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इतिहास एवं पुरातत्व के आईने में महासमुंद

महासमुंद जिला बने 27 माह 25 दिन ही हुए थे कि राज्यों के पुनर्गठन पश्चात 01 नवंबर 2000 को छत्तीसगढ़ देश का 26वां राज्य बना। 06 जुलाई 1998 के पूर्व यह रायपुर जिले का एक तहसील हुआ करता था। 1873-74 में भारतीय पुरातत्त्व सर्वेक्षण के अधिकारी जे.डी. बेगलर जब मध्य प्रांत और बरार के प्रवास के दौरान यहाँ आए तब महासमुंद बस एक गाँव था। उस समय ग्रेनाइट और लेटराईट पत्थर से बने दो पूर्वाभिमुख शिव मंदिर और प्राचीन गणेश मूर्ति के कुछ खंड-अवशेष उन्होने देखा था, जिसे वे 14वीं सदी ईस्वी के अंतिम चरण का बतलाते हैं। उनके अनुसार महासमुंद गाँव के पास स्थित एक बड़ा तालाब, जो उस समय तक बहुत पट चुका था, पर ही इस स्थान का यह नाम पड़ा होना संभावित है। (जे.डी. बेगलर, 1873-74, आर्कियोलाजिकल सर्वे ऑफ इंडिया रिपोर्ट, वॉल्यूम-7)

1861 में जब मध्य प्रांत का गठन हुआ, उस समय छत्तीसगढ़ एक जिला हुआ करता था। 1862 में छत्तीसगढ़ को संभाग का दर्जा मिला और इसके अंतर्गत तीन जिले रायपुर, बिलासपुर और सम्बलपुर बनाये गये। साल 1905 में सरगुजा क्षेत्र के पाँचों रियासतों को भी मध्य प्रांत में मिला लिया गया और सम्बलपुर को बंगाल प्रांत में शामिल कर लिया गया। 1906 में रायपुर के कुछ हिस्से को अलग कर दुर्ग जिले का गठन हुआ। इसी समय फुलझर जमींदारी को सम्बलपुर से पृथक कर रायपुर जिले में मिलाया गया। 1873-74 में बेगलर ने जिस महासमुंद का जिक्र एक गाँव के रूप में किया था, 1906 में वह रायपुर जिले का एक तहसील बन चुका था। तब फुलझर, कौड़िया, सोनाखान, सुअरमाल (कोमाखान), नर्रा सहित खरियार जमींदारी भी इसी तहसील के अंतर्गत हुआ करता था। (ए.इ. नेल्सन, 1909, रायपुर डिस्ट्रिक्ट गजेटियर)

महानदी छत्तीसगढ़ कि सबसे बड़ी नदी है जो महासमुंद जिले की पश्चिमी सीमा का निर्धारण करती है। जिले के अंतर्गत प्रवाहित होने वाली सबसे बड़ी नदी जोंक ही है जिसका उद्गम सुनाबेड़ा पठार (नुआपाड़ा जिला ओडिशा में) से हुआ है और यह शिवरीनारायण के निकट महानदी में समाहित हो जाती है। इसकी पहिचान पुराणों में उल्लिखित नदी पलाशिनी के रूप में की जाती है। (एल.एस. निगम, 1998, दक्षिण कोसल का ऐतिहासिक भूगोल एवं जितमित्र प्रसाद सिंहदेव, 2009, दक्षिण कोसल का सांस्कृतिक इतिहास)

वैसे तो महासमुंद जिले में ऐतिहासिक एवं पुरातत्त्वीय महत्त्व के स्थलों की कोई कमी नहीं है। इस जिले में प्रागैतिहासिक संस्कृति से सम्बद्ध चित्रित शैलाश्रय स्थल और उपकरण, लौह युगीन संस्कृति के प्रतिनिधि महापाषाणीय स्मारक स्थल, प्रारम्भिक ऐतिहासिक युग से जुड़े मृत्तिकागढ़ स्थल से लेकर ऐतिहासिक कालखंड के विभिन्न चरणों से संबन्धित अनेकानेक पुरास्थल प्रकाश में आ चुके हैं, जिससे यह सहज अनुमान लगाया जा सकता है कि यह भूभाग प्राचीनकाल से ही सांस्कृतिक दृष्टिकोण से अत्यंत महत्वपूर्ण रहा है।

यहाँ महानदी के दाहिने तट पर बसा सिरपुर है, जो आज से लगभग 1500 साल पहले दक्षिण कोसल की राजधानी ‘श्रीपुर’ हुआ करती थी। विश्व चर्चित और ईष्टिका निर्मित लक्ष्मण मंदिर यहीं है, जो न केवल महासमुंद अथवा छत्तीसगढ़ बल्कि भारत की शान है और राष्ट्रीय महत्व का केंद्रीय संरक्षित स्मारक भी। यहाँ खल्लारी भी है जो 15वीं सदी ईस्वी के आरंभ में रायपुर शाखा के कलचुरी राजा ब्रह्मदेव की राजधानी ‘खल्वाटिका’ रही। यहीं देवपाल मोची ने आज से 607 साल पहले नारायण का मंदिर बनवाकर सामाजिक समरसता का कीर्तिस्तंभ स्थापित किया। छत्तीसगढ़ में महासमुंद के अलावा शायद ही कोई ऐसा कोई जिला हो जिसकी भौगोलिक परिधि में दो-दो प्राचीन राजधानियाँ हों। उपलब्ध जानकारी और प्रमाणों के आधार पर महासमुंद जिले के इतिहास और पुरातत्त्व का क्रमबद्ध विवरण प्रस्तुत है-

प्रागैतिहासिक कालीन स्थल

महासमुंद जिलांतर्गत जोंक नदी घाटी प्रागैतिहासिक संस्कृति से सम्बद्ध स्थलों की दृष्टि से धनी है। 1973 में मारागुड़ा घाटी (अब ओड़िशा में) से दो प्रस्तर हस्त कुठार मिले थे। जोंक नदी के तटवर्ती सेनभाटा, खुडमुडी (मध्यपाषाणयुगीन प्रस्तर उपकरण) डोंगरीपाली (सूक्ष्म पाषाण उपकरण), बेलटुकरी (मध्यपाषाणयुगीन प्रस्तर उपकरण), रेवा (मध्यपाषाणयुगीन प्रस्तर उपकरण), लिलेसर (मध्यपाषाणयुगीन प्रस्तर उपकरण और सूक्ष्म पाषाण उपकरण), उदरलामी (मध्यपाषाणयुगीन प्रस्तर उपकरण) और गीमा नामक गाँवों के समीप प्रागैतिहासिक स्थलों की खोज हुई है। (डॉ. शिवाकान्त बाजपेयी एवं डॉ. अतुल कुमार प्रधान, कोसल अंक 8, 2015)

