अठारहवीं शताब्दी का उत्तरार्ध। ब्रिटिश काल में अंग्रेजों का राज्य विस्तार इतना अधिक था कि उनके राज्य में कभी सूरज अस्त नहीं होता था, ऐसे विशाल साम्राज्य को चुनौती देकर उनके विरुध्द विद्रोह का शंखनाद करने वाली छ्त्तीसगढ में एक छोटी-सी रियासत थी सोनाखान। सोनाखान की शल्य-श्यामला भूमि में वीर नारायण सिंह जैसे क्रांतिवीर का जन्म हुआ। इस सच्चे सपूत ने सोनाखान को छ्त्तीसगढ के स्वर्णिम इतिहास में अजर-अमर कर दिया।
सोनाखान जोंक नदी के दक्षिण में एक कि॰मी॰ दूरी पर राजधानी रायपुर से लगभग 150 कि॰मी॰ की दूरी पर यह ऐतिहासिक ग्राम स्थित है। सोनाखान ब्रिटिश काल में एक छोटी सी जमींदारी थी। यह पर्वत श्रृंखलाओं से घिरा हुआ एवं सागौन के जंगलों से आच्छदित यह पुण्य स्थली है। यह जमींदारी प्रारंभ में रायपुर जिले में तत्पश्चात बिलासपुर जिले में स्थानांतरित हुई तथा बलौदा बाजार तहसील का एक महत्वपूर्ण क्षेत्र है। यह बिलासपुर से 75कि॰मी॰ दूर दक्षिण पूर्व में स्थित शिवरीनारायण से 25कि॰मी॰ दूरी पर स्थित है।
सन1818 में छ्त्तीसगढ ब्रिटिश नियंत्रण में आ चुका था। सन1855 में डिप्टी कमिशनर इलियट ने सोनाखान क्षेत्र का अवलोकन किया था। 10गांव शामिल माने जाते हैं और यहां से 308रुपये 12आने का राजस्व जमा होता है। यहां से टिकोली का भुगतान नहीं होता। उन्होंने अपनी रिपोर्ट में यह भी लिखा कि यह वर्तमान अधिपति नारायण सिंह जी बिंझवार राजपुत है एवं उनके परिवार के अधिकार में पिछले 366वर्षो से है। इस जमींदारी में किसी प्रकार का कर नहीं लगाया गया था।
मराठा काल में (बिम्बाजी भोसले के राजस्व कार्यालय में) सोनाखान से इमारती लकड़ी एवं लाख की पूर्ति (वार्षिक) भोसले को दी जाती थी। वह 1224फसली तक चलता रहा। बाद में वर्तमान जमींदार के पिता रामसायक के समय यह क्षेत्र अंग्रेज के नियंत्रण में तथा पट्टे में नया संशोधन किया गया था। जिसके अंतर्गत लकड़ी एवं लाख के वार्षिक भुगतान को समाप्त कर दिया गया, क्योंकि जमींदार ने प्रार्थना की थी कि ऐसी कोई शर्त पट्टे में उल्लेखित नहीं की। उसे 300रुपये नामनुक भी प्रदाय किया गया। देवनाथ मिश्र नामक ब्रह्माण के लिये नये कर्ज के फलस्वरुप उनके द्वारा तथाकथित अपमान किये जाने के कारण( देवनाथ से संबलपुर में सुरेन्द्र साय तथा उदयपुर के खूंखार शिवराज सिंह को पकड़वाने में प्रमुख भूमिका निभाई थी।) कत्ल कर दिया गया। नागपुर में इसकी जांच पड़ताल के बाद इस जमींदारी के जमींदार को उसकी रियासत में दी जाने वाली सुविधाएं समाप्त कर दी।
सोनाखान जमींदारी-
सोनाखान अर्थात सोने की खदान कहलाने वाली जमींदारी अपने नाम के अनुरुप एवं समृध्दिशाली ऐतिहासिक नगरी थी। समय के बदलते करवट ने सब कुछ उथल-पुथल कर रख दिया। छ्त्तीसगढ की इस जमींदारी से छोटी-सी घटना घटी। सन1856 में छ्त्तीसगढ प्राकृतिक आपदाओं से प्रभावित पूरा अंचल भीषण सूखे की चपेट में आ गया। सोने की खान में रहने वाले अमीर धरती के गरीब लोग दाने-दाने के मोहताज हो गये थे। मवेशी चारे ले अभाव में मरने लगे थे। उन दिनों इसी जमींदारी के गांव में माखन नामक एक अन्न का व्यापारी था। जिसके पास अन्न का विशाल भंडार था। जमींदार नारायण सिंह को यह दूसरी ओर यह व्यापारी जमाखोरीं में लगा हुआ है। तब नारायण सिंह ने अनाज व्यापारी माखन को अनाज लोगों को बांटने के लिए कहा, तो इस व्यापारी ने इंकार कर दिया। फिर क्या था? उसने सामने आकर गोदाम का ताला तोड़कर भूखे किसानों एवं मजदूरों को अनाज बांट दि्या। उसके