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बस्तर के जनजातीय समाज में नारी का स्थान एवं योगदान

आज जब समाज, साहित्य, सिनेमा में सर्वत्र नारी विमर्श जारी है, उनकी अस्मिता, उनके अधिकार और संरक्षण के लिये मनन-चिन्तन किया जा रहा है। ऐसे समय में बस्तर का सबसे बड़ा वनवासी समाज शान्त है। जैसे यह विषय उसका है ही नहीं, जैसे उसे इससे कुछ लेना-देना ही नहीं है, यही जनजातीय समाज की सबसे बड़ी विशेषता है। उसे इस बात से कोई फर्क नहीं पड़ता कि कोई उसके विषय में क्या सोचता है? उसके लिये यह भी महत्वपूर्ण नहीं है कि वह अपने समाज की महिलाओं के विषय में क्या विचार रखता है? उसके लिये महत्व इस बात का है कि उसके पूर्वजों ने उसे यह समाज किस रूप में सौंपा था, उसे वह किस तरह से सहेज कर रखा है।

वनवासी समाज आज जिस भी रूप में है, उसे उसके पूर्वजों ने उसी तरह आज की पीढ़ी को सौंपा था। उसी सामाजिक व्यवस्था का पालन वनवासी समाज आज भी कर रहा है यह उनके पुरखों की व्यवस्था है, इसमें परिवर्तन की नाम मात्र की भी गुंजाईश नहीं है। वनवासियों की सामाजिक व्यवस्था में स्त्री-पुरूष की भूमिका स्पष्ट है और उससे किसी को कोई शिकायत भी नहीं है।

सामुदायिक जीवन-यापन करने वाले वनवासी समाज में महिला-पुरूष की समान भागीदारी होती है, सबके कार्य बँटे होतें है, सभी अपने कार्यों को पूरी जवाबदारी से करते हैं। समाज में महिला-पुरूष को उनके कार्यों के अनुसार समान अधिकार प्राप्त है। जिसे जो कार्य दिया गया है, वह वही कार्य करेगा और समय पर करेगा।

वनवासी समाज में सामाजिक कार्यों में जहाँ पुरूष वर्ग की प्रधानता होती है, वहीं घर-परिवार और रिश्तेदारी में महिलाओं का वर्चस्व। इसलिये देखने वालों को लगता है कि वनवासी समाज मातृ सत्ता प्रधान हैं। परन्तु ऐसा है नहीं, सामाजिक कार्यों की समस्त जवाबदारी पुरूष वर्ग ही निभाता है। वह सामूहिक निर्णय लेने के लिये सामाजिक बैठक करता है। इन बैठकों में महिलाओं की उपस्थिति अनिवार्य नहीं होती।

केवल उन्हीं बैठकों में महिलायें भाग लेती हैं जिसमें अनुपस्थिति के लिए दण्ड का प्रावधान किया गया हो। साल भर होने वाले देवता सम्बन्धी कामों में महिलाओं की उपस्थिति जरूरी नहीं हैं। महिलायें देव कार्यो में गुड़ी (मंदिर) के प्रांगण तक ही सीमित होती है। इनका काम देव कामों के लिए केवल दोना-पत्तल बनाने का होता है।

जनजातीय समाज कानूनन स्वशासी विधि से शासित होते है। अर्थात इनके समाज में जो मान्य परम्परायें है, उसी के अनुसार उन्हें अधिकार प्राप्त है और इन परम्पराओं को भारत का कानून मान्यता प्रदान करता है। जैसे वनवासी समाज में लड़कियों को पिता की सम्पति पर कोई अधिकार नहीं होता है परन्तु पिता की केवल लड़कियाँ ही संतान होने पर सम्पति उनके मध्य बराबर बाँटी जाती है। जब परिवार में कोई लड़का नहीं होता तभी लड़कियों को पिता की सम्पति मिलती है।

ऐसे में चाचा के या बड़े पिता के लड़को को सम्पति का कुछ हिस्सा देना पड़ता है। यह इसलिए कि वनवासी समाज में उस परिवार की कुलदेवी और आना कुड़मा (गाँव में एक ऐसा स्थान जहाँ एक गोत्र के मृतको की आत्मा का वास माना जाता है) में स्थापित डुमादेव (पितृदेव) सम्बन्धित सभी काम उस खानदान के लड़कों द्वारा ही सम्पादित किये जाने की परम्परा है। यही कारण है कि लड़कियों को अपने चचेरे भाईयों को हिस्सा देना पड़ता है।

