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दक्षिण कोसल में रामायण से संबंधित पुरातात्विक साक्ष्य विषय पर संगोष्ठी सम्पन्न : वेबीनार रिपोर्ट

‘दक्षिण कोसल में रामायण से संबंधित पुरातात्विक साक्ष्य’ विषय पर एक दिवसीय अंतर्राष्ट्रीय वेब संगोष्ठी का आयोजन सेंटर फॉर स्टडी एंड हॉलिस्टिक डेवलपमेंट छत्तीसगढ़ तथा ग्लोबल इनसाइक्लोपीडिया ऑफ रामायण उत्तर प्रदेश के संयुक्त तत्वाधान में दिनाँक 26 साथ 2020 को शाम 7:00 से 8:30 के मध्य सम्पन्न हुआ।

वेब संगोष्ठी में स्वागत उद्बोधन सेंटर फॉर स्टडी ऑन हॉलिस्टिक डेवलपमेंट के सचिव श्री विवेक सक्सेना जी ने किया, मुख्य अतिथि डॉ राकेश तिवारी जी पूर्व डायरेक्टर जनरल आर्कियोलाजिकल सर्वे ऑफ इंडिया, मुख्य वक्ता डॉ शिवाकांत बाजपेयी जी सुपरिटेंडेंट ऑर्कियोलाजिस्ट, बैंगलुरु सर्किल, भारत, अतिथि वक्ता स्वामी अनंत बोध चैतन्य स्प्रिचुअल पर्सन और योगा एक्सपर्ट, जोनोवा कोनास लिथुआनिया यूरोप, अध्यक्ष प्रोफेसर आर पी तिवारी, वाइस चांसलर’ डॉ हरिसिंह गौर विश्वविद्यालय (सेण्टर विश्वविद्यालय) सागर, मध्य प्रदेश जी करनेवाले थे, पर अज्ञात कारणों से जुड़ नहीं पा सके, जिसकी भूमिका ललित शर्मा जी ने निभाई। प्रोग्राम के होस्ट आनंदमूर्ति मिश्रा, प्रोफेसर ,बस्तर विश्वविद्यालय, जगदलपुर, छत्तीसगढ़ और प्रोग्राम डायरेक्टर श्री ललित शर्मा (इंडोलॉजिस्ट) थे।

आज की वेब संगोष्ठी के होस्ट डॉक्टर आनंदमूर्ति मिश्रा जी ने उपस्थित सभी अतिथियों का परिचय कराने के बाद उद्घाटन उद्बोधन के लिए सर्वप्रथम श्री विवेक सक्सेना जी सचिव सी एस एच डी को आमंत्रित किया। उन्होंने सभी अतिथियों को स्वागत करने के बाद कहा कि हमारी संस्था एक रजिस्टर्ड संस्था है। श्री ललित शर्मा जी भी दक्षिण कोसल टुडे नामक वेब पोर्टल के संपादक है। हम आज इस वेब सेमिनार पर दक्षिण कौशल में रामायण से संबंधित पुरातात्विक साक्ष्य विषय पर अपने अपने विचार रखेंगे। पर मूल प्रश्न यह है कि आखिर रामायण के संबंध में साक्ष्य की जरूरत क्या है? यह हमारी गहरी आस्था से जुड़ा है। गाँव-शहर कहीं भी हो, मन आस्था को मान लेता है, पर वह प्रश्न नहीं पूछता है। हमारे मन के साथ बुद्धि भी है।अपनी आस्था को दिखाने का प्रयास कुछ लोग गलत ढंग से करते हैं। उसमें उनका हित है, जैसा कि अभी हाल ही के दिनों में, राम के जन्म को नेपाल में होना बताया गया है। लोग हमारी आस्था को डिगाना चाहते हैं। इसीलिए साक्ष्यों को लाना चाहते हैं हम। उनके संकलन करने में लगे हुए हैं। मैं सभी अतिथियों का स्वागत करता हूँ। सब के सहयोग से हमारे काम को गति मिलेगी।