बागबाहरा तहसील में ग्राम पंचायत मोहदी के निकट महादेव पठार है। यहाँ प्रसिद्ध चंपई माता के स्थान से लगभग 100 मीटर दूर एक चित्रित शैलाश्रय का पता चला है, जो स्थानीय लोगों में बेंदरा-कचहरी के नाम से जाना जाता है। दक्षिण-पश्चिम मुखी इस चित्रित शैलाश्रय की चौड़ाई 17 मीटर, गहराई 05 मीटर और ऊँचाई लगभग 02 मीटर है। इसकी पिछली दीवार पर छत के समीप बांये किनारे पर 05 सुस्पष्ट चित्र हैं और दाएं किनारे पर 02 अस्पष्ट अर्धचंद्राकर आकृतियाँ (लटकते हुए तोरण/बंदनवार के समान) द्रष्टव्य हैं। बांयी ओर के स्पष्ट चित्रों में (1) वानर, (2) एक-दूसरे के कमर पर हाथ रखकर नाचती हुई 11 मानवाकृतियाँ, (3) सूर्य अथवा पुष्प और (4) ज्यामितीय रेखांकन बने हुये हैं। समस्त चित्र इकहरे लाल गेरूवे रंग से निर्मित हैं। यह महासमुंद जिलान्तर्गत अब तक ज्ञात पहला चित्रित शैलाश्रय है। इन शैलचित्रों का तिथि निर्धारण करना एक चुनौती है क्योंकि यहाँ से अभी तक कोई संबद्ध प्रस्तर उपकरण अथवा अन्य कोई ऐसा साक्ष्य जो तिथि निर्धारण में सहायक हो उपलब्ध नहीं है। तथापि आकार और बनावट तथा छत्तीसगढ़ अंचल के अन्य चित्रित शैलाश्रयों के चित्रों से तुलनात्मक आधार पर यहाँ के उपलब्ध शैलचित्रों को प्रथम दृष्टया मध्य पाषाणकाल से प्रारंभिक इतिहास काल के मध्य का माना जा सकता है। इस चित्रित शैलाश्रय के पश्चिम में कुछ ही दूरी पर एक अन्य शैलाश्रय है इसमें चित्र नहीं हैं। अलबत्ता कोटरनुमा यह शैलाश्रय आदिमानव के आवास के सर्वथा अनुकूल है । (कोसल अंक 12, 2022)

महापाषाणीय स्मारक स्थल

लौह युगीन संस्कृति को समझने का महत्वपूर्ण जरिया माने जाने वाले महापाषाणीय स्मारकों की इस जिले में मौजूदगी महत्वपूर्ण है। आमतौर पर किसी सभ्यता की सूचना हमें उस काल के बस्ती के अवशेषों से मिलती है लेकिन यह जानना रोचक है कि महापाषाणीय संस्कृति के बारे में जानकारी उनके कब्रों से मिलती है। इस काल में मृतकों को आबादी से दूर पत्थरों के बीच दफनाने की यह परंपरा वस्तुतः दक्षिण भारत में आरंभ हुई थी। बसना से भंवरपुर जाने वाले मार्ग पर स्थित बरतियाभाटा में ऐसे ही महापाषाणीय स्मारक (कब्र) मिले हैं।

1992 में श्री ए.के. शर्मा ने यहाँ गाँव के पश्चिम में लगभग 600-700 मेनहिर (एकाश्म मृतक स्तम्भ) का समूह देखा था। उनके अनुसार यहाँ के महापाषाणीय स्तम्भ पूर्व-पश्चिम दिशा रेखा में खड़े किए गए हैं और उनका तराशा हुआ सतह पूर्वाभिमुख है जबकि मान्यतानुसार उत्तर-दक्षिण दिशा रेखा में होना चाहिए। ऐसे मेनहिर इस क्षेत्र में अभी तक और कहीं से नहीं मिले हैं। रूपाकृतिक विशेषताओं की दृष्टि से वे बरतीयाभाटा के महापाषाणीय स्मारकों को उत्तर-पूर्व भारत के नागालैंड, मणिपुर, मेघालय, असम से ज्ञात महापाषाणीय स्मारकों के समान और लगभग 1000 ईसा पूर्व प्राचीन इन्हें मध्य भारत और उत्तर-पूर्व के सांस्कृतिक सम्बन्धों का परिचायक मानते हैं। वर्तमान में यह महापाषाणीय स्मारक स्थल विलुप्ति के कगार पर है।

छत्तीसगढ़ में इस संस्कृति से सम्बद्ध अधिकांश स्थल बालोद और धमतरी जिले में हैं। बालोद जिलान्तर्गत धनोरा और करकाभाट दो ऐसे महापाषाणीय स्थल हैं, जहाँ पुरातत्त्वीय उत्खनन हुए हैं। बस्तर के कुछ जनजातीय (मुरिया और माड़िया) समुदायों में मृतात्मा के सम्मान में काष्ठ स्तम्भ स्थापित करने की परंपरा आज भी विद्यमान है। (ए.के. शर्मा, आर्किओ-एंथ्रोपोलाजी ऑफ छत्तीसगढ़ एवं एक्सकवेशन एट करकाभाट-छत्तीसगढ़)

प्रारम्भिक ऐतिहासिककालीन केंद्र

बसना के समीप पिरदा और भंवरपुर में जलयुक्त खाई से घिरे मृत्तिकागढ़ के अवशेष विद्यमान हैं। तलचिन्हों के आधार पर इनके प्रारम्भिक ऐतिहासिक युगीन (मल्हार के समकालीन) होने की संभावना है। बागबाहरा तहसील में स्थित सुअरमार गढ़ के चारो ओर खाई के अवशिष्ट भाग मिलते हैं जिनमें जल संधारण भी है किन्तु केंद्रीय भाग में मृत्तिकागढ़ के बजाय पहाड़ी विद्यमान होने से गिरिदुर्ग होने की संभावना है। खाई के भीतर कुछ टीले और प्राचीर के अवशेष देखे जा सकते हैं जो अपेक्षाकृत परवर्ती काल के जान पड़ते हैं। संभव है की सुअरमारगढ़ और उसी से मिलते-जुलते संरचना वाले गढ़फुलझर का उपयोग सुरक्षा प्राचीर के रूप में किया गया हो।

दक्षिण कोसल की प्राचीन राजधानी – सिरपुर (श्रीपुर)

महासमुंद जिले में महानदी के दाहिने तट पर बसा सिरपुर गुप्तोत्तर काल में दक्षिण कोसल में शासनरत शरभपुरीय और सोमवंशी शासकों की राजधानी रही । तब दक्षिण कोसल में वर्तमान छत्तीसगढ़ के महानदी, शिवनाथ और उनकी सहायक नदियों से सिंचित भूभाग और ओड़िशा का पश्चिमी सीमावर्ती क्षेत्र सम्मिलित था । सोमवंशी राजा महाशिवगुप्त बालार्जुन के समय में इस क्षेत्र की अभूतपूर्व उन्नति हुई जिसके प्रमाण सिरपुर से उपलब्ध प्राचीन स्मारक, भग्नावशेष, अभिलेख और कलाकृतियाँ हैं । इनमें गुप्त-वाकाटक कला के धरातल पर प्रस्फुटित एवं विकसित क्षेत्रीय विशेषताओं का प्रत्यक्ष अवलोकन किया जा सकता है । वैष्णव एवं शैव धर्मावलंबी सोमवंशियों के काल में ब्राह्मण धर्म के सभी सम्प्रदायों के साथ-साथ बौद्ध एवं जैन मत के विकास का प्रमाण उत्खनन से ज्ञात संरचनाओं और शिल्पाकृतियों में विद्यमान है, जिनसे तद्युगीन विभिन्न समाजों के धार्मिक विश्वास, विद्योपासना, कला और स्थापत्य में व्याप्त सहिष्णुता, सामंजस्य और सह अस्तित्व उजागर होता है । समाज और शासक वर्ग की इस विचारधारा का समकालीन संस्कृति के उन्नयन में महत्वपूर्ण योगदान रहा है ।

