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प्राकृतिक हरितिमा और भौगोलिक सौंदर्य का अतुलनीय संगम : कुआँ धाँस

छत्तीसगढ़ अपनी प्राकृतिक और नैसर्गिक सम्पदा के लिए देश के साथ-साथ पूरे विश्व में जाना जाता है। यहाँ के जंगलों, पहाडों और झरनों की प्रसिद्धि से पयर्टक और प्रकृति प्रेमी चिर परिचित हैं। बस्तर से लेकर सरगुजा और रायगढ़ से लेकर डोंगरगढ़ के ओर-छोर तक यहाँ प्राकृतिक सुषमा बिखरी हुई है। छत्तीसगढ़ के पश्चिमांचल में स्थित राजनांदगांव जिले की जहाँ अपनी साहित्यिक और सांस्कृतिक गरिमा है। वहीं प्राकृतिक और वन संपदा की दृष्टि से राजनांदगांव जिले का छत्तीसगढ़ में गौरवशाली स्थान है।

राजनांदगांव जिला मुख्यालय से उत्तर पश्चिम में लगभग 110 कि.मी. की दूरी पर स्थित साल्हेवारा वन क्षेत्र की प्राकृतिक हरितिमा और भौगोलिक सुंदरता अतुलनीय और अनुपम है। इसी वन क्षेत्र में छत्तीसगढ़ और मध्यप्रदेश की सीमा पर स्थित है जल प्रपात कुआँ धाँस। कुआँ धाँस साल्हेवारा से लगभग 12 कि.मी. दूर स्थित है। साल्हेवारा से कुआँ धाँस जाने के लिए दो सुगम रास्ते हैं। एक रामपुर-चोभर-कोपरो होकर दूसरा साल्हेटेकरी-रघोली (मध्यप्रदेश) कोपरो होकर। दस कि.मी. तक दोनों ओर से पक्की सड़के हैं। शेष दो कि.मी जंगली रास्ता हैं। दो पहिया और चार पहिया वाहन से धाँस कुआँ पहुॅचा जा सकता है।

छत्तीसगढ़ की राजधानी रायपुर से गंडई होकर कान्हा किसली जाने वाले पर्यटकों के लिए यह क्षेत्र अत्यंत ही दर्शनीय और महत्वपूर्ण है। क्योंकि साल्हेवारा वन क्षेत्र में अनेकानेक दर्शनीय स्थल हैं। आकाशवाणी रायपुर से साल्हेवारा नवागांव की लोक गायिका सुखियारिन मानिकपुरी और साथियों के सुमधुर स्वरों में प्रसारित लोकप्रिय गीत-
साल्हेवारा के बाजार, तैं आबे मंगल के,
खवाहूँ तेंदू-चार, सरई पतेरा जंगल के
ठाढ़ पानी, केरा पानी, धाँस कुआँ
ऊपर ले पानी गिरे, धुआँ-धुआँ।

इस क्षेत्र की प्राकृतिक सुंदरता और अंचल के लोक जीवन की विशेषताओं को मुखरित करता है। साल्हेवारा का बाजार मंगलवार को भरता है। जिसकी अपनी बड़ी प्रसिद्धि है। यहाँ के जंगलों में बहुलता के साथ जंगली फल तेंदू-चार आदि मिलते हैं। सरई पतेरा का ठाढ़ पानी जल प्रापत और गोपाल पुर के पास केरा पानी जल प्रपात और गीत में उल्लेखित धाँस कुआँ भी यहीं स्थित है। कुआँ धाँस को धाँस कुआँ कहकर भी संबोधित किया जाता हैं। प्रकृति ने अपनी सारी सुंदरता जैसे साल्हेवारा क्षेत्र में ही उंडेल दिया है। यहाँ की लोक सांस्कृति और लोक जीवन बड़ा ही सहज, सरल, सरस और माधुर्य भरा है। यहाँ जो आता है, यहाँ का ही हो कर रह जाता है।

कुआँ धाँस का सौंदर्य

आइए चलें साल्हेवारा से कुआ धाँस। कुआँ धाँस नाम ही मन में कौतुहल जगाता हैं साल्हेवारा विकासशील बड़ा गांव है। पुलिस थाना, अस्पताल, महाविद्यालय, बैंक, पेट्रोल पम्प, वन परिक्षेत्र कार्यालय, उप तहसील जैसी सभी शासकीय सुविधाएँ उपलब्ध हैं। साल्हेवारा से दक्षिण दिशा में चलते हैं तो दो बड़े गांव मिलते हैं, आमगांव और जामगांव दोनों ही लगे हुए हैं।

