प्रकृति को सहेजती सनातन परंपरा और धार्मिक रीति-रिवाजों में हमारी भावनाएं मूर्त रूप ले लेती हैं, इन्हीं भावों को साकार करते हैं हमारे पर्व। भारत की गोधन संस्कृति में गाय और गोवंश जीवन जगत की मूलाधार रही है। गाय गौ माता और खेती किसानी में बैल किसानों के जीवन का महत्वपूर्ण हिस्सा बने हैं। मानव और पशु जीवन का सहसंबंध हमारे तीज- त्योहारों में मुखरित हो उठते हैं। पोला पर्व में बैलों को देव तुल्य मानकर पूजा जाता है।
भाद्रपद कृष्ण अमावस्या का पोला त्यौहार छत्तीसगढ़ महाराष्ट्र, मध्यप्रदेश, कर्नाटक में विशेष तौर पर मनाया जाता है। कुशोत्पाटिनी अमावस्या, अघोरा चतुर्दशी भी इस दिन मनाईं जाती है। कर्नाटक में बेंदूर नाम से मनाया जाता है। इसे पिठौरी अमावस्या भी कहा जाता है जहां माताएं अपने पुत्रों की दीर्घायु के लिए चौसठ योगिनी और पशुधन की पूजा करती हैं।
पोला पर्व के साथ महाभारत काल की कथा भी जुड़ी है। भगवान कृष्ण को मारने के लिए कंस ने कई राक्षसों को गोकुल भेजा। एक-एक कर सारे राक्षसों को कृष्ण ने अपनी लीला से मार डाला। कंस ने पोलासुर राक्षस को भेजा जिसे कृष्ण ने अपनी लीला से मार डाला और इस दिन से पर्व मनाया जाने लगा।
छत्तीसगढ़ में मान्यता है कि इस दिन अन्न माता गर्भ धारण करती है। बैगा, मुखिया पोला त्यौहार की पूर्व रात्रि को गांव की सीमा के बाहर ‘गर्भ पूजन’ करते हैं। प्रकारांतर से धान की बालियों में दूध भरता है जिसे गर्भधारण कहा जाता है। पोला पर्व के दिन खेती किसानी का कोई काम नहीं किया जाता।
त्यौहार के एक दिन पहले बैलों को नहलाया जाता है। शाम को पूजा की थाली खेत ले जाई जाती है जिसने ज्वार, मक्का आदि का भोग व अनेक सामग्री रखी जाती है फिर बैलों के कानों में कहा जाता है कि “कल आप खाने पर आमंत्रित हैं।”
बैलों की पूजा के पूर्व उन्हें नहला कर तेल, हल्दी लगाई जाती है। कांधों पर मक्खन का लेप लगा सींगों को रंगा जाता है। कौड़ी और घुंघरू से उन्हें आभूषित किया जाता है। बैलों का साज- सिंगार कर उनकी आरती उतारी जाती है और भोग दिया जाता है। पोला पर्व में बैल दौड़ प्रतिस्पर्धा हर गांव में आयोजित की जाती है।
छत्तीसगढ़ में पोला के दिन महिलाएं अपने मायके आ जाती हैं जो अपने पति की दीर्घायु की कामना करती हुई निर्जला व्रत रखती हैं। घर -घर बनते पकवानों में ठेठरी, खुरमी विशेष रूप से बनाई जाती है। महाराष्ट्र में पूरनपोली और खीर पकाई जाती है। बैलों को पकवानों का भोग खिलाया जाता है।
लड़कियां घर-गृहस्ती की सीख लेती हुईं रसोई में आने वाले मिट्टी के खिलोनौ से खेलती हैं। चूल्हा, कड़ाही, करछुल, चक्की आदि मिट्टी से बने खिलौने बाजार में से उठते हैं। लड़के मिट्टी के बैल जिसमें मिट्टी के चार चक्कों को बांस की खपच्चियों से लगाया जाता है जिस की पूजा कर लड़के नांदिया बैल दौड़ाते हैं।
पोला की शाम लड़कियां गांव के बाहर मैदान या चौराहे पर जहां नंदी बैल या साहड़ा देव की प्रतिमा होती है वहां जाकर पोरा पटकती हैं। सभी अपने-अपने घरों से मिट्टी का एक एक खिलौना पटक कर फोड़ते हैं और पकवान खाते हैं और फिर मैदान में खेल शुरू हो जाता है कहीं कबड्डी खो-खो तो कहीं सुरपाटी भी खेला जाता है। घर- गृहस्थी की सीख, खेती किसानी के लिए बैलों को संजोता पोला पर्व बड़े हर्षोल्लास के साथ गांव गांव मनाया जाता है।
आलेख
शानदार लेख। बधाई।