यहाँ यह बताना आवश्यक है कि चचेरे भाई के लड़के से अपनी बेटी की शादी बहन को करना होता है। उस स्थिति में उसे अपने भाँजे को सारी सम्पति लौटानी पड़ती है। इसे दूध लौटाना कहा जाता है। यहाँ एक बात गौर करने योग्य है कि जब किसी विवाद का निपटारा सामाजिक बैठक में सम्भव नहीं होता, तभी अन्य उपाय करने का निर्देश दिया जाता हैं।

एकाएक पीड़ित पक्ष को कानून के सामने जाने का अधिकार नहीं है, चाहे उसके साथ कितना ही बुरा क्यों न हुआ हो। यदि कोई ऐसा करता है तो उसे समाज से बहिष्कृत तक कर दिया जाता है और दण्ड अलग से भुगतना पड़ता है। किसी विवाद में यदि थाना कचहरी हुआ है, तब भी उस विवाद को सामाजिक बैठक में निपटाने की पूरी कोशिश की जाती है, ताकि सामाजिक समरसता बनी रहे।

बस्तर के वनवासी समाज में लड़कियाँ अपनी पसन्द से जीवन साथी का चुनाव कर सकती हैं मगर अनेक बाधाओं को पार करने के बाद। इस चुनाव में सबसे पहली बाधा गोत्र की आती है। आदिवासी समाज में सम गोत्रीय विवाह सर्वथा वर्जित है। सम गोत्रीय लड़का-लड़की भाई बहन होते हैं, इनके मध्य किसी भी प्रकार के सम्बन्ध को समाज मान्यता नहीं देता।

गोत्र की बाधा पार करने के बाद उसे यह देखना होता है कि उसके मामा या फूफा का कोई लड़का तो नहीं है, कारण कि लड़की पर सबसे पहला हक मामा या फूफा के परिवार का होता है और यह परिवार चाहता है कि लड़की उसके घर की बहू बने, जिससे उनका पारिवारिक सम्बन्ध और भी मजबूत हो। इस परिवार में शादी योग्य लड़का नहीं होने से उसे वर चयन का अधिकार मिल जाता है।

अब उसके सामने यह प्रश्न रहता है कि वह अपनी इच्छा, माता-पिता को कैसे बताये? इसके लिये दो उपाय है। पहला तो लड़का-लड़की आपसी सहमति से घर से भाग जाते हैं, तब उन्हें लाकर माता-पिता शादी कर देते हैं। दूसरे उपाय के रूप में लड़की बिना शादी या किसी को बिना बताये लड़के के यहाँ चली जाती है, इसे पैठू जाना कहते हैं।

यदि किसी परिवार में लड़की पैठू आती है और उस परिवार को जानकारी होने से कि उसके लड़के लिये लड़की पैठू आई है, तब वह परिवार अपने रिश्तेदारों को लेकर लड़की के घर जाते हैं। लड़की के माता-पिता को सारी जानकारी देते हैं। मान लीजिये लड़की के पिता के द्वारा लड़की के बचपन में यदि माहला (सगाई) कर दी गई होती है, तब उस परिवार को सगाई खर्च दिया जाता है।

वर्तमान में समाज का संभागीय संगठन बन जाने के बाद इस खर्च की राशि निश्चित कर दी गयी है, वरना इसी बात पर विवाद झगड़े का रूप ले लेता था। वनवासी समाज पैठू जाने को बुरा नहीं मानता है। समाज इसके द्वारा लड़की को अपने जीवन साथी के साथ जीवन बिताने की छूट देता है। पैठू केवल समाज के बीच में ही सम्भव है, इस बात का ख्याल रखा जाता है।

