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राजभाषा के 72 साल : आज भी वही सवाल?

हमारे अनेक विद्वान साहित्यकारों और महान नेताओं ने हिन्दी को राष्ट्रभाषा के रूप में महिमामण्डित किया है। उन्होंने इसे राष्ट्रीय एकता की भाषा भी कहा है। उनके विचारों से हम सहमत भी हैं। हमने 15 अगस्त 2021 को अपनी आजादी के 74 साल पूरे कर लिए और हिन्दी को राजभाषा का संवैधानिक दर्जा मिलने के 72 साल भी आज 14 सितम्बर 2021 को पूरे हो गए। लेकिन राष्ट्रभाषा और राजभाषा को लेकर आज भी कई सवाल जस के तस बने हुए हैं। उनके जवाबों का हम सबको इंतज़ार है।

सहज-सरल सम्पर्क भाषा की जरूरत

किसी भी राष्ट्र को अपने  नागरिकों के लिए एक ऐसी सहज-सरल सम्पर्क भाषा की ज़रूरत होती है जिसके माध्यम से लोग दिन-प्रतिदिन एक-दूसरे से बात-व्यवहार कर सकें। निश्चित रूप से ‘हिन्दी’ में यह गुण स्वाभाविक रूप से है और यही उसकी ताकत भी है, जो देश को एकता के सूत्र में बाँधकर रखती है। आज़ादी के आंदोलन में और उसके बाद भी हमने हिन्दी की इस ताकत को महसूस किया है। हिन्दी के प्रचलन को बढ़ावा देकर राष्ट्रीय एकता को सशक्त बनाने में रेडियो, टीव्ही और पत्र -पत्रिकाओं सहित इंटरनेट आधारित सोशल मीडिया की भी उल्लेखनीय भूमिका है। लेकिन लगता है कि जाने -अनजाने हिन्दी की यह ताकत कमज़ोर हो रही है। यह चिन्ता और चिन्तन का विषय है।

आज़ादी के लगभग दो साल बाद हमारी संविधान सभा ने 14 सितम्बर 1949 को उसे भारत की ‘राजभाषा’ यानी सरकारी काम -काज की भाषा का दर्जा दिया था। इस ऐतिहासिक दिन को यादगार बनाए रखने के लिए देश में हर साल 14 सितम्बर को हिन्दी दिवस मनाया जाता है । लेकिन अंग्रेजी के बढ़ते प्रभाव और समय – समय पर दक्षिण के राज्यों में हिन्दी विरोध को देखकर चिन्ता होती है। त्रिभाषी फार्मूले को भी दक्षिण के लोग नहीं मानते । इस पर उनके साथ सार्थक संवाद की ज़रूरत है।

सीखें ज़्यादा से ज़्यादा भाषाएं

वास्तव में किसी भी देश अथवा किसी भी राज्य की भाषा सीखने में कोई बुराई नहीं है। लोग अपनी रुचि और क्षमता के अनुसार दुनिया की अधिक से अधिक भाषाओं को पढ़ें और सीखें तो इससे अच्छी बात भला और क्या हो सकती है? सुदूर बंगाल के एक गाँव में 12 अगस्त 1877 को जन्मे और परिवार के साथ रायपुर (छत्तीसगढ़)आकर पले-बढ़े हरिनाथ डे आगे चलकर सिर्फ़ 34 साल की आयु में पहुँचते तक हिन्दी ,बांग्ला सहित देश -विदेश की 36 भाषाओं के आधिकारिक विद्वान बन गए। दुर्भाग्य से 30 अगस्त 1911 को उनका निधन हो गया। रायपुर के बूढ़ापारा स्थित डे भवन में उनके नाम पर लगे संगमरमर के शिलालेख में उन सभी 36 भाषाओं की सूची अंकित है, जिनका ज्ञान हरिनाथ ने अर्जित किया था। उनकी प्राथमिक और मिडिल स्कूल की पढ़ाई रायपुर में हुई थी। भारत के तमाम प्रान्तों के लोग और विशेष रूप से स्कूल -कॉलेजों के विद्यार्थी एक -दूसरे के राज्यों में प्रचलित भाषाओं को सीखें तो इससे हमारी राष्ट्रीय एकता और भी मजबूत होगी। हमारे देश की कई  महान विभूतियों के बारे में कहा भी जाता है कि वे अनेक भाषाओं के ज्ञाता थे । लेकिन अपने देश के लोगों से वो अपने ही देश की भाषा में संवाद करते थे।

महात्मा गांधी के विचार

राष्ट्रपिता महात्मा गांधी ने अपनी पुस्तक ‘मेरे सपनों का भारत’ में राष्ट्रभाषा के लिए कुछ प्रमुख लक्षणों का उल्लेख किया था । उनके अनुसार (1) वह भाषा सरकारी नौकरों के लिए आसान होनी चाहिए, (2) उस भाषा के द्वारा भारत का आपसी धार्मिक, आर्थिक और राजनीतिक काम-काज हो सकना चाहिए, (3) उस भाषा को भारत के ज़्यादातर लोग बोलते हों, (4) वह भाषा राष्ट्र के लिए आसान हो और (5) उस भाषा का विचार करते समय क्षणिक या कुछ समय तक रहने वाली स्थिति पर जोर न दिया जाय। गांधीजी इन लक्षणों का जिक्र करते हुए लिखा था कि अंग्रेजी भाषा में इनमें से एक भी लक्षण है और ये पांच लक्षण रखने में हिन्दी से होड़ करने वाली और कोई भाषा नहीं है। “