इस कार्य से नाराज व्यापारी माखन की शिकायत पर रायपुर के डिप्टी कमिश्नर इलियट ने सोना खान के जमींदार नारायण सिंह के विरुध्द जारी कर दिया। जगन्नाथपुरी के जमींदार इस पुनीत कार्य के बाद तीर्थ यात्रा पर निकल गये थे। सोनाखान के जमींदार का पीछा करने के लिए मुल्की घुड़सवारी की एक टुकड़ी भेज दी गई और थोड़ी बहुत परेशानी के बाद तीर्थ यात्रा के मार्ग पर संबलपुर में 24अक्टूबर 1856 को गिरफ्तार कर लिया गया। इस गिरफ्तारी की सूचना कमिश्नर इलियट रायपुर द्वारा पत्र लिखकर नागपुर के कमिश्नर प्लाउडन को गई। इलियट ने अपने पत्र में सोनाखान के जमींदार नारायण सिंह के संदिग्ध चरित्र का उल्लेख करते हुए लिखा कि ये जमींदार कोई टकोली नहीं देता, बल्कि कंपनी से नाम से नामनुक बतौर 564 रुपये 4 आने 7 पैसे वार्षिक प्राप्त करना है। जमींदार नारायण सिंह का यह कृत्य कंपनी शासन अधिकारी के लिए चुनौती थी।
इधर सोनाखान के ग्रामीण सूखे की चपेट में अन्न-अन्न के लिए तरस रहे थे। मवेशी भी गांव छोड़कर चारे की तलाश में बाहर जा रहे थे। चारों ओर भूख व्याप्त होने से हाहाकर मचा हुआ था। गांव से लोग पलायन करने लगे थे कि उन्हें रोकने एवं अनाज की व्यवस्था करने में नारायण सिंह जुट गये। उन्होंने कुछ गांवों में बैठक बुलायी और तय हुआ कि कसडोल के मिश्रा परिवार से कर्ज में अनाज मांगा जाये, उसे ब्याज सहित लौटा दिया जायेगा। किन्तु अकाल स्थिति ने ज्यादा ब्याज अधिक मुनाफे के लालच में मिश्रा परिवार ने नारायण सिंह को अनाज देने से इंकार कर दिया। इधर कोठी से अनाज रखे-रखे सूखने लगा, तब नारायण सिंह ने पुन: गांव के मुखिया लोगो की बैठक बुलाई। गांव-गांव बैठक होती रहीं। लोग जुड़ने लगे इस ओजस्वी पूर्ण आहवान के जवाब में गांव वालों न समवेत स्वर में कहा लड़बोन-लड़बोन (लड़ेंगे-लड़ेंगे) यह स्वर इतना तेज था कि सारा इलाका इस स्वर से गूंज उठा। फलस्वरुप लोगों में जोश भर गया। वे आसपास के ग्रामवासियों के कदम सोनाखान की ओर बढाने लर्ग कुर्रापाट में नारायण सिंह का डेरा था। कुर्रापाट का पानी पीकर मुखिया एवं सरदों से शपथ ली कि अब साहूकार के अत्याचार को सहन नहीं करेंगे। किसानों की खून-पसीने की कमाई जो साहूकार कोठी में और किसान भूख से मरे, ऐसा नहीं हो सकता। जो किसान इन साहूकारों के प्रति निष्ठावान थे वे अब विद्रोह के लिए उद्यत हो गये थे। मुंशी प्रेमचंद की वह पंक्ति याद आती है – ‘भूखे पेट को देश भक्ति सिखाने वालों भूख इंसान को गददार बना देता है।
पहली बार सोनाखान में एकत्र किसानों ने हथियार उठा लिये थे। साहूकार के विरुध्द एकत्र हो गये और नारायण सिंह के नेतृत्व में कसडोल की ओर कूच कर गये। नारायण सिंह ने साहूकारों के भण्डारों से अनाज जप्त कर भूखे किसानों में बांट दी। छ्त्तीसगढ इतिहास में यह ब्रिटिश कंपनी के शासन के विरुध्द एक पहली क्रांतिकारी घटना थी।
नारायण सिंह का यह क्रांतिकारी कदम अंग्रेजों को नागवार गुजरा। उसे कानून का उल्लघंन मानकर ब्रिटिश कंपनी ने सोनाखान के जमींदार नारायण सिंह को चोरी एवं डकैती के जुर्म में कुछ साथियों के साथ बंदी बनाकर जेल में डाल दिया। सोनाखान के 18 गांव के आदिवासी किसान अपने इस नेता के विरुध्द इस कार्यवाही का विरोध करने लगे। इसी बीच सोनाखान के किसानों ने संभवत: संबलपुर के विद्रोही नेता एवं क्रांतिकारी सुरेन्द्र साय से संपर्क किया। इसकी मदद से रायपुर जेल से भाग निकालने की योजना बनाई गयी। रायपुर जेल में 10 माह चार दिन बंदी रहने के बाद रायपुर डिप्टी कमीश्नर से नाग्पुर के कमिश्नर को सूचित किया कि 28, अगस्त, 1857 को नारायण सिंह तीन अन्य साथियों के साथ जेल में सुरंग बनाकर सुरंग के रास्ते से भाग जाने की सूचना दी।
