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लोक आस्था का दर्पण : आठे कन्हैया

लोक की यह खासियत होती है कि उसमें किसी भी प्रकार की कोई कृत्रिमता या दिखावे के लिए कोई स्थान नहीं होता। वह सीधे-सीधे अपनी अभिव्यक्ति को सहज सरल ढ़ंग से शब्दों रंगो व अन्य कला माध्यमों से अभिव्यक्त करता है। तीज-त्यौहारों की परम्परा तो शिष्ट में भी है और लोक में भी है। किन्तु शिष्ट की अपेक्षा लोक के तीज त्यौहार ज्यादा रंगीले, सजीले, चटकीले और प्राणवान हैं।

ये तीज त्यौहार अपनी उनकी आस्थाओं और विश्वासों के संवाहक हैं। इसीलिए इनकी अभिव्यक्ति और अभिव्यक्ति के साधन हृदय को अधिक ग्राह्य और आकर्षित करने वाले हैं। छत्तीसगढ़ के लोक त्यौहारों में यह तथ्य और अधिक प्रभावकारी ढ़ंग से मुखरित हुआ है। ऐसा ही एक त्यौहार है जन्माष्टमी का लोकरूप ‘आठे कन्हैया‘। आठे कन्हैया केवल देव आस्था से उपजा पर्व नहीं है अपितु यह लोक शक्ति की स्थापना और भित्तिचित्र की लोक कल्पना का माध्यम है।

कृष्ण जन्मोल्लास की स्मृति में मनाया जाने वाला पर्व जन्माष्टमी ही छत्तीसगढ़ का ‘आठे कन्हैया‘ है। कृष्ण जन्म का कारण सभी जानते हैं कि उन्होंने दुष्ट आततायी अपने मामा मथुरा नरेश कंस के वध के लिए देवकी के गर्भ से जन्म लिया था। कहा भी कहा है-
जब-जब होई धरम के हानि, बाढ़ हीं असुर अधम अभिमानी।
तब-तब धरि प्रभु मनुज सरीरा, हरहिं भवनिधि सज्जन पीरा।।

वेदों में श्री कृष्ण का स्वरूप चाहे जैसा भी हो, परन्तु लोक में उनके स्वरूप और उनकी शक्ति की कल्पना एक लोक रक्षक और लोकनायक के रूप में की गई है। इसलिए उनका लोक रूप लोक के ज्यादा समीप है। और उनका चरित्र गान लोक के विभिन्न कला माध्यमों में ज्यादा व्यापक और सर्वग्राही है। इसलिए लोक गायकों के कंठों से फूट पड़ता है-
दुख हरो द्वारिका नाथ सरण में तेरी।
बिन काज आज महराज लाज गई मोरी।।

जब लोक की आवाज की अनसुनी हो रही थी, सामन्ती व्यवस्था लोक को पैरों तले रौंद रही थी, जब लोक को निर्वासित करने का षड्यंत्र किया जा रहा था। तब लोक की लाज की रक्षा के लिए, लोक की स्थापना के लिए कृष्ण ने लोक नायक का रूप धारण किया था। लोक तब भी ब्रजवासी के रूप में गाय-गोरू चराने वाले दीन-हीन और उपेक्षित थे। आज भी कमोबेश यही स्थिति है। आज आठे कन्हैया की सार्थकता अधिक है, क्योंकि लोक को उसकी ही भूमि से काटने के कुत्सित प्रयास हो रहे हैं। लोक पर आयातित संस्कृति का छिड़काव कर उसे समूल नष्ट करने की चेष्टाएँ हो रही हैं। तब हमें आठे कन्हैया के अर्थ को समझना होगा।

आठे कन्हैया लोक संस्थापक श्री कृष्ण के जन्मोत्सव का केवल प्रतीक मात्र ही नहीं अपितु समूह की शक्ति को प्रतिस्थापित करने का पर्व है। उन्होंने हठी इन्द्र के मान-मर्दन व लोक रक्षण के लिए गोवर्धन पर्वत उठाया था। तब ग्वाल बालों के समूह ने जिस शक्ति शौर्य और सहयोग का प्रदर्शन किया था। आज लोक को उसी शक्ति शौर्य और सहयोग की आवश्यकता है। इसी लोक संगठन के रूप में श्रीकृष्ण लोक में ज्यादा पूज्य हैं।