धान की उन्नत खेती व साग-भाजी की अच्छी पैदावारी के लिए इन्हें जाना जाता है। बचपन में हम खेल-खेल में गीत गाते थे- ‘आमगांव-जामगांव तेंदू के बठेना, अपन-अपन लइका बर चना फुटेना’। शायद गीत में उल्लेखित यही वे गांव हैं। सड़क के दोनों किनारे विशाल बरगद के वृ़क्ष जहॉ सैकड़ों की संख्या में चमगादड़ लटके रहते है। झुंड के झुंड लटके चमगादड़ों को देखकर लोग परिहास करते हैं- देखो चमगादड़ फले हैं।

थोड़ी दूर पर रामपुर गांव मिलता है। बड़ी बस्ती, बड़ा बाजार,। यहाँ का शुद्ध मधुरस जिसे बैगा जाति के लोगों द्वारा लाया जाता है, आसानी से मिल जाता है। यहीं रहते हैं छत्तीसगढ़ के सुप्रसिद्ध लोक गायक श्री भरत लाल हरेन्द्र जी। रामपुर से चोभर तक रास्ते की हरियाली दूर-दूर तक लहराती धान की फसलें आँखों को बड़ा शुकुन देती हैं। इस स्थान को देखकर छत्तीसगढ़ को धान का कटोरा’ कहा जाना सार्थक जान पड़ता है।

चोभर से कोपरो और कोपरो से कुआँ धाँस। कोपरो से निकलने वाला नरवा (नाला) ही आगे चलकर जल प्रपात का निर्माण करता है। कोपरो से कुआँ धाँस तक लाल पथरीली अनउपजाऊ मिट्टी में माटी का वंदन करते अपने श्रम सीकर से धरती का सींचन करते लोगों के दर्शन हो जाते हैं। सच कहें तो ये ही भुंईया के भगवान हैं। अकाल को झेलते हुए भी आदमी की जीजिविषा मरती कहाँ है ? आज नहीं तो कल धरती माँ जरूर देगी श्रम का प्रतिफल। इसी आशा और विश्वास के साथ ये ग्रामीण अपने काम में जुटे रहते हैं।

गंगा मैया विग्रह

जल प्रपात से आधा कि.मी. पहले ही कुआँ धाँस का शीतल निर्मल जल सैलानियों के पाँव पखार कर स्वागत करता है। पानी इतना साफ की प्यास बुझायी जा सकती है। पश्चिम दिशा में खड़ी ऊँची पहाड़ियाँ जो मैकल पर्वत श्रेणी का हिस्सा हैं और मध्यप्रदेश की सीमा में स्थित हैं, आमंत्रण देती हैं। मध्यप्रदेश और छत्तीसगढ़ यहाँ बीस साल पहले एक थे, आज अलग हैं। यही कुआँ धाँस नाला इसकी सीमा रेखा है। भौगोलिक दृष्टि से अलग हुए हैं, पर सांस्कृतिक दृष्टि से इस क्षेत्र के लोग आज भी एक है।

साजा, बीजा, सलिहा-मोंदे, तेंदू-चार आदि प्रजाति के पेड़ां से आच्छादित यह क्षेत्र बड़ा मनोरम है। यहाँ औषधीय पौधों की यह बहुलता है। दूर से ही झरने का झर-झर स्वर मन को आकर्षित करता है। नाले के किनारे-किनारे जाने पर चिड़ियों की चहचहाहट और तितली भौरों का मधुर स्वर कानों में मधुरस घोलता है। प्रकृति के बीच खड़े होकर मन-आत्मा संतृप्त हो जाती है।

नाले का अंतिम भाग यहाँ से दिखाई पड़ता हैं, फिर लगभग 40 फिट नीचे गिरकर जल प्रपात का निर्माण करता है। यह ऊपर से ही बड़ा मनोहारी दिखाई देता है। बाँयी ओर से नीचे उतरने के लिए पक्की सीढ़ियाँ बनी हुई हैं। उत्तर दिशा की सीढ़ियों से उतरते ही झरनों का स्वर तेज हो जाता है। यह तेज स्वर मन-प्राण को उल्लसित और आनंदित करता है। तब देखने व जानने की चाह और प्रबल होती है।

कुआँ धाँस का जल प्रपात वर्षा काल में समग्र रूप में एक साथ झरता है। लेकिन बारिस के बाद पानी कम होने पर यह तीन भागों में विभक्त होकर झरता है। अब हम जल प्रपात के नीचे बिल्कुल एक-दूसरे के आमने-सामने हैं। ऊपर से गिरती तीनों जल धाराएँ चाँदी के समान झरती आभासित होती हैं। ध्यान से देखने और मनन करने पर ‘कुआँ धाँस’ का नाम अपनी सार्थकता और अर्थवत्ता को प्रमाणित करता है।