जनजातीय समाज के प्रति महिलाओं के कर्तव्य सुनिश्चित हैं और महिलाएँ उनका पालन बहुत ही सहजता से, बड़े गर्व के साथ करती हैं। घर-परिवार की जवाबदेही महिलायें बखूबी निभाती हैं, उन्हें क्या करना है क्या नहीं करना है, वे अच्छी तरह से जानती हैं। जैसे प्रत्येक परिवार में एक पवित्र कमरा होता है, जहाँ नुकांग अड़का (चावल हण्डी) रखी होती है। यहाँ उस कुल की कुलदेवी और डुमादेव (पितृदेव) स्थापित होते हैं। इस कमरे में बहन, बेटी का प्रवेश वर्जित है, केवल वे महिलाएँ ही जाने की पात्र होती हैं, जो उस परिवार में बहू बनकर आई होती हैं।

ऐसी महिलायें विधवा होने के पश्चात भी वे उस कमरे में आ जा सकती हैं, दिया जलाती है, पूजा कर सकती है। यह कार्य उस घर की वही बहू कर सकती है, जिसका पहला पुत्र उत्पन्न होता है। यदि किसी परिवार में पहली बहू आती है और उसकी पहली संतान लड़की होती है, तब उसे अपने कुल देवता और पितृदेव से एक अनुष्ठान कर अनुमति लेनी पड़ती है। बाद में देवाज्ञा से वह उस कमरे में जा सकती है और पूजा कर सकती हैं।

इसी तरह कोठार (खलिहान) में भी पाबन्दी है। इस जगह किसी भी महिला के आने जाने की मनाही है। इसके पीछे यह मान्यता है कि कृषि उपज को काटने के बाद जब कोठार में संगृहीत किया जाता है, तब यहाँ डोकरा की स्थापना की जाती है। डोकरा वे रक्षक देव होते है जो फसल पकने के बाद से उसकी रक्षा करते हैं, ये देव डुमादेव (पितृदेव) और माटीया या कोडो (पवित्र आत्मा) होते है।

खलिहान की लिपाई-पोताई भी पुरूष वर्ग द्वारा ही की जाती है यहाँ तक कि इन देवों के भोग के लिए भात भी पुरूष वर्ग ही बनाता है। धान या अन्य उपज की मिजांई पुरूष वर्ग करते हैं और उसे चावल हाँडी वाले कमरे में उनके द्वारा ही संगृहीत किया जाता है। यही कारण है कि वनवासियों के खलिहान घर के किनारे या खेतों में बनाये जाते हैं। कोठार में स्थापित रक्षक देव एकाकी और ब्रह्मचारी होते हैं।

वनवासी समाज की आस्था और विश्वास से जुड़ी सभी मान्य परम्पराओं का निर्वहन पुरूष वर्ग के साथ महिलायें भी सहजता से करती हैं। गाँव के एक ओर जितने भी खेत होते हैं, उन्हें डण्ड कहा जाता है। उस डण्ड में रावबाबा विचरण करते हैं और एक निश्चित स्थान में विश्राम करते हैं। यह चरू बेड़ा (खेत) कहलाता है, इस जगह महिलाएँ नहीं जाती हैं, क्योंकि रावबाबा एकाकी और ब्रह्मचारी देव हैं, जिनको आदर दिया जाता हैं।

रावबाबा का वास साजा या साज वृक्ष जिसे हल्बी बोली में आदन गोण्डी बोली में मर्दमरा ओर आम बोली में रावरूख कहा जाता है में माना गया है। इस वृक्ष के नीचे महिलाएँ नहीं जाती है। यह वृक्ष यदि घर बाड़ी में है, तब महिलायें उसके पास बाल नहीं संवारती न ही उसकी तरफ मुँह करके सोती हैं।

इसी तरह आदिवासी समाज में रजस्वला महिलाओं के साथ अछूतों जैसा व्यवहार किया जाता हैं। ऐसी महिलाओं के लिए प्रत्येक घर में एक कमरा अलग से होता है, जहाँ ये महिलायें उस समय में रहती हैं। खाना सोना उठना बैठना सभी काम उस कमरे में ही करती हैं। यह बहुत ही लज्जा-जनक स्थिति होती है इसलिये ऐसी महिलाये बाहर के सारे काम करती हैं। जैसे लिपना, पोताई करना बाड़ी, में सफाई करना, गाय चराना आदि।