सिरपुर के धार्मिक एवं नागरक वास्तु, दैवीय एवं लौकिक प्रतिमाओं, अभिलेखों और विविध पुरावस्तुओं का क्षेत्रीय इतिहास में अत्यंत महत्वपूर्ण स्थान है । सर्वेक्षण, अन्वेषण, उत्खनन और शोधपरक लेखन के माध्यम से यहाँ के इतिहास और पुरातत्त्व को प्रकाश में लाकर क्षेत्रीय इतिहास को समृद्ध करने और भारतीय इतिहास में दक्षिण कोसल के कला और स्थापत्य को महत्वांकित करने अनेक विद्वानों ने कार्य किया है । पिछले 150 वर्षों में हुए शोधकार्यों और पुरातत्त्वीय उत्खनन से सिरपुर के इतिहास और पुरातत्त्व संबंधी संधान-सूत्र पूर्वापेक्षा समृद्ध हुए हैं । तत्संबंधी समेकित जानकारी को यहाँ तीन- (1) अन्वेषण और उत्खनन, (2) अभिलेख और सिक्के तथा (3) कला एवं स्थापत्य वर्गों के अंतर्गत समूहित किया गया है ।

(1) अन्वेषण और उत्खनन

सिरपुर के संबंध में प्रथम संक्षिप्त विवरण चार्ल्स ग्रांट (दि गजेटियर ऑफ दि सेन्ट्रल प्राविन्सेस ऑफ इण्डिया, 1870) ने प्रकाशित किया था जिससे ज्ञात होता है कि उस समय सिरपुर के अंतर्गत 81 गांव थे जो 150 वर्गमील क्षेत्र में फैले थे। यहाँ के अकूत पुरासंपदा को गवेषणात्मक दृष्टि से सर्वप्रथम प्रकाश में लाने का कार्य जे.डी. बेगलर (रिपोर्ट ऑफ अ टूअर इन बुंदेलखण्ड एण्ड मालवा, 1871-72 एण्ड इन दि सेन्ट्रल प्राविन्सेस, 1873-74), अलेक्ज़ेंडर कनिंघम (रिपोर्ट ऑफ अ टूअर इन दि सेन्ट्रल प्राविन्सेस एण्ड लोअर गंगेटिक दोआब इन 1881-82) और हेनरी कजिन्स (लिस्ट्स ऑफ एन्टिक्वेरियन रिमेन्स इन दि सेन्ट्रल प्राविन्सेस एण्ड बरार, आकिर्योलाजिकल सर्वे ऑफ इण्डिया रिपोर्टस, वाल्युम-19 और प्रोग्रेस रिपोर्ट ऑफ दि आर्कियोलाजिकल सर्वे ऑफ इण्डिया-वेस्टर्न सर्किल, 1903-04) ने किया था। इन ब्रिटीश अधिकारियों ने 19वीं सदी ईसवी के अंतिम चतुर्थांश में इस पुरास्थल का गहन सर्वेक्षण कर प्रतिवेदन प्रकाशित किये। उनके द्वारा सिरपुर की भौगोलिक विशेषताओं सहित तत्समय सतह पर विद्यमान प्राचीन भग्न संरचनाओं, प्रतिमाओं और अभिलेखों के साथ-साथ अर्वाचीन बसाहट एवं स्थानीय अनुश्रुतियों का भी दस्तावेजीकरण और सूक्ष्म विवेचन गंभीरतापूर्वक किया गया है जिससे न केवल सिरपुर का पुरावैभव विद्वत समाज के संज्ञान में आया वरन उक्त अधिकारियों के इतिहास और पुरातत्त्व विषयक अभिरूचि, जानकारी एवं अनुसंधानपरक दृष्टिकोण के विषय में भी परोक्ष जानकारी प्राप्त होती है।

बाद 1906 में ‘लक्ष्मण मंदिर एवं समीपवर्ती क्षेत्र’ तथा ‘सिरपुर गांव का समीपवर्ती क्षेत्र और पूर्व में स्थित टीला’ इस घोषणा के साथ कि ‘स्थानीय कलेक्टर की लिखित अनुमति एवं स्थानीय सरकार से लाईसेंस के बिना कोई वस्तु नहीं ले जाया जाएगा एवं कोई खुदाई नहीं किया जाएगा’ भारतीय पुरातत्त्व सर्वेक्षण द्वारा संरक्षित घोषित किया गया (राजपत्र अधिसूचना संख्या 111 और 112, जीओसीपी, पीडब्लूडी, बीएण्डआर, शाखा नागपुर, दिनांक 17.11.1906)। लक्ष्मण मंदिर के पीछे स्थित स्थल संग्रहालय/मूर्तिशाला कक्ष क्र.-1 के ठीक सामने ब्रिटीशकाल का एक शिलालेख है। इसका लेखविहीन निचला हिस्सा ज़मींदोज़ है जबकि सबसे ऊपर का हिस्सा चंद्राकार है। इस अर्वाचीन शिलालेख की प्रमुख विशेषता है इसका द्वैलिप्यात्मक (रोमन और नागरी) तथा द्वैभाषिक (आंग्ल और हिन्दी) होना। सबसे ऊपर लेख का शीर्षक NOTICE रोमन लिपि में खुदा है। उसके नीचे रोमन लिपि (सभी बड़े अक्षरों में) और आंग्ल भाषा में चार पक्तियों का लेख है। उसके बाद मध्य में एक क्षैतिज विभाजक रेखा है जिसके नीचे आंग्ल लेख का हिंदी (देशज) अनुवाद नागरी लिपि में तीन पंक्तियों में उत्कीर्ण है। लेख प्रकार है-

रोमन लिपि-आंग्ल भाषा नागरी लिपि-हिन्दी भाषा (देशज)
REMOVING
AND PAINTING
IMAGE NOT ALL
OWED

