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छत्तीसगढ़ एवं मध्य प्रदेश के नवगीतकार

एक नवंबर 2020 को पृथक राज्य बनने से पूर्व छत्तीसगढ़ मध्यप्रदेश का अविभाज्य अंग था। प्राकृतिक सौंदर्य एवं अपार खनिज संपदा तथा समृद्ध साहित्यिक और सांस्कृतिक भंडार होने के बावजूद पहले उसकी कोई अलग पहचान से नहीं थी। दुष्यंत कुमार का यह शेर छ.ग. पर सटीक बैठता था और कई मामले में आज भी सटीक बैठता है कि- यहाँ तक आते आते सूख जाती है कई नदियाँ, मुझे मालूम है पानी कहाँ ठहरा हुआ होगा।

दुष्यंत को कम से पानी के ठहरने की जानकारी तो थी। यहाँ तो पता ही नहीं चल पाता था कि पानी कहाँ ठहरा और कौन कौन लोग उपकृत हुए या किन किन लोगों ने धन और बल के सहारे उसका दुरुपयोग किया। बहुत दूर एवं ऊँचाई से देखने पर बड़ी चीज़ भी छोटी दिखाई देती है, इसे ऐसे कहूँ कि उसका सहीं आकलन नहीं हो पाता तो ज्यादा बेहतर होगा।

छ.ग. की प्रतिभाओं के साथ भी यही हुआ। छ.ग.की गिनती संपन्न राज्यों में होती है। इसके गर्भ में वैदिक काल की गाथा छिपी हुई है। यह ऋषिमुनियों की तपोभूमि, माता कौशल्या का मायका एवं सृजनकर्ताओं का ठिकाना है।

जनश्रुतियों के अनुसार छ. ग. के धमतरी-तुरतुरिया में महर्षि वाल्मीकि ने संस्कृत भाषा में रामायण की रचना की थी। श्रृंगी ऋषि के सिहावा आश्रम में यज्ञ करने से राजा दशरथ को पुत्र प्राप्त हुए थे। महाकवि कालीदास ने भी अपने ग्रन्थ ऋतुसंहार की रचना छ. ग. में ही की थी। भारत का एक मात्र कौशल्या मंदिर चंदखुरी ग्राम में बना है। यहां पैंतीस से अधिक छोटी बड़ी नदियों का जाल बिछा हुआ है। साहित्य के इतिहास पर दृष्टि डालें तो लगभग हर काल में छ.ग.के साहित्यकारों की महती भूमिका एवं रचनात्मक भागीदारी दिखाई देती है।

आधुनिक काल में प्रचलित एवं स्थापित नवगीत विधा भी इससे अछूती नहीं है। बढ़ाने को तो मैं छ.ग.के नवगीतकारों की सूची को औरों की तरह प्रशंसकों ,चेले-चपाटियों एवं कुबेरों के नाम जोड़कर अर्धशतक तक बढ़ा सकता हूँ। पुस्तक खरीदने की शर्त पर नवगीतकार कोश वगैरह में उनका नाम छापकर नवगीतकार होने का मुगालता दे सकता हूँ लेकिन मैंने कभी ऐसा नहीं किया।

छत्तीसगढ़ में नवगीत लेखन की परंपरा की शुरुआत किसने की यह कहना बहुत कठिन है क्योंकि आकलन का पैमाना सामान्यतः प्रकाशन एवं प्रसारण को माना जाता है या जनश्रुतियों को। जनश्रुतियों का हवाला देकर कई बार ऐसे लोगों को भी इतिहास से जोड़ दिया जाता है जिनकी भूमिका उल्लेखनीय नहीं होती।

इस आलेख में ऐसे लोगों को शामिल किया गया है जिन्होंने नवगीत लेखन को काफ़ी समय दिया है या उनके नवगीत उल्लेख करने योग्य हैं। भले ही वे किसी नवगीत दशक, अर्धशती या शतक में प्रकाशित न हुए हों। स्वतंत्र राज्य बनने से पूर्व छ.ग. को जैसा अवसर मिलना चाहिए था नहीं मिला। यह भी एक कारण है जिसके चलते यहाँ के काव्य की चर्चा एवं उसका विस्तार राष्ट्रीय एवं अंतरराष्ट्रीय स्तर पर अपेक्षाकृत कम हो पाया।

जहाँ तक नवगीत के उद्भव का सवाल है तो इसकी झलक निराला की रचनकाओं में दृष्टिगत होती है। सामाजिक यथार्थ एवं मानव मूल्यों से उनकी रचनाएँ प्रभावित थीं। अज्ञेय द्वारा 1949 में संपादित ‘प्रतीक’ द्विमासिक, शरद अंक एवं रूपांबरा में सम्मिलित रचनाओं में भी नवगीत के तत्व विद्यमान थे। 1957 तक पारंपरिक गीतों में बदलाव साफ़ दिखाई देने लगा था।

