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लोक संबंधों की आत्मा: झेंझरी

मानव जगत में मानवीय संबंधों के जुड़ाव से परिवार और समाज की रचना होती है। आदिम काल से लेकर निरन्तर यह जुड़ाव गतिशील रहा है। मनुष्य के इसी जुड़ाव और संबंध से परिवार और समाज की रचना हुई है। मनुष्य के इसी जुड़ाव और संबंध से मानवीय रिश्तों की बुनियाद रखी गई है। मानवीय रिश्तों की इसी बुनियाद पर कबीले का जन्म हुआ। मानवीय रिश्तों के बल पर गांव और शहर की रचना हुई है।

लोक के इसी मानवीय रिश्तों के परस्पर जुड़ाव और संबंधों की बारीक बुनावट तथा लोक परम्परा और लोक संस्कृति के विविध रूपों को ‘झेंझरी’ में समाहित किया गया है। ‘झेंझरी’ पांच भागों में विभक्त है जो लोक परम्परा रीति-रिवाज और लोकसंस्कृति पर आधारित लगभग 1700 पृष्ठों की महागाथा है। ‘झेंझरी’ के लेखक डॉ. गोरेलाल चंदेल, अपनी इस अनुपम कृति में लोक परम्परा, लोक संस्कृति और लोक रीति-रिवाज को इस तरह संजोये हैं जिसमें निर्मल जल की तरह लोक का दर्शन होता है।

झेंझरी के नाम से ही ज्ञात होता है कि लोक में गेहूं, कोदई, चावल, चना, राहेर लाख, लाखड़ी, और कनकी धोने का जो प्रमुख पात्र होता है वह झेंझरी ही है। यह झेंझरी बांस से निर्मित एक टोकरी है। बांस के पतले-पतले कमची से इसे आकार देकर और बांस के बारीक पतले-पतले नरम-नरम गोलाई लिये हुए कमची जिसे नेर कहा जाता है उससे झेंझरी का निर्माण होता है।

झेंझरी ही एक ऐसा माध्यम है जब नदी या तालाब या कुएं में झेंझरी में कोदई या गेहूं, राहेर धोने के लिए महिलाएं एकत्रित होती हैं तो एक अप्रतिम सौन्दर्य का निर्माण होता है। तलाब के पानी में घुटने तक जाकर झेंझरी में रखे अन्न को झलहेर-झलहेर कर अन्न से ककंड़ और मिट्टी को साफ किया जाता है। इसी बांस से निर्मित झेंझरी में धान बांवत के समय धान रखकर किसान खेत में धान छिंतकर नांगर जोतता है। खेतों में काम करते हुए किसान और तालाब, नदी या जलाशय में अन्न को झेंझरी में साफ करते हुए महिलाओं में जो मानवीय रिश्तों का ताना-बाना बुना जाता है वह झेंझरी में स्पष्ट रूप से दिखायी देता है।

झेंझरी को लेकर साहित्य जगत के बहुत से विद्वानों ने झेंझरी को लोक का ‘इन्साइक्लोपीडिया’ कहते हैं जो अतिशयोक्ति नहीं है। सचमुच ही झेंझरी लोक का समूचा संग्रह है, जिसमे लोक परम्परा, लोक संस्कृति, रीति-रिवाज, रहन-सहन, वेशभूषा, आभूषण, बोली, तथा तीज-त्यौहारों के दर्शन होते हैं। परिवार, समाज, जाति और वर्ग भेद से अलग हटकर मानवीय रिश्तों का ताना-बाना झेंझरी को और अधिक उत्कृष्ट बना दिया है।

मानवीय रिश्तों की शुरूवात ‘एक कमइया बेटा घर में और हुआ’ से प्रारंभ होता है। लोक मे किसी के घर परिवार में खुशी का अवसर हो या दुख की बेला। सब का एक साथ मिलकर सुख-दुख का निर्वहन करना ही मानव चेतना है। घसिया के घर एक बेटा का जन्म और हुआ है । छट्ठी के दिन सुबह से महिलाओं का बिसम्भर के घर आकर सोहर गीत गाना, मानव चेतना और मानवीय रिश्तों की बुनावट का प्रमाण है।

‘कांके पानी’ जो सोंठ, मरीछ (काली मिर्च) अजवाईन और गुड़ के मिश्रण से बनने वाला एक स्वादिष्ट पेय है। उसे बनाने के लिए एक जंगली लकड़ी का प्रयोग किया जाता है । जिसे कांके पेंड़ के नाम से जाना जाता है। लोक में उसे घर में धान कूटने का मूसर तथा मिट्टी के घरों में दीवाल को मजबूती प्रदान करने के लिए ‘मेयार’ के रूप में लगाया जाता है।

उस कांके लकड़ी का थोडा सा भाग छिलकर ‘नेंगी’ के घर से लाया गया है। गाँव के पौनी पसारी’ जिसमें राउत, नाऊ, धोबी, बढ़ई, कुम्हार आदि खुशी से बाजा बजा रहें हैं यह मानवीय रिश्तों का अनुपम उदाहरण ही तो है। अमरौतिन के मायके से आये पौनी लोगों का गांव के गोपी मंडल से भेंट होती है और उनके द्वारा पूछा जाता है, कोन गांव के हवव । काखर घर आय रेहेव? का तुहर गाँव के सगा हा गाँव के सगा नइ होवे का?