इसके बाद होस्ट आनंद मिश्रा जी ने कहा कि विवेक जी, जैसा आपका नाम है, वैसी ही आपकी वाणी भी है कहकर, उन्होंने आगे के उद्बोधन के लिए इस वेबिनार के मुख्य अतिथि डॉ राकेश तिवारी जी को आमंत्रित करते हुए कहा कि उत्खनन के क्षेत्र में काम करने का उनका लम्बा अनुभव है। आज उनके अनुभव का लाभ हमें मिलेगा। इसके बाद उन्होंने मुख्य अतिथि डॉ0 राकेश तिवारी जी को अपने विचार रखने के लिए उन्हें आमंत्रित किया।

डॉक्टर तिवारी जी ने अपने उद्बोधन में सर्वप्रथम सभी विद्वतजनों को प्रणाम करते हुए कहा कि मैं स्वयं अयोध्या के पास का निवासी हूँ। इसी नाते उत्तर कोसल का प्रतिनिधित्व भी करता हूँ और आज दक्षिण कोसल के विषय पर पुरातात्विक साक्ष्यों पर चर्चा कर रहा हूँ। यहाँ दो विषय हैं। एक है आस्था और दूसरा है साक्ष्य।

मैं बाल्यकाल से अयोध्या आते-जाते रहा हूँ। इसलिए बाल्यकाल से ही आस्था से जुड़ा हुआ हूँ। पर जब ज्ञान आया तो पता चला कि पुराणों में ज्ञात जानकारी को अध्ययन करने की आवश्यकता है। मनु को कुछ लोग 5000 साल पूर्व मानते हैं तो कुछ लोग 7000 साल पहले का पर जब हम पुरातत्व पर आते हैं । हम प्राचीन साक्ष्य, प्रमाण ढूंढते हैं। पुरातत्व के प्रमाण को पहले धर्म में ईसा पूर्व 600 साल तक मानते हैं, पर कुछ और जगहों पर उत्खनन के बाद इसका प्रमाण पीछे चला गया ।

उन्होंने खासकर साकल्य साहब का उल्लेख किया, जब उन्होंने प्रारंभ में अयोध्या में उत्खनन किया, तो जो प्रमाण प्राप्त हुआ, वह ईसा पूर्व 600-700 साल के मध्य का ही पाया। तब उन्होंने कहा कि अयोध्या या रामायण की वास्तविकता है या कि काल्पनिक है। इस पर और प्रकाश डालने के लिए अन्य जगहों पर भी उत्खनन करवाया गया।

उन्होंने बताया कि उत्तरप्रदेश में कुछ जगहों पर बरसात के समय में पानी के कटाव के कारण कुछ काले बर्तन मिले। उनका काल 2600-2700 साल पुराना निर्धारण किया गया। बाद में उत्खनन से भी यही तिथि प्राप्त हुई। पर जब हम लोगों ने कुछ जगहों पर उत्खनन किया तो उसका प्रमाण ईसा पूर्व 10000 साल तक के आस-पास चला गया। तब हमने सोचा कि अगर एक जगह 10000 साल से जब मानवीय गतिविधियाँ हो रहीं हैं तो और जगह भी होने चाहिए।

आज की स्थिति वैज्ञानिक विधि पर आधारित है। प्रारंभ में यह ईसा पूर्व 1200 साल तक चला गया था। आधुनिक उत्खनन में भी कई जगह जो साक्ष्य प्रमाणित होता है। वह भी स्थाई प्रमाण नहीं हैं। बाद में जो उत्खनन हुआ उसमें साक्ष्य ईसा पूर्व 700 से 1000, फिर यह तिथि ईसा पूर्व 7000 साल तक चली गयी। पर हो सकता है आज जहाँ खुदाई हुई है, भविष्य में अब खुदाई हुई तो प्रमाण उससे भी ज्यादा प्राचीन हो सकता है।

