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जानिए ऐसे राजा के विषय में जिसकी शौर्य गाथाओं के साथ प्रेम कहानी सदियों से लोक में प्रचलित है

प्राचीन कथालोक में कई गाथाएं हैं, जो दादी-नानी की कथाओं का विषय रहा करती थी। अंचल में हमें करिया धुरवा, सिंघा धुरवा, कचना घुरुवा आदि कई कथाएं सुनाई देती हैं। ये तत्कालीन दक्षिण कोसल में छोटे राजा हुए हैं, जिनके पराक्रम की कहानियाँ जनमानस में आज भी प्रचलित हैं।

यह सर्वज्ञात है कि शस्य श्यामला भूमि छत्तीसगढ़ को प्रकृति ने अपने हाथों से संवारा है एवं इसे अकूत प्राकृतिक खजाना सौंपा है। इसके चप्पे चप्पे में प्राकृतिक सौंदर्य बिखरा है तो साथ ही सांस्कृतिक एवं ऐतिहासिक लोक गाथाएं भी बिखरी पड़ी हैं। हम आपको कचना घुरुवा की प्रेमकहानी से अवगत कराते हैं।

कहानी के नायक कचना घुरुवा का प्राचीन स्थल राजिम गरियाबंद के मुख्य मार्ग पर रायपुर से 77 किमी की दूरी पर स्थित है, जो गोंड़ राजाओं के देवता के रुप में सदियों से पूजनीय हैं। कचना एवं घुरुवा की अमर प्रेम कहानी यहाँ के वनांचल की वादियों में गुंजती है।

देव स्थल कचना घुरुवा

लोक गाथाओ में कहा जाता है कि धुरवा के पिता सिंहलसाय लांजीगढ़ के राजा थे, एक समय वहां भयंकर दूर्भिक्ष पड़ा तो वे अपनी रानी गागिन बाई के साथ उड़ीसा के पंड़रापथरा में शरण लिए। सिंहलसाय बुढ़ादेव (शंकर) के परम भक्त थे, जब जंगल में शिकार करने गए तो वहाँ बुढ़ादेव ने दर्शन दिए एवं उसे एक छूरी देकर कहा कि इसे जहाँ तक फ़ेंकोगें वहां तक का राज्य तुम्हारा होगा। छूरी के प्रभाव से प्राप्त छूरा नामक स्थान आज भी गरियाबंद जिले में है।

सिंहलसाय की दुश्मनी बिंद्रानवागढ़ के भुंजिया राजा से हो गयी और उसने मौका पाकर उसकी हत्या कर दी तथा छूरे पर कब्जा कर लिया। इस दौरान रानी गर्भवती थी। उसने उड़ीसा में एक ब्राह्मण के यहाँ शरण ली तथा कचरा फ़ेंकने जाते वक्त घुरुवा (कुड़े के ढेर) में पुत्र को जन्म दे दिया। इस तरह पुत्र का नामकरण घुरुवा हो गया।

घुरुवा जब बड़ा हुआ तो उसे अपने पिता की हत्या के विषय में पता चला। वह सेना बनाकर अपना राज्य वापस लेने निकल पड़ा। बूढ़ादेव एवं जगदम्बा का भक्त होने के कारण तप से प्रसन्न होकर माता ने वरदान दिया कि तुझे न कोई जल में मार सकेगा न थल में। तेरी मृत्यु तभी होगी जब धड़ जल में होगा और सिर धरती पर। लेकिन शराब एवं मांस का सेवन नहीं करना।

वरदान पाकर घुरुवा का विजय अभियान प्रारंभ हो गया, पहले बिंद्रानवागढ़ के राजा को मारकर अपने पिता की हत्या का बदला लिया उसके बाद धरमतराई (धमतरी) की ओर चल पड़ा। एक दिन उसे धरमतराई के राजा धरमपाल की पुत्री कचना सपने में दिखाई दी, ऐसा ही सपना कचना को भी आया और दोनो सपने में ही एक दूसरे का होने का संकल्प कर बैठे।

मार्ग की प्राकृति सुषमा

घुरुवा के धरमतराई पहुंचने पर कचना से मिलन हुआ। दोनों का प्रेम परवान चढ़ा, परन्तु प्रेमियों को सहज प्रेम कहां नसीब होता है। यहाँ का मारादेव भी कचना को चाहता था। उसने घुरुवा को युद्द के लिए ललकारा। छियालिस बार की लड़ाई के बाद भी वह घुरुवा को नहीं जीत सका।

इसके राज का पता लगाने के लिए उसने शराब बेचने वाली कलारिन को माध्यम बनाया। भूलवश घुरुवा ने शराब पीकर वरदान वाली बात कलारिन से कह दी, मारादेव को उसकी मृत्यु का रास्ता पता चल गया। महानदी में उसने घुरुवा को युद्ध के लिए ललकारा एवं उसका सिर काट दिया। धड़ पानी में था तथा शीश भूमि पर गिर गया। घुरुवा की मृत्यु हो गई। कचना ने भी वियोग में प्राण त्याग दिए।

इस लोककथा से हमें ज्ञात होता है तत्कालीन समय में सामाजिक समरसता में कोई कमी नहीं नहीं थी। समाज के सभी वर्गों का आपस में सौहाद्रपूर्ण संबंध था, तभी कहानी के नायक की गर्भवती माता अपने पति राजा सिंहलसाय की हत्या के बाद उड़ीसा के एक ब्राह्मण के आश्रय में जाती है और वहां रहकर घुरुवा जैसे बहादूर को जन्म देकर उसका लालन-पालन करती है और उसे इस योग्य बनाती है कि वह अपने पिता का राज-पाट वापस ले सके।

कचना एवं घुरुवा की मृत्यु के पश्चात आज भी दोनों को प्रेम का अमर प्रतीक मानकर पूजा जा रहा है। कचना घुरुवा के मंदिर में लोग मिट्टी के घोड़े-बैल आदि चढ़ाते हैं तथा मानता करते हैं। जिनकी मानता पूरी हो जाती है, वे पुन: इस स्थान पर आकर पूजा आराधना करके स्वयं को धन्य मानते हैं।

आलेख एवं फ़ोटो

ललित शर्मा इंडोलॉजिस्ट

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