आज़ादी का अमृत महोत्सव और हमारी हिन्दी

हमारी आज़ादी के 75 वर्ष अगले साल यानी 15 अगस्त 2022 को पूर्ण हो जाएंगे और देश अपनी विकास यात्रा के 76 वें साल में प्रवेश करेगा। आज़ादी की 75वीं वर्षगाँठ को ‘अमृत महोत्सव’ के रूप में मनाने का सिलसिला अभी से शुरू हो गया है। प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने 12 मार्च 2021 को महात्मा गांधी के साबरमती आश्रम से अमृत महोत्सव के आयोजनों का औपचारिक शुभारंभ किया। यह दिन स्वतंत्रता संग्राम के दौरान साबरमती आश्रम से गांधीजी के नेतृत्व में 12 मार्च 1930 को शुरू हुए नमक सत्याग्रह और दांडी मार्च की याद दिलाने वाला एक ऐतिहासिक दिन है। इसी वजह से आज़ादी के अमृत महोत्सव के शुभारंभ के लिए इस दिन और स्थान का चयन किया गया। अमृत महोत्सव वर्ष में राजभाषा और राष्ट्रभाषा के रूप में हिन्दी की दशा और दिशा पर और उसके क्रमिक ऐतिहासिक विकास पर चिन्तन -मनन और भी ज़्यादा जरूरी हो जाता है।

साहित्य और भाषाओं से जुड़े सवाल

किसी भी भाषा से जुड़े सवालों को आम तौर पर उसके साहित्य से जोड़ कर देखा जाता है। ऐसा इसलिए भी, क्योंकि साहित्य ही भाषाओं को समृद्ध बनाता है और इसमें साहित्यकारों की महत्वपूर्ण भूमिका होती है। भारत में प्रचलित हर भाषा के अनमोल ख़ज़ाने को उसके साहित्यकारों ने अपनी कलम से समृद्ध किया है।

हिन्दी का गौरवपूर्ण इतिहास

हिन्दी भाषा के साहित्य का भी अपना एक गौरवपूर्ण इतिहास रहा है। भारतेन्दु हरिश्चंद्र, जिनका जन्म 9 सितम्बर 1850 को वाराणसी में और निधन 6 जनवरी 1885 को वाराणसी ही हुआ था, वह महज 34 वर्ष की अपनी जीवन यात्रा में कविता, नाटक, उपन्यास और व्यंग्य लेखन के जरिए हिन्दी साहित्य की श्रीवृद्धि का कीर्तिमान बनाकर अपनी अमिट छाप छोड़ गए। उन्होंने भाषाओं के महत्व को रेखांकित करते हुए लिखा था कि स्वयं की भाषा ही सभी तरह उन्नतियों की जड़ स्वयं की भाषा की उन्नति में निहित है, जिसके ज्ञान के बिना हॄदय की पीड़ा नहीं मिटती। वहीं अंग्रेजी पढ़ के हम सभी गुणों को हासिल कर भी लें, पर अपनी भाषा का ज्ञान नहीं होने पर हम दीन यानी ग़रीब के ग़रीब ही रह जाएंगे। अपनी इन्हीं भावनाओं को व्यक्त करते हुए भारतेन्दु कहते हैं —
“निज भाषा उन्नति अहै
सब उन्नति को मूल ।
बिन निज भाषा ज्ञान बिन
मिटत न हिय को शूल ।।
अंग्रेजी पढ़ि के जदपि
सब गुन होत प्रवीन ।
पै निज भाषा ज्ञान बिन
रहत दीन के दीन ।।”

हमारे देश में भारतेन्दु हरिश्चंद्र से लेकर वर्तमान में भी हिन्दी साहित्य की यह परम्परा निरंतर विकसित होती चली आयी है, जो छत्तीसगढ़ में भी पुष्पित और पल्लवित हुई है। यहाँ के हिन्दी सेवी साहित्यकारों ने इस परम्परा को अपनी-अपनी शैली में खूब विकसित किया है।

छत्तीसगढ़ में जन्मी हिन्दी की पहली कहानी

विद्वानों के अनुसार सौ साल से भी कुछ अधिक पहले हिन्दी की पहली कहानी ‘एक टोकरी भर मिट्टी ‘ छत्तीसगढ़ की धरती पर लिखी गयी थी ,जिसके लेखक थे पंडित माधवराव सप्रे ।

हिन्दी पत्रकारिता की बुनियाद छत्तीसगढ़-मित्र के 121 साल

सप्रे जी ने ही आज से 121 साल पहले वर्ष 1900 में यहाँ के पेंड्रा जैसे बेहद पिछड़े वनवासी बहुल क्षेत्र से मासिक पत्रिका ‘छत्तीसगढ़ मित्र’ का सम्पादन करते हुए यहाँ पत्रकारिता की बुनियाद रखी थी। उनके सहयोगी थे पंडित रामराव चिंचोलकर । इस पत्रिका के प्रोपराइटर थे प्रसिद्ध स्वतंत्रता संग्राम सेनानी वामन बलिराम लाखे। रायपुर के एक प्रिंटिंग प्रेस से इसकी छपाई होती थी। आर्थिक कठिनाइयों के कारण ‘छत्तीसगढ़ मित्र’ का प्रकाशन मात्र तीन वर्ष तक हो पाया। दिसम्बर 1902 में 36 वें अंक के बाद इसका प्रकाशन बंद करना पड़ा। सप्रे जी का जन्म 19 जून 1871 को वर्तमान मध्यप्रदेश के ग्राम पथरिया (जिला – दमोह) में हुआ था। उनका निधन 23 अप्रैल 1926 को रायपुर में हुआ। जीवन पर्यंत उनका कर्मक्षेत्र मुख्य रूप से छत्तीसगढ़ ही रहा।