कभी-कभी उत्खनन में प्रमाण नहीं मिलने से ही विज्ञान सत्य नहीं हो जाता है। उत्खनन में जो प्रमाण मिले, वही प्रमाण साक्ष्य नहीं हो सकते हैं। हमें प्रसन्नता है कि अयोध्या शोध संस्थान द्वारा यह प्रयास अच्छा हो रहा है कि अभी जो प्रमाण मिल रहे हैं, उसका संकलन किया जा रहा है। उत्तर प्रदेश के दक्षिण भाग, दक्षिण की ओर जाने वाला मार्ग दो आटविक राज्यों से जुड़ा है। यही मार्ग छत्तीसगढ़ से जाता है। कार्यक्रम के प्रमुख वक्ता श्री शिवाकांत बाजपेयी जी इस क्षेत्र से जुड़े हुए हैं। वे इस पर विस्तार से चर्चा करेंगे। हाल में हमारे मित्र की लड़की ने लोकगीत में कुछ चीजों वर्णन किया है। वहाँ रामनामी संप्रदाय है। जिन्होंने पूरे शरीर पर राम का नाम गोदवा रखा है । इस विषय पर ज्यादा नहीं बोलूंगा मुझे ललित शर्मा जी ने जो अवसर दिया उसके लिए मैं आभारी हूँ।
इसके बाद कार्यक्रम के होस्ट डॉ आनंद मूर्ति मिश्राजी ने कहा कि आपने कार्बन डेटिंग की बात की, यह वर्तमान उत्खनन में बहुत बड़ा साक्ष्य साबित हुआ है। आप लोग विशेषज्ञ हैं। आपका अनुभव का लाभ हमें मिला, हम इसके लिए आभारी हैं। इस वेब सेमिनार के मुख्य वक्ता श्री वाजपेयी जी को संबोधित किया और उन्हें अपने विचार रखने के लिए उन्हें आमंत्रित किया। आपने बताया कि बाजपेयी जी इस क्षेत्र से जुड़े हुए हैं। इसका संपूर्ण लाभ हमें आपके विचारों में, सुनने को मिलेगा।
मुख्य वक्ता डॉ शिवाकांत बाजपेयी जी सुपरिंटेंडेंट आर्कियोलॉजिस्ट बेंगलुरु सर्किल, भारत ने सर्वप्रथम गुरु तुल्य श्री राकेश तिवारी जी को प्रणाम किया फिर उसके बाद अपनी बातें रखना प्रारंभ किया। उन्होंने कहा कि जहाँ तक रामायण पर प्रमाण की बात है ,जैसा कि सक्सेना जी ने कहा है ऐतिहासिक तथ्य पीछे छूट जाता है । वहाँ आभामंडल पर काम होता है। साक्ष्य पीछे छूट जाता है। जैसे कि तिवारी जी का कहना है रामायण के संबंध में पुरातत्व प्रमाण की आवश्यकता क्यों है? राम ऐतिहासिक पुरुष थे। पर जब हम उसे भगवान मानने लगे, तो लोगों को प्रमाण चाहिए। यहाँ दो पक्ष पर रखा जा सकता है। पहला पक्ष ऐतिहासिक और साहित्यिक तथा दूसरा पुरातात्त्विक। पहले साहित्यिक पक्ष पर चर्चा करता हूँ। ऋग्वेद में राम, दशरथ, सीता आदि का उल्लेख होता है। महाभारत में भी रामायण की जिक्र होता है। चूँकि महाभारत में रामायण का जिक्र होता है, तो निश्चय ही उस समय लोगों को रामायण के बारे में जानकारी थी। ईसा पूर्व की जातक कथाओं में दशरथ की कथा का उल्लेख मिलता है।

जब महावीर और बुद्ध के बारे में कोई अपवाद नहीं है, जिसमें रामायण का उल्लेख होता है, तो साक्ष्य की आवश्यकता क्यों? जैन साहित्य में दूसरी-तीसरी शताब्दी ईसा पूर्व के दर्जनों उदाहरण हैं। जो संस्कृत और प्राकृत लिपि में भी हैं। ऋग्वेद जिसे हम मानते हैं, में नाम के रूप में राम का उल्लेख होता है।