इस प्रश्न का उत्तर शेखू पहटिया के द्वारा देना। हमर डहर के सबो गाँव मा कखरो घर सगा (मेहमान) आय वो हा गाँव भर के मेहमान होथे। हमर गाँव हा एक परिवार जइसे हे। सुख मा अऊ दुख मा हमन सबो एक दूसर के संगवारी अउ भाई-भतीजा होथन। यही मानव समाज में चेतना विकसित करने का मुख्य तत्व है। जिस बच्चे का जन्म हुआ और छट्ठी मनाया गया उसका नाम रामकिसुन रखा गया।

वह रामकिसुन अब चलने लगा है गिर-गिर कर। उसके लिए बढ़ई के पास लकड़ी का बैल ‘बइला’ बनवाने के लिए जब घसिया जाता है तो आज की तरह बैल बनवाने के एवज मे रूपये पैसे की बात नहीं होती? पैसे दिये और समान खरीद लिये। घसिया का बढ़ई के घर ये कहते हुए जाना, ‘कका’ का बताओं वो लइका हे ना रामकिसुन वोखर बर एक ठन ठाहिल (मजबूत) बइला बना देते।’ गाँव के बढ़ई का ये कहना कि ‘‘तोर लइका खेले के लइक होगे घसिया। तोर साध ला पूरा करहूं बेटा। गाँव के लइका मोरेच लइका ये।’’ मानवीय संबंधों का यह रूप वास्तव में लोक में ही दिखायी देता है।

लोक में समूह के दर्शन होते हैं। लोक का यही समूह परिवार और समाज में विभक्त होकर अपने-अपने कर्मों के आधार पर जाति तथा वर्ग में विभाजित होता है। लोक का प्रकृति से गहरा संबंध है। लोक को अपनी जरूरतों को पूरा करने के लिए प्रकृति की शरण में जाना ही पड़ता है। आदिम अवस्था में मनुष्य जब जंगलों में विचरण करता रहा होगा और सबसे पहले उन्हे आग की जानकारी हुई होगी तो उसके पास जाकर समूह में ही मानव जीवन का विकास हुआ होगा।

उसके बाद परिवार और समाज का निर्माण हुआ होगा। फिर गाँव और शहर बसे होंगे। प्रकृति के गोद में मानवीय रिश्तों का प्रगाढ़ संबंध स्थापित हुआ होगा। आज भी गाँव में चाहे किसी भी परिवार, समाज या जाति के हों, लोक समाज के मानवीय रिश्तों से बंधा हुआ मिलता है। सभी गाँव में प्रकृति के निकट, समूह में एकत्रित होने का रिवाज आज भी है। वह स्थान गाँव के बरगद पेंड़ के नीचे हो सकता है। पीपल के पेड़ के नीचे या फिर गाँव का सार्वजनिक चबूतरा हो सकता है। जहाँ सभी लोग एकत्रित होकर सुख-दुख और लोक के सभी क्रिया-कलापों की चर्चा करते हैं।

‘झेंझरी’ में ‘मूर्रा चवरा’ गाँव का एक सार्वजनिक स्थान न होकर, सभी को एक सूत्र में बांधकर रखने का पवित्र स्थान है। गाँव के सभी लोगों के बैठने का अड्डा है। ‘मूर्रा चवरा’ में गाँव के लोग तो बैठते ही हैं किन्तु बाहर से आने वाले लोगों का भी आश्रयगाह मूर्रा चवरा ही होता है। मानवीय रिश्तों की बुनावट मुर्रा चंवरा से ही प्रारंभ होता है। कितनें ही लोगों की सुख-दुख और जीवन के सभी पहलुओं का लेखा-जोखा मुर्रा चवरा के पास संरक्षित है।

