तीज त्यौहारों एवं उत्सवों के युक्त भारतीय संस्कृति में प्रकृति को महत्वपूर्ण स्थान दिया गया है। जिसमें हम सूर्य, चन्द्रमा एवं ग्रहों से लेकर वृक्ष-पौधों एवं जीव जंतुओं तक का मान करते हैं। इसी मान देने के दिन को हम त्यौहार या पर्व के रुप में मनाते है। लोक का ऐसा ही संबंध चन्द्रमा के साथ भी है। चंद्रकलाओं के साथ घटते-बढ़ते चंद्रमा को अनेक तिथियों में पूजा जाता है।
चन्द्रमा के घटने – बढ़ने का चक्र पूरे वर्ष भर चलता रहता है, और आती रहती है हर माह अमावस्या और पूर्णिमा। लेकिन आश्विन पूर्णिमा का विशेष महत्व है। इस खास पूर्णिमा को कोजागिरी, आश्विन पूर्णिमा, कौमुदी पूर्णिमा या शरद पूर्णिमा या रास पूर्णिमा भी कहते हैं। आसमान में चमकने वाले चाँद की खूबसूरती इस पूर्णिमा पर अपने शबाब या निखार पर होती है। ज्योतिष के अनुसार, पूरे साल में केवल इसी दिन चन्द्रमा सोलह कलाओं से परिपूर्ण होता है।
इस दिन का महत्व श्रीलक्ष्मी से भी जुड़ा है। ऐसी मान्यता है कि जैसे कार्तिक अमावस्या की रात को दीपक जलाकर श्रीमहालक्ष्मी का पूजन किया जाता है, वैसे ही आश्विन पूर्णिमा की चांदनी में रात्रि जागरण करके श्रीलक्ष्मी की मनोभाव से पूजन अर्चना की जाती है। इस पूरे चाँद की रात्रि में तंत्र-मंत्र साधना करने वाले श्रीसिद्धिदात्री को प्रसन्न करने के लिए विशेष पूजा-पाठ करते हैं।
इस दिन व्रत करने की भी परंपरा है। रिद्धि सिद्धि, सुख – वैभव और संतान की प्राप्ति हेतु धनदायिनी माता लक्ष्मी के साथ – साथ, भगवान कार्तिकेय, देवराज इंद्र तथा गजराज ऐरावत का भी पूजन किया जाता है।
व्रत कथा –
एक साहुकार के दो पुत्रियाँ थी। दोनो पुत्रियाँ पूर्णिमा का व्रत रखती थी। परन्तु बड़ी पुत्री पूरा व्रत करती थी और छोटी पुत्री अधूरा। परिणाम यह हुआ कि छोटी पुत्री की सन्तान पैदा ही मर जाती थी। उसने पंडितो से इसका कारण पूछा तो उन्होने बताया की तुम पूर्णिमा का अधूरा व्रत करती थी जिसके कारण तुम्हारी सन्तान पैदा होते ही मर जाती है। पूर्णिमा का पूरा व्रत विधिपूर्वक करने से तुम्हारी सन्तान जीवित रह सकती है।
उसने पंडितों की के कहे अनुसार पूर्णिमा का पूरा व्रत विधिपूर्वक किया। जिसके फलस्वरूप उसके घर पुत्र का जन्म हुआ परन्तु वह भी शीघ्र ही मृत्यु को प्राप्त हो गया। उसने पुत्र को पाटे पर लिटाकर ऊपर से कपड़े से ढँक दिया। फिर बडी बहन को बुलाकर लाई और बैठने के लिए वही पाटा दे दिया। बडी बहन जब पाटे पर बैठने लगी जो उसका घाघरा बच्चे का छू गया। बच्चा घाघरा छूते ही रोने लगा।
बड़ी बहन बोली-” तू मुझे कंलक लगाना चाहती थी। मेरे बैठने से यह मर जाता।“ तब छोटी बहन बोली, ” यह तो पहले से मरा हुआ था। तेरे ही भाग्य से यह जीवित हो गया है। तेरे पुण्य से ही यह जीवित हुआ है। “उसके बाद नगर भर में उसने पूर्णिमा का पूरा व्रत करने का ढिंढोरा पिटवा दिया। तब से यह व्रत किया जाने लगा।
क्यों करते हैं रात्रि जागरण :-
मान्यता है कि इस दिन मध्यरात्रि में श्रीमहालक्ष्मी चंद्रमंडल से उतरकर भूलोक पर आती हैं। ऐसा कहते हैं कि उस दिन चाँद के उजियारे में वे हर एक से पूछती हैं- क्या वह जागृति (जाग्रत होने की अवस्था) है?