राजेन्द्र प्रसाद सिंह के संपादन में सन 1958 में ‘गीतांगिनी’ का प्रकाशन हुआ। इसमें नवगीत के नामकरण के साथ आवश्यक तत्वों का निर्धारण भी किया किया। सन 1959 से अबतक नवगीतों पर अनेक संकलन आ चुके हैं। विमर्श का सिलसिला अभी भी ज़ारी है। छ.ग.में लिखे गए या लिखे जा रहे नवगीतों का यहाँ की उपज दूबराज और बासमती चाँवल की तरह अपना अलग मिजाज है।

यहाँ के नवगीतकारों पर दृष्टि डालें तो – अनिरुद्ध नीरव की गणना देश के लब्ध प्रतिष्ठ नवगीतकारों में होती है। उनके नवगीतों में शिल्प एवं मानवीय संवेदना का अद्भुत संतुलन दिखाई देता है। उनके नवगीत संग्रह – उड़ने की मुद्रा में की सभी रचनाएँ सहज, संश्लिष्ट एवं दृष्टि संपन्न हैं। कुछ पंक्तियां द्रष्टव्य है – •चिड़िया / पत्थर हो जाए तो ? / ये चिमनी / सीमेंट मिलों की / ये विष के बादल / विकसित होने की / परिणति हैं / या पापों के फल / हल से / मक्खन होती मिट्टी /बंजर हो जाए तो ? • यह नदी / रोटी पकाती है / हमारे गाँव में /सूखती-सी / क्यारियों में /फूलगोभी बन हँसे /गंध / धनिए में सहेजे / मिर्च में ज्वाला कसे /यह कड़ाही / खुदबुदाती है /हमारे गाँव में।

शिक्षा विभाग से सेवानिवृत्त हुए ईश्वरी यादव ने छंद के अलावा नवगीत पर भी अपना ध्यान केन्द्रित किया और इस क्षेत्र में अपनी उपस्थिति दर्ज करवाई । उनके नवगीतों में थके हारों की पीड़ा कुछ इस प्रकार व्यक्त होती है – • दोपहरी सिमट गई / छितराई शाम / माधो मछुआरे ने / बाँध लिया जाल / लौट चला फिर उसको / काँधे में डाल / मंदिर के पिछवाड़े / फेंककर प्रणाम / दोपहरी सिमट गई / छितराई शाम। • कैसे दिन बीतेंगे आगे / सोच रही है रामरती / दीवारों में पड़ी दरारें / घर की पाटी टूटी है / ढीठ बवंडर ने छप्पर की/अस्मत जम कर लूटी है / कहाँ छिपेगी छुईमुई-सी / बेटी प्यारी पारबती।

भाषाविद् एवं गीतकार डॉ.चितरंजन कर के नवगीतों में प्रकृति एवं प्रवृत्ति में व्याप्त विसंगतियों के प्रतिरोध का स्वर दिखाई देता है।उनकी ये पंक्तियां अत्यंत मार्मिक एवं प्रभावी हैं –
• रात बंद कमरे में समय लगा डोलने / सुबह सुबह आई थी किरण द्वार खोलने / फावड़ों कुदालों की छूटी जब बाँह / घने पेड़ के नीचे लेट गई छाँह / पहरेदारी करती रही दोपहर / संध्या ने कहा चलो अब अपने घर / मिटा दी थकान सिर्फ इतने से बोल ने । • वैरागी मन लहक लहक गया/अनुरागी मन बहक बहक गया/जले घास-पात लगी जंगल में आग/झींगुर भी छेड़ रहे हैं भैरव राग/धुँगियाता मन दहक दहक गया

मुख्य रूप से व्यंग्य विधा के धनी गिरिश पंकज ने शुरुआती दिनों में कुछ ऐसे नवगीत की रचना की जिनका उल्लेख अक्सर किया जाता है । उदाहरण के तौर पर –
• जैसे बदले रिंगटोन’ वे / रिश्ते भी / बदले हैं वैसे / मोबाइल का सेट क़ीमती / खुद को बड़ा रईस दिखाते / जो हैं बड़े लुटेरे वे सब / हल्केपन से बच ना पाते / ‘कवरेज’ से बाहर का जीवन / धरती पर / आएंगे कैसे ? • डर लगता है यार / बताओ कहां धरूँ मैं पैर / गड़े झंडे -ही-झंडे / सड़कों पर / नंगे आदमखोर खड़े / हर चौराहे पर / मिलते हैं चोर बड़े / दया, धर्म की चाकू लेकर / चले आ रहे पंडे-ही-पंडे ।