दक्षिण बस्तर में पहली बार रजस्वला होने वाली लड़की के लिये और कठोर नियम हैं, उसे घर के बाहर कभी-कभी तो जंगल में रहना पड़ता है। यह बहुत ही कष्टप्रद होता है परन्तु इसका पालन प्रत्येक परिवार की लडकियाँ करती हैं। वनवासी समाज का मानना है कि इस समय महिलायें अपवित्र होती हैं और उनके इष्टदेव, कुलदेव, पितृदेव और रक्षकदेव गाँव में जगह-जगह विराजित होते हैं। रजस्वला महिलाओं से अनजाने में ही उनका अपमान हो जाने के डर से ऐसे उपबन्ध करना आवश्यक था। इस तरह के नियम का पालन सभी महिलायें स्वतः और स्वेच्छा से करती हैं।

बस्तर के वनवासी समाज में महिला-पुरूष के कार्य बँटे हुये होते हैं, जिसका जो काम है उसे वही काम करना पड़ता है। खेतों में हल जोतना, खेत समतल करना, मेड़ बनाना आदि मेहनत के काम सब पुरूषो द्वारा किया जाता है। महिलाये निदाई, गुड़ाई फसल काटना आदि कार्य करती है। वनवासी समाज में लड़की-लड़कों में अन्तर नहीं किया जाता है, यहाँ लड़कों से ज्यादा लड़कियो को महत्व दिया जाता है। इसका कारण भी है भले लड़कियाँ घर के लिए आर्थिक उपार्जन नहीं करती पर उसमें सहयोग जरूर करती हैं।

जब घर की महिलायें खेत जाती हैं, जब वनोपज संग्रहण के लिये जाती हैं, तब वे ये लड़कियाँ घर के, बाल-बच्चों की देखभाल कर अपने माता-पिता के कामों में सहयोग करती हैं। इतना ही नहीं वे पानी लाने से लेकर बर्तन माँजने झाड़ू लगाने जैसे सभी कामों में मदद करती है। वनवासी समाज लड़कियों पर ज्यादा विश्वास करता है, क्योंकि वे मितव्ययिता के साथ घरेलू खर्च करती हैं। हाट-बाजार से घरेलू उपयोग के सामान लाती हैं। इतना ही नहीं गाहे-बगाहे अपने पिता और भाई की आर्थिक मदद करती हैं।

जनजातीय समाज में महिलाएँ घर परिवार की सारी जवाबदेही उठाती हैं, इससे पुरूष वर्ग को समाज और देव काम करने का पूरा समय मिल जाता है। वनवासी समाज में साल भर कुछ ना कुछ देवोत्सव आयोजित होते ही रहते हैं, सामुदायिक जीवन में इन कार्यो को करने की सबकी समान जिम्मेदारी होती है। परिवार की जवाबदारी भी पुरूष वर्ग के ऊपर आ जाये तो वह उन कार्यो को ठीक ढंग से नहीं निभा पायेगें। परिवार के सारे निर्णय महिलाओं द्वारा ही लिए जातें हैं, परन्तु अन्तिम निर्णय घर के मुखिया लेकर काम को सम्पादित करतें हैं।

महिलाओं को जिस प्रकार सामाजिक बैठकों में भाग लेने का अधिकार नहीं है, उसी तरह उन्हे बैठक बुलाने का भी अधिकार नहीं है। पीड़ित महिला अपने सगा, सम्बन्धियों के माध्यम से बैठक बुलाती हैं और दूर बैठ कर निर्णय की प्रतीक्षा करती हैं। यदि किसी महिला द्वारा सामाजिक मर्यादा का उल्लंघन किया गया हो तो उसके परिवार के माध्यम से समाज का निर्णय सुनाया जाता है।

जब यह सामाजिक अपराघ बहुत बड़ा होता है, तब पूरे परिवार को दण्डित किया जाता है। वनवासी समाज में सबसे बड़ा दण्ड समाज से बहिष्कृत किये जाने का होता है। यह दण्ड किसी भी आदिवासी परिवार के लिये अपमान-जनक और बहुत ही कष्टप्रद होता है। सम गोत्रीय अवैध सम्बन्धों पर वनवासी समाज द्वारा मृत्यु दण्ड तक का प्रावधान है।

