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छत्तीसगढ़ी लोक संगीत के पर्याय खुमानलाल साव

बंगाल ने रवींद्र-संगीत को मान्यता प्रदान कर उसे अपनी पहचान बना ली। रवींद्र-संगीत को स्थापित कर दिया। इसी तरह से असम ने भूपेन हजारिका को अपनी पहचान बना लिया किन्तु छत्तीसगढ़ ने खुमान-संगीत को अपनी पहचान बनाने के लिए मान्यता प्रदान नहीं की है और स्थापित भी नहीं किया है। यह कहने से भला कौन रोक सकता है कि खुमान लाल साव और छत्तीसगढ़ का संगीत एक दूसरे का पर्याय बन चुके हैं फिर “खुमान-संगीत” कहने में भी कोई हर्ज नहीं होना चाहिए।

छत्तीसगढ़ का लोक संगीत बहुत पहले अत्यन्त ही मधुर था। इसी कारण वाचिक परम्परा में इसके लोकगीत एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी में अंतरित होते हुए पल्लवित और पुष्पित होते रहे। फिर बम्बइया प्रभाव का दीमक इन्हें कुतरता गया, कुतरता गया और एक समय ऐसा भी आया जब छत्तीसगढ़ी लोक गीतों की मौलिकता लगभग समाप्त होने लगी।

लोक गीत अपभ्रंश होने लगे, इनका माधुर्य गुम सा गया। ऐसे समय में ग्राम बघेरा के दाऊ रामचंद्र देशमुख ने इन लोकगीतों के माधुर्य को पुनर्स्थापित करने का बीड़ा उठाया और चंदैनी गोंदा की स्थापना की। लोकगीतों के काव्य पक्ष को सँवारने का दायित्व कवि-द्वय रविशंकर शुक्ल और लक्ष्मण मस्तुरिया को सौंपा गया और लोक संगीत में प्राण फूँकने का दायित्व खुमान लाल साव को दिया गया।

इन्होंने छत्तीसगढ़ के गाँव गाँव में जाकर लोक गायकों की तलाश की, उनसे पारंपरिक लोक गीत प्राप्त किये और उनकी धुनें प्राप्त की और उसे परिष्कृत में जुट गए। यह कार्य किसी साधना से कम नहीं था। यह साधना सफलीभूत हुई और छत्तीसगढ़ के लोक गीत नए कलेवर में पहले से भी ज्यादा मधुर हो गए।

जिन्होंने चंदैनी गोंदा के मंचन को देखा है उन्हें ज्ञात है कि इस आयोजन में कैसे आस पास के सारे गाँव उमड़ कर आते थे। अस्सी हजार से एक लाख दर्शकों से आयोजन स्थल खचाखच भरा होता था। दर्शकों की यह भीड़ कार्यक्रम की समाप्ति तक मंत्र मुग्ध होकर बँधी रहती थी।

चंदैनी गोंदा कोई नाचा गम्मत जैसा कार्यक्रम नहीं था यह छत्तीसगढ़ के किसान की जीवन यात्रा की सांगीतिक प्रस्तुति थी और इसके संगीतकार थे, खुमान लाल साव। खुमान लाल साव ने न केवल अपभ्रंश होते लोक गीतों में प्राण फूँके बल्कि उस दौर के अधिकांश कवियों के गीतों को संगीतबद्ध करके ऐसा जादू डाल दिया कि गीतों और लोक गीतों के बीच अंतर खोज पाना लगभग असंभव सा हो गया।

खुमानलाल साव के संगीतबद्ध गीत अमर हो गए और आज लगभग पचास वर्षों के बाद भी उसी आदर और सम्मान के साथ सुने जा रहे हैं। उन्होंने पारम्परिक वाद्ययंत्रों का ही प्रयोग किया। उनकी टीम में हारमोनियम वादक स्वयं थे। बाँसुरी वादक, संतोष टांक, बेंजो वादक गिरिजा शंकर सिन्हा, मोहरी वादक पंचराम देवदास, तबला वादक महेश ठाकुर थे। ढोलक, मंजीरा, माँदर जैसे वाद्ययंत्र भी उनकी टीम में शामिल थे।

ग्राम बघेरा में जाकर चंदैनी गोंदा की रिहर्सल देखने का भी सौभाग्य मिला है। प्रारंभिक दौर के गायक लक्ष्मण मस्तुरिया, भैयालाल हेडाऊ, रविशंकर शुक्ल, केदार यादव और गायिका – कविता (हिरकने) वासनिक, अनुराग ठाकुर, संतोष झाँझी, संतोष चौबे, लीना महापात्र, साधना यादव, किस्मत बाई थे। मंच संचालन सुरेश देशमुख किया करते थे।