एक खोरबाहरिन केंवटिन, जो दूसरे गाँव में रहती है आकर उसी मूर्रा चवरा में चना-मूर्रा बेचने का व्यवसाय करती है। आज के समय में देखें तो समान खरीदें, कौन व्यापारी और ग्राहक पता ही नहीं। किन्तु खोरबाहरिन केंवटिन समूचे गाँव में मानवीय रिश्तों की पहचान है। जब वह मूर्रा चंवरा में बैठती है तो ‘कोई महतारी, कोई दीदी, कोई सखी, कोई भोजली, कोई जंवारा, कोई भउजी, कोई काकी, कोई बड़ेदाई, कोई डोकरी दाई, न जाने कितने-कितने रिश्ते कों ताने-बाने।’ यही लोक में मानवीय रिश्तों की बुनावट है जिसके बल पर परिवार और समाज स्थापित है।

उसी मुर्रा चंवरा के पास ‘टोनही पथरा’ का भी उल्लेख है। मातृसत्ता की लाज बचाने के लिए पूरा गाँव कैसे एक हो जाता है और टोनही निकालने वाले बैगा को गाँव से बाहर कर दिया जाता है। तब मूर्रा चवरा खुश होकर नाच उठता है। क्योंकि गाँव की महिलाओं को कभी हंसते, कभी रोते, कभी खेतों में काम करके घरों में वापस आते, कभी तालाब से नहा कर आते, बैठकर अपने सुख-दुख की बातें करते हुए मुर्रा ने चंवरा ही तो देखा है। मूर्रा चवरा की महिमा अपार है। मानव का प्रकृति के साथ अन्तरसम्बन्ध।

‘झेंझरी’ के लेखक डॉ. गोरेलाल चंदेल जी का लोक के प्रति गहरी सोच और लोक की सूक्ष्म संवेदनाओं को तलाशने का ही परिणाम है कि ‘झेंझरी’ के माध्यम से सुधी पाठकों तथा नई पीढ़ी को लोक के अनछुये पहलुओं की जानकारी प्राप्त होगी। परिवार, समाज, जाति वर्ग में समानता और समरसता के छिपे हुए भावों को ऊपर उठाने का काम लोक के प्रति निष्ठा के भाव रखने वाले तथा लोक में ही रचे बसे व्यक्ति के द्वारा ही संभव है।

‘तेरा तुझको अर्पण, क्या लागे मेरा।’ जिस धरती में जनम लेकर गलियों के धुर्रा में बचपन बिताया, माटी की सोंधी महक में अपने तन को महकाया, लोक में विचरण कर लोक की सभी सरंचनाओं को जैसे के तैसे उकेर कर, लोक की समस्त विशेषताओं से भरे हुए झेंझरी नामक बहुमूल्य कृति को सब के हाथों में सौंपकर लेखक ने एक महान कार्य किया है। झेंझरी के एक-एक अंश को पाठकों के द्वारा अंगीकार और अनुकरण कर लिया जाये तो लोक का सुनहरा रूप हमेशा-हमेशा के लिये रहेगा।

सावन का महीना है। गाँव में हरेली तिहार मनाने की जोर शोर से तैयारी चल रही है। गाँव के एक कोने में निम्न जाति के समझे जाने वाली एक महिला का घर है। जिसका नाम है ‘कारी’। ‘कारी’ भी हरेली की तैयारी में लगी हुई है पर उसके घर में एक दाना नहीं है। कैसे हरेली तिहार की तैयारी करे। गाँव के गौंटिया के घर उसका बेटा काम करने गया था, किन्तु गौंटिया के द्वारा ‘बनी’ (मजदूरी) नहीं दिये जाने पर भी हंस कर ‘कारी’ हरेली तिहार मनाने के लिए सोंच लेती है।

‘कारी’ के बच्चे खाली पेट गेड़ी मचने को सोच रहे थे। लोक चेतना की आधार भूमि में मनुष्य को मनुष्य के साथ रहने की चाह प्रकृति सिखा देती है। इसीलिए गाँव में सभी लोग किसी भी त्यौहार या सुख दुख में एक साथ भागीदार होते हैं। लोक में एकता के भाव देखते ही बनता है। ‘झेंझरी’ में इसका अनुपम उदाहरण है- ‘‘गायत्री की मां कारी के घर एक पायली चावल, दाल, पाव भर, आटा और टोकरी में चेंच भाजी लेकर पहुंची थी और खोरबाहरिन को समझाते हुए बोली थी-‘सुन साहून तोर घर मा खाय पीये बर नइ रिहिस त, बताना चाही न। ये गाँव ये शहर नोहे, इहाँ आदमी रहिथें, आदमी-आदमी बर जीथे, शहर जइसे पथरा नइ बसे हे। इहाँ कोनो भूखे नइ सो सके। हमर रहत ले ते भूखे, बछर भर के तिहार ला मनाबे। ’’इहाँ आदमी रहिथें, आदमी-आदमी बर जीथें। ये लोक की असली पहचान है।