बहुमुखी प्रतिभा के धनी विजय राठौर हालांकि इनदिनों ग़ज़ल के नये स्वरूप को लेकर युद्धस्तर पर सक्रिय हैं । फिर भी अपने नवगीत में उन्होंने सत्ता एवं व्यवस्था के चरित्र को कुछ इस व्यक्त किया है – • सृष्टि नाप लेगा यह शायद / अपना मस्तक कहाँ बचाएँ / दुर्योधन सा / एकछत्र शासन वह चाहे / फ्रेम मढ़ाकर / पुरखों को टँगवा देता है / चाहे ,पूरा देश / उसी की करे हुजूरी / आलोचक को / दसों फीट गड़वा देता है / समझ नहीं पाता है / वह आँसू की भाषा / अपने आँसू कहाँ दिखाएँ • धैर्य की सलाई से / जिन्दगी की फिर नई स्वेटर बुनें / धुंध बहुत छाई है / विष भरी हवाएँ हैं / जिधर दृष्टि डालें हम / मौत की कथाएं हैं / मुँह पर पट्टी बाँधे / पाँव को अचल करके / हार के डर से न अपना सिर धुनें ।

नये पाठ पत्रिका के संपादक एवं गीतकार डॉ.अजय पाठक के नवगीतों में जनपदीय चेतना एवं सामूहिक भाव संवेदन का सुन्दर समन्वय दिखाई देता है। कुछ पंक्तियां पेश ख़िदमत है –
• बूढ़े हुए कबीर / आजकल / ऊँचा सुनते हैं /आंखो से है साफ झलकती / भीतर की बेचैनी / हुए अकारथ साखी-दोहे / बिरथा गई रमैनी / खांस-खांस कर/ समरसता की चादर बुनते हैं। मगहर का माहौल सियासी / पहले जैसा है/ माया ठगिनी की बस्ती में/ सब कुछ पैसा है/ पंडित, मुल्ला/ अब भी/ कांकर-पाथर चुनते हैं। • .”सौ-सौ चीते” /बची हुई साँसों पर आगे/ जाने क्या कुछ बीते / एक हिरण पर सौ-सौ चीते/ चलें कहाँ तक, राह रोकती सर्वत्र नाकामी/ कहर मचाती, यहाँ-वहाँ तक फैली सुनामी/ नीलकंठ हो गए जगत का/ घूँट-हलाहल पीते।

स्व.अशोक शर्मा का विज़न एवं कैनवास बहुत व्यापक था। जीवन की सच्चाइयों को वे हूबहू रूपायित करते थे। कुछ पंक्तियाँ इस दृष्टि से गौरतलब हैं –
• मेरे भी घर यही हादसा / आख़िरकार हुआ/ सूख गया है/ बहुत पुराना/घर में खुदा कुआँ/ आग चढ़ी हड़िया के दाने / अबतक कच्चे हैं/ पत्तल लिए हाथ में बैठे/ भूखे बच्चे हैं/ जलती लकड़ी से उठता है/ काला स्याह धुआँ
•.समीकरण चूल्हे चक्की का / खाता मेल नहीं/ आज नहीं है घर में आटा/ कल था तेल नहीं / माँ कहती है दाल पकाना मुँख में दाँत नहीं/ कई दिनों से पिता कह रहे/ खाया भात नहीं/ दाल भात का जोड़ बिठाना/ बस का खेल नहींं

स्व.त्रिभुवन पाण्डेय अपने नवगीतों में आधुनिक जीवन शैली के खोखलेपन एवं नारकीय जीवन के यथार्थ को बख़ूबी रेखांकित करते हैं। कुछ महत्वपूर्ण पंक्तियां –
• आ गए शब्दों पर / पहरे के दिन/ उनके ही नारे हों /उनका ही ध्वज/ उनका इतिहास हो/ उनके पूर्वज/ उनकी ही आस्था पर / ठहरे से दिन। • बोझ लदे कंधों पर/ काँवर भर धूप/ खोज रहे लकड़हारे/ पेड़ों की छाँव/ हाँफ रही नदियों में/ थकी हुई नाव/ अलग अलग तृष्णा है/ एक ही स्वरूप/ सपनों में दिखते हैं / पोखर और ताल/ पूछ रही पुरवासिन/ पनघट का हाल/ पत्तों सा कुम्हलाया/ धनिया का रूप