आठे कन्हैया भादो महीने के कृष्ण पक्ष में अष्टमी को मनाया जाता है। संयोग देखिए कि श्रीकृष्ण देवकी के गर्भ से जन्म लेने वाली आठवीं सन्तान थे और उनका लोक अवतरण भी अष्टमी को हुआ। लोक को इन दोनों कारणों ने प्रभावित किया। इसलिए श्रीकृष्ण जन्माष्टमी को लोक ने आठे कन्हैया के रूप में स्वीकार किया। इस पर भी लोक की यह आस्था देखिए कि आठे कन्हैया के दिन ग्रामीण जन आठ बालचित्रों को दीवाल पर चित्रित कर पूजते हैं।

भादो की गहन अंधेरी रात में जब ब्रजवासियों के जीवन में अंधेरा था। तब उन्हें शासक वर्ग द्वारा यातनाएं दी जाती थी, उन्हें बेवजह दंडित किया जाता था। सर्वत्र आतंक और अत्याचार का बोलबाला था, ऐसे वातावरण में श्रीकृष्ण का लोकोदय एक प्रकाशपुंज की भाँति हुआ। आगे चलकर उसी लोकरूप में अपना आलोक फैलाकर उन्होंने लोक को आलेकित किया। उन्हें संगठित कर संर्घष के लिए तैयार किया। आठे कन्हैया इसी लोकभावना से पोषित है।

छत्तीसगढ़ के लोक जीवन में आठे कन्हैया के प्रति अगाध आस्था है। क्या बच्चे, बूढे, स्त्री-पुरूष सभी इस दिन उपवास रखते है और श्रीकृष्ण की जन्म बेला में आठे कन्हैया (भित्ति चित्र) की पूजा करते हैं। कंस के कारगार में देवकी व वासुदेव के जीवन की त्रासद स्थिति का मार्मिक चित्रण छत्तीसगढ़ी के सोहर गीत में हुआ है-

दुख झन मानव कहे
बसदेव धीरज बंधावे
कारागृह में पड़े हम दूनों
कतेक दुख ल साहन ओ
ललना ………………….
हाथ म हथकड़ी लगे
पांव में लगे बेड़ी ओ
कइस के हम दोनों मिली
दुख बड़ भारी ओ
ललना …………………..
बोलत हवे राजा बसदेव
रानी देवकी रोवथे ओ
प्राणनाथ मोर जीवन के आधार अब कइसे होही ओ
ललना ………………….
रिमझिम रिमझिम पनिया
जब बरसन लागे ओ
दीदी बिजली हे कइसे चमचम
चमकन लागे हो
ललना ………………….
आठे के दिन मोर ये दे
पैदा भए कान्हा ओ
कृष्ण अंधियारी राते
पैदा भए कान्हा ओ
ललना …………………………

प्राचीन काल से मानव ने अपने मन के भावों को गीत-संगीत और रंगो के माध्यम से अभिव्यक्ति दी है। आठे कन्हैया का भित्तिचित्र भीे इसी का प्रतिफलन है। आठे कन्हैया का यह चित्रांकन लोक की उज्जवल भावना का बोधक है जिसमें आठ चित्रों का अंकन किया जाता है। इस चित्रांकन के लिए किसी पक्के रंग या विशेष तामझाम की आवश्यकता नहीं पड़ती। घर में ही सुलभ संसाधन जैसे चूड़ी रंग, स्याही, सेमी, भेंगरा पत्ते आदि के कच्चे रंग से इन चित्रों को बनाया जाता है। इन चित्रों का अंकन कितना सहज और अकृत्रिम होता है कि अपने सीधे सादे रूप में भी अधिक प्राणवान लगते हैं।

लोक ने इन चित्रों की कल्पना तभी से किया होगा, जब आदि मानव ने गुफाओं में रहकर चित्रांकन करना प्रारंभ किया होगा। आठे कन्हैया का यह चित्रांकन उसका ही विकसित रूवरूप है । संभवतः आठे कन्हैया छत्तीसगढ़ की अति प्राचीन भित्ति कला है। आठे कन्हैया के दिन ग्रामीणजन घर की दीवार में 2-3 तीन फीट की ऊँचाई पर यह चित्र बनाते हैं और उसे अपनी कल्पना से आकार देते हैं, कच्चे रंगां से सजाते हैं। आसपास साँप-बिच्छू का भी चित्र बनाते हैं।