लेखक ने लोक के असली मर्म को ऊपर उठाने का जो अभूतपूर्व कार्य किया है वह लेखक की लोक में समाहित गहरे भाव को भीतर तक देखने और समझने का ही परिणाम है। लोक में रहने वाले हर आदमी एक दूसरे का कैसे सहयोगी बन जाते हैं, चाहे वह छोटा हो या बड़ा । ऐसे मानवीय चेतना सिर्फ लोक में ही देखने को मिलती है। सभ्य समझने वाले लोगों में यह कतई दिखाई नहीं देती।

अपने आपको सभ्य और सुसंस्कृत समझने वाले लोग गाँव के लोगों को असभ्य और गंवार समझते हैं, किन्तु गाँव के सुख-दुख में एक साथ मिलकर रहने की बात और ‘कारी’ को हरेली तिहार मनाने के लिए सहयोग करना, लोक का असली रूप है और यही उसकी उसकी पहचान भी है जो शहरी और सम्य समझने वाले लोगों में कभी नहीं दिखेगा। राजा के कारिंदे के द्वारा गाँव के गौंटिया के कहने पर एक गरीब किसान के पीठ पर कोड़ा बरसाने लगता है तो एक गाँव की निम्न जाति की महिला के द्वारा उसका बचाव किया जाता है।

उसके बाद जब उस महिला के घर किसान उसका बनी (मजदूरी) में लाये हुए एक काठा कोदो को लेकर जाता है तो वह लेने से इन्कार करते हुए कहती है। ‘‘गनपत बाबू, में हा कोनो लालच में नई करे हॅव। मोर गाँव के गरीब किसान मजदूर के पीठ के कोड़ा के पीरा होथे मोर पीठ मा। में अपने पीठ के पीरा ला बचाय बर करेव बाबू। जा अपन लइका मन के मुंहू मा पसिया डार।’’

गनपत के मुँह से निकल ही गया- ‘‘जय हो भउजी ते कोनो जनम के मोर दाई अस। मोर लइका बच्चा मन के महतारी अस। मोर गाँव के महतारी अस।’’ लोक की मानवीय रिश्तों का अटूट बंधन, जहाँ दूसरों की पीड़ा को अपनी पीड़ा समझी जाती है। लोक के यही रिश्ते परिवार समाज और जाति भेद के बंधन को तोड़ते हुए मानवीय रिश्तों के अटूट धागे में परिवर्तित हो जाता है चाहे वह किसी भी जाति वर्ग और धर्म का क्यों न हो।

लोक में एक दूसरे के कार्यों में सब का सहयोग रहता है। एक दूसरे से सब इस तरह बंधे रहते हैं कि एक दूसरे के सहयोग के बिना कोई कार्य सम्पन्न नहीं होता । लोक का यही जुड़ाव मनुष्य के विकास की सीढ़ी रहा होगा। जब मनुष्य जंगलो में प्रकृति के बीच रहा होगा और एक साथ मिलकर प्रकृति के सभी विपत्तियों का साथ रह कर सामना किया होगा। लोक में इसका स्वरूप आज भी विद्यमान है।

लोक अपनी जरूरतों को पूरा करने के लिए एक साथ समूह में रहकर परिवार समाज और गाँव की रचना कर प्रकृति के करीब रहकर ही उसका सम्मान करना भी सीखा है जो हमारी लोक परम्पराओं में दिखायी देता है। हरेली के दिन गाँव के सबके घर में ‘नीम डारा’ खोंचने की परम्परा है। प्रकृति के साथ रहते हुए प्रकृति को घर आँगन तक पहुँचाने की अद्भूत परम्परा । इस कार्य को घर-घर पहुँचाने का कार्य भी गाँव में रहने वाले पौनी-पसारी के द्वारा किया जाता है। ये पौनी-पसारी वे ही लोग हैं जो गाँव में रहने वाले सभी लोगों को उनके जरूरत के अनुसार चीजें बनाकर देते हैं। एक दूसरे के सहयोग करने की लोक परंपरा, सब अलग-अलग समाज और अलग जाति वर्ग के होने के बावजूद एक मानवीय रिश्तों में बंधे होते हैं। झेझरी’ में इसका उत्कृष्ट उदाहरण है।