गीता -रहस्य का हिन्दी अनुवाद

हरि ठाकुर ने अपनी पुस्तक ‘छत्तीसगढ़ गौरव गाथा’ में लिखा है –“वर्ष 1915 में सप्रे जी ने लोकमान्य बाल गंगाधर तिलक के महान और वृहद ग्रंथ ‘गीता रहस्य’ का हिन्दी में प्रामाणिक अनुवाद प्रस्तुत किया। उनके अनुवाद और भाषा की तिलक जी ने भूरि-भूरि प्रशंसा की थी। इस ग्रंथ के हिन्दी अनुवाद ने स्वाधीनता संग्राम के सत्याग्रहियों का वर्षों मार्ग दर्शन किया।”हरि ठाकुर आगे लिखते हैं -सप्रेजी ने लगभग 16 ग्रंथ लिखे, जिनमें उनके मौलिक और अनुवादित ग्रंथों की संख्या भी शामिल है। उन्होंने सैकड़ों लेख लिखे, जो तत्कालीन पत्र -पत्रिकाओं में छपते रहे।”
अंग्रेजी हुकूमत के उस दौर में सप्रे जी ने ‘छत्तीसगढ़ मित्र’ के माध्यम से राष्ट्रीय चेतना के विकास और विस्तार में यथाशक्ति अपना भरपूर योगदान दिया। कुशाभाऊ ठाकरे पत्रकारिता एवं जन संचार विश्वविद्यालय रायपुर ने ‘छत्तीसगढ़ मित्र’ के इन सभी 36 अंकों को फिर से छपवाकर संरक्षित किया है। विश्वविद्यालय ने इनका पुनर्मुद्रण वर्ष 2008, 2009 और 2010 में करवाया है। राजधानी रायपुर में कई दशकों से संचालित सप्रे स्कूल पंडित माधवराव सप्रे के महान व्यक्तित्व और कृतित्व की याद दिलाता है। उनके नाम पर छत्तीसगढ़ सरकार ने पंडित माधव राव सप्रे राष्ट्रीय रचनात्मकता सम्मान की भी स्थापना की है।

हिन्दी भाषा और साहित्य को ज़्यादा से ज़्यादा अमीर बनाने में अपनी रचनाओं के अनमोल रत्नों से छत्तीसगढ़ के जिन साहित्य मनीषियों ने अपना योगदान दिया, उनमें डॉ.पदुमलाल पुन्नालाल बख्शी, डॉ. बलदेव प्रसाद मिश्र, गजानन माधव मुक्तिबोध, पंडित लोचन प्रसाद पाण्डेय, मुकुटधर पाण्डेय, ठाकुर प्यारेलाल सिंह, डॉ. खूबचंद बघेल, हरि ठाकुर, केयूर भूषण और लाला जगदलपुरी, नारायणलाल परमार, त्रिभुवन पाण्डेय और विश्वेन्द्र ठाकुर, जैसे अनेकानेक तपस्वी साहित्य साधकों की भूमिकाओं को कभी भुलाया नहीं जा सकता।

बख्शी जी : सरस्वती के यशस्वी सम्पादक

वर्तमान राजनांदगांव जिले के खैरागढ़ में 27 मई 1894 को जन्मे पदुमलाल पुन्नालाल बख्शी का निधन रायपुर में 28 दिसम्बर 1971 को हुआ। उन्हें वर्ष 1920 से 1956 तक यानी 36 वर्षों में चार अलग -अलग कालखण्डों में इलाहाबाद की प्रसिद्ध पत्रिका ‘सरस्वती’ के सम्पादकीय दायित्व का गौरव मिला। वह हिन्दी जगत में सरस्वती के यशस्वी सम्पादक के रूप में प्रसिद्ध हुए। सरकार द्वारा उनके सम्मान में बख्शी सृजन पीठ की स्थापना की गयी है।

छायावाद के प्रवर्तक मुकुटधर पाण्डेय

रायगढ़ जिले के पंडित मुकुटधर पाण्डेय को हिन्दी काव्य में छायावाद का प्रवर्तक माना जाता है। भारत सरकार ने उन्हें वर्ष 1976 में पद्मश्री अलंकरण से सम्मानित किया था। उनका जन्म 30 सितम्बर 1895 को रायगढ़ के पास तत्कालीन बिलासपुर जिले में महानदी के किनारे ग्राम बालपुर में और निधन 6 नवम्बर 1989 को रायगढ़ में हुआ।

पंडित श्यामलाल चतुर्वेदी

बिलासपुर के स्वर्गीय पंडित श्यामलाल चतुर्वेदी भी हिन्दी और छत्तीसगढ़ी दोनों ही भाषाओं के प्रतिष्ठित लेखक और कवि थे। पत्रकार के रूप में उन्होंने हिन्दी पत्र -पत्रिकाओं के माध्यम से कई दशकों तक समाज सेवा करते हुए अपनी लेखनी से राष्ट्रभाषा को भी समृद्ध बनाया। भारत सरकार ने वर्ष 2018 में उन्हें पद्मश्री अलंकरण से नवाजा।