चंदनलगानेवोमूर्ति
उठानकीसक्तम
नाईहै

1906 में प्रकाशित राजपत्र और उक्त अभिलेख में विषय साम्यता के आधार पर यह प्रतीत होता है कि यह शिलालेख भी उसी समय के आसपास लिखवाया गया होगा। इसकी विषयवस्तु वर्तमान में केन्द्र एवं राज्य संरक्षित स्मारकों में लगाये जाने वाले ‘संरक्षण सूचना पट्ट’ के समान है। संभवतः यह शिलालेख संरक्षित स्मारकों में वर्तमान में पुरातत्त्वीय नियम, अधिनियम और शास्ती के उद्धरण सहित अंकित किये जाने वाले ‘संरक्षण सूचना पट्ट’ का आरंभिक प्रारूप है।
20वीं सदी ईसवी के प्रारंभ में सिरपुर और वहाँ स्थित स्मारकों के संरक्षित स्थल घोषित हो जाने के पश्चात् इसके इतिहास और पुरातत्त्व के अनुसंधान के प्रति समकालीन विद्वान आकृष्ट होने लगे। अभी तक जो कार्य हुए थे, वे उपलब्ध भग्नावशेषों एवं पुरावस्तुओं के समग्र किन्तु सामान्य परिचयात्मक विवरण तैयार करने तक सीमित थे। तदन्तर विद्वानों का ध्यान धीरे-धीरे स्थल पर विद्यमान स्थापत्य, मूर्तिकला और अभिलेखीय अवशेषों के विशेषीकृत अध्ययन की ओर उन्मुख होने लगा। इस दृष्टि से ए.एच. लांगहर्स्ट (आर्कियोलाजिकल सर्वे ऑफ इण्डिया, एनुअल रिपोर्ट 1909-10) ने सिरपुर सहित मध्य प्रांत के ईष्टिका मंदिरों पर कार्य किया। सेंट्रल प्राविन्सेस गजेटियर (सेन्ट्रल प्राविन्सेस डिस्ट्रिक्ट गजेटियर्स, बिलासपुर डिस्ट्रिक्ट, 1910) के इतिहास खण्ड में सिरपुर में शासन करने वाले राजवंशों का परिचय दिया गया है। सिरपुर के स्तंभों और कलाकृतियों को राजिम, रायपुर, धमतरी ले जाये जाने और खंडहरों की सामग्री से भोंसलों द्वारा गंधेश्वर मंदिर के बनाये जाने का उल्लेख रायपुर रश्मि और डिस्ट्रिक्ट गजेटियर, सेन्ट्रल प्राविन्स, 1925 में मिलता है। मुनि कांतिसागर (खण्डहरों का वैभव, भारतीय ज्ञानपीठ) ने सिरपुर के पुरातत्त्वीय अवषेषों का हिन्दू, जैन और बौद्ध पुरातत्त्व के अंतर्गत विस्तार से चर्चा करते हुए यहाँ से प्राप्त कांस्य जैन एवं बौद्ध प्रतिमाओं की विषद् व्याख्या की है। 
सिरपुर के पुरातत्त्व पर हुए उपरोक्त प्रारंभिक अध्ययनों से सिरपुर गुप्तोत्तरयुगीन शिल्प और स्थापत्य के महत्वपूर्ण केन्द्र और पूर्वमध्यकालीन वैभवशाली नगर के रूप में स्थापित हुआ। यहाँ सतह पर उपलब्ध कलावस्तुओं एवं भग्नावशेषों के समुचित परिप्रेक्ष्य में काल निर्धारण एवं व्यापक अध्ययन हेतु स्थल का सांस्कृतिक अनुक्रम ज्ञात करना आवश्यक था। इसी तारतम्य में मध्यप्रदेश शासन के पुरातत्त्व, अभिलेखागार एवं संग्रहालय विभाग तथा डॉ. हरिसिंह गौर विश्वविद्यालय, सागर के संयुक्त प्रयास से 1953 में सिरपुर का उत्खनन हुआ, जो दो सत्रों (1954-55 और 1955-56) तक मध्यप्रदेश शासन के तत्वाधान में क्रमशः जारी रहा। यह उत्खनन प्रो. एम.जी. दीक्षित के निदेशन में सम्पन्न हुआ। इस उत्खनन से ज्ञात भग्न संरचनाओं, प्रतिमाओं और पुरावशेषों का विवरण, रेखाचित्र एवं छायाचित्र इण्डियन आर्कियोलाजी-अ रिव्यू (1953-54, 1954-55, 1955-56), मुखलिंगम: सिरपुर एण्ड राजिम टेम्पल्स (डगलस बैरेट एवं एम.जी. दीक्षित), प्रगति (मध्यप्रदेश शासन, जनवरी-फरवरी, 1956) तथा शुक्ल अभिनंदन-ग्रंथ (इतिहास खण्ड) में प्रकाशित लेखों में उपलब्ध हैं। 
1956-57 में भारतीय पुरातत्त्व सर्वेक्षण के टेम्पल सर्वे प्रोजेक्ट के सुपरिन्टेन्डेंट द्वारा गुप्तोत्तर मंदिरों के अध्ययन के तारतम्य में सिरपुर और राजिम के मंदिरों का सर्वेक्षण किया गया था (इण्डियन आर्कियोलाजी-ए रिव्यू, 1956-57)। संत लाल कटारे ने सिरपुर उत्खनन से उपलब्ध सामग्रियों का तार्किक विवेचन किया है (इण्डियन हिस्टारिकल क्वार्टरली, 1959, जिल्द-35-1)। 1960-61 के दरम्यान भारतीय पुरातत्त्व सर्वेक्षण के दक्षिण-पूर्व मण्डल द्वारा लक्ष्मण मंदिर के समीप मलबा सफाई से ईष्टिका निर्मित दो गर्भगृह युक्त मंदिर के भग्नावशेष प्रकाश में आए थे (इण्डियन आर्कियोलाजी-ए रिव्यू, 1960-61)। कार्य के दौरान इसी परिसर से एक अत्यंत सुंदर चतुर्मुख लिंग प्राप्त हुआ था, जो वर्तमान में लक्ष्मण मंदिर के पीछे स्थल संग्रहालय कक्ष क्रमांक-1 के मध्य में प्रदर्शित है। यहाँ दक्षिण-पूर्व मण्डल द्वारा मलबा सफाई कर प्रकाश में लाए गये स्थल की पहचान किया जाना भी आवश्यक प्रतीत होता है। लक्ष्मण मंदिर के दक्षिण-पूर्व में लगभग 50 मी. दूर, दो गर्भगृह युक्त ईष्टिका मंदिर के भग्नावशेष विद्यमान हैं, जिसे ‘राम मंदिर’ के नाम से जाना जाता है। राम मंदिर के भग्नावशेष जंघा पर्यन्त पूर्व से ही विद्यमान थे जिसका उल्लेख बेगलर और कनिंघम ने भी किया है। अस्तु, विवेच्य स्थल की पहचान इसके ठीक बांये पार्श्व में स्थित संरचना से की जा सकती है जिससे स्पष्ट होता है कि सिरपुर के शिल्पकला की अनुपम कृति ‘चतुर्मुख लिंग’ की प्राप्ति उक्त राम मंदिर के समीप उद्घाटित संरचना से हुई थी।
रायपुर गजेटियर (मध्यप्रदेश डिस्ट्रिक्ट गजेटियर्स, रायपुर डिस्ट्रिक्ट) सिरपुर के प्रमुख स्मारकों लक्ष्मण मंदिर, राम मंदिर, गंधेश्वर मंदिर सहित एम.जी. दीक्षित द्वारा सिरपुर उत्खनन से प्रतिवेदित मंदिरों, बौद्ध विहारों, जैन प्रतिमा, अभिलेख और सिक्कों की जानकारी उद्धृत करता है। इसी तरह मध्यप्रदेश के कला-मण्डप (जगदीशचन्द्र चतुर्वेदी, कैलाश पुस्तक सदन भोपाल) में सिरपुर के प्रतिनिधि मंदिरों और मूर्तियों की जानकारी सन्निहित है। अगम प्रसाद सिंघल (थ्री सेंचुरीज़ ऑफ सिरपुर रिविलेशन बाय एक्सकवेषन, प्राच्य प्रतिभा, जिल्द 5, अंक 1, प्राच्य निकेतन भोपाल, 1977) ने सिरपुर उत्खनन की सामग्रियों को तीन शताब्दियों (7वीं से 10वीं सदी ईसवी) से संबंधित बतलाया है। 