गाँव का नाई लेखू घर के दरवाजे पर नीम की डाली खोंचकर राम भजन करता है और सुख-दुख की बातें करता है। ‘‘का रांधत हस भौजी मोर बांटा के बरा सोहारी ला अलग रख देबे भौजी। ‘बुता होगे काकी, लिपई बहरइ कर डरे’। तोर माड़ी के पीरा माड़िस बड़े दाई, बियासी होगे गौंटिया, लिमहा खार मा काय बोय हस गा, तोर बइला बइठत रिहिस तेन हा रेगथे मंडल, काली बाजार ले का साग लाय दीदी, तेलई मा बइठ गेस का ओ डोकरी दाई, अपन नाती ला भुलाबे मत।’’ देखिये रिश्तों-नातों की लम्बी कतार लोक में ही संभव है।

लोक की यही असली पहचान है। आज तो स्थिति यह है कि जो अपने आप को सुसंस्कृत और संस्कारवान मानने वाले लोग रहते हैं वहाँ के किसी कालोनी में जाकर किसी का पता पुछिये, तो अपने आस-पास रहने वाले पड़ोसी का नाम तक नहीं जानते। किन्तु लोक में यह सब देखने-सुनने को नहीं मिलता। गाँव में रिश्तों की ऐसी परम्परा कि अगर गाँव का कारीगीर घर-घर हरेली के दिन पाती ठोकने के लिए आता है तो किसान का बेटा भी कारीगर से ये पूछ लेता है ‘कका ये पाती ला काबर ठोकथो गा।’’ बता देबे ता का होही कका।

जवाब देखिये जो अलग जाति और समाज के कारीगीर का, जो लोक की असली पहचान है। ‘में नई जानों रे पढ़न्ता बेटा, सियान मन कहिथे येकर ठोके ले मरी-मसान, जादू-टोना घर मा नइ आय।’’ लोक में सब मिल बांट कर खाने की परपंरा है जो हमें आदिम अवस्था की याद दिलाती है । जब मनुष्य कबीले या समूह में रहते रहे होंगे तो कैसे समूह में एक साथ मिल बांट कर खाते रहे होंगे और सभी के सुख दुख में भागीदार बनते रहे होंगे।

समूह में एक साथ रहने की परंपरा आज भी लोक में विद्यमान है। गाँव में बिज खुटनी के लिए पौनी पसारी की औरतें घर-घर जाती हैं तो लोक का सौन्दर्य देखते ही बनता है। गाँव की गौंटनिन भी कहती है-‘बइठो बहुरिया, लावत हव बिजखुटनी, और सुपे में धान, लगभग सूपा भरके। ये साल राहेर तिली के बीज नइ बचिस का दाई। ‘नइ बचे रिहिस ओ फेर देखत हंव मुठाकाद होही ते, और वह भीतर जाकर लौटी लगभग आधा किलो अरहर लेकर।’

लोक और शहरी सभ्यता की सांस्कृतिक द्वन्द भी ‘झेंझरी’ में दिखायी देता है जिससे और स्पष्ट हो जाता है कि लोक की सौन्दर्य चेतना कितना मजबूत है। रामकिसुन जब हाई स्कूल की पढ़ाई के लिए खड़गगढ़ आता है तो शहर के लड़के, जो अपने आप को शहरिया समझते हैं, राम किसुन से पूछते हैं-‘ कोन गाँव ले आये हस रे देहाती, राम किसुन का जवाब होता है , कुसुम टोला ले’, उहाँ कुसुम जादा होथे का रे,’ नइ जानो,’ त काला जानथस रे चूतिया। एकदम गदहा हस साले। चल कान पकड़ के पाँच बेर उठ बइठ, काबर, इहाँ काबर नइ पूछे जाय, जउन के हे जात हे कर।’

ये शहर का संस्कार है। गाँव और शहर में नाते रिश्तों में कितना अन्तर। इसीलिए कहा जाता है गावों में लोक बसता है। लोक की बोली में गुरूतुर मिठास है। लोक में गाली भी है तो वह अपने-अपने रिश्ते-नाते के अटूट बंधन में बंधा हुआ है जो मानवीय रिश्तों को लोक संवाद के साथ जोड़कर और अधिक मजबूत बनाता है। शहरी संस्कारों में जीवन बसर करने वाले लोगों के द्वारा लोक सवांद की इस कड़ी को नहीं समझा जा सकता।

लोक और शहरी संस्कृति की एक और झलक ‘झेंझरी’ में लेखक ने पाठक तक पहुँचाया है जो अविस्मरणीय है। रामकिसुन जब गाँव से निकल कर हाई स्कूल की पढ़ाई के लिये शहर आता है तब उसे गाँव और शहर की संस्कृति में द्वन्द दिखायी देता है । रामकिसुन, लोक संस्कृति के संवाहक पात्र के रूप में झेंझरी में उभर कर आता है। उसे लगता है कि इससे तो अच्छा हमारा गाँव है जहाँ लोग आपस में मिल जुल कर रहते हैं। ‘‘गाँव की परंपरा और शहर में कितना अंतर है। गाँव में तो देवर, देरानी, जेठानी, नंनद, डेड़सास का इतना जाल बिछा होता है कि पूरा गाँव, जात-आनजात सब रिश्तों में बंधा होता हैं और निःसंकोच एक दूसरे का सहयोग और सहारा लेने में कोई हिचक नहीं होती।’’

