महारानी लक्ष्मी बाई बलिदान दिवस विशेष
नारी सिर्फ़ कोमलांगी, त्याग या करुणा की मूर्ति ही नहीं है, इसके द्वारा किये पुरुषोचित कार्यों से इतिहास भरा पड़ा है। शक्ति एवं सुंदरता का संयोजन ईश्वर ने नारी को ही दिया। युद्ध स्थल में नारी की बहादूरी के सामने बड़े-बड़े शूरमा दांतों तले अंगुली दबा लेते हैं। फ़िर भी इसने अपने संस्कारों को संरक्षित रखते हुए समाज के समक्ष उच्च आदर्श प्रस्तुत किया।
कवि प्रकाश वीर त्यागी ने शौर्य वर्णन करते हुए कहा है- “वह भी शृंगार रचाती थी, पर कमर कटारी कसी हुई, देश प्रेम की भावना थी, उसकी रग रग में बसी हुई।“ शृंगार के साथ आत्मरक्षा का कितना सुंदर संयोजन कवि ने अपने भावों में किया है। नारी अगर अपनी करनी पर आ गई तो बड़े-बड़े सिंहासनों की चूलें हिलाकर रख दी। ऐसी ही एक नारी थी झांसी की रानी, जिसके शौर्य के चर्च सहत्राब्दियों तक लोक प्रचलित रहेंगे।
मणिकर्णिका यानि मनु नाम था उसका। जन्म बनारस के मराठी ब्राह्मण परिवार में 19 नवम्बर 1928 में हुआ था। इसके पिता मोरोपंत तांबे जो पेशवा बाजीराव द्वितीय के सेवक थे और माता भागीरथी बाई कुशल गृहणी, सुसंस्कृत एवं धार्मिक प्रवृति की महिला थीं। माता के मुख से शौर्य गाथाएं सुनकर देश प्रेम की भावना बचपन से ही थी।
चार वर्ष की आयु में ही भागीरथी बाई का देहांत हो गया। मनु की देख-रेख करने वाला नहीं होने के कारण पिता के साथ पेशवा दरबार में समय बीतने लगा। तात्याटोपे, नाना साहब जैसे साथियों संग मिला, जहाँ मनु इनके साथ घुड़सवारी, सैन्य कौशल, मोर्चाबन्दी, मल्ल विद्या में पारंगत होने लगीं। पेशवा बाजीराव मनु को प्यार से छबीली कहते थे।
सन् 1842 में झांसी के राजा गंगाधर राव नेवलकर के साथ विवाह हुआ और उन्हें लक्ष्मी बाई नाम मिला। 1851 में लक्ष्मी बाई ने एक पुत्र को जन्म दिया, जिसका नाम दामोदर राव रखा गया। दुर्भाग्य से चार माह की आयु में पुत्र की मृत्यु हो गई। इस सदमे से गंगाधर राव अस्वस्थ्य रहने लगे, अपनी बिगड़ती सेहत को देख उन्होंने आनंद राव को गोद लेने का निर्णय लिया।
21नवम्बर 1853 को गंगाधर राव का निधन होने के पश्चात रानी लक्ष्मी बाई ने झाँसी की बागडोर संभाली। ईस्ट इण्डिया कंपनी के राजनितिक एजेंट मेजर एलिस की मौजूदगी में गोद लेने की प्रक्रिया दस्तावेज और वसीयत तत्कालीन गवर्नर लार्ड डलहौजी तक पहुंचाये गये। लार्ड डलहौजी ने गोद की नीति के अंतर्गत दत्तक पुत्र दामोदर राव को गोद लेना अस्वीकृत कर दिया क्योंकि अंग्रेज झाँसी में शासन करना चाहते थे।
उन्होंने झाँसी को अपने राज्य में मिलाने की घोषणा भी कर दी। तब रानी ने कहा “मैं अपनी झाँसी नहीं दूँगी।”रानी ने मशहूर ऑस्ट्रेलियन वकील लैंग जॉन जो भारत में ईस्ट इंडिया कंपनी की ताना शाही के खिलाफ पैरवी करने के लिए जाना जाता था, उसके द्वारा लंदन में याचिका दायर करवाई परंतु याचिका खारिज कर दी गई। झाँसी की रानी को 60000 रुपये पेंशन लेने व् झाँसी का किला खाली करने का आदेश दिया गया। पेंशन लेना अस्वीकार कर रानी नगर के राज महल में निवास करने लगीं।
झाँसी को बचाने के लिए गुलाम ग़ौस खान, दोस्त खान, खुदाबख़्श, मोती भाई, दीवान रघुनाथ सिंह, दीवान जवाहर सिंह से मदद लेकर 14000 बागियों की सेना तैयार की। अंग्रेजों के शासन से उत्तरी भारत के नवाबों एवं राजे- महाराजों में असंतोष पनपने से विद्रोह की आग सुलग उठी।