स्व.नारायण लाल परमार के नवगीतों में अनुभूति एवं अभिव्यक्ति का बेजोड़ समन्वय दिखाई देता है । प्रकृति, मनुष्य एवं जीवन से उनका गहरा रिश्ता रहा।सटीक बिंबों का रचाव ,भाषिक सौंदर्य एवं शब्द विन्यास की कुशलता उनके नवगीतों की विशेषता है।मिसाल के रूप में –
• माँगती हिसाब नहीं / रेत कभी पानी से/ जीने का अर्थ एक/ क्षण प्रतिक्षण जागता/ हर स्थिति को अपने/ अनुभव से पागता/ स्वाभिमान ऊँचा होता/ अक्सर धानी से।
• आदमीं सलीब पर / और बहस ज़ारी है /जासूसी से भरा/ लगता हर दृश्य है/ नोटिस हड़ताल की/ दे चुका भविष्य है/ वर्तमान बेखबर/ और बहस ज़ारी है।

छत्तीसगढ़ी लोकगीतों के कुशल चितेरे , ग़ज़लकार रामेश्वर वैष्णव ने भी आरंभिक दिनों में नवगीतों की रचना की थी। शंभुनाथ सिंह द्वारा संपादित नवगीत अर्धशती में उनके नवगीत भी नारायण लाल परमार एवं नरेन्द्र श्रीवास्तव के साथ शामिल हुए थे। हालांकि बाद में उन्होंने इस विधा पर और काम नहीं किया। उनके नवगीतों में सामाजिक विसंगतियां एवं आत्मसंघर्ष की व्यथा दिखाई देती है। उन्होंने लिखा है कि- • आग के समंदर में/ कागज़ की नाव/ अपना यह गाँव /दीवारें ढोती है/ धुएं की कथा/ चेहरों पर घुली हुईं/ जलन की व्यथा/ बस्ती भर नाच रहा/ नंगा आतंक/ यहाँ ज़िदगी जैसे/ कोढ़ी के पाँव । • इन गलियों से होकर बह गई/ परिवर्तन की दो दो आँधियाँ/ कोई पत्ता लेकिन हिला नहीं/ सुनते हैं राजपथों में उसदिन/ आयीं ख़ुशियाँ लिए बहार/ सड़कों के लोग गए संसद में/ खुलवाने एक नया द्वार/ झोपड़ियां बची खुची रह गईं/ महलों की खुली नहीं खिड़कियां/ और हिला तक उनका किला नहीं।

मोहन भारतीय के अधिकांश नवगीत भावबोध एवं विचार बोध से उर्जस्वित हैं।जीवन के दर्दीले दंश को उन्होंने ख़ूबसूरती से चित्रित किया है । वे लिखते हैं –
• जिला बदर कर दिया समय ने/बिना किसी अपराध के/ चलने पर मज़बूर किया है/ पाँव में पत्थर बाँध के । •. मैंने उँगली थाम स्वप्न को/ पाँवों चलना सिखा दिया/ लेकिन जग ने हर सपने पर/ कुंठित पहरा लगा दिया।

अहिन्दी भाषी होने के बावजूद सत्यप्रसन्न की भाषा प्रांजल होती है। उनके नवगीतों में संवेदनाओं का बौद्धिक पुनर्गठन अद्भुत रहता है । उनके गीत – नवगीत संग्रह ‘चातक मन की’ से कुछ उल्लेखनीय अंश – • गलियाँ गुमसुम ,सड़कें शापित/ चौराहे में डर/ खंडित है विश्वास /टूटता है आशा का गेह/ एक साँस को है दूजे पर जाने क्यों संदेह/ पृष्ठों की हत्या में शामिल / हैं उसके अक्षर। • देश निकाला हुआ सत्य का / हुआ अनृत का राज/ सर्वनाम के दरवाजे पर / संज्ञा काबिज़ आज/ मठा डालकर सींच रहे हम / बिरछ ज़िदगी के/ हमने बदल दिए हैं सारे/ तौर बंदगी के/ प्रेम कपोत दबाकर पंजे/ उड़ा समय का बाज

गीतकार स्व.पुष्कर भारती मेरे घनिष्ठ रहे हैं। सन 1980 में हम दोनों बालको के अनुसंधान एवं नियंत्रण प्रयोगशाला के स्मेल्टर अनुविभाग में एक साथ काम करते थे। एक दूसरे के गीतों एवं ग़ज़लों के प्रथम श्रोता होने के कारण आज भी मेरी स्मृति में उनके वो गीत हैं जिन्हें नवगीत की श्रेणी में रखा जा सकता है। कुछ पंक्तियाँ – • नहीं मायने रखता कोई / नज़र हमारी ओर फेंकना/ जागी रात मसहरी काटे/नागफनी ने मिलजुल बांटे/ आँगन के चुभते सन्नाटे/ सहमा सहमा रात का माथा/ पीछे मुड़कर नहीं देखना। • दीपक बाती नेह अगन बिन/ खूब जला ये हिया रातभर / नहीं मिला रजनीगंधा से/ ख़ुशबू का काफ़िया रातभर।