दक्षिण भारत के संगम साहित्य में भी उल्लेख है। खासकर आभूषणों को जब उतार कर सीता जी नीचे फेंकती हैं। उनका उल्लेख सभी धार्मिक साहित्य में खासकर दक्षिणभारत के साहित्य में रामायण का उल्लेख मिलता है।

दो चीजों का जिक्र करना चाहता हूँ। हमारी स्मरण शक्ति अच्छी है। हमारी श्रुत परंपरा बहुत अच्छी है। यह कब लिखी गई इस पर चर्चा जरूरी है। ऋग्वेद लगभग 11वीं सेंचुरी बीसी में लिखा गया। सहगल जी कहते हैं साकल्य जी ने इसे फर्स्ट और सेकंड बी सी से ज्यादा पीछे रखने के पक्षधर में नहीं थे। कुछ और विद्वानों ने माना कि फोर्थ से फिफ्थ सेंचुरी बीसी तक यह हो सकता है। मैकडॉनल्ड और क्रोशिए ने इसे 8वीं 9वीं शताब्दी ईसा पूर्व तक ले गया है।

बाल्मीकि भी एक से अधिक हुए हैं। वाल्मीकि के रामायण में भी लगातार परिवर्तन हुआ है। भारत में जब महाभारत की लघु रूप था तब उसे भारत कहा जाता था। पर विस्तार के बाद वह भारत से महाभारत बन गया।

उसी प्रकार रामायण में जब राम का महिमामंडन करने लगे, तो इतिहास बदलता गया। उन्होंने तिवारी जी के कथन का पुनः प्रकाश डालते हुए कहा कि कुछ क्षेत्रों में नंदीग्राम भरद्वाज आश्रम आदि का उत्खनन होने पर पुरातात्त्विक प्रमाणो का इस समय साक्ष्य के रूप में काम की शुरुआत हो गई है। जब भविष्य में आगे जुड़ेंगे तो आयरन पर चर्चा करेंगे ।जब युद्ध हुआ तो आयरन की आवश्यकता होगी ही ।

पल्लव शासक नंदीवर्मन ने आठवीं शताब्दी में जो ग्रंथ लिखा है, उससे पता चलता है कि राम की तरह ही उन्होंने शस्त्रों का भी अध्ययन किया था। अगर हम साहित्य पुरातात्त्विक साक्ष्य की बातें करें तो 2500 सालों से लगातार मिल रहे हैं इसमें कोई संदेह नहीं है। जैसे कि तिवारी जी ने कहा है साकल्या जी ने राम के साक्ष्य को नकार दिया था। पर काले पात्र के बारे में उन्होंने भी संदेह व्यक्त किया था। हमें सेकंड सेंचुरी बीसी से क्रमशः प्रमाण मिलते हैं। कौशांबी में सीता हरण का पैनल मिला जो इलाहाबाद संग्रहालय में रखा गया है। लॉस एंजिल्स के संग्रहालय में एक स्क्राइब में ब्राह्मी लिपि में भगवान राम का उल्लेख है, जो सेकंड सेंचुरी बी सी की है। नागर खेड़ा की संग्रहालय में जटायु का चित्रण है, राम लक्ष्मण जब जटायु से मिलते है । वहीं एक और प्रमाण चौथी शताब्दी का है जो जींद से प्राप्त हुआ है, वह अब वहां के स्थानीय संग्रहालय में भी रखा गया है। मध्य प्रदेश में नचनाकुठारा से एक पैनल मिला है, जिसमें रावण भिक्षा मांगता हुआ अंकन हैं, यह पांचवीं शताब्दी का है। दक्षिण भारत के में सेतु बंधन का पैनल है। इसमें सेतुबंध का शिल्पांकन सातवीं-आठवीं शताब्दी का है। कैलाश मंदिर में एक पूरा पैनल मिलता है एक तरफ से रामायण तो दूसरे तरफ महाभारत।