खुमान लाल साव ने जिन कवियों और गीतकारों की रचनाओं को संगीतबद्ध किया उनमें से प्रमुख नाम कोदूराम “दलित”, लक्ष्मण मस्तुरिया, रविशंकर शुक्ल, राम रतन सारथी, प्यारेलाल गुप्त, भगवती सेन, हेमनाथ यदु, पवन दीवान, चतुर्भुज देवांगन, रामकैलाश तिवारी, रामेश्वर वैष्णव, विनय पाठक, फूलचंद लाल श्रीवास्तव, ब्रजेन्द्र ठाकुर, बद्री विशाल परमानंद आदि कवियों के हैं।

दाऊ रामचंद्र देशमुख के स्वप्न को साकार करते हुए खुमान लाल साव ने अपभ्रंश होते जिन लोकगीतों सँवारा है उनमें से प्रमुख लोक गीत हैं – सोहर, लोरी, बिहाव गीत, भड़ौनी, करमा, ददरिया, माता सेवा, गौरा गीत, भोजली, सुआ, राउत नाचा, पंथी, देवार गीत, बसदेव गीत, फाग, संस्कार गीत आदि। प्रचलित गीतों की एक बानगी है – जिसमें संयोग श्रृंगार, वियोग श्रृंगार, करुण, वीर, आदि रसों का समायोजन है।

संयोग श्रृंगार –
तोर संग राम राम के बेरा, भेंट होगे संगवारी, मुस्का के जोहार ले ले(लक्ष्मण मस्तुरिया)
झन आंजबे टूरी आँखी मा काजर बिन बरसे रेंग देही करिया बादर छूट जाही ओ परान(ददरिया,रविशंकर शुक्ल)
मोर खेती खार रुमझुम (लक्ष्मण मस्तुरिया)
नाक बर नथनी अउ पैरी मोरे पाँव बर(लक्ष्मण मस्तुरिया)
अब मोला जान दे संगवारी (रामेश्वर वैष्णव)
बखरी के तूमा नार बरोबर मन झूमे(लक्ष्मण मस्तुरिया)
चंदा के टिकुली चंदैनी के फूल, श्रृंगार (लक्ष्मण मस्तुरिया)
तोर खोपा मा फुँदरा रइहौं बन के(लक्ष्मण मस्तुरिया)
मोला मैके देखे के साध धनी मोर बर लुगरा ले दे हो (राम रतन सारथी),
नैना लहर लागे श्रृंगार (फूलचंद लाल श्रीवास्तव)
तोर बाली हे उमरिया(लक्ष्मण मस्तुरिया)
तोला देखे रहेंव रे, तोला देखे रहेंव गा, धमनी के हाट मा बोइर तरी (द्वारिकाप्रसाद तिवारी विप्र)
मोर अँगना मा कोन ठाढ़े हे(लक्ष्मण मस्तुरिया)
मजा हे मजा आजा मोर मोहना(लक्ष्मण मस्तुरिया)

विरह गीत –
अन्ताज पाय रहेंव आँखी मिलाय रहेंव मया बान धरे रहेंव तबभे चिरई उड़ गे। (विनय पाठक)
झिलमिल दिया बुता देबे (प्यारेलाल गुप्त)
परगे किनारी मा चिन्हारी ये लुगरा तोर मन के नोहय
वा रे मोर पँड़की मैना, तोर कजरेरी नैना(लक्ष्मण मस्तुरिया)
कइसे दीखथे आज उदास कजरेरी मोर मैना(लक्ष्मण मस्तुरिया)
कोन सुर बाजँव मँय तो घुनही बंसुरिया(लक्ष्मण मस्तुरिया)
काल के अवइया कइसे आज ले नइ आये(लक्ष्मण मस्तुरिया)
धनी बिन जग लागे सुन्ना रे(लक्ष्मण मस्तुरिया)
काबर समाए रे मोर बैरी नैना मा(लक्ष्मण मस्तुरिया)
संगी के मया जुलुम होगे रे(लक्ष्मण मस्तुरिया)
सावन आगे आबे आबे आबे संगी मोर(लक्ष्मण मस्तुरिया)
मोर कुरिया सुन्ना रे मितवा तोरे बिना(लक्ष्मण मस्तुरिया)
तोर मया मोर बर जहर जुल्मी होगे लहरी यार (लक्ष्मण मस्तुरिया)
काल के अवइया कइसे आज ले नइ आये विरह में संदेह (लक्ष्मण मस्तुरिया)
परगे किनारी मा चिन्हारी ये लुगरा तोर मन के नोहय (बद्री विशाल परमानंद)