जब स्वयं (डॉ.माणिक विश्वकर्मा ‘नवरंग’) को अपनी रचनाधर्मिता के विषय में कहना पड़े तो बड़ी दिक्कत होती है। पिछले पैंतालीस वर्षों से छ.ग.की तीन पीढियों के साथ जुड़े रहने का अवसर मुझे मिला । यही वजह है कि मित्रों ने सबके विषय में लिखने की जिम्मेदारी मुझे थमा दी। मेरी चौदह प्रकाशित कृतियों में हिन्दी ग़ज़ल, कुंडलियां ,दोहे, मुक्तक, एकाग्र एवं संक्षिप्त इतिहास के अलावा दो गीत एवं एक नवगीत संग्रह शामिल हैं। आठवें दशक से मैं गीत एवं नवगीत लिख रहा हूँ।

बानगी के तौर पर कुछ पंक्तियां – • सालों धोबी घाट रहे हैं / हम बुधिया की खाट रहे हैं / ठाकुर बने हुए हैं राघव / मरे नहीं हैं घीसू माधव / घूम रहे हैं आगे पीछे / अब भी तलुए चाट रहे हैं । • मैं रोती हूँ , तू जलता है/ तब सबका जीवन चलता है/ टूट नहीं पाया दुनिया में/ चक्की से चूल्हे का नाता/ हम दोनों की ख़ातिर मानव/रोज़ कमाता रोज़ गँवाता/ हम दोनों हैं तो इज़्ज़त है/ वरना हर लम्हा ख़लता है।

मध्य प्रदेश से संबन्धित कला ,साहित्य एवं संस्कृति की राष्ट्रीय स्तर पर ख़ूब चर्चाएं हो चुकी हैं। लोग भलिभांति वाकिफ़ हैं । यदि नवगीत की बात करें तो मैं म.प्र. के अधिकांश नवगीतकारों को मैं पढ़ चुका हूँ। उनसे प्रभावित भी हूँ लेकिन सबकी पंक्तियों का उल्लेख न करते हुए सिर्फ़ कुछ लोगों की पंक्तियों का उल्लेख कर रहा हूँ। आशा है इसे मित्रगण अन्यथा नहीं लेंगे।

स्व.ओम प्रभाकर के नवगीत बिंम्ब सघनता एवं प्रतीक बाहुल्यता के कारण हृदय में गहरी छाप छोड़ते हैं । कुछ पंक्तियां – • इस क्षण यहाँ शान्त है जल/ पेड़ गड़े हैं/ घास जड़ी/ हवा सामने के खँडहर में/ मरी पड़ी/ नहीं कहीं कोई हलचल/ याद तुम्हारी/ अपना बोध/ कहीं अतल में जा डूबे हैं/ सारे शोध/ जमकर पत्थर है हर पल।

स्व.मुकुट बिहारी सरोज को यथार्थ की शिनाख्त करने में महारत हासिल था। निर्भिकता से अपनी बात रखा करते थे यथा- • इन्हें प्रणाम करो ये बड़े महान हैं/ दंत-कथाओं के उद्गम का पानी रखते हैं/ पूंजीवादी तन में मन भूदानी रखते हैं/ इनके जितने भी घर थे सभी आज दुकान हैं/ इन्हें प्रणाम करो ये बड़े महान हैं ।

सामाजिक विभेदताओं एवं विसंगतियों को रेखांकित करते हुए राम सेंगर कहते हैं –
• इकली है तो क्या / प्रसन्नमन / जीती जमुना बाई / गोबर-कूड़ा कर/ खूँटे पर गैया बाँधी/ हरियाई डाली, सानी दी,/ दूध निकाला / हाँड़ी चढ़ा बरोसी पर/ चूल्हा सुलगाया / झबरी कुतिया को/ रोटी का टुकड़ा डाला / गरमागरम चाय से सुस्ती/ कोसों दूर भगाई ।

व्यवस्था की पोल खोलते हुए आम आदमीं की विवशता को ख़बसूरती से उकेरा है राजा अवस्थी ने -​ • प्रगति के किस पंथ निकला/रथ शिखर चढ़ता रहेगा/कुँये का पानी/रसातल की तरफ जाने लगा/खाद ऐसा भूमि की ही/उर्वरा खाने लगा/बैल हल की जरूरत से/ मुक्त यन्त्रों ने किया/बेवजह हल-फाल शिल्पी/कहाँ तक गढ़ता रहेगा। • सपना क्यों टूटा-टूटा-सा/नभ में खुली उड़ान का/बिखरी हुई उदासी घर में/खामोशी ओढ़े दालानें/तैश भरे हैं कमशिन बच्चे/सिकुड़ी-सिकुड़ी-सी मुस्कानें/उल्टे पाँव सुनहरी किरणें/पश्चिम में कब की लौटी हैं/दद्दा की कमज़ोर नज़र-सा/रिश्ता गाँव-मकान का ।