मानव के जन्म से शुरू होकर जीवन के अंतिम समय तक मानवीय रिश्तों की बुनावट है । इसी बुनावट के साथ रिश्तों की चादर बुनी जाती है । रामकिसुन और उसके बचपन में साथ खेलने वाली परमिला। परमिला का गौना की तैयारी हो रही थी। रामकिसुन का अपने बचपन के संगवारी के प्रति मर्मस्पर्षी भाव, सबकी आखों को नम कर देने वाला मानवीय भाव है। जो लोक में ही संभव है।

रामकिसुन का अपने बचपन की संगवारी से ये कहना- ‘हमर संग खेलइया, लड़इया, झगड़इया, येती ओती भाग-भाग के सबला हलाकान करइया, हमर परमिला कहाँ गे भउजी, ये तो कोनो अउ परमिला आय जेन ला हमन एकर पहिली कभू देखेच नइ रेहेन?

देख ले बाबू, बने देख ले, ये तोरेच गोही आय कि नोहे? ये हमर गोही नोहे भउजी हमर खरिखा में घुरघुंदिया के महल बनइया परमिला कहाँ हे भउजी? बचपन में एक साथ खेलने वाली परमिला की बातें सुनकर सब की आँखों में आंसू आने को मजबूर करता है। जब परमिला कहती है- ‘तोर परमिला मर-र-र गे-गेगे किस-ना-ना-अब तो-र-र-र पर मि-ला ला।’’लोक की यह गहरी संवेदना, जो बचपन से ही गाँव की संस्कृति में मिलती है।

इस संस्कृति को शहरी संस्कृति में जीवन व्यतीत करने वाले लोगों के द्वारा सपनों में भी नहीं सोचा जा सकता। परमिला का ये कहना कि-‘‘यहू परिमला तोरेच संगवारी आय किसना, भुलाबे झन, चाहे पढ़ लिख के कतको बड़ आदमी बन जबे, फेर भुलाबे मत अपन परमिला ला।’’ और रामकिसुन का परमिला से ये कहना- ‘‘भुलाबे झन परमिला अपन बालपन के साथी ला।’’ ये सब बातें सभ्य समझे जाने वाले शहरी संस्कृति में कही गई हो, तो डंडे और तलवार निकल जाये। किन्तु लोक, पानी के जैसा साफ और निर्मल है। झूठ की बुनियाद के आधार पर लोक की नींव नहीं रखी जाती। इसीलिए लोक को समाज का दर्पण कहा गया है।

लोक में पर्व, उत्सव, त्यौहार भी मानवीय रिश्तों की डोर में बंधा रहता है। ‘झेंझरी’ में लोक सौन्दर्य का अनुपम रूप भोजली तिहार में दिखायी देता है। भोजली विसर्जन के बाद भोजली बदने की परंपरा, आत्मीय रिश्तों का बंधन ‘राम-राम भोजली’ कहकर रिश्ते को मजबूत बनाना। ‘झेंझरी’ में ‘भोजली बदना’ शीर्षक में आत्मीय रिश्तों का अद्भूत प्रसंग है- जाते-जाते भोजली पूरे गाँव को आत्मीय रिश्तों की डोर में बांध रही थी। भोजली की नरम-नरम पीली पत्तियों से बंधने वाले ऐसे मजबूत बंधन जो उम्र भर न तो ढीली होने वाले है और न टूटने वाले है। सभी लोग अपने-अपने संगी, जहुंरिया और दाई-माई को भोजली खोंच-खोंचकर आत्मीय रिश्तों में बांध रहे थे।’’ रिश्तों का यह आत्मीय संबंध केवल लोक में ही दिखायी देता है।

लोक और शहरी संस्कृति में मानवीय रिश्तों की बड़ी खाई है। संस्कारवान और पढ़ी लिखी होने के ढोंग भरने वाली शहरी महिलाएं, पानी भरने नल में जाती हैं तो शहरी संस्कृति की झलक कुछ ऐसे दिखायी देती है- ‘‘मोर गुंडी कब के रखा हे रे छिनार, बड़ साहबिन बने हस त अपन घर में नल लगा ले न रे, तोर बापके नोहे नल हा, ता तोर धगड़ा के आय का रे।’’ तब रामकिसुन सोंचता है इससे तो अच्छा हमारा गाँव है कम से कम पानी के लिए वहाँ महाभारत तो नहीं मचता। लोक में मानवीय रिश्तों का ऐसा संबंध जहाँ – ‘‘एक दूसरे के गुंडी में भी गाँव की महिलाएं अपना सुख दुख गोठियाते हुए हंस हंस कर पानी डाल देती हैं।’’