इसका अर्थ यह है कि क्या आप अपने कर्तव्यों के प्रति जाग्रत हैं ? श्रीलक्ष्मी केका इसी प्रश्न का उत्तर देने के लिए लोग जागरण करते हैं। और जागरण करने वालों को माँ लक्ष्मी अमृत यानी लक्ष्मी का वरदान देती हैं।
बंगाल में शरद पूर्णिमा को कोजागोरी लक्ष्मी पूजा कहते हैं। महाराष्ट्र में कोजागरी पूजा कहते हैं और गुजरात में शरद पूनम। इस दिन चांद धरती के सबसे निकट होता है इसलिए शरीर और मन दोनों को शीतलता प्रदान करता है। इसका चिकित्सकीय महत्व भी है जो स्वास्थ्य के लिए अच्छा है।
भारत के प्रत्येक प्रांत में शरद पूर्णिमा का कोई न कोई महत्व अवश्य है।विभिन्न स्थानों पर अलग- अलग भगवान का पूजन किया जाता है, परंतु अधिकतर स्थानों में किसी न किसी रूप में लक्ष्मी की पूजा अवश्य होती है।
शरद पूर्णिमा से जुड़ी पौराणिक व धार्मिक मान्यतायें –
शरद पूर्णिमा से जुड़ी प्रमुख मान्यता है कि इस दिन चंद्रमा की किरणों से अमृत वर्षा होती है। जो सेहत के लिए अत्यंत लाभकारी है। इस दिन लोग अपने घरों की छत पर खीर बना कर रखते है। जिससे चांद की किरणें खीर पर पड़े जिससे वह अमृतमयी हो जाए।
खीर के सेवन से अस्थमा जैसी न जाने कितनी बड़ी-बड़ी बीमारियों से मुक्ति मिलती है। कही-कही पर इस दिन सार्वजनिक रूप से औषधि युक्त खीर का वितरण भी किया जाता है। मध्यप्रदेश के कई स्थानों में शक़्कर और कालीमिर्च को पीसकर उसमे घी मिलकर रातभर चांदनी में रखा जाता है।
उसी तरह महाराष्ट्र में खुले आसमान के नीचे दूध को तब तक पकाकर बासुंदी ( रबड़ी ) बनाई जाती है जब तक कि उसमे चाँद का सीधा प्रतिबिम्ब न दिखाई देने लगे। इसे लोग आपसी मेल मिलाप के त्यौहार जैसा मानते हैं। इस दिन महाराष्ट्र में नए अनाज के पकवान भी बनाए जाते हैं।
शरद पूर्णिमा का वैज्ञानिक पक्ष-
अगर शरद पूर्णिमा को वैज्ञानिक द्रष्टिकोण से देखा जाए तो माना जाता है कि इस दिन से मौसम में परिवर्तन होता है और शीत ऋतु का आरम्भ होता है। इस दिन खीर खाने के पीछे कारण यह होता कि अब ठंड का मौसम आ गया है इसलिए गर्म पदार्थों का सेवन करना शुरु कर दें। ऐसा करने से हमें ऊर्जा मिलती है।
शरद पूर्णिमा के चांद से उत्सर्जित होने वाली किरणें सेहत के लिए बहुत लाभदायक होती है। इसकी चांदनी से पित्त, प्यास, और दाह दूर हो जाते है। दशहरे से शरद पूर्णिमा तक रोजाना रात में कुछ समय तक चांदनी का सेवन करना शरीर के लिए अच्छा माना जाता है। इसके साथ ही चांदनी रात में त्राटक करने से आँखों की ज्योति में वृद्धि होती है। आयुर्वेद के जानकर और वैद्य जडी-बूटी और औषधियां इसी दिन चांद की रोशनी में बनातें है। जिससे यह रोगियों को दुगुना फायदा देती हैं।
अध्ययन के अनुसार शरद पूर्णिमा के दिन औषधियों की स्पंदन क्षमता अधिक होती है। रसाकर्षण के कारण जब अंदर का पदार्थ सांद्र होने लगता है, तब रिक्तिकाओं से विशेष प्रकार की ध्वनि उत्पन्न होती है।
कहा जाता है कि लंकाधिपति रावण शरद पूर्णिमा की रात किरणों को दर्पण के माध्यम से अपनी नाभि पर ग्रहण करता था। इस प्रक्रिया से उसे पुनर्योवन शक्ति प्राप्त होती थी। सोमचक्र, नक्षत्रीय चक्र और आश्विन के त्रिकोण के कारण शरद ऋतु से ऊर्जा का संग्रह होता है और बसंत में निग्रह होता है।
अध्ययन के अनुसार दुग्ध में लैक्टिक अम्ल और अमृत तत्व होता है। यह तत्व किरणों से अधिक मात्रा में शक्ति का शोषण करता है। चावल में स्टार्च होने के कारण यह प्रक्रिया और आसान हो जाती है। इसी कारण ऋषि-मुनियों ने शरद पूर्णिमा की रात्रि में खीर खुले आसमान में रखने का विधान किया है।
शरद पूर्णिमा के रात चांदनी में खीर रखने की परंपरा विज्ञान पर आधारित है। शोध के अनुसार खीर को चांदी के पात्र में बनाना चाहिए। चांदी में प्रतिरोधकता अधिक होती है। इससे विषाणु दूर रहते हैं। इस तरह शरद पूर्णिमा भारतीयों के लिए महत्वपूर्ण त्यौहार है।
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