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सांस्कृतिक राष्ट्रवाद की स्वतंत्रता का गणतंत्र

आज का भारतीय गणतंत्र स्वतंत्रता के बाद पहली बार सांस्कृतिक राष्ट्रवाद की पुनर्स्थापना के परिप्रेक्ष्य में मनाया जा रहा है। भारतीय संविधान के निर्माता भली-भांति जानते थे कि मर्यादा पुरुषोत्तम भगवान राम के आदर्श विवादों को समाधान की ओर ले जाते हैं। इसीलिए संविधान की मूल हस्तलिखित प्रति में राम-दरबार का चित्र लगाया गया था। यथा, राम विधान और संविधान दोनो हैं।

संविधान की यही अवधारणा भारत को एक संपूर्ण प्रभुत्व संपन्न एवं लोकतंत्रात्मक गणराज्य के रूप में स्थापित करती है। यही हमारा धर्म ग्रंथ है। नागरिकों के आर्थिक एवं राजनीतिक न्याय के साथ प्रतिष्ठा एवं अवसर की समानता को भी संविधान तय करता है। समानता का यह दृष्टिकोण सांप्रदायिक और जातीय भेद को खत्म कर रहा है।

अयोध्या के राम मंदिर में बालक-राम की प्राण-प्रतिष्ठा के बाद समूचे देश और देश के बाहर जिस तरह से राममय वातावरण बना है, उसकी भाववृत्ति में सभी नागरिकों के प्रति श्रद्धा और दायित्व समान भाव से अपनाने की जरूरत है।

सनातन हिंदू संस्कृति ही अखंड भारत की संरचना का वह मूल गुण-धर्म है,जो इसे हजारों साल से एक रूप में पिरोये हुए है। इस एकरूपता को मजबूत करने की दृष्टि से भगवान परशुराम ने मध्यभारत से लेकर अरुणाचल प्रदेश के लोहित कुंड तक आतताइयों का सफाया कर अपना फरसा धोया, वहीं राम ने उत्तर से लेकर दक्षिण तक और कृष्ण ने पश्चिम से लेकर पूरब तक सनातन संस्कृति की स्थापना के लिए सामरिक यात्राएं कीं।

अतएव समूचे आर्यावर्त में वैदिक, रामायण व महाभारत कालीन संस्कृति के प्रतीक चिन्ह मंदिरों से लेकर विविध भाषाओं के साहित्य में मिलते हैं। सांस्कृतिक राष्ट्रवाद की इन्हीं स्थापनाओं ने ही दुनिया के गणतंत्रों में भारत को प्राचीनतम गणतंत्रों में स्थापित किया। यहां के मथुरा, पद्मावती और त्रिपुरी जैसे अनेक हिंदू राष्ट्र दो से तीन हजार साल पहले तक केंद्रीय सत्ता से अनुशासित लोकतांत्रिक गणराज्य थे। केंद्रीय मुद्रा का भी इनमें चलन था।

लेकिन भक्ति, अतिरिक्त उदारता, सहिश्णुता, विदेशियों को शरण और वचनबद्धता जैसे भाव व आचरण कुछ ऐसे उदात्त गुणों वाले दोश रहे, जिनकी वजह से भारत विडंबनाओं और चुनौतियों के ऐसे देष में बदलता चला गया कि राजनीति के एक पक्ष ने इन्हीं कमजोरियों को सत्ता पर काबिज होने का पर्याय मान लिया।

परंतु पिछले दस साल में न केवल देशव्यापी बल्कि विश्वव्यापी आश्चर्यजनक परिवर्तन देखने में आ रहे हैं। इनमें धारा-370 और 35-ए के खात्मे के अलावा नागरिकता संशोधन से जुड़े वे विधेयक भी हैं, जो भारत की धरती पर अवैध घुसपैठ रोकने के साथ, घुसपैठियों को देश से बाहर करने का अधिकार भी शासन-प्रशासन को देते हैं। अब राम मंदिर की पुनर्स्थापना भारतीय जनमानस को सोच-विचार के स्तर पर एकरूपता में ढालने का काम कर रही है।

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी भारत के सनातन-सांस्कृतिक मूल्यों को ढूंढने से स्थापित करने में लगे है। राम मंदिर निर्माण में मोदी की भागीदारी ठीक उसी प्रकार की है, जैसी सोमनाथ मंदिर के निर्माण और उद्घाटन के समय तत्कालीन राष्ट्रपति डॉ राजेंद्र प्रसाद ने दिखाई थी।

वस्तुतः जिस तरह से रामलला की मूर्ति के प्राण-प्रतिष्ठा समारोह में मोदी की भागीदारी से शंकराचार्यों और विपक्षी दलों ने आपत्ति जताई थी। उसी तरह कि आपत्ति तत्कालीन प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू ने डॉ राजेंद्र प्रसाद द्वारा सोमनाथ मंदिर के उद्घाटन समारोह में भागीदारी करने पर 13 मार्च 1951 को लिखे पत्र के माध्यम से प्रकट की थी।

नेहरू ने लिखा था ‘आपकी सोमनाथ मंदिर यात्रा राजनीतिक रूप ले रही है। यह सरकारी कार्यक्रम नहीं है। इसलिए उन्हें इसमें नहीं जाना चाहिए।‘ दरअसल नेहरू नहीं चाहते थे कि राजेंद्र प्रसाद के राष्ट्रपति पद पर रहते हुए, वे किसी धार्मिक अनुष्ठान में भागीदारी करें। परंतु मजबूत आत्मबल और इच्छा शक्ति के धनी राजेंद्र प्रसाद ने नेहरू की बात नहीं मानी और 11 मई 1951 को सोमनाथ ज्योतिर्लिंग मंदिर के उद्घाटन महोत्सव में सम्मिलित हुए।