छत्तीसगढ़ के अधिकांश साहित्य साधकों ने हिन्दी के साथ -साथ छत्तीसगढ़ी और अन्य आंचलिक लोक भाषाओं में भी साहित्य सृजन किया है। हिन्दी के विकास में उनका योगदान प्रणम्य है।

रचनाकारों की लम्बी फेहरिस्त

हिन्दी साहित्य को अधिक से अधिक अमीर बनाने में छत्तीसगढ़ में सरस्वती के जिन उपासकों ने वर्षों तक कठिन लेखकीय साधना की है, उनके नामों और उनकी रचनाओं की एक लम्बी फेहरिस्त है, जिनका सम्पूर्ण उल्लेख किसी एक आलेख में संभव नहीं है। फिर भी मेरी कोशिश है कि उनमें से कुछ रचनाकारों की चर्चा इसमें हो जाए।

पंडित सुन्दरलाल शर्मा

स्वतंत्रता संग्राम के दिनों में यहाँ के कवियों और लेखकों ने भी अपनी रचनाओं के माध्यम से राष्ट्रीय चेतना जगाने का सराहनीय कार्य किया। राजिम में 21 दिसम्बर 1881 को जन्मे पंडित सुन्दरलाल शर्मा आज़ादी के आंदोलन के कर्मठ सिपाही और नेतृत्वकर्ता होने के अलावा एक अच्छे कवि नाट्य लेखक और समाज सुधारक भी थे। उनका निधन 28 दिसम्बर 1940 को हुआ। उन्होंने चार नाटकों और दो उपन्यासों सहित लगभग बीस पुस्तकें लिखीं। उनके छत्तीसगढ़ी खण्ड काव्य ‘दान लीला ‘का प्रकाशन 10 मार्च 1906 को हुआ था। स्वतंत्रता संग्राम के दौरान वर्ष 1922 में जब उन्हें एक वर्ष की सजा हुई, तब उन्होंने केन्द्रीय जेल रायपुर में रहते हुए ‘कृष्ण जन्म स्थान ‘नामक हस्तलिखित पत्रिका का सम्पादन और प्रकाशन शुरू किया था, जिसमें आज़ादी के आंदोलन के साथ हास्य -व्यंग्य और धार्मिक तथा राजनीतिक सामग्री भी छपती थीं और जेल की आंतरिक घटनाओं का भी उल्लेख होता था। उन्होंने राजिम से ‘श्री राजिम प्रेम पीयूष’ और ‘दुलरुआ’ नामक पत्रिका भी निकाली। छत्तीसगढ़ सरकार ने बिलासपुर में उनके सम्मान में एक मुक्त विश्वविद्यालय की स्थापना की है, जो विगत 15 वर्षों से सफलतापूर्वक संचालित हो रहा है।

राजनांदगांव के कुंजबिहारी चौबे ने भी स्वतंत्रता संग्राम में अपनी कविताओं के साथ सक्रिय भागीदारी निभाई। रायपुर जिले के डॉ.खूबचंद बघेल समाज सुधारक, किसान नेता और स्वतंत्रता संग्राम सेनानी होने के साथ -साथ प्रखर विचारक और हिन्दी तथा छत्तीसगढ़ी के अच्छे साहित्यकार भी थे।

राजनांदगांव के कुंजबिहारी चौबे ने अपने क्रांतिकारी तेवर की कविताओं से स्वतंत्रता आंदोलन की भावनाओं को स्वर दिया। उनकी चयनित रचनाओं का संकलन प्रभा-पुस्तक माला, इंडियन प्रेस जबलपुर द्वारा प्रकाशित किया गया था।

गांधी मीमांसा के रचनाकार पंडित रामदयाल तिवारी

रायपुर के पंडित रामदयाल तिवारी को सिर्फ 50 वर्ष की आयु मिली, लेकिन उन्होंने इस अल्प समय की अपनी जीवन यात्रा में राष्ट्र पिता महात्मा गांधी पर केन्द्रित लगभग 800-पृष्ठों का महाग्रंथ ‘गांधी -मीमांसा’ लिखकर इतिहास रच दिया। यह महान कृति गांधीजी के जीवन दर्शन की रचनात्मक समालोचना है। रामदयाल तिवारी का जन्म 23 अगस्त 1892 को रायपुर में हुआ था और वहीं 21 अगस्त 1942 को उनका निधन हो गया। उन्होंने लिखा था –“राष्ट्र अपना मुख साहित्य के दर्पण में देखता है। साहित्य राष्ट्र के दिल का खज़ाना है।” छत्तीसगढ़ की राजधानी रायपुर स्थित आर डी. तिवारी शासकीय हायर सेकेंडरी स्कूल पंडित रामदयाल तिवारी के नाम पर विगत कई दशकों से संचालित हो रहा है।

दंडकारण्य के साहित्य महर्षि

अपनी रचनाओं के माध्यम से हिन्दी भाषा और साहित्य की सेवा करने वाले समर्पित साहित्यकारों में जगदलपुर (बस्तर) के लाला जगदलपुरी ने 93 साल की अपनी जीवन यात्रा के 77 साल साहित्य सृजन में लगा दिए। बस्तर को दंडकारण्य के नाम से भी जाना जाता है। लालाजी इस वनवासी अंचल के इतिहास, लोक साहित्य और लोक संस्कृति के भी अध्येता थे। उन्हें दंडकारण्य का साहित्य महर्षि भी कहा जा सकता है। मध्यप्रदेश हिन्दी ग्रंथ अकादमी द्वारा प्रकाशित उनकी पुस्तक ‘बस्तर -इतिहास एवं संस्कृति’ अपने-आप में एक महत्वपूर्ण शोध-ग्रंथ है। उनका जन्म जगदलपुर में 17 दिसम्बर 1920 को हुआ था। जगदलपुर में ही 14 अगस्त 2014 को उनका निधन हो गया। उन्होंने हिन्दी के साथ-साथ छत्तीसगढ़ी और बस्तर की लोकभाषा हल्बी और भतरी में भी भरपूर लिखा। जगदलपुर के शासकीय जिला ग्रंथालय का नामकरण उनके जन्म दिन 17 दिसम्बर 2020 को समारोहपूर्वक उनके नाम पर किया गया।

