नवयुग के निर्माता स्वामी विवेकानन्दजी ने कहा था, “मैं भविष्य को नहीं देखता, न ही उसे जानने की चिन्ता करता हूं। किन्तु, एक दृश्य मैं अपने मन:चक्षुओं से स्पष्ट देख रहा हूं, यह प्राचीन मातृभूमि एक बार पुन: जाग गई है और अपने सिंहासन पर आसीन है – पहले से कहीं अधिक गौरव एवं वैभव से प्रदीप्त। शान्ति और मंगलमय स्वर में उसकी पुन:प्रतिष्ठा की घोषणा समस्त विश्व में करो।” स्वामीजी के ऐसे शक्तिदायी विचारों ने समस्त देशवासियों को जागृत किया।
भारत-भक्ति से ओतप्रोत स्वामीजी के चरित्र का गठन कैसे हुआ, यह जानना अत्यंत रोचक और प्रेरणादायी है। विश्वविख्यात स्वामी विवेकानन्द का जन्म 12 जनवरी, 1863 को हुआ था। उनका बचपन का नाम था नरेन्द्रनाथ दत्त। दत्त परिवार धनी, कुलीन और उदारता व विद्वता के लिए प्रतिष्ठित था। नरेन्द्र के पिता विश्वनाथ दत्त कलकत्ता के प्रसिद्ध वकील थे और माता भुवनेश्वरी देवी भक्तिमति, धर्मपरायण महिला थी।
नरेन्द्र उत्साही, तेजस्वी तथा अत्यंत बुद्धिमान बालक था। उसे बचपन से ही संगीत, कला और मैदानी खेलों में रूचि थी। साथ ही उसे आध्यात्मिक विषयों में भी रूचि थी। वह श्रीराम, सीतामैय्या तथा शिवजी की मूर्तियों की पूजा करता और ध्यान में रम जाता था। माँ उसे रामायण, महाभारत और पुराणों की कथाएं सुनाती जो उसके मानस पर सदा के लिए अमिट छाप छोड़ गई। परिवार के सदस्य और मित्रों में नरेन्द्र ‘बिले’ नाम से जाना जाता था। भगवान शिव के प्रसाद रूप में पुत्र को पाने के कारण माता ने उसका नाम रखा था वीरेश्वर।
नरेन्द्र के मन में अनेक प्रश्न उठते और उनके समाधानकारक उत्तर ढूंढने के लिए वह कितनी ही कठिनाइयों का सामना करने के लिए तैयार रहता। युवावस्था में मन में उठे ऐसे ही एक प्रश्न ने उसे दक्षिणेश्वर के श्रीरामकृष्ण परमहंस के पास पहुंचा दिया। उसने उनको पूछा, “क्या आपने ईश्वर को देखा है?”
श्रीरामकृष्ण ने उत्तर देते हुए कहा, “हां, देखा है। वैसे ही जैसे तुम्हें देख रहा हूं, किन्तु अधिक भावपूर्ण रूप से।” इस प्रथम भेंट के उपरान्त अनेक बार नरेन्द्र श्रीरामकृष्ण के पास गया और अन्ततः उनका शिष्य बन गया।
श्रीरामकृष्ण के देहावसान के पश्चात् नरेन्द्रनाथ ने, जो अब संन्यासी स्वामी विवेकानन्द बने थे, सम्पूर्ण भारत का परिभ्रमण किया। भारत के शास्त्रग्रंथों का, लोकजीवन का अध्ययन किया। प्रश्नों को समझने का प्रयास किया। उन दिनों की दयनीय अवस्था को देखकर व्यथित हो उठे। परिभ्रमण के दौरान स्वामीजी भारत के दक्षिणी छोर कन्याकुमारी पहुंचे। 25, 26 और 27 दिसम्बर, 1892 इन तीन दिनों तक समुद्रस्थित ‘श्रीपादशिला’ पर ध्यान किया। व्यथित हृदय को उत्तर मिला।
देशबांधवों में आत्मविश्वास जागृत करने का निश्चय कर देशभक्त संन्यासी स्वामी विवेकानन्द ने अपना परिभ्रमण शुरू रखा। अज्ञात संन्यासी के रूप में स्वामीजी भारत भ्रमण कर रहे थे। उनके नेत्रों में प्रज्ज्वलित विद्वता के तेज से लोग प्रभावित होते थे। सम्पूर्ण देशभर में अनेक लोगों की इच्छा और गुरू का निर्देश पाकर स्वामी विवेकानन्द शिकागो में होनेवाले सर्वधर्म परिषद के लिए अमेरिका पहुंचे। अनेक कठिनाइयों का सामना किया। 11 सितम्बर, 1893 के व्याख्यान के पश्चात् स्वामीजी विश्वविख्यात हो गए।
धर्म संसद में स्वामीजी के पहले व्याख्यान ने उन्हें इतनी ख्याति दिलाई कि शिकागो के विशिष्ट गणमान्य लोगों ने उन्हें अपने घर आमन्त्रित किया। पहले दिन उनके निवास की व्यवस्था एक धनी परिवार में की गई। सारी सुख सुविधाओं से परिपूर्ण उस भवन में स्वामीजी रात में सो नहीं पाए। उनको दीन, दु:खी, अशिक्षित देशबांधवों की याद आ रही थी। उन्होंने जगज्जननी से प्रार्थना की, “हे माँ, जब मेरा देश घोर गरीबी में गहरा डूबा हो, तब ख्याति की चिन्ता किसे है! मेरे देशवासियों का उत्थान कैसे होगा? मैं उनकी सेवा कैसे करू? माँ मुझे मार्ग दिखाओ।” ऐसा था स्वामीजी का देशप्रेम!