वनवासी महिलाएँ अपने परिवार की आर्थिक आधार होती हैं। इनका मुख्य व्यवसाय वनोपज संग्रहण कर उसे साप्ताहिक हाट-बाजारों में विक्रय कर लाभ कमाना है। वनोपज में महुआ, हर्रा साल बीज, दुल्हीफर (वायविडंग) चारगुठली (चिरौंजी) मुख्य है, जिन्हे संग्रहण करने के लिये सबेरे-सबेरे मुँह अन्धेरे जंगल जाना पड़ता है। महिलाएँ पहले उठकर इनका संग्रहण कर लेती है, फिर घर आकर दूसरे घरेलू काम करती है।

यहाँ यह उल्लेखनीय है कि इस कार्य में घर की छोटी लड़कियाँ भी सहयोग करती हैं, जैसे छोटे बच्चों को सम्हालना, पेज-पसिया लाना, गाय बैल से वनोपज की रखवाली करना आदि। कभी-कभी यह काम घर के पूरे सदस्य मिलकर करते हैं, तब उस आय को खर्च करने का निर्णय घर की सबसे बड़ी महिला करती है। जब घर की लड़कियाँ रोजी से काम करने अन्यत्र जाती हैं, तब साप्ताहिक मजदूरी लाकर अपने घर की बड़ी महिला को ही देती हैं, जिसको परिवार के लिये खर्च किया जाता है। इसी तरह श्रम से उपजाये फसल के लिये सर्व सम्मति से निर्णय किया जाता है। फसल की मिंजाई के पश्चात घर के खाने के लिये अनाज रखकर बचे अनाज को बेचने से प्राप्त आय महिलाएँ रखती हैं। परिवार के ठोस निर्णय पुरूषों की सहमति से महिलाएँ लेती हैं।

जनजातीय समाज के समानान्तर गाँव के नवयुवक-नवयुवतियों का एक और संगठन होता है, जो घोटुल कहलाता है। वनवासी किशोर-किशोरी स्वमेव ही इसके सदस्य बन जाते हैं। इस संस्था में गाँव के जैसे ही पदाधिकारी होतें हैं, जिस तरह लड़कों के मुखिया होते है, उसी तरह लड़कियों के भी मुखिया का मनोनयन गाँव के द्वारा किया जाता है। इस सामाजिक संस्था में लिंग के अनुसार किसी प्रकार का भेद नहीं किया जाता, सबको समानता का अधिकार मिला हुआ है। यहाँ पर सबकी क्षमता के अनुरूप कार्य बँटे हुये होते हैं और सभी अपना-अपना कार्य पूरी ईमानदारी से करते हैं।

यही सामाजिक संगठन है, जहाँ पर वनवासी नवयुवक-नवयुवतियाँ सामुदायिक जीवन जीने की कला, सामाजिक मर्यादा और समानता के अधिकार की शिक्षा ग्रहण करते हैं। जिसके विषय में युवा मनोरंजन गृह, नाईट क्लब आदि की भ्रातियाँ प्रचलित है, यह वास्तव में वनवासी समाज को सामाजिक क्रिया-कलाप सीखने की पाठशाला है। धोटुल में लड़के-लड़कियाँ लोक गीत, लोक नृत्य गाना बजाना आदि सीखते हैं और इस कार्य में सबकी समान भागीदारी पूर्व से ही सुनिश्चित है। यहाँ सभी को गलती के लिये सजा मिलती है।

वर्तमान समय जनजातीय समाज का संक्रमण काल हैं सम्पूर्ण बस्तर में माओवाद अपना पैर पसार चुका है। इससे सबसे ज्यादा नुकसान वनवासी समाज की सामाजिक व्यवस्था को हुआ है। आज सब समाजिक संगठन लुप्त प्रायः हो चुके हैं, सामाजिक ताना-बाना बिखर गया है। आज बहुत ही कष्ट के दौर से वनवासी समाज गुजर रहा है, वह किंमकर्तव्यविमूढ़ की स्थिति में है, उसे नहीं सूझ रहा है कि उसे किस दिशा में जाना है।