लोक, मानवीय रिश्तों का अथाह सागर है। जिसके आधार पर परिवार, समाज और गाँव का निर्माण हुआ है। विवाह संस्कार में यह मानवीय रिश्ता बढ़-चढ़ कर दिखायी देता है। भले ही ऐसा लगता है कि विवाह किसी एक घर या एक परिवार का हो किन्तु विवाह की सारी तैयारी में समूचे लोक का सहयोग रहता है। लेखक ने ‘झेंझरी’ में विवाह संस्कार लोकगीत के माध्यम से समूचे लोक के सहयोग की जानकारी पाठकों तक पहुँचाया हैं-

‘‘डोंगरी पहार में, दाई घनर चलत हे,
पेरि देबे तेलिया मोर कांचा तिली के तेल,
दाई के अचरा ओ अगिन बरत हे,
दाई अगिन बरत हे, फूफू के अंचरा मोर इंदरी जुड़ाय।
विवाह गीत में भाभी, काकी, बहन सबके आंचल की विशेषताओं को ढालकर रिश्तों की अहमियत और उसकी भागीदारी को सुनिश्चित किया जाता है। लोक में रिश्तों के बिखराव को भी विवाह संस्कार के नेग दस्तूर में समेंटते हुए देखा जा सकता है।

प्रकृति के बीच रहते हुए प्राकृतिक शक्तियों की पूजा लोक अपने ढंग से करता है। मनुष्य के ऊपर कोई विपत्ति आती है तो उनकी रक्षा प्रकृति के द्वारा ही किया जाता है। प्रकृति के निकट रहते हुए बरसात, ठंड और गर्मी से बचाने वाले शक्तियों की पूजा भी की जाती है। उन्हें अपने गीतों में भी गाते हैं। ‘झेंझरी’ में लगिन के समय गाया जाने वाला एक दुर्लभ लगीन के गीत है इस गीत में उन्हीं शक्तियों को साक्षी माना गया है जो प्रकृति में साक्षात् प्रगट रूप है और मानव के द्वारा अपनी आदिम अवस्था से लेकर आज तक इन शक्तियों की पूजा अराधना किया जाता है।

‘चांद-सुरूज साखी हे, साखी हे,
धरती आकास साखी हे, साखी हे,
राम जानकी साखी हे, साखी हे,
राधा किसन साखी हे, साखी हे,
तीनौ देवता साखी हे, साखी हे,
नदी-पहाड़ साखी हे, साखी हे,
खेत खार साखी हे, साखी हे,
तैंतीस कोटि देवता साखी हे, साखी हे,
दुल्हा देव साखी हे, साखी हे,
सीतला माता साखी हे, साखी हे,
ग्राम देवता साखी हे, साखी हे’।

मानव के साथ लोक का यह अद्भुत रिश्ता और कहीं नहीं दिखायी देता । यह सिर्फ लोक में ही संभव है। प्रकृति की शक्तियों के साथ लोक शक्तियों का समन्वय सब के लिए अनुकरणीय है। आज की नई पीढ़ी को लोक की इस शक्ति को अवश्य जानना और समझना चाहिए। जिस तरह ‘झेंझरी’ में रामकिसुन को समझने और जानने की ललक है।

जैसे प्रकृति की शक्ति के प्रमुख केन्द्रों से मां दुर्गा की मूर्ति को बनाने के लिए मिटृटी लायी जाती है- 1. जहाँ दो शेर लड़ते हैं उस स्थान की मिट्टी 2. जहाँ दो हाथी लड़ते हैं उस स्थान की मिट्टी 3. जहाँ दो सांड लड़ते हैं उस स्थान की मिट्टी 4. सांप की बांबी की मिट्टी 5. पहाड़ की मिट्टी 6. मैंदान की मिट्टी 7. वेश्या के आंगन की मिट्टी। लोक का प्रकृति और मानव के साथ समन्वय। प्रकृति का यही लोक रूप मानवीय रिष्तों की आधार भूमि है जहाँ सब एक हैं, समान है।