ऐसे सुअवसर में रानी ने अंग्रेजों के विरुद्ध विद्रोह की योजना बनाई जिसमे नवाब वाजिद अली शाह की बेगम हजरत महल, जीनत महल, बहादुर शाह जफ़र, नाना साहब के वकील अजीमुल्ला, शाहगढ़ के राजा, वानपुर के राजा मर्दन सिंह व तात्या टोपे से सहयोग लिया। सम्मिलित विप्लव की तिथि सम्पूर्ण देश में 31 मई 1857 तय की गई।
परंतु मेरठ और कानपूर में भीषण विप्लव हो गया। जनरल ह्यूरोज ने नृशंसतापूर्वक अत्याचार करते हुए विद्रोह को दबाने का प्रयास किया और झाँसी की ओर बढ़े। 23 मार्च 18578 को झाँसी का ऐतिहासिक युद्ध शुरू हुआ। गुलाम गौस खां जो कुशल तोपची थे उन्होंने ने रानी के निर्देशानुसार तोपों से लक्ष्य भेदी गोले दागे जिससे अंग्रेजों के हौसले पस्त हो गए।
रानी ने बड़ी वीरता और बहादुरी से पुत्र दामोदर राव को पीठ पर बांध घोड़े पर सवार होकर अपनी छोटी सी सशस्त्र सेना के साथ युद्ध किया। इसके पश्चात कालपी की और प्रस्थान किया। अंग्रेजों ने रानी का पीछा किया रानी का घोड़ा बुरी तरह घायल होकर वीर गति को प्राप्त हुआ।
महारानी ने तात्या टोपे के साथ योजना बनाकर ग्वालियर पर आक्रमण कर अधिकार में ले लिया।18 जून 1858 को ग्वालियर का अंतिम युद्ध हुआ, रानी ने अपनी सेना का कुशल नेतृत्व किया और बुरी तरह घायल हो कर वीर गति को प्राप्त हुईं।
जनरल ह्यूरोज ने झाँसी की रानी लक्ष्मी बाई की बहादुरी पर 4 जून 1858 को कहा था – “अगर भारत की एक फीसदी महिलाएं इस लड़की की तरह आज़ादी की दीवानी हो गईं तो हम सबको यह देश छोड़कर भागना पड़ेगा।”
रानी लक्ष्मी बाई भारत भूमि की गौरव बढ़ाने वाली देश भक्त आदर्श वीरांगना थीं। अदम्य साहस एवं शौर्यता तथा वीरता के कारण ही कवयित्री सुभद्रा कुमारी चौहान ने मर्दानी कहा –
“बुंदेलों हरबोलों के मुख हमने सुनी कहानी थी
खूब लड़ी मर्दानी वह तो झाँसी वाली रानी थी।“
रानी लक्ष्मी बाई स्वच्छन्द विचारों वाली थीं, धार्मिक एवं सैन्य कार्य में निपुण होने के कारण उन्होंने किले के अंदर ही व्यायाम शालाएं बनवाईं। जहां शस्त्र विद्या एवं घुड़सवारी में प्रशिक्षित कर महिला सेना खड़ी की। जिसका संचालन स्वयं मर्दानी पोशाक में करती थीं। लक्ष्मी बाई ने झाँसी की रक्षा के लिये सुदृढ़ मोर्चा बंदी व् सैन्य संगठन तैयार किया था। घोड़ों की अच्छी परख तो थी ही साथ प्रजा के हित को विशेष ध्यान रखतीं थी।
रानी लक्ष्मी बाई नारी सशक्तिकरण का जीवंत उदाहरण है। देश भक्ति एवं वीरता तथा आत्मसम्मान का प्रतीक हैं। महिलाओं की प्रेरणा स्रोत एवं आदर्श हैं जो जीवन के हर क्षण में कठिन परिस्थतियों से सामना करने का मार्ग दर्शन करती हैं। महिलाओं को आज भी उनके साहसिक कार्यों के लिए रानी लक्ष्मी बाई कह कर संबोधित किया जाता हैं।
रानी लक्ष्मी बाई की वीरता का लोहा अंग्रेजों ने भी मान लिया था। एक अंग्रेज अफसर ने लिखा -“वो बहुत अद्भुत और बहादुर महिला थी, यह हमारी ख़ुश किस्मती थी की उसके पास उसी के जैसे आदमी नहीं थे ।”
रानी का भारत को गुलामी की जंजीरों से मुक्त कराने के 1857 के स्वतंत्रता संग्राम में बहुत बड़ा योगदान था। अंग्रेजों के विरुद्ध रण युद्ध में प्राणों की आहुति देने वाले योद्धाओं में वीरांगना महारानी लक्ष्मी बाई का नाम व स्थान सर्वोपरि है और उन्हें सदियाँ याद रखेंगी। उनकी वीरता की कहानी देश भक्त भारतीयों का आज भी मार्ग दर्शन करती है।
धन्यवाद 🙏💐 बहुत सुन्दर प्रस्तुति ✍️✍️✍️🌷