चक्रवर्ती राजगोपालाचारी का जन्म दिसम्बर माह की दस तारीख को 1878 में मद्रास के थोरपल्ली ग्राम में हुआ था। आप राजनेता, वकील, लेखक, स्वतंत्रता सेनानी, भारत के अंतिम गवर्नर जनरल होने के साथ दार्शनिक भी थे। राजगोपालचारी को कांग्रेस के जनरल सेक्रेटरी के रूप में भी चुना गया था। अंतिम गवर्नर माउंटबेटन के बाद राजगोपालचारी भारत के पहले गवर्नर बने थे। इसके साथ ही इन्होंने संस्कृत ग्रंथ ‘रामायण’ का तमिल में अनुवाद किया।
उनका जन्म एक धार्मिक आएंगर परिवार में हुआ था। उनके पिता का नाम चक्रवर्ती वेंकटआर्यन और माता का नाम सिंगारम्मा था। बचपन में वह शारीरिक रूप से इतने कमजोर थे कि उनके माता-पिता को ऐसा लगता था कि वो शायद ही ज्यादा समय तक जी पायेंगे। उनकी प्रारंभिक शिक्षा थोरापल्ली में ही हुई।
जब वो पांच वर्ष के थे तब उनका परिवार होसुर चला गया जहाँ उन्होंने होसुर आर. वी. गवर्नमेंट बॉयज हायर सेकेंडरी स्कूल में दाखिला लिया। उन्होंने मैट्रिकुलेशन की परीक्षा सन 1891 में पास की और वर्ष 1894 में बैंगलोर के सेंट्रल कॉलेज से कला में स्नातक हुए। इसके पश्चात उन्होंने प्रेसीडेंसी कॉलेज मद्रास में कानून की पढाई के लिए दाखिला लिया और सन 1897 में इस पाठ्यक्रम को पूरा किया।
सन 1900 के आस-पास उन्होंने वकालत प्रारंभ किया जो धीरे-धीरे जम गया। वकालत के दौरान प्रसिद्ध राष्ट्रवादी बाल गंगाधर तिलक से प्रभावित होकर उन्होंने राजनीति में प्रवेश किया और सालेम नगर पालिका के सदस्य और फिर अध्यक्ष चुने गए।
देश के बहुत सारे बुद्धजीवियों की तरह वह भी भारतीय राष्ट्रिय कांग्रेस के सदस्य बन गए और धीरे-धीरे इसकी गतिविधियों और आंदोलनों में भाग लेने लगे। उन्होंने कांग्रेस के कलकत्ता (1906) और सूरत (1907) अधिवेसन में भाग लिया। सन 1917 में उन्होंने स्वाधीनता कार्यकर्ता पी. वर्दाराजुलू नायडू के पक्ष में अदालत में दलील दी। वर्दाराजुलू पर विद्रोह का मुकदमा लगाया गया था।
वह एनी बेसेंट और सी. विजयराघव्चारियर जैसे नेताओं से बहुत प्रभावित थे। जब महात्मा गाँधी स्वाधीनता आन्दोलन में सक्रीय हुए तब राजगोपालाचारी उनके अनुगामी बन गए। इसके पश्चात उन्होंने असहयोग आन्दोलन में भाग लिया और अपनी वकालत छोड़ दी। वर्ष 1921 में उन्हें कांग्रेस कार्य समिति का सदस्य चुना गया और वह कांग्रेस के महामंत्री भी रहे।
सन 1922 में कांग्रेस के गया अधिवेसन में उन्हें एक नयी पहचान मिली। उन्होंने ‘गवर्नमेंट ऑफ़ इंडिया एक्ट 1919’ के तहत अग्रेज़ी सरकार के साथ किसी भी सहयोग का विरोध किया और ‘इम्पीरियल लेजिस्लेटिव कौंसिल’ के साथ-साथ राज्यों के ‘विधान परिषद्’ में प्रवेश का भी विरोध कर ‘नो चेन्जर्स’ समूह के नेता बन गए। ‘नो चेन्जर्स’ ने ‘प्रो चेन्जर्स’ को पराजित कर दिया जिसके फलस्वरूप मोतीलाल नेहरु और चितरंजन दास जैसे नेताओं ने इस्तीफा दे दिया।
राजगोपालचारी राजाजी के नाम से भी जाने जाते हैं. उन्होंने मद्रास कॉलेज से लॉ की डिग्री हासिल की थी. राजगोपालचारी कांग्रेस के प्रमुख नेताओं में से एक थे और महात्मा गांधी के काफी करीबी माने जाते थे. 1930 में जब गांधी जी ने दांडी मार्च किया तो इन्होंने भी नमक कानून तोड़ा था.
राजनीति के साथ-साथ ही राजगोपालचारी ने भारतीय जात-पात के आडंबर पर भी गहरा चोट किया. कई मंदिरों में जहां दलित समुदाय का मंदिर में जाना वर्जित था, इन्होंने इस नियम का डटकर विरोध किया. इसके कारण मंदिरों में दलितों का प्रवेश संभव हो सका. 1938 में इन्होंने एग्रीकल्चर डेट रिलीफ एक्ट कानून बनाया ताकि किसानों को कर्ज से राहत मिल सके.