यशस्वी कवि -लेखक हरि ठाकुर

छत्तीसगढ़ के हिन्दी साहित्यकारों में स्वर्गीय हरि ठाकुर का नाम भी प्रथम पंक्ति में लिया जाता है। उनका जन्म 16 अगस्त 1927 को रायपुर में हुआ और निधन नई दिल्ली के एक अस्पताल में 3 दिसम्बर 2001 को हुआ। यशस्वी कवि, लेखक और पत्रकार स्वर्गीय हरि ठाकुर स्वतंत्रता संग्राम सेनानी और श्रमिक नेता ठाकुर प्यारेलाल सिंह के सुपुत्र थे। हरि ठाकुर ने अपने सहयोगी कवियों के साथ मिलकर वर्ष 1956 में एक सहयोगी काव्य संग्रह -‘नये स्वर’ का प्रकाशन किया। इसके अलावा बाद के वर्षों में हिन्दी और छत्तीसगढ़ी में उनकी अनेक पुस्तकें छपीं, जिनमें कविता संग्रह लोहे का नगर (1967), छत्तीसगढ़ी गीत अउ कवित्व (1968) और गीतों के शिलालेख (1969), सुरता के चंदन (1979) और पौरुष :नये संदर्भ (1980)भी शामिल हैं। उनकी सर्वाधिक महत्वपूर्ण पुस्तक ‘छत्तीसगढ़ गौरव गाथा ‘उनके मरणोपरांत वर्ष 2003 में प्रकाशित हुआ। यह महाग्रंथ छत्तीसगढ़ पर केन्द्रित उनके शोध आलेखों का संकलन है। छत्तीसगढ़ के प्राचीन इतिहास सहित स्वतंत्रता संग्राम, साहित्य और कला -संस्कृति से जुड़ी महान विभूतियों के जीवन परिचय को भी उन्होंने अपने इस विशाल ग्रंथ में शामिल किया है। इस पुस्तक का सम्पादन इतिहासकार डॉ. विष्णुसिंह ठाकुर और साहित्यकार देवीप्रसाद वर्मा(बच्चू जांजगीरी) ने किया है। स्वर्गीय हरि ठाकुर के जन्म दिन 16 अगस्त 2003 को इसका प्रकाशन हुआ। समाजवादी विचारधारा के हरि ठाकुर स्वतंत्रता संग्राम सेनानी भी थे और उन्होंने 1955 में गोवा मुक्ति आंदोलन में भी हिस्सा लिया था। उन्हें वर्ष 1992 में छत्तीसगढ़ राज्य निर्माण आंदोलन के लिए गठित सर्वदलीय मंच का संयोजक भी बनाया गया था। वह वर्ष 1970 के दशक में बनी दूसरी छत्तीसगढ़ी फ़िल्म ‘घर-द्वार’ के गीतकार भी थे। इस फ़िल्म में उनके लिखे सभी गीत काफी लोकप्रिय हुए।

साहित्य के माध्यम से हिन्दी भाषा और साहित्य के भंडार को भरपूर बनाने में अपना योगदान देने वाले रचनाकारों में रायगढ़ के जनकवि आनन्दी सहाय शुक्ल, बंदे अली फातमी और मुस्तफा हुसैन मुश्फिक की लेखनी की अपनी रंगत थी।

पंडित चिरंजीव दास

रायगढ़ के ही पंडित चिरंजीव दास ने महाकवि कालिदास के संस्कृत महाकाव्य ‘मेघदूत’ और ‘रघुवंश ‘सहित कई अन्य प्राचीन संस्कृत कवियों की काव्य पुस्तकों का हिन्दी मे पद्यानुवाद किया। वह ओड़िया ,छत्तीसगढ़ी ,अंग्रेजी और हिन्दी के प्रकाण्ड विद्वान थे।