ये आठ चित्रों का समूह देवकी के गर्भ से पैदा हुई आठां संतान का सूचक है। और भादो की अष्टमी तिथि का भी। कुल मिलाकर यह लोक की अपनी कल्पना है। वे आठ चित्र समूह कहीं-कहीं दो पंक्तियों में और कहीं-कहीं एक ही पंक्ति में ही अंकित होते हैं। कुछ क्षेत्रों में इन चित्रों को नाव में सवार बताये जाते हैं। अंतिम छोर के चित्रों के हाथों में पतवारे होती हैं। कृष्ण जन्म और नाव के चित्रों को लोक चाहे इसे जो आकार दे ले पर उनकी आस्था एक ही होती है।

श्रीकृष्ण के लोक संस्थापक स्वरूप की पूजा। कारागृह में कृष्ण के जन्म लेने के साथ ही पहरेदार सो गये थे, दरवाजे अपने आप खुल गये थे। तब ईश्वरी प्रेरणा से वासुदेव ने नवजात कृष्ण को सूप में रखकर यमुना पार कर गोकुल पहुॅचाया था।

छत्तीसगढ़ में आज भी इसी भावना के अनुरूप शिशु के जन्म लेने पर धान से भरे सूप में शिशु को सुलाया जाता है और बाद में वह धान प्रसूति कार्य करने वाली सुईन (दाई) को दे दिया जाता है। इन्हीं सब आस्थाओं और लोक मान्याताओं से प्रेरित है आठे कन्हैया का यह भित्ति चित्र आज भी पूजा का माध्यम है। क्योंकि इन चित्रों से लोक का विश्वास जुड़ा हुआ है, उसकी आस्था और उनकी अस्मिता जुड़ी हुई है।

आठे को जन्म लेने वाला लोक का कृष्ण कन्हैया, नवमीं को ग्वालबालों के साथ गोपियों के दूध-दही लूटने के लिए उतावला हो जाता है। छत्तीसगढ़ में आठे कन्हैया के दूसरे दिन दही लूट सम्पन्न होता है। आठे कन्हैया की रात श्रीकृष्ण की बालमूर्ति को बाजे-गाजे के साथ लेकर जुलुस निकाला जाता है।

गाँव की गलियों और चौराहों पर दूध-दही के मटके लटकाए जाते हैं। जिसमें ग्वालबालां की टोली के स्वरूप में जनसमूह द्वारा दही लूटा जाता है। दही-लूट का दृश्य बेहद मनोरंजन और आकर्षक होता है। सारा गाँव उमड़ जाता है। गड़वा बाजा के साथ रंग-बिरंगी पोशाकों में राऊत नाचा और उसका मनोहारी नृत्य गाँव में गोकुल वृंदावन का कृष्णमय दृश्य उपस्थित कराता है। राऊत नर्तक दोहा पारता है-

वृंदावन की कुंज गली में, ऊँचे पेड़ खजूर।
जा चढ़ि देखे नंद कन्हैया, ग्वालिन कितना दूर।।
तो वहीं आनंद विभोर जनसमूह के नारों से गाँव गूंजने लगता है
दही लूट गोविन्दा
दही लूट गोविन्दा

इधर भजन गाने वाली टोली भी कृष्ण परक भजन गाकर आनंद को द्विगुणित करती है।
दही लूटो नंदलाल, दही लूटो नंदलाल
आठे कन्हैया दही लूटो …………………..

कृष्ण जन्माष्टमी अर्थात् आठे कन्हैया की पृष्ठभूमि से प्रारंभ दही लूट का यह आनंददायी कार्यक्रम लोक चेतना के प्रेरक कन्हैया के जन्म का लोक उत्सव के रूप में परिवर्तित होना लोक की जिजीविषा और उसके ऊर्जावान होने का द्योतक है।

लोक आस्था से उपजा आठे कन्हैया का यह पर्व लोक को और अधिक ऊर्जावान और प्राणवान बनाता है, यह लोक की आस्था का आईना है। जिसमें उसकी धवलता और निर्मलता प्रतिबिम्बत होती है। आठे कन्हैया केवल श्रीकृष्ण के जन्मोत्सव का सूचक नहीं, बल्कि छत्तीसगढ़ की भित्ति चित्र कला का उज्जवल पक्ष और लोक चेतना का प्रबोधक है।

आलेख

डॉ. पीसी लाल यादव
‘साहित्य कुटीर’ गंडई पंड़रिया जिला राजनांदगांव(छ.ग.) मो. नं. 9424113122 ईमल:- pisilalyadav55@gmail.com

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