भ्रष्ट व्यवस्था और बाज़ारवाद पर चिंतन की एक बानगी देखें स्व.महेश अनघ के नवगीत में-
• कौन है ? सम्वेदना / कह दो अभी घर में नहीं हूँ / कारख़ाने में बदन है/ और मन बाज़ार में/ साथ चलती ही नहीं/ अनुभूतियाँ व्यापार में/ क्यों जगाती चेतना/ मैं आज बिस्तर में नहीं हूँ । • तन मालिक का/ धन सरकारी/ मेरे हिस्से परमेसुर / शहर धुएँ के नाम चढ़ाओ/ सड़कें दे दो झंडों को/ पर्वत कूटनीति को अर्पित/ तीरथ दे दो पंडों को / खीर-खांड ख़ैराती खाते /हमको गौमाता के खुर।

प्रतिभा के अवमूल्यन एवं अक्षम लोगों की बोलती तूती पर स्व.नईम ने पहले ही चिंता व्यक्त की थी। आज उनका विकराल रूप सामने दिखाई पड़ता है – • लिखने जैसा लिख न सका मैं/ सिकता रहा भाड़ में लेकिन,/ ठीक तरह से सिक न सका मैं / अपने बदरँग आईनों में / यदा-कदा ही रहा झाँकता /थी औक़ात, हैसियत, / लेकिन अपने को कम रहा आँकता / ऊँची लगी बोलियाँ लेकिन,/ हाट-बाज़ारों बिक न सका मैं । • उनकी/टेढ़ी या सीधी हों,/ लेकिन हैं पांचों ही घी में/ रहे छीजते अपने ही ग्रह / और नखत ये धीमें धीमें/ जिसको जो भी मिला ले उड़े, / खुरपी टेढ़े बेंट आ जुड़े /होना था जिनको आधा/ वो एक रात में हुए डेवढ़े / होने को-क्या शेष रह गया/ कर लो जो भी आये जी में।

वैसे तो जहीर कुरेशी को हिन्दी ग़ज़लकार के रूप में जाना जाता है।लेकिन उनके लिखे नवगीतों का आकलन किया जाए तो वे किसी से कमतर दिखाई नहीं देते। बानगी के तौर पर – • बंजारों से चले/ पीठ पर लादे अपना घर/  मीलों लम्बा सफ़र/ योजनों लम्बा जीवन है / लेकिन, उसके साथ/ भ्रमित पंछी जैसा मन है /  ग़लत पते के ख़त-से / भटक रहे हैं इधर-उधर । • भीतर से तो हम श्मशान हैं/ बाहर मेले हैं / कपड़े पहने हुए/ स्वयं को नंगे लगते हैं/ दान दे रहे हैं/ फिर भी भिखमंगे लगते हैं/ ककड़ी के धोखे में/ बिकते हुए करेले हैं ।

आबादी का बहुत बड़ा हिस्सा सपनों के सहारे जीवन जीता है। कभी चुनावी वादे ,तो कभी लुभावनी योजनाओं के पीछे भागते हुए । इसे स्व.डॉ. इशाक अश्क ने कुछ इस प्रकार व्यक्त किया है – • सपनों के घोड़े/ हम दौड़ाते रहे नींद में/ सपनों के घोड़े/ कैसे-कैसे किए इरादे/ मंसूबे बाँधे/ दुनिया भर का बोझ उठा लेंगे/ अपने कांधे/ खुली आँख तो व्यर्थ गए/ सब चाबुक/ सब कोड़े। • यह चुनावी शोर / तो बस/ एक नारा झुनझुना है/ जो ग़रीबों को/ थमाया जाएगा/ भीड़ पर/ फिर/ आज़माया जाएगा/ जाल यह फंदा/ चतुर कुछ/ ख़ास हाथों ने बुना है।

मनोज जैन ‘मधुर’ को नवगीत के आलोचक एवं विशिष्ट शैली में लेखन के लिए जाना जाता है । उनके नवगीतों में भाषा शास्त्र से अधिक लोक की भाषा एवं चेतना वैश्विक दिखाई पड़ती है। मनोज के छोटे पद बंधों का विन्यास मोहक एवं चित्ताकर्षक लगता है। उदाहरण स्वरूप –
• चाँद सरीखा/ मैं अपने को /घटते देख रहा हूँ। धीरे धीरे / सौ हिस्सों में /बंटते देख रहा हूँ /तोड़ पुलों को/ बना लिए हैं/ हमने बेढ़व टीले/ देख रहा हूँ/ संस्कृति के /नयन हुए हैं गीले /नई सदी को/ परम्परा से / कटते देख रहा हूँ। • शोक सभा का आयोजन है / सब कहते हैं/ हम बोलेंगे/ आँखों में घड़ियाली आँसू/ कोयल -सी तानें/ बोली में / दिखें आचरण मर्यादा में/ घातें ही घातें/ झोली में/ हवा जिधर बहकर/ जायेगी हम भी उसके/ संग हो लेंगे।