कहानी, उपन्यास और व्यंग्य

कहानी, उपन्यास और व्यंग्य भी हिन्दी गद्य लेखन की प्रमुख विधाएं हैं। पंडित माधव राव सप्रे रचित हिन्दी की पहली कहानी ‘एक टोकरी भर मिट्टी’ का जिक्र इस आलेख में पहले ही किया जा चुका है। प्रदेश के अन्य हिन्दी कहानीकारों में खैरागढ़ के स्वर्गीय पदुमलाल पुन्नालाल बख्शी, राजनांदगांव के स्वर्गीय गजानन माधव मुक्तिबोध, बिलासपुर के स्वर्गीय श्रीकांत वर्मा, जगदलपुर के स्वर्गीय गुलशेर खां ‘शानी ‘सहित रायपुर के विनोद कुमार शुक्ल, जगदलपुर की स्वर्गीय मेहरुन्निसा परवेज, भिलाई नगर के परदेशीराम वर्मा और विनोद मिश्र, दुर्ग के स्वर्गीय विश्वेश्वर, खैरागढ़ के डॉ. रमाकांत श्रीवास्तव, राजिम के स्वर्गीय पुरुषोत्तम अनासक्त, धमतरी के स्वर्गीय नारायण लाल परमार और स्वर्गीय त्रिभुवन पाण्डेय, रायपुर के स्वर्गीय देवीप्रसाद वर्मा और स्वर्गीय विभु कुमार, बिलासपुर की जया जादवानी, वहीं के सतीश जायसवाल और पिथौरा (जिला -महासमुंद) के शिवशंकर पटनायक भी उल्लेखनीय हैं। इनमें से कई लेखक अच्छे उपन्यासकार भी हैं। उपन्यास, यात्रा वृत्तांत और आत्मकथा लेखन में बिलासपुर के द्वारिका प्रसाद अग्रवाल का नाम भी पिछले कुछ वर्षों में तेजी से उभरा है। वहीं के डॉ.विनय कुमार पाठक पिछले करीब 50 वर्षों से छत्तीसगढ़ी के साथ-साथ हिन्दी साहित्य को समृद्ध बनाने में लगे हुए हैं। रायपुर जिले के अभनपुर निवासी पर्यटन ब्लॉगर ललित शर्मा ने अपने उपन्यास ‘जनरल बोगी-ए ट्रेवलर्स लव स्टोरी’ के माध्मय से हिन्दी उपन्यासों की दुनिया में प्रवेश किया है। उन्होंने छत्तीसगढ़ के ऐतिहासिक स्थल सिरपुर (जिला -महासमुंद) और रामगढ़ (जिला -सरगुजा) पर दो पुस्तकें लिखी हैं, जो क्रमशः ‘सैलानी की नज़र में सिरपुर’ और ‘सरगुजा का रामगढ़” के नाम से काफी चर्चित हुई हैं साथ ही इनका एक व्यंग्य संग्रह “चमचा साधै सब सधै” भी प्रकाशित हुआ है।

छत्तीसगढ़ की हिन्दी कथा -यात्रा

वरिष्ठ लेखक और पत्रकार रमेश नैयर के सम्पादन में छत्तीसगढ़ के 17 हिन्दी कहानीकारों की कहानियों का संग्रह ‘कथा यात्रा’ शीर्षक से ग्रंथ अकादमी दिल्ली ने वर्ष 2003 में प्रकाशित किया। इसकी भूमिका में नैयर जी ने छत्तीसगढ़ की हिन्दी कहानी परम्परा का विस्तार से उल्लेख किया है।

महासमुंद के स्वर्गीय लतीफ़ घोंघी, वहीं के ईश्वर शर्मा, बागबाहरा के स्वर्गीय गजेन्द्र तिवारी, रायगढ़ के कस्तूरी दिनेश, दुर्ग के विनोद साव और ऋषभ जैन और रायपुर के अख़्तर अली आदि व्यंग्य विधा के जाने -माने हस्ताक्षर हैं। लघु कथा लेखन में रायपुर के स्वर्गीय डॉ. राजेन्द्र सोनी और महासमुंद के महेश राजा सहित कई प्रतिष्ठित नाम शामिल हैं।

काव्य गगन के कुछ और सितारे

हिन्दी कविता के आकाश में छत्तीसगढ़ के चमकदार सितारों में रायपुर के स्वर्गीय डॉ. नरेंद्र देव वर्मा, स्वर्गीय ललित सुरजन और स्वर्गीय लक्ष्मण मस्तुरिया, राजिम के स्वर्गीय पवन दीवान और स्वर्गीय कृष्णा रंजन, दुर्ग के स्वर्गीय कोदूराम दलित रघुवीर अग्रवाल पथिक और विमल कुमार पाठक, पिथौरा के स्वर्गीय मधु धान्धी और स्वर्गीय अनिरुद्ध भोई, बसना के स्वर्गीय विष्णु शरण, धमतरी के स्वर्गीय मुकीम भारती को भी बहुत आदर और सम्मान के साथ याद किया जाता है। रायपुर के रामेश्वर वैष्णव, रामेश्वर शर्मा और दुर्ग के पंडित दानेश्वर शर्मा हिन्दी और छत्तीसगढ़ी, दोनों ही भाषाओं के जाने -माने गीतकार हैं। अम्बिकापुर (सरगुजा )के शायर श्याम कश्यप ‘बेचैन’ को गज़लों की दुनिया में बेहतरीन पहचान मिल रही है तो कोरबा के डॉ. माणिक विश्वकर्मा नवरंग हिन्दी नवगीत लेखन में अग्रणी हैं। रायपुर के गिरीश पंकज कवि, कहानीकार, व्यंग्यकार और उपन्यासकार के रूप में स्थापित हैं। जांजगीर के सतीश कुमार सिंह, जगदलपुर के विजय सिंह, रामानुजगंज के पीयूष कुमार और बागबाहरा (जिला -महासमुंद) के रजत कृष्ण हिन्दी नयी कविता के सक्रिय और सुपरिचित हस्ताक्षर हैं।

हिन्दी की वर्तमान स्थिति पर विचार करते समय हमें इस तथ्य को भी ध्यान में रखना चाहिए कि हमारे इन मनीषियों ने पूरे देश को एकता के सूत्र में बाँध कर रखने के लिए समय -समय पर हिन्दी के महत्व को खास तौर पर रेखांकित किया था।