महेशचन्द्र श्रीवास्तव (सिरपुर, मध्यप्रदेश हिन्दी ग्रंथ अकादमी, भोपाल, 1984) की कृति से जानकारी मिलती है कि एम.जी. दीक्षित ने 1953-56 के दौरान सात टीलों को अनावृत्त किया गया था जिनमें से दो शिव मंदिरों (केन्द्र संरक्षित स्मारक) और दो बौद्ध विहारों (राज्य संरक्षित स्मारक) के भग्नावषेष ही संरक्षित हैं। उत्खनन से प्राप्त कलात्मक प्रतिमाएँ और विविध पुरानिधियाँ महन्त घासीदास स्मारक संग्रहालय रायपुर में संग्रहित व प्रदर्शित हैं। इसमें प्रकाशित स्थल मानचित्र और उत्खनित संरचनाओं के भू-विन्यास के रेखाचित्र डॉ. एम.जी. दीक्षित के सिरपुर उत्खनन संबंधी अप्रकाशित प्रतिवेदन से लिये गये प्रतीत होते हैं क्योंकि ऐसे मानचित्र और रेखाचित्र उत्खनन के दौरान और अनुरक्षण के पूर्व उत्खननकर्त्ता द्वारा तैयार करवाये जाते हैं। रायपुर के तत्कालीन रजिस्ट्रीकरण अधिकारी श्री एस.एस. यादव ने भी सिरपुर पर एक मार्गदर्शिका पुस्तिका का प्रकाशन करवाया था। इसी तरह डॉ. राजकुमार शर्मा (मध्यप्रदेश के पुरातत्त्व का संदर्भ ग्रंथ, हिन्दी ग्रंथ अकादमी, भोपाल) ने भी सिरपुर उत्खनन का ससंदर्भ विवरण प्रस्तुत किया है।
1956 के बाद लगभग 45 साल तक तक सिरपुर में पुरातत्त्वीय गतिविधियाँ नगण्य रहीं और इसी दौरान सिरपुर में पुरातत्त्व की अपूरणीय भी क्षति हुई। जागरूकता के अभाव में ग्रामीणों द्वारा प्राचीन टीलों को खोदकर भवन निर्माण हेतु ईंट और तराशे हुए प्रस्तरखण्ड निकाल लिए गये। आज भी सिरपुर और समीपवर्ती गांवों में प्राचीन ईंट-पत्थरों से बने मकानों को देखा जा सकता है। इससे पुरावस्तुओं की कितनी हानि हुई होगी इसका केवल अनुमान ही लगाया जा सकता है। उपलब्ध विवरणों में निहित सूचनाओं के आधार पर सिरपुर में पुरातत्त्व की क्षति का विवरण इस प्रकार प्रस्तुत किया जा सकता है-
  1. बेगलर (1873-74) ने महानदी और रायकेरा तालाब के बीच लगभग 10 भग्न मंदिरावशेषों के होने का जिक्र किया है जो वर्तमान में दृष्टिगोचर नहीं हैं।
  2. लक्ष्मण मंदिर के निकट टीले की खुदाई के दौरान 1939 में भीखम बाबा नामक व्यक्ति को लगभग 60 धातु प्रतिमाएँ मिली थीं जो 1945 में वहाँ के तत्कालीन मालगुजार दाऊ श्याम सुंदर अग्रवाल के आधिपत्य में आ गईं। इनमें से 2 नागपुर संग्रहालय और 9 रायपुर संग्रहालय द्वारा अवाप्त की गईं तथा 3 मूर्तियाँ जैन मुनि कांतिसागर को प्राप्त हुई थीं। शेष प्रतिमाओं का आज तक पता नहीं चला।
  3. डॉ. एम.जी. दीक्षित द्वारा उत्खनन (1953-56) से सात संरचनाएँ अनावृत्त की गई थीं जिनमें से चार ही वर्तमान हैं, शेष तीन संरचनाओं का अस्तित्व वर्तमान में ज्ञात नहीं है।
  4. 1987 में ग्रामीणों द्वारा सिरपुर बस्ती के समीप टीले से ईंट-पत्थर निकाले जाने के दौरान महाशिवगुप्त बालार्जुन के शासनकाल के नौ सेट ताम्रपत्र निधि और उमामहेश्वर की प्रस्तर प्रतिमा आकस्मिक रूप से प्रकाश में आई थी जो कालांतर में शासन द्वारा अवाप्त कर ली गई।
  5. सिरपुर के सोमवंशी मूर्तिकला की उत्कृष्ट कृति गरूड़ासीन विष्णु की प्रस्तर प्रतिमा गंधेश्वर मंदिर से चोरी हो गई थी जो आज तक प्राप्त नहीं हो सकी है।
    2000 में छत्तीसगढ़ राज्य गठन के साथ ही सिरपुर के उत्खनन का दूसरा चरण प्रारंभ होता है। बोधिसत्व नागार्जुन स्मारक संस्था व अनुसंधान केन्द्र मनसर, महाराष्ट्र की ओर से श्री जगतपति जोशी (पुरातत्त्व, अंक 30, 2000) और श्री ए.के. शर्मा (पुरारत्न, भाग-3, संपादक- सी. मार्गबन्धु एवं अन्य, आगम कला प्रकाशन, 2002) के संयुक्त निर्देशन में वर्ष 1999 से 2001 और 2002 से 2004 में कुल चार सत्रों में हुए उत्खनन से 4 शिवमंदिर, 3 बौद्ध विहार, पुरोहितावास और राजमहल सहित कुल 9 संरचनात्मक अवशेष प्रकाश में आए जिनका क्रमिक विवरण निम्नानुसार है-
    वर्ष टीला संख्या उत्खनन से ज्ञात संरचना
    1999-2000 एस.आर.पी.-1 बौद्ध विहार
    एस.आर.पी.-2 शिव मंदिर
    2000-2001 एस.आर.पी.-3 राजमहल के ध्वंसावशेष
    2002-2003 एस.आर.पी.-4 बौद्ध विहार
    एस.आर.पी.-5 बौद्ध विहार
    एस.आर.पी.-6 आवासीय भवन
    2003-2004 एस.आर.पी.-7 शिव मंदिर
    एस.आर.पी.-8 शिव मंदिर
    एस.आर.पी.-9 शिव मंदिर
    तत्पश्चात् संस्कृति विभाग, छत्तीसगढ़ शासन द्वारा श्री ए.के. शर्मा के निर्देशन में वर्ष 2004 से 2011 तक सिरपुर के 30 टीलों पर उत्खनन करवाया गया। फलस्वरूप 16 मंदिर, 4 बौद्ध विहार सहित जैन विहार, आवासीय भवनों के भग्नावशेष और विस्तृत क्षेत्र में नगरीय संरचना (बाजार क्षेत्र) अनावृत्त हुए जिनकी जानकारी इस प्रकार है-
    वर्ष टीला संख्या उत्खनन से ज्ञात संरचना
    2004-2005 एस.आर.पी.-10 बौद्ध विहार
    एस.आर.पी.-11 शिव मंदिर
    एस.आर.पी.-12 आवासीय भवनावशेष
    एस.आर.पी.-13 आवासीय भवनावशेष
    एस.आर.पी.-14 आवासीय भवनावशेष
    एस.आर.पी.-15 शिव मंदिर
    एस.आर.पी.-16 आवासीय भवनावशेष
    एस.आर.पी.-17 शिव मंदिर
    एस.आर.पी.-18ए सुरंग टीला पंचायतन मंदिर
    एस.आर.पी.-18बी युगल मंदिर (तांत्रिक मंदिर)
    2005-2006 एस.आर.पी.-18सी आवासीय भवनावशेष
    एस.आर.पी.-18डी शिव मंदिर
    एस.आर.पी.-19 बौद्ध विहार समूह
    एस.आर.पी.-20 आवासीय भवनावशेष
    एस.आर.पी.-21 शिव मंदिर
    एस.आर.पी.-22 आवासीय भवनावशेष
    2006-2007 एस.आर.पी.-23 शिव मंदिर
    एस.आर.पी.-24 शिव मंदिर
    एस.आर.पी.-25 जैन विहार
    एस.आर.पी.-26 शिव मंदिर
    एस.आर.पी.-27 युगल मंदिर
    2007-2008 एस.आर.पी.-28 युगल मंदिर
    एस.आर.पी.-29ए आवासीय सह व्यवसायिक भवनावशेष
    एस.आर.पी.-29बी आवासीय सह व्यवसायिक भवनावशेष
    एस.आर.पी.-29सी आवासीय सह व्यवसायिक भवनावशेष
    एस.आर.पी.-30 आवासीय सह व्यवसायिक भवनावशेष
    एस.आर.पी.-31 बौद्ध विहार
    एस.आर.पी.-32 बौद्ध विहार
    एस.आर.पी.-33 त्रिदेव मंदिर
    एस.आर.पी.-34 युगल मंदिर
    2008-2009 एस.आर.पी.-35 स्तूप
    एस.आर.पी.-36ए आवासीय भवनावशेष
    एस.आर.पी.-36बी शिव मंदिर
    एस.आर.पी.-37 विहार
    2009-2010 एस.आर.पी.-38ए चामुंडा मंदिर
    एस.आर.पी.-38बी युगल मंदिर
    2010-2011 एस.आर.पी.-39ए आवासीय सह व्यवसायिक भवनावशेष
    एस.आर.पी.-39बी आवासीय सहर व्यवसायिक भवनावशेष