झूठ ,फरेब,चोरी एवं डकैती का युग चल रहा है कहें तो अतिशयोक्ति नहीं होगी। खूब लिखा जा रहा है इन पर लेकिन दूर दूर तक सुधार की कोई संभावना नज़र नहीं आती। प्रेमशंकर रघुवंशी ने सहीं कहा है – • बोलो भाई बोलो गम/चोर बडा़ या नंगा ऊँचा/ है न किसी से कोई कम / उन्हें सिर्फ खुद की चिंता है/ चाहे जग हो नरम गरम / रहबर तो दाखिल दफ्तर हैं/रखे जहाँ एटम बम / सबके लिए सोचते हर दिन / इसीलिए हैं आँखें नम! • रुँ -रुँ बाजा रुँगताडा/ लगे लबारी ढोल पीटने/ नाच रहे गलियों में नंगे/ भिन्न -भिन्न फिरकों में बँट कर/ भड़काते रहते दंगे/ ऐसे ऐसे काम करे ये/ ज्यों यमराजों के पाडा़।

यदि विसंगतियों के साथ नवगीत से संदेश प्रतिध्वनित होता हो तो यह नवगीतकार की कुशल कारीगरी मानी जाती है। इस संदर्भ में स्व.हरीश निगम की कुछ पंक्तियां – • मेहंदी-सुर्खी/ काजल लिखना/ महका-महका/ आँचल लिखना /धूप-धूप/ रिश्तों के/ जंगल/ ख़त्म नहीं/ होते हैं/ मरुथल/ जलते मन पर/ बादल लिखना । • धूप ने / ढाया कहर/ फूल घायल/ ताल सूखे/ हैं हवा के बोल रूखे /बो रहा मौसम/ ज़हर ।

आचार्य भागवत दुबे बहुमुखी प्रतिभा के रचनाकार हैं। नवगीत पर भी उन्होंने अपनी क़लम चलाई है एवं समसामायिक पीड़ा को खूबसूरती से चित्रित किया है।किसान एवं मजदूरों की व्यथा पर उनकी कुछ पंक्तियाँ- • आँख ऊषा ने खोली/ खनके चिड़ियों के कंगन/ छन्द किसानों ने लिख डाले/ हल से धरती पर/ स्वप्न ऊगने लगे सुनहरे/ बंजर पड़ती पर/ धरती पर उतार लाये/ ज्यों कृषक गंध मादन। • ग्रीष्म ने जब भी जलाये गाँव मेरे/ पीर की अनुभूति से परिचय हुआ है /धूप में मज़दूर जब नंगे बदन थे / देखकर आतप्त तब मेरे नयन थे/ सर्वहारा एक मुझमें तप रहा था / खुद मेरे अहसास को/विस्मय हुआ है !

जीवन संघर्ष एवं समय के साथ बदलते परिवेश की पीड़ा से मनुष्य आजीवन मुक्त नहीं हो पाता। किसी न किसी माध्यम से यह दुख उजागर हो ही जाता है। राघवेंद्र तिवारी ने इसे अपने नवगीत में बखूबी बयान किया है – • चढ़ते रहे पठार रातभर / दुखे बहुत टखने/ सन्नाटा अवसादहीन / मुस्कानों में चिंता/ आँसू में चुक गया कहीं/ आँखों का अभियंता/धूप हुई ठंडी प्रसंगवश/ बर्फ लगी तपने। • जो लोरियां सुनी थी मैंने/ माँ की टाँक लगे/ उनके परिवर्ती सुर अब/ परिवर्तित हो उमगे/ उन्मीलित पीसा करती माँ/ घर का सन्नाटा/ तब मिलता था घर की/ आवश्यकता का आटा/ पौर सानते गोबर का/ आध्यात्म कथा बनते/ सारा काम समेट लिया/ करती थी सुबह जगे।