1950 में जवाहरलाल नेहरू के नेतृत्व वाली सरकार में इन्हें गृहमंत्री भी बनाया गया. 1952 में राजगोपालचारी ने मद्रास के मुख्यमंत्री के रूप में थपथ ली. स्वतंत्रता संग्राम से लेकर बाद तक देश की सेवा करने के लिए इन्हें भारत का सर्वश्रेष्ठ नागरिक पुरस्कार भारत रत्न 1954 में दिया गया. बाद में नेहरू से अपनी वैचारिक असहमति के कारण कांग्रेस से अलग हो गए. कांग्रेस से अलग होकर इन्होंने अपनी एक अलग पार्टी बनाई, जिसका नाम ‘एंटी कांग्रेस स्वतंत्र पार्टी’ रखा गया.
राजनीतिक कामों के अलावा इन्होंने राजगोपालचारी तमिल के साथ-साथ अंग्रेजी के भी बेहतरीन लेखक थे. इन्होंने सलेम लिटरेरी सोसाइटी के संस्थापक थे. अपने कारावास के समय के बारे में उन्होंने ‘मेडिटेशन इन जेल’ के नाम से किताब भी लिखी.
अपने सार्वजनिक जीवन में उन्होंने विभिन्न महत्वपूर्ण पदों पर कार्य किया। भारतीय राष्ट्रिय कांग्रेस में एक महत्वपूर्ण नेता के साथ-साथ वो मद्रास प्रेसीडेंसी के प्रमुख, पश्चिम बंगाल के राज्यपाल, भारत के गृह मंत्री और मद्रास राज्य के मुख्यमंत्री भी रहे। उन्होंने एक राजनीतिक दल, ‘स्वतंत्रता पार्टी’ की स्थापना भी की। ‘राजाजी’ के नाम से मशहूर, चक्रवर्ती राजगोपालाचारी को देश सेवा में किये गए कार्यों के लिए भारत के सर्वोच्च नागरिक सम्मान, ‘भारत रत्न’ से सम्मानित किया गया।
भारत के तत्कालीन गवर्नर जनरल माउंटबेटन के अनुपस्थिति में राजगोपालाचारी 10 नवम्बर से 24 नवम्बर 1947 तक कार्यकारी गवर्नर जनरल रहे और फिर बाद में माउंटबेटन के जाने के बाद जून 1948 से 26 जनवरी 1950 तक गवर्नर जनरल रहे। इस प्रकार राजगोपालाचारी न केवल अंतिम बल्कि प्रथम भारतीय गवर्नर जनरल भी रहे।
सन 1950 में नेहरु ने राजगोपालाचारी को अपने मंत्रिमंडल में शामिल किया जहाँ वो बिना किसी मंत्रालय के मंत्री थे। सरदार पटेल के मृत्यु के पश्चात उन्हें गृह मंत्री बनाया गया जिस पद पर उन्होंने 10 महीने कार्य किया। प्रधानमंत्री नेहरु के साथ बहुत सारे मुद्दों पर मतभेद होने के कारण अंततः उन्होंने इस्तीफ़ा दे दिया और मद्रास चले गए।
जनवरी 1957 में उन्होंने कांग्रेस की सदस्यता से इस्तीफ़ा दे दिया और मुरारी वैद्या और मीनू मसानी के साथ मिलकर सन 1959 में एक नए राजनैतिक दल ‘स्वतंत्रता पार्टी’ की स्थापना की। बाद में एन. जी. रंगा, के. एम. मुंशी और फील्ड मार्शल के. एम. करिअप्पा भी इसमें शामिल हुए। स्वतंत्रता पार्टी 1962 के लोक सभा चुनाव में 18 और 1967 के लोक सभा चुनाव में 45 सीटें जीतने में कामयाब रही और तमिलनाडु समेत कुछ और राज्यों में प्रभावशाली रही पर सत्तर के दशक में हासिये पर आ गयी।
इसके पश्चात राजगोपालाचारी लगभग दो साल तक मद्रास के मुख्यमंत्री रहे। इसके बाद उन्होंने कुछ समय के लिए सक्रीय राजनीति से सन्यास ले लिया और लेखन के कार्य में लग गए। सन 1958 में उन्हें उनकी पुस्तक ‘चक्रवर्ती थिरुमगन’ के लिए तमिल भाषा का साहित्य अकादमी पुरस्कार दिया गया। भारत सरकार ने उन्हें सन 1955 में ‘भारत रत्न’ से सम्मानित किया।
चक्रवर्ती राजगोपालाचारी का विवाह वर्ष 1897 में अलामेलु मंगम्मा के साथ संपन्न हुआ। राजगोपालाचारी दंपत्ति के कुल पांच संताने हुईं – तीन पुत्र और दो पुत्रियाँ। मंगम्मा सन 1916 में स्वर्ग सिधार गयीं जिसके बाद चक्रवर्ती राजगोपालाचारी अपने बच्चों के पालन-पोषण का भार संभाला।
उनके पुत्र चक्रवर्ती राजगोपालाचारी नरसिम्हन कृष्णागिरी लोकसभा क्षेत्र से सन 1952 से 1962 तक संसद सदस्य रहे। उन्होंने बाद में अपने पिता की आत्मकथा लिखी। राजगोपालाचारी के पुत्री लक्ष्मी का विवाह महात्मा गाँधी के बेटे देवदास गाँधी के साथ हुआ था।
15 अगस्त 1947 को देश की आजादी के साथ-साथ बंगाल भी दो हिस्सों में बंट गया। चक्रवर्ती राजगोपालाचारी को भारत के हिस्से वाले पश्चिम बंगाल का प्रथम राज्यपाल बनाया गया। नवम्बर 1972 में उनका स्वास्थ्य बिगड़ने लगा और 17 दिसम्बर 1972 को उन्हें मद्रास गवर्नमेंट हॉस्पिटल में भर्ती कराया गया, जहाँ उन्होंने 25 दिसम्बर को अंतिम सांसें लीं।
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