उपरोक्त सभी उत्खनित स्मारक और उत्खनन में वहाँ से प्राप्त पुरावस्तुएँ भारतीय पुरातत्त्व सर्वेक्षण, रायपुर मण्डल के आधिपत्य में हैं। उत्खनन से ज्ञात संरचनाओं, प्रतिमाओं, अभिलेखों और पुरासामग्री की जानकारी श्री ए.के. शर्मा एवं उत्खनन दल के सहयोगियों के प्रकाशित लेख एवं पुस्तकों (सिरपुर टाउन प्लानिंग एण्ड आर्किटेक्चर, एक्सकवेशन्स एट सिरपुर छत्तीसगढ़, स्पेशल रिपोर्ट नं. 1, 2007; पुरामंथन, अंक 6, 2011; पुराजगत, संपादक सी मार्गबन्धु एवं अन्य, 2012; एन्शियन्ट टेम्पल्स ऑफ सिरपुर, 2012; बुद्धिस्ट मान्युमेन्ट्स ऑफ सिरपुर, 2014; जैनिज़्म एट सिरपुर, 2015; एपिग्राफ्स ऑफ सिरपुर, 2017; सेक्युलर मान्युमेंट्स ऑफ सिरपुर, 2014; मेटल टेक्नोलाजी ऑफ सिरपुर, 2017; एक्सकवेशन्स एट सिरपुरः 2000-2012-एंटीक्विटीज, 2017; पुरामंथन, अंक 7, 2014; कला-वैभव, अंक 20, वर्ष 2011-12)से प्राप्त होती है।

इसी दौरान वर्ष 2003-04 में भारतीय पुरातत्त्व सर्वेक्षण, रायपुर मण्डल के अधीक्षण पुराविद् डॉ. के. के. मोहम्मद के निर्देशन में राममंदिर परिसर के दक्षिण में स्थित टीले का उत्खनन कर एक आवासीय संरचना उद्घाटित की गई। (शिवाकान्त बाजपेयी, सिरपुरःपुरातत्त्व एवं पर्यटन, 2014; पंचमन, फरवरी-मार्च (संयुक्तांक), 2004)

संयुक्त रूप से देखा जाए तो 15 सत्रों में 47 स्थलों पर हुए उत्खनन के साथ सिरपुर उत्खनन अवधि और उत्खनित क्षेत्र की दृष्टि से देश के महत्वपूर्ण पुरास्थलों में से एक है। सिरपुर उत्खनन से प्रतिवेदित पुरातत्त्वीय स्रोतों के वस्तुनिष्ठ एवं शोधपरक अध्ययन की दिश में अभी भी कार्य की बहुत संभावनाएँ विद्यमान हैं। इनके सम्यक् अनुसंधान से भविष्य में क्षेत्रीय इतिहास के समृद्ध होने के साथ-साथ दक्षिण कोसल के प्राचीन कला, स्थापत्य और संस्कृति को भारतीय इतिहास में समुचित महत्व प्राप्त होने की संभावना है।

(2) अभिलेख और सिक्के

सिरपुर से शरभपुरीय शासकों के ताम्रपत्र और सिक्के, सोमवंशी काल के विविध अभिलेखीय साक्ष्य यथा शिलालेख, स्तंभलेख, मूर्तिलेख, ताम्रपत्र और अभिलिखित मृण्मुद्राओं के साथ ही कलचुरि और इस्लामिक सिक्के भी प्राप्त हुए हैं। सोमवंशी शासकों के सर्वाधिक अभिलेख सिरपुर में ही प्राप्त हुए हैं। इसके अतिरिक्त शरभपुरीय और सोमवंशी शासकों के अभिलेख एवं सिक्के छत्तीसगढ़ और ओडिशा के विभिन्न स्थानों से भी उपलब्ध हुए हैं जो प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से सिरपुर के इतिहास से संबंधित हैं। अभिलेखीय साक्ष्यों के आधार पर सिरपुर के इतिहास को प्रकाश में लाने अनेक विद्वानों ने कार्य किया है।