ललित निबंध के कुशल शिल्पी एवं अक्षरा के संपादक श्रीराम परिहार का एक नवगीत संग्रह भी आ चुका है। गाँवों की मौजूदा स्थिति एवं अविश्वास का दंश झेल रहे लोगों की पीड़ा को उन्होंने मजबूती से स्वर प्रदान किया है । वे लिखते हैं – • उमर की स्लेट पर / हल की क़लम से/ लिखता इबारत / गाँव थका हारा/ साँसों की चलती धौंकनी/ पियराता देह का पठार/ झुर्री थामें, बूढ़ी मूँछें/ झेलतीं उम्मीदें कुठार करमजले हाथों के / शुभसंकेत मिटे/ पीपल पात सा / गाँव पका सारा। • ढलानों से उतरते हुए/ जब साँस अकेली होती है/ हम और अकेले होते हैं/ खुरापाती अँधेरों में/ टिटहरी का स्वर अकेला / सुबहों तक साथ वाला/ अनमना संकल्प दुकेला/ अविश्वासों के खेमे में/ जब आस अकेली होती है/ हम और अकेले होते हैं।

उपरोक्त नवगीतकारों अलावा म.प्र. के अनूप अशेष,अशोक गीते , कृष्ण बक्शी ,गिरिमोहन गिरी , जयप्रकाश श्रीवास्तव , मयंक श्रीवास्तव ,यतीन्द्रनाथ राही,रामकिशोर दाहिया, मधु शुक्ला,विनोद निगम ,श्याम सुन्दर दुबे ,ऋषिवंश ,विद्यानंदन राजीव ,राजकुमार रश्मि , जंगबहादुर बन्धु ,आनंद तिवारी,वीरेन्द्र निर्झर, अरुण दुबे ,जगदीश श्रीवास्तव , चित्रांश बाघमारे, देवेन्द्र कुमार पाठक, विजय बागरी विजय, रोहित रूसिया,शशि पुखार, डॉ. विद्यानंदन राजीव, भोलानाथ , शरद सिंह,रघुवीर शर्मा एवं स्व.पं.श्याम नारायण मिश्र के नवगीतों पर अपनी राय शब्द सीमा में बँधने के कारण व्यक्त नहीं कर पा रहा हूँ इसका मुझे अफसोस है।

साहित्य जगत में अपनी पुख्ता पहचान बनाने में कामयाब नवगीत की ओर आज सभी रचनाकारों का आकर्षण नये हों या पुराने हिन्दी ग़ज़लों की तरह निरंतर बढ़ रहा है। आज स्थिति यह है कि नवगीत के कई स्वयंभू मठाधीश बन गए हैं , वाट्सपिया एवं फ़ेसबुकिया लोगों की भीड़ जुटाकर । अनेक परिभाषाएं गढ़ी जाने लगीं हैं। ग़ज़लों की तरह नवगीत लिखने वालों की संख्या मे बढ़ोतरी के कारण गुणवत्ता पर बहुत प्रभाव पड़ा है।

दुष्यंत के बाद हिन्दी ग़ज़लों के साथ भी ऐसा ही हुआ था। थोक के भाव में ख़ूब संकलन निकाले गए , कुछ आर्थिक सहयोग के आधार पर तो कुछ क्रय करने की शर्त पर। अलग- अलग तर्कों के साथ ग़जल के अनेक नाम प्रकाश में आ गए। ये सिलसिला अभी भी ज़ारी है। आज नवगीत में वर्चस्व की लड़ाई एवं गुटबाजी से इंकार नहीं किया जा सकता। एक समूह द्वारा दूसरे समूहों के नवगीतों को कम आंकना या शिल्पगत कमज़ोर दिखाने का उपक्रम भी दिखाई देने लगा है। यह भविष्य के लिए अच्छा संकेत नहीं है।

प्रतिभा रूपी ख़ुशबू का सदैव सम्मान होना चाहिए चाहे वह किसी भी बाग से या गमले आ रही हो। यह शाश्वत सच है कि पचास साठ साल के अंतराल में हर प्रचलित विधा को समय की मांग के अनुरूप परिवर्तन के दौर का सामना करना पड़ता है। नवगीत के साथ भी इनदिनों यही हो रहा है। दरअसल नवगीत गीत ही है,वह गीत के अन्तर्गत नवाचार है,कोई अलग विधा नहीं है।

नवगीत गीत -परंपरा के विकास का वर्तमान स्वरूप है जिसमें समकालीन परिप्रेक्ष्य का समग्र मूल्यांकन दिखाई देता है।इसलिए इसे समकालीन गीत भी कहा जा सकता है। इस परिवर्तन को खुले मष्तिष्क से स्वीकार करना होगा। यह नवगीत की सफल यात्रा के लिए बहुत ज़रूरी है। मुझे विश्वास है नये आलोचक इस दिशा में अपनी महती भूमिका का निर्वहन पूरी ईमानदारी के साथ करेंगे।

आलेख

डॉ.माणिक विश्वकर्मा ‘नवरंग’,
क्वार्टर नंबर-ए.एस.14, पॉवरसिटी, अयोध्यापुरी
जमनीपाली, पो.जमनीपाली
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