12 वीं शताब्दी में कर्नाटका आदि में भी शिल्पांकन मिलता है। हम्पी मंदिर के हजाराराम मंदिर जो 15वीं शताब्दी के हैं, उसमें राम की पूरी कथाएं हैं। सोलहवीं शताब्दी में तुलसीदास जी की कथा मिलती है। अकबर ने राम टंका जारी किया था। अब दक्षिण कोसल पर अब आ जाते हैं। आज भी चित्रकूट से गाड़ी चलती है। यह वही प्राचीन मार्ग है। राम वन गमन पथ पर छत्तीसगढ़ और मध्य प्रदेश दोनों ही राज्य काम कर रहे है। जहाँ से राम जब छत्तीसगढ़ में प्रवेश करते हैं। भारत सरकार ने ही में छत्तीसगढ़ के दण्डकारण्य को कारण माना है। नक्सल मूवमेंट की सबसे बड़ी संस्था का नाम भी दंडकारण्य समूह है। मैं चूंकि उज्जैन का हूँ। रामगढ़ के सूतनुका नाम देव दासी के उल्लेख होता है, इस पर चर्चा करूँगा। यह पहली दूसरी शताब्दी बीसी का है। इस पर कोई संदेह नहीं है। रामायण में साल वृक्ष का उल्लेख मिलता है और छत्तीसगढ़ में सर्वाधिक मात्रा में साल के पेड़ होते है। भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण के बेग्लर और कनिंघम के रिपोर्ट में तुरतुरिया का उल्लेख मिलता है। इसमें उन दोनों ने ही माना है कि यहाँ वाल्मीकि का आश्रम हुआ करता था। स्थानीय मान्यता है कि चंद्रखुरी मंदिर, मंदिरहसौद के पास माता कौशल्या का मंदिर है। कलचुरी शासक अपने को सकल कोसलाधिपति कहते थे। बस्तर का क्षेत्र रामायण से समृद्ध रहा है। यहाँ हल्बी और गोड़ी में भी रामायण हैं। मल्हार में दो मंदिर हैं पातालेश्वर और भीम-कीचक मंदिर। इसी भीम कीचक मंदिर को लोकल भाषा में देउर मंदिर के नाम से भी जाना जाता है। यह अत्यंत महत्वपूर्ण है। डीपाडीह में सातवीं-आठवीं शताब्दी में जो पैनल मिले हैं, उसमें बाली सुग्रीव का युद्ध का शिल्पांकन है। जाँजगीर-चाँपा में विष्णु मंदिर है। उसे स्थानीय भाषा में नकटा मंदिर कहते हैं। यहाँ के सोपान में ताड़ भेदन, सीता हरण आदि का शिल्पांकन है। शिव मंदिर घटियारी में सीता-हनुमान की शिल्पांकन मिलता है। लक्ष्मण मंदिर सिरपुर में भी कैलाश आसीन उमा-महेश्ववर देखने को मिलता है। कैलाश मंदिर में तो एलोरा में इतनी बढ़िया अंकन है कि उसके नाम से ही इसका नाम कैलाश मंदिर नामकरण हुआ है। रतनपुर के किले में 10 वीं शताब्दी की प्रतिमा अत्यंत महत्वपूर्ण है। रतनपुर के किलाद्वार में रावण को नौ सिरों को काट-काट कर चढ़ा चुका है, का बहुत अच्छा शिल्पांकन है। रामेश्वरम के रामनाथपुरम के मंदिर में भी शिल्पांकन है। हरियाणा के खुदाई में मिला एक रथ मिला है। उसकी तिथि भी वही है जो महाभारत काल का है। मानवीय गतिविधियों की तिथि बहुत पीछे जा चुकी है। लगभग 10000 साल पहले तक इत्यादि बातें करते हुए मुख्य वक्ता ने अपनी बातें कहीं।