सिरपुर के अभिलेखों के संबंध में जानकारी का प्रथम स्रोत जे.डी. बेगलर की रिपोर्ट है। तत्पश्चात् अलेक्जे़ंडर कनिंघम और हेनरी कजिन्स ने अपेक्षाकृत अधिक विस्तार के साथ लोगों का ध्यान इनकी ओर आकृष्ट कराया। एफ. कीलहार्न (दि जर्नल ऑफ दि रायल एशियाटिक सोसायटी, 1905), स्टेन कोनो और एच. कृष्णा शाष्त्री (एपिग्राफिया इण्डिका, जिल्द-11) ने इनका व्यवस्थित अध्ययन प्रारंभ किया जिसे रायबहादुर हीरालाल (डिस्क्रिप्टीव लिस्ट्स ऑफ इन्स्क्रिप्शन्स इन सेंट्रल प्राविन्सेस एण्ड बरार, 1916 और मध्यप्रदेश का इतिहास, काशी नागरी प्रचारिणी सभा) ने आगे बढ़ाया। सिरपुर के अभिलेखों के अध्ययन को पं. लोचन प्रसाद पाण्डेय (इण्डियन हिस्टारिकल क्वार्टरली, जिल्द-10), डी.सी. सरकार और एम.जी दीक्षित (एपिग्राफिया इण्डिका, जिल्द-31-1, 1955-56), संतलाल कटारे (एपिग्राफिया इण्डिका, जिल्द-31, 1955-56 और इण्डियन हिस्टारिकल क्वार्टरली, जिल्द 33), बालचंद्र जैन (एपिग्राफिया इण्डिका, जिल्द-38, 1969 और उत्कीर्ण लेख) और अजय मित्र शाष्त्री (इन्स्क्रिप्शन्स ऑफ दि शरभपुरियाज़, पाण्डुवंशीज़ एण्ड सोमवंशीन्स, भाग 1-2, 1995) आदि विद्वानों ने समृद्ध किया। कालान्तर में जी.एल. रायकवार और राहुल कुमार सिंह (उत्कीर्ण लेख रायपुर, 2005), सुस्मिता बसु मजुमदार (मोनास्टरीज़ एण्ड पेट्रोनेज़ इश्यूज़ एट सिरपुर-लुकिंग थ्रू दि एपिग्राफिक लेंस’ कोसल, अंक 1, 2008) शिवाकान्त बाजपेयी एवं राज कुमार पटेल (दुर्गरक्षित का सेनकपाट अभिलेख – नामाभिधान एवं सामन्त शासकों के संदर्भ में पुनर्विवेचन, कला-वैभव, अंक 17, 2007-08, एवं कोसल, अंक 1, 2008) तथा इस लेख के सहयोगी लेखक (सिरपुर स्टोन इन्स्क्रिप्शन ऑफ महाशिवगुप्त बालार्जुन, एक्सकेवेशन्स एट सिरपुर छत्तीसगढ़, स्पेशल रिपोर्ट नं. 1, 2007 और फोर सेट्स ऑफ कापर प्लेट्स ऑफ पाण्डुवंशी रूलर्स, पुरामंथन, अंक-5, 2010) ने सिरपुर उत्खनन से प्राप्त प्रस्तराभिलेख और ताम्रपत्र के अध्ययन में योगदान दिया है।

1956 में डॉ. एम.जी. दीक्षित को उत्खनन से शरभपुरीय शासक प्रसन्नमात्र का एकपृष्ठीय (रिपोज़े) सोने का सिक्का (न्यूमिस्मेटिक नोट्स एण्ड मोनोग्राफ्स, नं. 5, पृ. 13), चीनी सिक्का (इण्डियन आर्कियोलाजी-अ रिव्यू, 1955-56; जर्नल ऑफ दि न्यूमिस्मेटिक सोसायटी ऑफ इण्डिया, जिल्द 18; कोसल, अंक 9, 2016) और कलचुरि सिक्के (उत्कीर्ण लेख, संपादक बालचंद्र जैन) प्राप्त हुए थे। 1999-2011 में श्री ए.के. शर्मा के निर्देशन में हुए सिरपुर उत्खनन के दौरान कतिपय इस्लामिक रजत सिक्के (जी.एस. ख्वाजा, ‘सम इस्लामिक क्वायन्स फ्राम सिरपुर’ एक्सकवेशन्स एट सिरपुर छत्तीसगढ़, स्पेशल रिपोर्ट नं. 1, 2007 और ‘मिडिवल क्वायन्स डिस्कव्हर्ड इन छत्तीसगढ़’, कोसल, अंक-1, 2008) और कलचुरि ताम्र सिक्के भी मिले हैं। सिरपुर उत्खनन में तत्समय संलग्न द्वितीय लेखक ने सिरपुर के कलचुरि ताम्र सिक्कों में चार शासकों – रत्नदेव, जाजल्लदेव, पृथ्वीदेव और प्रतापमल्ल के नाम पढ़े हैं। सिरपुर से बौद्ध बीज मंत्र अंकन युक्त मृण्मुद्राएँ प्रभूत मात्रा में मिली हैं (महेशचन्द्र श्रीवास्तव, सिरपुर; ए.के. शर्मा, एपिग्राफ्स ऑफ सिरपुर, 2017) साथ ही डॉ. एम.जी. दीक्षित को ‘नन्दराज’ अंकित प्रस्तर मुद्रांक (एपीग्राफिया इण्डिका, जिल्द 31) भी प्राप्त हुआ था।