अब जो दाँयी ओर की जल धारा है, वह नीचे गिरकर चट्टानों को तोड़कर कुआँ का निर्माण करती है। इसी कुएं में जल धाराएं परस्पर एक-दूसरे को धाँसती हैं। यह दृश्य बड़ा मनोरंजक और मनभावन है। छत्तीसगढ़ी में धाँसने का अर्थ दबाना या मारना है। यहाँ आस-पास ‘धाँस’ नामक औषधीय वृक्ष भी पाया जाता है। तीनों जल धाराओं में यह जल धारा का प्रवाहमान अधिक है।

जल धाराओं का जल छत्तीसगढ़ से विदा होकर मध्यप्रदेश में समाहित हो जाता है। जल प्रपात से 50 मीटर की दूरी पर एक छोटा सा मंदिर है, जिसमें ‘माँ गंगा‘ की छोटी किंतु सुंदर प्रतिमा स्थापित है। यहाँ पर यात्रियों के विश्राम के लिए ग्राम स्तर का विश्रामालय भी है। अब हम नाले को पार कर दक्षिण दिशा की सीढ़ियों पर चढ़कर ऊपर आते हैं। दक्षिण दिशा की सीढ़ियाँ सकरी हैं। ऊपर आने पर एक और कुआँ के समान चट्टानों के बीच स्थान है। नीचे देखने पर यहाँ मनभावन दृश्य दिखाई पड़ता है। कुआँ धाँस में प्रकृति का सौंदर्य बिखरा पड़ा है। यहाँ लोग पिकनिक के लिए आते हैं और आनंद-मंगल मनाते है।

आइए अब वापसी करते हैं दूसरे मार्ग से। कोपरो छत्तीसगढ़ का अंतिम गाँव है। यहाँ से दो किलोमीटर की दूरी पर है रघोली जो मध्यप्रदेश में स्थित है। यह स्थान पुरातात्विक दृष्टि से बड़ा प्रसिद्ध है। यहाँ के जैन मंदिर में स्थापित तीन जैन तीर्थंकरों की अनुपम और विशाल स्थानक मूर्तियाँ हैं जो ग्रेनाइट पत्थर से बनी हुई हैं। स्थानीय लोग इसे ‘नांगा बाबा’ का मंदिर मानते हैं। जैन समाज के लोग यहाँ आकर पूजन-अर्चन करते हैं। ये मूर्तियाँ बड़ी दशर्नीय और पुरातत्व की दृष्टि से अत्यंत ही महत्वपूर्ण है। रघोली से 4 किमी की दूरी पर दक्षिण दिशा में साल्हे टेकरी गांव मुख्य मार्ग में स्थित है। इस गाँव से कान्हा किसली की दूरी लगभग 60 कि.मी है।

जैन तीर्थन्करों की प्रतिमाएं

पर्यटन की दृष्टि से देखा जाये तो साल्हेवारा क्षेत्र रायपुर-गंडई-कान्हा किसली टूरिज्म रूट पर स्थित है। यह भी उल्लेखनीय है कि इस रूट में गंडई का पुरातात्विक प्राचीन शिव मंदिर, घटियारी शिवमंदिर, नर्मदा कुंड, डोगेश्वर महादेव, चोडरा धाम, मंडिप खोल गुफा, सुरही जलाशय, मोटियारी घाट छ.ग. पर्यटन मंडल छत्तीसगढ़ शासन द्वारा पर्यटन स्थल के रूप में चिन्हांकित हैं। ठाढ़ पानी और केरा पानी जल प्रपात भी इसी टूरिज्म रूट के करीब हैं।

कुआँ धाँस जल प्रपात को पर्यटन स्थल के रूप में विकसित करने के लिए गंडई उपवन मंडल के उपवन मंडलाधिकारी श्री ए. के. मिश्र जी वन अधिकारी के साथ-साथ प्रकृति प्रेमी, संस्कृति प्रेमी और कला प्रेमी प्रयासरत हैं। इन्होंने इस दिशा में वन प्रबंधन समिति के माध्यम से उपरोक्त स्थलों को पर्यटन स्थल के रूप में स्थापित करने के लिए अपना प्रयास प्रारंभ कर दिया है। इस कार्य में सफलता अवश्य मिलेगी। इस बात के लिए हम पूर्णतः आशान्वित हैं।

आलेख

डॉ. पीसी लाल यादव
‘साहित्य कुटीर’ गंडई पंड़रिया जिला राजनांदगांव(छ.ग.)
मो. नं. 9424113122
pisilalyadav55@gmail.com

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