधिकारी बन गये हैं। माता जी तपस्या में लीन हैं, तो निश्चित ही सात्विक प्रवृत्ति की देवी होंगी, किन्तु सात्विक प्रवृत्ति वाली तपस्या में रत देवी को बलि चढ़ाया जाना जनजातीय आस्था परम्परा एवं मान्यता के दुर्लभ स्वरुप को रेखांकित करता है।

आलेख

घनश्याम सिंह नाग
ग्राम पोस्ट-बहीगाँव जिला कोण्डागाँव छ.ग.

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