हिन्दी दिवस : यादगार दिन

स्वतंत्रता संग्राम के दिनों में हिन्दी ने ही पूरे देश को भावनात्मक रूप से संगठित किया । उस दौर में हिन्दी के कवियों, कहानीकारों, लेखकों और पत्रकारों ने अपनी लेखनी से देश की चारों दिशाओं में राष्ट्रीय चेतना का विस्तार किया। संभवतः यही कारण है कि आज़ादी के बाद देश के सभी राज्यों से आए हमारे महान नेताओं ने संविधान सभा में गहन विचार -मंथन के उपरांत हिन्दी को भारत की राजभाषा बनाने का प्रस्ताव पारित किया। वह 14 सितम्बर 1949 का यादगार दिन था। इस ऐतिहासिक घटना की याद में देश के सभी केन्द्रीय कार्यालयों, सार्वजनिक, उपक्रमों और राष्ट्रीयकृत बैंकों में राजभाषा पखवाड़े के साथ 14 सितम्बर को हिन्दी दिवस अवसर पर  तमाम तरह के कार्यक्रम  होते हैं। कई दफ़्तरों में यह पखवाड़ा एक सितम्बर से 14 सितम्बर तक मनाया जाता है। हिन्दी दिवस के दिन इसका समापन होता है, वहीं कई कार्यालयों में हिन्दी दिवस यानी 14 सितम्बर से इसकी शुरुआत होती है। इस दौरान  प्रतियोगिताएं और विचार गोष्ठियां भी होती हैं। लेकिन हिन्दी पखवाड़ा और हिन्दी दिवस खत्म होते ही सब कुछ पुराने ढर्रे पर चलने लगता है।

विचारणीय सवाल

विचारणीय सवाल यह है कि हिन्दी को 72 साल पहले राजभाषा का दर्जा तो मिल गया, लेकिन वह आखिर कब देश की सर्वोच्च अदालत सहित राज्यों के उच्च न्यायालयों और केन्द्रीय मंत्रालयों के सरकारी काम-काज की भाषा बनेगी? स्वतंत्र भारत के इतिहास में 14 सितम्बर 1949 वह यादगार दिन है जब हमारी संविधान सभा ने हिन्दी को भारत की राजभाषा का दर्जा दिया था। इसके लिए  संविधान में धारा 343 से 351 तक राजभाषा के बारे में ज़रूरी प्रावधान किए  गए।

राजभाषा अधिनियम

अंग्रेजी हुकूमत की गुलामी से हम पन्द्रह अगस्त 1947 को आज़ाद हुए और 26 जनवरी 1950 को देश में हमारा अपना संविधान लागू हुआ, जिसमे भाषाई प्रावधानों के तहत अनुच्छेद 343 से 351तक  के प्रावधान भी लागू हो गए. इसके बावजूद केन्द्र सरकार के अधिकांश मंत्रालयों से राज्यों को जारी होने वाले अधिकांश पत्र -परिपत्र प्रतिवेदन आज भी केवल अंग्रेजी में होते हैं, जिसे समझना गैर-अंग्रेजी वालों के लिए काफी मुश्किल होता है, जबकि राजभाषा अधिनियम 1963 के अनुसार केन्द्र सरकार के विभिन्न साधारण आदेशों, अधिसूचनाओं और सरकारी प्रतिवेदनों, नियमों आदि में अंग्रेजी के साथ -साथ हिन्दी का भी प्रयोग अनिवार्य किया गया है। इसके बाद भी ऐसे सरकारी दस्तावेजों में हिन्दी का अता-पता नहीं रहता। केन्द्र से जिस राज्य को ऐसा कोई सरकारी पत्र या प्रतिवेदन भेजा जा रहा है, वह उस राज्य की स्थानीय भाषा में भी अनुवादित होकर जाना चाहिए। लेकिन होता ये है कि नई दिल्ली से राज्यों को जो पत्र -परिपत्र अंग्रेजी में मिलते हैं, उन्हें मंत्रालयों के सम्बन्धित विभाग के अधिकारी सिर्फ़ एक अग्रेषण पत्र लगाकर और उसमें  ‘आवश्यक कार्रवाई हेतु’ और “कृत कार्रवाई से अवगत करावें’ लिखकर निचले कार्यालयों को भेज देते हैं।

सरकारी पत्र व्यवहार में हिन्दी

दरअसल हिन्दी भाषी राज्यों के मंत्रालयों और सरकारी कार्यालयों में अंग्रेजी जानने -समझने वाले अफसरों और कर्मचारियों की संख्या अपेक्षाकृत कम होती है। इसलिए उन्हें उन पत्रों में प्राप्त दिशा-निर्देशों के अनुरूप आगे की कार्रवाई में कठिनाई होती है। ऐसे में उनके निराकरण में स्वाभाविक रूप से विलम्ब होता ही है। केन्द्र की ओर से राज्यों के साथ सरकारी पत्र – व्यवहार अगर राजभाषा हिन्दी और प्रादेशिक भाषाओं में हो तो यह समस्या काफी हद तक कम हो सकती है।

हिन्दी कब बनेगी न्याय की भाषा ?