नेहरू के पत्र का उत्तर देते हुए प्रसाद ने लिखा था, ‘ मैं अपने धर्म को बहुत मानता हूं। इससे स्वयं को अलग नहीं कर सकता हूं।‘ यदि यही दृढ़ता हमारे पूर्व शासकों में रही होती तो अब तक राम मंदिर समेत वाराणसी और मथुरा के मुद्दों का संविधान-सम्मत समाधान हो गया होता।

अब तक के भारतीय इतिहास की आत्मा और देश के सांस्कृतिक इतिहास का पुनर्जागरण राम और कृष्ण के संदेशों के माध्यम से ही होता रहा है। अतएव रामायण हो या श्रीमद् भगवद् गीता इनमें उल्लेखित धर्म से अनुशासित आचरण शासक-प्रशासक को उनके अधिकारों के साथ कर्तव्यों से भी परिचित कराते रहे है। इसलिए जब-जब विदेशी आक्रांताओं से भारत आहत हुआ है, तब-तब हिंदू समाज को इन्हीं ग्रंथों से अपनी पुनर्स्थापना के लिए आत्मबल मिलता रहा है।

कविताओं में लिखी गईं भारतीय महामानवों की ये कहानियां कई शताब्दियों से भारत की प्रत्येक युवा पीढ़ी के मन-मस्तिष्क में अभिभावकों द्वारा उतारी जाती रही हैं। इन्हीं प्राण-तत्वों की प्रतिष्ठा करके उनमें अपने धर्म और संस्कृति के प्रति स्वाभिमान और चेतना जगाए रखने का काम करती रही हैं।

इसी चेतना का परिणाम रहा कि अखंड भारत न तो कभी पूरी तरह परतंत्र हुआ और न ही सांस्कृतिक मूल्यों को भूल पाया। हमारी संस्कृति के धर्म के स्वरूप में जो राम, कृष्ण और शिव के आधार स्तंभ थे, उन्हें अनेक आक्रमणों के बावजूद बलिदानियों ने पूरी तरह नष्ट नहीं होने दिया। उनके अवशेष और उनकी पहचान हमेशा अक्षुण्ण रहे। अतएव इन्हीं अवशेषों के आधार पर सोमनाथ में शिव और अयोध्या में राम मंदिरों की पुनर्स्थापना हुई। इसलिए कहा जा सकता है कि 22 जनवरी 2024 का दिन हमारी धार्मिक-सांस्कृतिक स्वतंत्रता का भी दिन है।

इसी तरह के बदलाव की चेतना मुगल काल में दिखाई दी थी। जब तुलसी, सूरदास और कबीर ने इस्लामिक आक्रांताओं का दमन और धर्म परिवर्तन के लिए दबाव से साक्षात्कार किया तो मध्यकाल के ये भक्तिकालीन कवि उद्वेलित हो उठो। रामचरित मानस सहित इन कवियों के अन्य रचना संसार ने आहत चेतना को ऊर्जा दी और स्वाभिमानी भारतीय इन आक्रांताओं के विरुद्ध संघर्षरत दिखाई देने लगा।

भारतीय सनातन चेतना जगाने वाले इस साहित्य को वामपंथियों ने धर्म की अफीम बताकर नकारने की कोशिश भी की। परंतु इसी साहित्य से मिली चेतना की परंपरा स्वतंत्रता संग्राम के दौरान भी देखने में आई थी। इसीलिए इसे भारतीय स्वाभिमान की जागृति का संग्राम भी कहा जाता है।

राजनीतिक दमन और आर्थिक शोषण के विरुद्ध लोक-चेतना का यह प्रबुद्ध अभियान था। यह चेतना उत्तरोतर ऐसी विस्तृत हुई कि समूची दुनिया में उपनिवेशवाद के विरुद्ध मुक्ति का स्वर मुखर हो गया। परिणामस्वरूप भारत की आजादी एशिया और अफ्रीका की भी आजादी लेकर आई।

भारत के स्वतंत्रता समर का यह एक वैश्विक आयाम था, जिसे कम ही रेखांकित किया गया है। इसके वनिस्पत फ्रांस की क्रांति की बात कही जाती है। निसंदेह इसमें समता, स्वतंत्रता एवं बंधुता के तत्व थे, लेकिन एशिया, अफ्रीका और दक्षिण अमेरिका की अवाम उपेक्षित थी।

अमेरिका ने व्यक्ति की निजी स्वतंत्रता और सुख के उद्देश्य की परिकल्पना तो की, परंतु उसमें स्त्रियां और हब्शी गुलाम बहिष्कृत रहे। मार्क्स और लेनिनवाद ने एक वैचारिक पैमाना तो दिया, किंतु वह अंततः तानाशाही साम्राज्यवाद का मुखौटा ही साबित हुआ।

इस लिहाज से स्वामी विवेकानंद और महात्मा गांधी के ही विचार थे, जो समग्रता में न केवल भारतीय हितों, बल्कि वैश्विक हितों की भी चिंता करते थे। इसी परिप्रेक्ष्य में विनायक दामोदर सावरकर ने प्रखर हिंदुत्व और दीनदयाल उपध्याय ने एकात्म मानववाद एवं अंत्योदय के विचार दिए, जो संसाधनों के उपयोग से दूर अंतिम छोर पर खड़े व्यक्ति के उत्थान की चिंता करते हैं।

:लेखक, वरिष्ठ साहित्यकार और पत्रकार हैं।

आलेख

प्रमोद भार्गव
लेखक/पत्रकार
शब्दार्थ 49 श्रीराम कॉलोनी
शिवपुरी म.प्र.
मो. 09425488224, 9981061100


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