(3) कला एवं स्थापत्य

सिरपुर के वैभवशाली इतिहास के प्रमुख साक्ष्य वहाँ से प्राप्त कला और स्थापत्य अवशेष ही हैं, जो उल्लेखनीय परिमाण में उपलब्ध हैं। इनके अध्ययन से सिरपुर का इतिहास समृद्ध हुआ है। सिरपुर की कांस्य प्रतिमाएँ शिल्पकला के प्रतिनिधि उदाहरण हैं। 1939 में लगभग 60 कांस्य प्रतिमाओं का जखीरा (मुनि कांतिसागर, खण्डहरों का वैभव; महेशचन्द्र श्रीवास्तव, सिरपुर) आकस्मिक रूप से प्राप्त हुआ था। 1956 के उत्खनन में भी कतिपय धातु प्रतिमाएँ (एम.जी. दीक्षित, ‘सम बुद्धिस्ट ब्रांजेस फ्राम सिरपुर, मध्यप्रदेश’, प्रिंस ऑफ वेल्स म्यूजियम बुलेटिन, अंक 5, 1955-57) उपलब्ध हुए थे। इनमें से कतिपय प्रतिमाओं को देश-विदेश में विभिन्न अवसरों पर प्रदर्शित (5000 इयर्स आर्ट फ्राम इण्डिया, विल्ला हगेल एसेन; केटलाग, 2500 बुद्ध जयंती सेलेब्रेशन, 1956, एक्जिबिशन आन बुद्धिस्ट आर्ट; इन दि इमेज ऑफ मैन, फेस्टिवल ऑफ इण्डिया, ग्रेट ब्रिटेन, 1982) किया जा चुका है। श्री ए.के. शर्मा के निर्देशन में हुए उत्खनन में 2008 में 79 कांस्य प्रतिमाओं का जखीरा सहित कुल 87 धातु प्रतिमाएँ (ए.के. शर्मा एवं प्रभात कुमार सिंह, बुद्धिस्ट ब्रांजेस फ्राम सिरपुर, 2010; प्रभात कुमार सिंह, ‘ब्रान्ज़ इमेज़ेस आव फिमेल बुद्धिस्ट डिटीज़ फ्राम सिरपुर’, पुरातत्त्व, अंक-38, 2008) प्रकाश में आईं। इनमें सर्वाधिक कांस्य प्रतिमाएँ बौद्ध देवी-देवताओं की तथा कतिपय जैन तीर्थंकरों की हैं। निकटवर्ती फुसेरा के जंगल से विष्णु की ताम्र प्रतिमा भी प्राप्त हुई है। इससे विदित होता है कि सिरपुर में तीनो धर्म के देवमूर्तियों का निर्माण धातुकला में किया गया। सिरपुर का प्रस्तर मूर्तिशिल्प भी वैविध्यपूर्ण और समृद्ध रहा है। सिरपुर से ब्राह्मण धर्म के सभी संप्रदायों सहित बौद्ध एवं जैन धर्म संबंधी प्रस्तर देव प्रतिमाएँ, अर्धदैवीय और लौकिक प्रतिमाएँ भी ज्ञात हुई हैं जिनका विभिन्न अध्येताओं (एम.जी. दीक्षित, शुक्ल अभिनंदन ग्रंथ; एम.जी. दीक्षित एवं बैरेट डगलस, सिरपुर एण्ड राजिम टेम्पल्स; एम.जी. दीक्षित, इण्डियन आर्कियोलाजी-1954-55; मुनि कांतिसागर, खण्डहरों का वैभव; एम. वेंकट रमैया, जर्नल ऑफ इण्डियन हिस्ट्री, जिल्द 40-1 ; बालचंद्र जैन, महन्त घासीदास स्मारक संग्रहालय, पुरातत्त्व उपविभाग में संग्रहित वस्तुओं का सूचीपत्र, भाग-3, धातु प्रतिमाएँ; एल.एस. निगम, ‘ऐरोटिक डिपिक्शन आन लक्ष्मण टेम्पल सिरपुर’, कोसल, अंक 3, 2010; जी.एल. रायकवार, सिरपुर की शिल्पकला, कोसल, अंक 4, 2011; एस.एस. यादव, ‘शिव नटराज-एक विलक्षण कृति’, प्राच्य प्रतिभा, अंक-11; ए.के. शर्मा, ‘नृसिंह इमेजेस फ्राम मनसर एण्ड सिरपुर’, रघु स्मृति (रिसेन्ट रिसर्चेस इन आर्कियोलाजी-इन आनर ऑफ लेट श्री रघुनाथ भट्ट), 2009; ए.के. शर्मा एवं प्रभात कुमार सिंह, ‘फार्म्स ऑफ महिषासुरमर्दिनी इन स्कल्पचरल आर्ट ऑफ सिरपुर’, पुरामंथन, अंक 6, 2011; ए.के. शर्मा, प्रभात कुमार सिंह एवं प्रवीन तिर्की, स्कल्पचरल आर्ट ऑफ सिरपुर, 2017) द्वारा अध्ययन विवेचन किया गया है।

सिरपुर स्थित प्राचीन स्मारकों लक्ष्मण मंदिर और राम मंदिर के भग्नावशेष और उत्खनित संरचनाएँ यथा मंदिर, बौद्ध और जैन विहार, राजमहल, आवासीय एवं व्यवसायिक संरचनाओं के अवशेष इसके धार्मिक एवं नागरक वास्तु के स्वरूप को प्रकटित करते हैं। आधुनिक काल में सिरपुर के स्थापत्य कला पर अनेक भारतीय एवं पाश्चात्य विद्वानों (ए.एच. लांगहर्स्ट, एनुअल रिपोर्ट ऑफ आर्कियोलाजिकल सर्वे ऑफ इण्डिया, 1909-10; कृष्णदेव, ‘लक्ष्मण टेम्पल एट सिरपुर’ जर्नल ऑफ दि मध्यप्रदेश इतिहास परिषद, भाग-2; टेम्पल्स ऑफ इण्डिया, 1995; पर्सी ब्राउन, इण्डियन आर्किटेक्चर (बुद्धिस्ट एण्ड हिन्दू पीरियड), 1971 (पुनर्मुद्रित); जोयना गाटफ्राइड विलियम्स, दि आर्ट ऑफ गुप्ता इण्डिया-एम्पायर एण्ड प्राविन्स; डोनाल्ड स्टेडनर, ‘दि सिद्धेश्वर टेम्पल एट पलारी एण्ड द आर्ट ऑफ कोसल ड्यूरिंग द सेवेन्थ एण्ड एट्थ सेंचुरीज’ आर्ट ओरिएन्टलिस, वाल्युम-12, 1981; माईकल डब्ल्यू. मेयस्टर, शिवाज़ फोर्ट्स इन सेंट्रल इण्डियाः टेम्पल्स इन दक्षिण कोसल एण्ड देयर डायनामिक प्लान्स, डिस्कोर्सेस ऑन शिव; पी.के. भट्टाचार्य, हिस्टारिकल ज्याग्राफी आफ मध्यप्रदेश फ्राम अर्ली रेकार्डस; राजकुमार शर्मा, मध्यप्रदेश के पुरातत्त्व का संदर्भ ग्रंथ, 1974; एल.एस. निगम, दक्षिण कोसल क्षेत्र का ऐतिहासिक भूगोल, 1998; राजकुमार शर्मा एवं ओ.पी. मिश्रा, आर्कियोलाजीकल एक्सकेवेशन्स इन सेंट्रल इण्डिया, 2003; प्रभुलाल मिश्र, दक्षिण कोसल का प्राचीन इतिहास, 2003) द्वारा महत्वपूर्ण कार्य किया गया है।

उपरोक्त विवरणों से महासमुंद जिले के ऐतिहासिक एवं पुरातत्त्वीय महत्व का अभिज्ञान होता है। अभी भी अनेक स्थल प्रकाश में आने की बाट जोह रहे हैं। उम्मीद है आने वाले समय में पुरातत्त्वीय अन्वेषणों और उत्खनन के द्वारा जिले के इतिहास में नवीन पृष्ठों का समावेश होगा।

आलेख

प्रो. एल.एस. निगम, कुलपति, श्री शंकराचार्य प्रोफेशनल यूनिवर्सिटी भिलाई, दुर्ग
प्रभात कुमार सिंह, पुरातत्त्ववेत्ता, संचालनालय संस्कृति एवं पुरातत्त्व रायपुर


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One comment

  1. विवेक तिवारी

    सुंदर और महत्वपूर्ण जानकारी 👌👌👌👌

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