सर्वोच्च न्यायालय और उच्च न्यायालयों के तमाम फैसले भी अंग्रेजी में लिखे जाते है, जिन्हें अधिकाँश ऐसे आवेदक समझ ही नहीं पाते, जिनके बारे में फैसला होता है। ये अदालतें फैसला चाहे जो भी दें, लेकिन राजभाषा हिन्दी में तो दें, ताकि मुकदमे से जुड़े पक्षकार उसे आसानी से समझ सकें। अगर उन्हें अंग्रेजी में फैसला लिखना ज़रूरी लगता है तो उसके साथ उसका हिन्दी अनुवाद भी दें। गैर हिन्दी भाषी राज्यों में वहाँ की स्थानीय भाषा में फैसलों का अनुवाद उपलब्ध कराया जाना चाहिए।

छत्तीसगढ़ उच्च न्यायालय का सराहनीय निर्णय

इस मामले में अब तक की मेरी जानकारी के अनुसार छत्तीसगढ़ उच्च न्यायालय, बिलासपुर ने अपनी वेबसाइट में अदालती सूचनाओं के साथ-साथ फैसलों का हिन्दी अनुवाद भी देना शुरू कर दिया है, जो निश्चित रूप से सराहनीय और स्वागत योग्य है।

भारत सरकार का राजभाषा विभाग

यह अच्छी बात है कि भारत सरकार ने जून 1975 में राजभाषा से सम्बन्धित संवैधानिक और कानूनी प्रावधानों पर अमल सुनिश्चित करने के लिए राजभाषा विभाग का गठन किया है, जिसके माध्यम से हिन्दी को बढ़ावा देने के प्रयास भी किये जा रहे हैं। वैज्ञानिक और तकनीकी शब्दावली आयोग भी कार्यरत है लेकिन इस दिशा में और भी ज्यादा ठोस कदम उठाने की ज़रूरत है। वैसे आधुनिक युग में कम्प्यूटर और इंटरनेट पर देवनागरी लिपि का प्रयोग भी हिन्दी को विश्व स्तर पर पहचान दिलाने में काफी मददगार साबित हो रहा है।

लेकिन यह देखकर निराशा होती है कि हिन्दी दिवस के बड़े -बड़े आयोजनों में हिन्दी की पैरवी करने वाले अधिकाँश ऐसे लोग होते हैं जो अपने बच्चों को हिन्दी माध्यम के स्कूलों में पढाना अपनी शान के खिलाफ समझते हैं। दुकानों और बाजारों में लेन -देन के समय हिन्दी में बातचीत करने वाले कथित उच्च वर्गीय ग्राहकों को बड़े-बड़े होटलों में आयोजित सरकारी अथवा कार्पोरेटी बैठकों और सम्मेलनों में अंग्रेजी में बोलते -बतियाते देखा जा सकता है।

अंग्रेजी माध्यम के स्कूलों में ‘हिन्दी दिवस ‘मनाया नहीं जाता, वहाँ ‘हिन्दी -डे” सेलिब्रेट किया जाता है । शहरों में  चारों तरफ़ नज़र दौड़ाने पर अधिकांश दुकानों, होटलों  व्यावसायिक प्रतिष्ठानों और निजी स्कूल -कॉलेजों के अंग्रेजी नाम वाले बोर्ड देखने को मिलते हैं।

उन्हें देखने पर लगता है कि हमारी हिन्दी दम तोड़ रही है। हिन्दी माध्यम के स्कूलों में भी आगन्तुकों के स्वागत में बच्चे ‘नमस्ते’ नहीं बोलकर ‘गुड मॉर्निंग सर’ अथवा ‘गुड मॉर्निंग मैडम ‘ कहकर अभिवादन करते हैं। उन्हें ऐसा ही सिखाया जा रहा है। कुछ एक अपवादों को छोड़कर देखें तो अधिकांश भारतीय परिवारों में  माता-पिता ‘मम्मी -डैडी ‘ कहलाने लगे हैं। चाचा -चाची और मामा -मामी जैसे आत्मीय सम्बोधन ‘अंकल -आँटी’ में तब्दील हो गए हैं। पाठ्य पुस्तकों से देवनागरी के अंक गायब होते जा रहे हैं। उनमें पृष्ठ संख्या भी अंग्रेजी अंकों में छपी होती है। कई स्कूली बच्चे भारतीय अथवा हिन्दी महीनों और सप्ताह के दिनों के नाम नहीं बोल पाते जबकि अंग्रेजी महीनों और दिनों के नाम धाराप्रवाह बोल देते हैं। भारतीय बच्चे अगर फटाफट अंग्रेजी बोलें तो माता – पिता और अध्यापक गर्व से फूले नहीं समाते! हिन्दी अच्छे से बोलना और लिखना एक वर्ग में पिछड़ेपन की निशानी मानी जाती है। हिंदुस्तानी नागरिक अगर अंग्रेजी ठीक से न बोल पाए, न लिख पाए तो हम हिंदुस्तानी लोग ही उसका मज़ाक उड़ाने लगते हैं, जबकि कोई अंग्रेज अगर टूटी -फूटी हिन्दी बोले तो भी हम उसे सम्मान की दृष्टि से देखते हैं। विरोध अंग्रेजी भाषा का नहीं, बल्कि हम भारतीयों को शिंकजे में ले चुकी अंग्रेजी मानसिकता का है। हमें अंग्रेजियत की इस मानसिकता से उबरना होगा।

लेकिन जब आम जनता से हिन्दी में बात करने वाले कई बड़े-बड़े नेताओं को संसद में अंग्रेजी में बोलते देखा और सुना जा सकता है तो निराशा होती गया। क्या कोई बता सकता है कि ऐसे भारतीयों से भारत की राजभाषा के रूप में बेचारी हिन्दी आखिर उम्मीद करे भी तो क्या?

शोध आलेख

श्री स्वराज करुण,
वरिष्ठ साहित्यकार एवं ब्लॉगर रायपुर, छत्तीसगढ़

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