धर्मभुमि भारत में मानव जाति को मार्गदर्शन देने के लिए समय – समय पर संत धरती पर अवतरित होते रहते हैं जो अपने ज्ञान से लोगों का मार्गदर्शन करते हैं तथा उन्हें जीवन की सही राह बताते हैं। ये संत किसी जाति विशेष के न होकर पूरी मानव जाति के लिए होते हैं। हमारे भारत में संतों की सुदीर्घ परम्परा रही है। लगभग 500 वर्ष पूर्व का समय तो भक्ति मार्ग ही कहलाता है।
संतो की इसी कड़ी में संत नामदेव हुए हैं, जिनका कार्यकाल 1270 ईस्वीं से लेकर 1350 ईस्वीं रहा है। संत नामदेव भारत के सांस्कृतिक इतिहास विशेष रूप से भक्ति परंपरा के एक केंद्रीय व्यक्तित्व हैं। संत नामदेव तेरहवीं शताब्दी के उत्तरार्ध में दक्कन के मराठी भाषी क्षेत्र में एक हिंदू परिवार में जन्मे थे। संत नामदेव का जन्म कार्तिक शुक्ल पक्ष एकादशी विक्रम संवत 1327 अर्थात 1270 ई. में ग्राम नरसी बामनी जिला परभनी (महाराष्ट्र) में हुआ था ।
संत नामदेव के पिता का नाम दयाशेठ तथा माता का नाम गोणाई था । संत नामदेव का जन्म एक सूचिक (दर्जी) परिवार में हुआ था किन्तु नामदेव का मन व्यवसाय में नहीं लगा । उनका विवाह राजाबाई के साथ हुआ था और उनको पांच संतानें भी हुईं, परन्तु उनका मन तो विट्ठल( श्रीकृष्ण) भक्ति में ही लगा रहता था । दिन-रात विठ्ठल, विठ्ठल की रट लगाए रहते थे । धीरे-धीरे स्थिति यह हो गई कि नामदेव की प्रत्येक श्वास विठोबा के नाम से चलने लगी।
बीस वर्ष की आयु में संत नामदेव की भेंट संत ज्ञानेश्वर से हो गयी । संत ज्ञानेश्वर स्वयं नामदेव से भेंट करने पंढरपुर आये थे और चंद्रभागा नदी के तट पर उनके भजन को देखकर इतने प्रभावित हुए कि दोनों संत साथ-साथ ही रहने लगे। दोनों ने मिलकर पूरे देश की यात्रा कर डाली।
संत नामदेव के जीवन के बीस वर्ष पंजाब में भगवत धर्म का प्रचार करते हुए बीते, वे करताल और एक तारा बजाते हुए मधुर स्वर में भजन गाते थे तथा ईश्वर की भक्ति करते थे। पंजाब की संत परम्परा में नामदेव प्रथम संत कहे जाते हैं। इनके शिष्यों को नामदेविया कहा जाता है। नामदेव जी का प्रभाव इतना अधिक था कि श्री गुरुग्रन्थ साहिब में उनके 61 पद, 3 श्लोक और 18 रागों को स्थान दिया गया। इनकी मृत्यु पंजाब में हुई तथा उनके नाम से घुमाणा में एक गुरुद्वारा भी है।
संत नामदेव के संदेश पूरी मानवता के लिए हैं, उनका कहना था कि – सर्वभूतों में हरि यही एक सत्य। सर्व नारायण देखते हरि॥ अर्थात् ‘सभी जीवों में ईश्वर ही सत्य है। प्रभु सभी को देख रहे हैं।’ संत-नामदेव ने पंजाब में श्री गुरु नानकदेव जी से लगभग दो सौ वर्ष पहले निर्गुण उपासना का प्रतिपादन किया । उत्तर भारत में भक्ति-भाव की संत परम्परा वाले वे आदिपुरुष दिखते हैं।
संत नामदेव का मन भक्तिभाव से भजन करने में ही लगा रहता था। उनके लिए, विट्ठल, शिव, विष्णु, पाण्डुरंग सभी एक ही हैं। सभी प्राणियों के अन्दर एक ही आत्मा है। फिर जाति का भेद कितना झूठा है:
उनकी दृष्टि बहुत व्यापक है और वे कहते हैं कि सभी प्राणियों के अन्दर एक ही राम हैं :
एकल माटी कुंजर चींटी भाजन हैं बहु नाना रे॥
असथावर जंगम कीट पतंगम घटि घटि रामु समाना रे॥
एकल चिंता राखु अनंता अउर तजह सभ आसा रे॥
प्रणवै नामा भए निहकामा को ठाकुरु को दासा रे॥ (श्री गुरु ग्रन्थसाहिब, पृ. 988)
अर्थात् ‘हाथी और चींटी दोनों एक ही मिट्टी के वैसे ही बने हैं जैसे (एक ही मिट्टी के) बर्तन अनेक प्रकार के होते हैं। एक स्थान पर स्थित पेड़ों में, दो पैरों पर चलने वालों में तथा कीड़े-पतंगों के घट-घट में वह प्रभु ही समाया है। उस एक अनन्त प्रभु पर ही आशा लगाए रखो तथा अन्य सभी आशाओं का त्याग कर दो । नामदेव विनती करता है कि हे प्रभु ! अब मैं निष्काम हो गया हूँ इसलिए अब मेरे लिए न तो कोई मालिक है और न कोई दास है अर्थात् स्वामी और दास अब एक रूप हो गए हैं।’