सोनाखान में विद्रोह –
वीरनारायण सिंह छ्त्तीसगढ के प्रथम किसान नेता थे। किसानों में चेतना का विकास कर उनमें ऊर्जा भरकर उन्हें संगठित किया और ब्रिटिश शासन से लोहा लेने के लिये सर्वप्रथम सोनाखान से शंखनाद किया। किसानों का मनोबल बढता गया। सोनाखान के विद्रोह ने अंग्रेज शासन की नींव हिला दी। देखते ही देखते सोनाखान फौजी छावनी के रुप में बदल गया। जंगल के आदिवासियों की तीर-कमान एवं बंदूको की इंकार सुनाई देने लगी। लेप्टिनेंट स्मिथ की सैन्य टुकड़ी सोनाखान का चप्पा-चप्पा छानु चुका था। नारायण सिंह सोनाखान के पहाड़ी रास्ते पहुंचकर जंगल के किसानो को संगठित करता। अंग्रेजों को इन मार्गो की जानकारी न होने से वे उसे रोकने में असफल हो गये। वे स्मिथ के कंपनी से और सैन्य टुकड़ी की मांग की तथा इस मार्ग के भटगांव, बिलाईगढ व कटगी जमींदारी से मदद मांगी। ये जमींदार कंपनी शासन के सहयोग के लिए आगे आये और स्मिथ से 26 से 29 नवंबर 1857 को शस्त्र एवं बारुद इकटठा करने हेतु विविध दल भेजे। रायपुर के ब्रिटिश कमिश्नर ने गंभीर स्थिति को भांपकर एक दिसंबर, 1857 के 100 सशस्त्र सैनिक भेजे। अंग्रेजों के दबाव से आसपास के जमींदार भी इस विद्रोह को दबाने के लिए संगठित हो गये थे। वीरनारायण सिंह के लिए अब ये जमींदारें रोड़े बन गये थे। अंग्रेजों ने इसे उन पहाड़ी एवं जंगली मार्ग की जानकारी ली, जहाँ से वे वहां पहुंच सकते थे।
कटनी के जमींदार ने 2 दिसंबर 1857 को 40 सहयोगियों के साथ जहां आ पहुंचे तथा स्मिथ की सेना से आ मिले। आदिवासी जंगल से पेड़ों में चड़कर तीन कमान लेकर अंग्रेजी सेना को रोक देते थे। लगातार यह गुरिल्ला युध्द चलता रहा।
इधर नारायण सिंह की सेना की गोलियां समाप्त हो गई थीं। देशी हथियारों से अंग्रजों फौज का मुकाबला करना अब मूर्खता थी। नारायण सिंह ने सोनाखान से 10 कि॰मी॰ दूर तोपों सहित अंग्रेजी सेना पर आक्रमण की योजना बनाई थी, परन्तु देवरी के जमींदार महाराज साय द्वारा धोखा दिये जाने से योजना क्रियान्वित नहीं हो सकी। उसकी सेना पहाड़ी में यत्र-तत्र बिखर गई थी। उसकी शक्ति क्षीण होने लगी। अब नारायण सिंह ने अंग्रेजी सेना से और मुकाबला करना व्यर्थ समझा। बची हुई जनता के हिफायजत के लिये उसने 2 दिसबंर 1987 को अपने एक साथी के साथ वीरता के ज्योती स्तंभ नारायण सिंह लेप्टिनेंट स्मिथ के सामने पहुंचे, किन्तु हथियार नहीं डाला। अंग्रेजी सेना न चारों आरे से घेर लिया। बंदी नारायण सिंह की गिरफ्तारी की खबर मिलते ही आदिवासी संगठन बिखर गया। 5 दिसंबर को रायपुर के डिप्टी कमीश्नर इलियट को सौंप दिया गया। इस प्रकार सोनाखान के वीर सपूत के गिरफ्तारी से सोनाखान जमींदारी का सूर्यास्त हो गया।
छ्त्तीसगढ से डिप्टी कमीश्नर इलियट ने लिखा कि कोट के समक्ष जमींदार को पेश किया और उस पर 1857 की सुबह फांसी की सजा (शंभु दयाल गुरु के अनुसार ) जनरल परेड के समय सैनिक टुकड़ी के समक्ष दे दी गई। छ्त्तीसगढ के वीर सपूत ने हंसते-हंसते अपने गले में फंदा डालकर हमेशा के लिए विदा ले लिया।
सोनाखान आज भी वीर नारायण सिंह की वीरगाथा को हृदय से छिपाये सदियों से विद्यमान है। सोनाखान की मिटटी उस वीर सपूत के ॠण को कदापि विस्मृत नहीं कर पायेगी।
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