कार्यक्रम के होस्ट डा आनंदमूर्ति मिश्राजी ने कहा कि बाजपेयी सर का बहुत-बहुत धन्यवाद। आपने तिवारी जी की बातों को आगे बढ़ाया। साहित्य, पुरातात्त्विक साक्ष्य पर प्रकाश डाला। इत्यादि संक्षिप्त परिचर्चा कर उन्होंने उनके कथन पर प्रकाश डाला। उसके बाद उन्होंने अतिथि वक्ता अनंत बोध जी को अपने विचार रखने के लिए आमंत्रित किया।

आज के अतिथि वक्ता स्वामी आनंद बोध चैतन्य स्पिरिचुअल पर्सन और योगा एक्सपर्ट जोनोवा, कोनास, लिथुआनिया, यूरोप ने अपनी बातें रखते हुए कहा कि राम मेरे लिए सदैव से भगवान रहे हैं और रहेगें। आस्था और विश्वास अलग है आपकी बात अलग है, पर राम हमारे लिए भगवान ही हैं। इस पर बाजपेयी सर ने कहा कि राम हमारे लिए भी भगवान हैं। इसके बाद फिर चैतन्य जी ने फिर कहना चालू किया कि लिथुआनिया में एक सम्प्रदाय है। जिसे हम रमुवा समुदाय कहते हैं। इसकी संख्या वहाँ 5000 से अधिक हैं। उन्होंने बताया कि ये लोग राजस्थान से यहाँ आए थे। भाषा भले ही अलग है, पर राम एक ही है। अब यहाँ रमुवा संप्रदाय को मान्यता दे दी गई है। पूरा विश्व अपने मूल को जानने में लगा हुआ है। यह प्रयास कर रहा है कि कौन कहां से हैं। यहाँ अच्छा भले मानुस, सज्जन व्यक्ति को रामुस कहा जाता है रामुस का मतलब है सज्जन। रमुवा संप्रदाय का कोई प्रवर्तक नहीं है। उन्होंने अनेक लोकगीतों की रचनाएं की हैं। रमुआ लोग यहाँ पर एक ही जगह पर हैं। पहले यह जर्मनी के पास थे अब रसिया के पास है। अब यहाँ इनकी संख्या 10000 के आसपास हो गई हैं । लिथुआनिया में रमुवा संप्रदाय राम और भारत को मानते हैं । गीता का स्थानीय भाषा में अनुवाद किया है। वेदों के श्लोकों का तोड़ मरोड़ कर अनुवाद करते हैं। पूजा के समय उस स्थान को पत्तों से ढक कर रखते हैं। आपस में सब लड़ते हैं। वह राम को पवित्र मानते हैं। यहाँ एक नदी है जिसे लंकेश कहा जाता है। जैसे ही यहाँ खुदाई की जाएगी यहां और भी प्रमाण मिलेंगे।

आनंद मिश्रा जी ने ललित शर्मा जी को आमंत्रित कर उन्हें अध्यक्षीय आसंदी से विचार के लिए आमंत्रित किया। ललित शर्मा जी ने सभी अतिथियों का आभार व्यक्त करते हुए कहा कि आज का यह वेब सेमिनार बहुत अच्छे ढंग से संपन्न हुआ। तिवारी जी ने और बाजपेयी जी ने भी तथ्यों पर आधारित जानकारी दी। अनंत बोध जी का भी आभारी हूँ। उन्होंने बताया कि राम का प्रसार सभी विश्व में है। इसी के लिए इनसाइक्लोपीडिया पर काम हो रहा है। छत्तीसगढ़ में भी कार्य सतत जारी है।अगली वेब संगोष्ठी’ दक्षिण कौसल की जनजाति कला में रामायण विषय पर होगी। जिसमें मुख्य वक्ता आनंदमूर्ति मिश्राजी रहेंगे। उनके ज्ञान का लाभ हमें प्राप्त होगा। उन्होंने सभी का आभार व्यक्त करते हुए वेबीनार सम्पन्न होने की घोषणा की।

वेबीनार रिपोर्ट

हरिसिंह क्षत्री
मार्गदर्शक – जिला पुरातत्व संग्रहालय कोरबा, छत्तीसगढ़ मो. नं.-9407920525, 9827189845

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