पश्चिम में सक्षम लोगों को काम सौंपकर स्वामीजी भारत लौटे। प्रस्थान के समय किसी ने पूछा, “स्वामीजी, चार साल इस विलासी, सम्पन्न और शक्तिशाली पश्चिम में रहने के बाद अब आपको अपनी मातृभूमि कैसी लगती है?” तब उन्होंने कहा, “यहां आने के पहले मैं भारत से प्यार करता था। अब उसकी मिट्टी का एक-एक कण मेरे लिए पवित्र हो गया है।”
स्वदेश लौटने के बाद उन्होंने फिर से सम्पूर्ण भारत का प्रवास किया। उनके प्रभावशाली व्याख्यानों के फलस्वरूप लोगों में आत्मविश्वास और देशभक्ति का जागरण हुआ। रामकृष्ण मठ की स्थापना कर उन्होंने संगठित सेवाकार्य की शुरुवात की। स्वामीजी के सन्देश से प्राप्त प्रेरणा विविध क्षेत्रों में प्रगटित होने लगी। स्वामीजी के विचारों ने भारतीय स्वतंत्रता संग्राम को प्रभावित किया।
महात्मा गांधी ने कहा, “स्वामीजी का वाङ्गमय पढ़कर मेरी देशभक्ति हजारों गुना बढ़ गई है।” जवाहरलाल नेहरू कहते है, “स्वामीजी भारत के भूत और भविष्य को जोड़नेवाली कड़ी थे। नेताजी सुभाषचंद्र बोस लिखते है, “स्वामीजी मेरे जीवन की प्रेरणा है। यदि वे आज होते तो मैं उनका शिष्य बन जाता।”
शास्त्रीय गायक रामकृष्णबुआ वझे और महान साहित्यिक एवं नाटककार मामा वरेरकर ने अपने अपने क्षेत्र में स्वामीजी के मार्गदर्शन में प्रतिष्ठा पायी। 1893 में जब स्वामीजी अमेरिका जा रहे थे तब जमशेदजी टाटा से उनका मिलना हुआ था। भारत में स्टील इंडस्ट्री शुरू करने के लिए तंत्रज्ञान की खोज में जमशेदजी अमेरिका जा रहे थे, यह जानकर स्वामीजी प्रसन्न हुए। बातचीत के दौरान स्वामीजी ने कहा, “पश्चिम के विज्ञान एवं तंत्रज्ञान के साथ भारत के संयम और मानवीय दृष्टिकोण का हम मेल कर सकें तो कितना अच्छा होगा।” इन शब्दों से जमशेदजी प्रभावित हुए।
इन दोनों मनीषियों के दूरदर्शिता के फलस्वरूप 1909 में इंडियन इंस्टिट्यूट ऑफ़ सायन्स जैसी प्रतिष्ठित संस्था का निर्माण हुआ जिसका आधुनिक भारत के निर्माण में महत्वपूर्ण योगदान रहा है। टाटा उद्योग समूह में स्वामीजी के विचार बने रहे। बाद में टाटा इंस्टिट्यूट ऑफ़ सोशल सायन्सेस एवं टाटा इंस्टिट्यूट ऑफ़ फंडामेंटल रिसर्च की भी स्थापना हुई।
स्वामीजी जब शिकागो में थे तब महान वैज्ञानिक निकोलस टेस्ला से उनकी विज्ञान और वेदांत पर चर्चा होती थी। टेस्ला वेदांत से प्रभावित हुए और उनको भौतिक विज्ञान के अनुसंधान में एक नयी दिशा मिली। बाद में आइन्स्टाइन ने टेस्ला के अनुसन्धान पर आधारित सापेक्षता का सिद्धांत रखा जो आधुनिक भौतिक विज्ञान में अत्यंत महत्वपूर्ण है।
स्वामीजी के महासमाधि के 116 वर्ष पश्चात् आज भी अनेक नवयुवक स्वामीजी से प्रेरणा पा कर विविध क्षेत्रों में कार्य कर रहे हैं। उन्होंने स्वयं कहा था, “मैं मृत्युपर्यंत निरंतर काम करता रहूंगा और मृत्यु के बाद भी संसार की भलाई के लिए काम करता रहूंगा।… जीर्ण वस्त्र के समान इस शरीर को त्याग देना मुझे अच्छा लगेगा। परन्तु मैं कार्य करना नहीं छोडूंगा। सम्पूर्ण विश्व को ईश्वर से एकात्मता की अनुभूति होने तक मैं सब को प्रेरित करता रहूंगा।”
सामाजिक क्षेत्र में काम करनेवाले अण्णा हजारे हो या भारत विकास ग्रुप के माध्यम से अनेक युवकों को रोजगार उपलब्ध करने के साथ-साथ उन में कार्य के प्रति निष्ठा जगानेवाले हनुमंतराव गायकवाड़ हो, बेलगांव की एक पुरानी पत्थर की खदान को ‘संकल्प भूमि’ में परिवर्तित करनेवाले संजय कुलकर्णी हो या व्यवस्थापन के क्षेत्र में एक आदर्श प्रस्थापित करनेवाले श्री गजानन महाराज देवस्थान शेगांव के ट्रस्टी शिवशंकरभाऊ पाटिल हो, सभी ने अपने अपने क्षेत्रों में अपना अमूल्य योगदान दिया है। आइए, स्वामीजी के प्रेरणादायी शब्दों को साकार करने का संकल्प करें। अपनी भारतमाता को गौरवशाली बनाने के लिए अपना योगदान दें और अपने जीवन का सार्थक करें।
आलेख
प्रियंवदा पांडे
जीवनव्रती कार्यकर्ता
विवेकानन्द केन्द्र कन्याकुमारी