गाँव में लोक के मानवीय रिश्तों की महक देखने को मिलती थी जो अब कहीं गुम होने की स्थिति में है। लोक के मानवीय रिश्तों को फिर वापस लाकर लोक को सुन्दर बनाने की आवष्यकता है। रामकिसुन कॉलेज की पढ़ाई के लिए रायुपर जाता है उस समय लोक में रिश्तों की बुनावट देखिये। रामकिसुन का अपने गाँव को छोड़कर शहर पढने के लिए जाना लोक हित के लिए ही था। यहाँ लोक का रामकिसुन ‘राम’ से कम नहीं है। वही गाँव का दुलरवा रामकिसुन। सब का प्यारा और सब का दुलारा। रामकिसुन से गाँव के लोग कहते हैं-

‘‘देख शहर जा के हमन ला झन भुला जबे,
तोर सुरता बहुत आही दुलरवा,
अब मोर संग कोन लगही बाबू,

रामकिसुन जब गाँव की गली में आया तो मानवीय रिश्तों का अद्भुत रूप ‘‘लोहारिन डोकरी उनका पैर छूकर याद दिला रही थी- ‘भुलाबे मत बाबू, तुलसी चौंरा के बिही पेंड़ तोर रद्दा देखत रिही’’ जाति वर्ग का कोई भेद नहीं। गाँव का बेटा सबका बेटा। ‘‘ साहून काकी, बरदहिन भौजी, केंवटिन बड़ेदाई, पनकिन काकी, गोड़िन भउजी, सब तो बिदा कर रहे हैं रामकिसुन को। लोक में रिश्ते-नातों का ऐसा अनुपम रूप कभी समाप्त नहीं होना चाहिए। ऐसा रूप जिसमें ‘‘बहुजन सुखाय, बहुजन हिताय’’ के भाव समाहित है।

लोक में मानवीय रिश्तों की ऐसी बुनावट एक दूसरे के सहयोग के बिना कुछ भी संभव नही है। गाँव का देवारी तिहार, देवारी तिहार के दिन गाँव के पशुधन को चराने वाले घरों की महिलाओं के द्वारा किसानों के घर-घर जाकर तुलसी चौंरा और धान रखने की कोठी में हाथा दिया जाता है। वर्तमान समय का दौर ऐसा चल रहा है कि लोक की यह सुन्दर परंपरा लगभग समाप्ति की ओर है।

शहरीकरण का प्रभाव लोक में प्रभावी होता जा रहा है जिससे लोक परम्पराएं धूमिल होती नजर आ रही है। झेंझरी में इन लोक परंपराओं को सहेजा और संवारा गया है-‘‘ काहेक सुंदर बनाथस पहटनिन, हमर तो हर साल के धंधा आय देरानी, जल्दी जल्दी करके सब घर ला निपटाय बर परथे, जल्दी बनाथस तभू ले कोनो जगा फरक नइ परे दीदी।’’ लोक रिश्तों का अद्भूत रूप देखिये। उसके बदले गाँव के पौनी पसारी को अन्न का दान दिया जाता है। लोक पर्व उत्सव में सबकी भागीदारी हो, सबमे खुषहाली का भाव हो, यही लोक का असली रूप है।

आज का मानव परिवार, समाज, जाति वर्ग में भले ही विभाजित हो गया है किन्तु लोक का आदिम स्वरूप, विश्व के समस्त श्रमजीवी मानव को एक बनाये रखता है। ‘झेंझरी’ में लेखक ने अपनी गहरी सोच और समझ के साथ होलिका दहन को मानव के विकास और उत्थान के रूप में देखा है वह निश्चित रूप से सत्य है। रामकिसुन का बताना कि ‘‘आदिकाल में मानव का विकास इसी महाग्नि के चारों ओर हुआ होगा।

प्रकृति की बसंत बहार की मस्ती ने जब उसके भीतर को उत्तेजित किया होगा तो वे महाग्नि के चारों ओर धूल मिट्टी को एक दूसरे पर डाल कर, फेंककर, अपनी मस्ती का इजहार करने से नहीं चूके होगें।’’ सही मायने में लोक का यही सुनहरा रूप है। महाग्नि के चारों ओर मानव विकास का यह क्रम निरन्तर गतिमान होता हुआ आज हमें होली त्यौहार के रूप में दिखायी देता है।

‘‘झेंझरी’’ को लोक संस्कृति की सम्पूर्ण अमरकृति कह सकते हैं। जिसमें लोक के समस्त रूपों का वर्णन है। लोक के विद्यार्थी होने के नाते, लोक की कला-परंपरा और रीति-रिवाज को ‘झेंझरी’ के माध्यम से जानने और समझने को मिला। लोक में रचे बसे तथा लोक परंपराओं और रीति-रिवाजों को सहेज कर रखने वाले लोक के पथिकों के लिए ‘झेंझरी’ अनुकरणीय एवं प्रेरणादायी है।

आलेख

डाॅ. नत्थू तोड़े
इंदिरा कला संगीत विश्वविद्यालय
खैरागढ़

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