संत नामदेव जातिपाँति का पूर्णतया निषेध करते हैं तथा भक्तिभाव का जागरण करते हुए राम का नाम भजने को ही कहते हैं :
कहा करउ जाती कहा करउ पाति ॥ राम को नामु जपउ दिन राति॥
रांगनि रांगउ सीवनि सीवउ ॥ राम नाम बिनु घरीअ न जीवउ॥ (श्री गुरु ग्रन्थसाहिब, पृ. 485)
अर्थात् ‘मुझे अब किसी ऊँची-नीची जाति-पांति की परवाह नहीं रही क्योंकि, अब मैं दिन-रात परमात्मा का सुमिरन करता हूँ। अब मैं रंगाई और सिलाई का काम किए चला जा रहा हूँ, परन्तु प्रभु-नाम के बिना घड़ी भर भी जीवित नहीं रह सकता।’
संत नामदेव, भक्तों को भाई कह कर सम्बोधित करते हैं और राम नाम की महिमा भी बतलाते हैं। राम नाम के समक्ष सारे जप-तप, यज्ञ, हवन, जोग, तीरथ, व्रत आदि तुच्छ हैं। राम नाम से इनकी तुलना नहीं की जा सकती:
भइया कोई तुलै रे रामाँय नाम।
जोग यज्ञ तप होम नेम व्रत। ए सब कौंने काम।।
संत नामदेव को कुछ लोग निर्गुण उपासक मानते हैं, किन्तु उनका तीर्थों में विश्वास भी कम नहीं है-त्रिवेणी पिराग करौ मन मंजन । सेवौ राजा राम निरंजन ।
संत नामदेव ने मराठी में अभंग तथा हिन्दी में पदों की रचना की । संत कबीर तथा संत रैदास आदि सभी ने इनकी महिमा का गान किया है। भक्त रैदास कहते हैं :-
नामदेव कबीरु तिलोचनु सधना सैनु तरे।
कहि रविदासु सुनहु रे संतहु हरि जीउ ते सभै सरै॥ (श्री गुरुग्रन्थ साहिब, पृ० 1106)
अर्थात नामदेव, कबीर, त्रिलोचन, साधना ,सैन आदि सभी पार उतर गए हैं| रविदास कहते है कि संतजनों ध्यान से सुन लो कि वह प्रभु सब कुछ कर सकता है| संत नामदेव उस ब्रह्मा की साधना में लगे रहे जो घट – घट वासी है|
उनके समय में नाथ और महानुभाव संप्रदाय का महाराष्ट्र में प्रचार था । इनके अतिरिक्त महाराष्ट्र में पंढरपुर के ‘विठोबा’ की उपासना भी प्रचलित थी । इसी उपासना को दृढता से चलाने के लिए संत ज्ञानेश्वर ने सभी संतो को एकत्रित कर ‘वारकरी संप्रदाय’ की नींव डाली। सामान्य जनता प्रति वर्ष आषाढ़ और कार्तिक एकादशी को विठ्ठल दर्शन के लिए पंढरपुर की ‘वारी’ (यात्रा) किया करती है। यह प्रथा आज भी प्रचलित है ।
इस प्रकार की वारी (यात्रा) करने वालोंको ‘वारकरी’ कहते हैं। विठ्ठलोपासना का यह ‘संप्रदाय’ ‘वारकरी’ संप्रदाय कहलाता है । नामदेव इसी संप्रदाय के एक प्रमुख संत माने जाते हैं । आज भी इनके रचित अभंग पूरे महाराष्ट्र में भक्ति और प्रीति के साथ गाए जाते हैं । महाराष्ट्र में उनके प्रसिद्ध शिष्य हैं, संत जनाबाई, संत विष्णुस्वामी, संत परिसा भागवत, संत चोखामेला, त्रिलोचन आदि । उन्होंने इनको नाम-ज्ञान की दीक्षा दी थी । इस धरती पर जीवों के रूपमें विचरने वाले विठ्ठल की सेवा ही सच्ची परमात्मसेवा है।
संत नामदेव की समाधि अथवा देह त्याग को लेकर दो मत हैं। एक मत है कि विट्ठल मंदिर के महाद्वार पर उन्होंने समाधि ले ली। 80 वर्ष की आयु तक इस संसार में विट्ठल के नाम का जप करते-कराते पढंरपुर में विठ्ठल के चरणोंमें आषाढ कृष्ण त्रयोदशी संवत 1272 में वह स्वयं भी इस भवसागरसे पार चले गए। दूसरा मत है कि देश भर की तीर्थयात्रा के पश्चात् संत नामदेव पंजाब आ गए और दो दशकों तक वहाँ भागवत धर्म का प्रचार करते रहे और वहीं घुमाणा में उन्होंने देह त्याग किया। वास्तव में नामदेवजी का जीवन और उनकी वाणी भक्ति अमृत का वह निरंतर बहता हुआ झरना है, जिसमें हिन्दू धर्म का सहज अनुपालन करते मानवता को पवित्रता प्रदान करने की अद्भुत सामर्थ्य है।
संदर्भ :
डॉ. हेमंत विष्णु इनामदार एवं श्री. जयंत तिलक. संत नामदेव , केसरी मुद्रणालय, पुणे
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