सबसे पहले माओवादियों ने वनवासियों के सामाजिक संगठन को खत्म किया, जिससे उनके समाज की सामूहिकता का ह्रास हुआ है और सामूहिक निर्णय लेने के लिए आयोजित होने वाले बैठकें कम होने लगी इससे सामाजिक समरसता की हानि हुई। इससे भी ज्यादा महिलाओं को नुकसान पहुँचा, उनका खेत, जंगल में अकेले-दुकेले आना-जाना बाधित हुआ, परिवार की आर्थिक स्थिति का नुकसान हुआ।

माँ-बाप पर अपने बच्चों के प्रति जवाबदेही बढ़ गई, वे समाज के ऊपर ध्यान देना बन्द कर दिये और समाजिकता नष्ट हो गई। अब केवल किसी समाजिक कार्य जैसे शादी-विवाह में लोग जुटते हैं, वहीं समाज की बातें होती है। वनवासी क्षेत्रों में अपना पैर जमाने के लिए माओवादियों को इन संगठन को खत्म करना आवश्यक था, जिसे सबसे पहले उन्होने अंजाम दिया और वे सफल भी हुये।

माओवाद से सबसे ज्यादा नुकसान सामाजिक संस्था घोटुल के बन्द से होने से हुआ। आज सभी गाँवों के घोटुल बन्द पडे़ है। इससे वनवासी लड़के-लड़कियों पर समाज का नियंत्रण समाप्त हो गया, युवा या तो जेल में हैं या नक्सलियों के साथ या फिर गाँवों से पलायन कर चुके हैं।

वनवासी समाज सब कुछ सह सकता है परन्तु महिलाओं के प्रति अपमान नहीं सह सकता, नक्सलियों ने सबसे पहले अपना निशाना घोटुल को ही बनाया जो वनवासी सहन नहीं कर पाये इससे लड़कियों का घोटुल जाना बन्द हो गया और गाँव की लड़कियाँ आस-पास के शहरों में धरेलू काम करने चली गई, कुछ भाग कर शादी कर ली।

प्रकृति के बीच स्वच्छन्द जीवन-यापन करने वाले वनवासी समाज की लड़कियों के लिये नक्सलियों द्वारा प्रशिक्षण लेने का फरमान जारी किया जाता है, जिससे लड़कियों को गाँव छोड़ने पर विवश होना पड़ता है। यह स्थिति समानान्तर संस्था घोटुल के बन्द होने से निर्मित हुई, क्योंकि यही एक संस्था थी, जो युवाओं पर नियंत्रण रखती थी। इससे यह हुआ कि बहुत से युवा नक्सल पंथ का समर्थन करने लगे वही युवा आज आत्म समर्पण कर रहे है। कारण कि बस्तर का वनवासी समाज कभी भी अपराधी प्रवृति का नहीं रहा है।

आज स्थिति यह कि वनवासी अपनी लड़कियों को पाँचवीं पास करने के बाद छात्रवास में डाल देते हैं, वहीं पढ़ते हुये वे नौकरी आदि करके शादी-व्याह कर लेती हैं। यह केवल माओवाद की समस्या नहीं है, समूची जनजाति पर संकट है। इससे निपटने के सारे उपक्रम व्यर्थ हो चुके हैं। वनवासी समाज ने आज की विकट परिस्थिति से समझौता कर लिया है, ऐसा जान पड़ता है। यह अच्छी बात है कि आज के बदले दौर में बस्तर का वनवासी समाज अपनी लड़कियों को पढ़ाने लगा है। लड़कियाँ भी पढ़ लिख कर बाबू, नर्स, शिक्षाकर्मी, पुलिस की नौकरी कर रही है।

जनजातीय समाज अपने पुराने दिन की बाट देख रहा है, उसके दिन बहुरेंगे इसी आशा में कुछ ऐसा करने के प्रयास में है कि उसका सामाजिक संगठन फिर से बने और एक बार गाँव में, घोटुल में फिर मांदर की थाप हो लोक गीत की स्वर लहरी गुंजायमान होगी और वनांचल फ़िर अपनी प्राचीन संस्कृति का निर्वहन निर्भय होकर कर सकेगा।

आलेख

श्री शिव कुमार पाण्डेय अधिवक्ता एवं संस्कृति के जानकार नारायणपुर, बस्तर

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