कृषि और मौसम के गीत

चल चल गा किसान “बोए चली धान” असाढ़ आगे गा(लक्ष्मण मस्तुरिया)
चलो जाबो रे भाई, जुरमिल के सबो झन करबो “निंदाई” (रामकैलाश तिवारी)
भैया गा किसान हो जा तैयार, मुड़ मा पागा कान मा चोंगी धर ले हँसिया अउ डोरी ना, चल चल गा भैया “लुए चली धान” (लक्ष्मण मस्तुरिया)
छन्नर छन्नर पैरी बाजे, खन्नर खन्नर चूरी (कोदूराम दलित)
आज दउँरी मा बइला मन घूमत हे

मौसम –
आगी अंगरा बरोबर घाम बरसत हे “जेठ बैसाख” (लक्ष्मण मस्तुरिया)
“सावन” बदरिया घिर आगे (लक्ष्मण मस्तुरिया)

फागुन में होली के त्यौहार की धूम होती है। यह हर्ष और उल्लास का पर्व है। मस्ती का पर्व है। बसंत ऋतु अपने चरम पर होती है। ढोल, नँगाड़ा, माँदर की थाप में सबके हृदय ताल मिलाने लगते हैं और कदम स्वस्फूर्त हो थिरकने लगते हैं। रंगों का यह त्यौहार संगीत के बिना नहीं मनाया जा सकता है। संगीतकार खुमान लाल साव के कौशल का प्रमाण देता यह गीत भला कौन भुला सकता है ?
मन डोले रे “माघ फगुनवा” (लक्ष्मण मस्तुरिया)

हिन्दी माह की बारहों पूर्णिमा में मनाए जाने वाले विभिन्न पर्वों का वर्णन एक ही गीत में हुआ है। जितना सुंदर यह गीत रचा गया है, उतनी ही सुंदरता से इसे संगीतबद्ध भी किया गया ही।
फिटिक अंजोरी निर्मल छइयां गली गली बगराये ओ पुन्नी के चंदा मोर गाँव मा(लक्ष्मण मस्तुरिया)
रविशंकर शुक्ल का लिखा “आज दौरी मा बइला मन घूमथें” वर्तमान व्यवस्था पर प्रतीकात्मक गीत है।

प्रकृति चित्रण –
शीर्षक गीत -देखो फुलगे चंदैनी गोंदा फूलगे (रविशंकर शुक्ल)
धरती के अँगना मा चंदैनी गोंदा फुलगे
सावन आगे (लक्ष्मण मस्तुरिया)
चल सहर जातेन रे भाई, गाँव ला छोड़ के शहर जातेन (हेमनाथ यदु)
चलो बहिनी जाबो अमरैया मा खेले बर घरघुंदिया (मुकुंद कौशल)
आगे सुराज के दिन रे संगी, बाँध ले पागा साज ले बण्डी (लक्ष्मण मस्तुरिया)
चन्दा बनके जीबो हम, सुरुज बनके बरबो हम

(दो कवियों के गीत का सुंदर संयोग)
छोड़ के गँवई शहर डहर झन जा झन जा संगा रे(लक्ष्मण मस्तुरिया)
चल शहर जाबो संगी, गाँव ला छोड़ के शहर जाबो हेमनाथ यदु)

संस्कृति –
ओ काँटा खूँटी के बोवैया, बने बने के नठैया दया मया ले जा रे मोर गाँव ले (लक्ष्मण मस्तुरिया)

लोकगीत
घानी मुनी घोर दे पानी दमोर दे (रविशंकर शुक्ल)
बसदेव गीत सुन संगवारी मोर मितान (भगवती सेन)
चौरा मा गोंदा रसिया मोर बारी मा पताल(लक्ष्मण मस्तुरिया)

सुवा गीत –
तरी हरी ना ना रे ना ना मोर सुवना(लक्ष्मण मस्तुरिया)

बेंदरा नाचा –
नाच नचनी रे झूम झूम के झमाझम(लक्ष्मण मस्तुरिया)
कहाँ रे हरदी तोर जनावन (बिहाव गीत)
दड़बड़ दड़बड़ आइन बरतिया (बिहाव भड़ौनी)
रूप धरे मोहनी मोहथे संसार (चंदैनी गीत)

सोहर –
द्वार बनाओ बधाई निछावर बाँटन निछावर बाँटन हो
ललना लुटावहु रतन भंडार चंदैनी गोंदा अवतरे हो
लागे झन कखरो नजर रे दुलरू बेटा

लोरी – सुत जा ओ बेटी मोर, झन रो दुलौरिन मोर (वात्सल्य)
गौरा गीत, पंथी गीत, जस गीत, ददरिया, करमा, सोहर, सुवा, राउत नाचा के दोहा, बसदेव गीत,

माटी की महिमा –
तोर धरती तोर माटी (पवन दीवान)
मोर भारत भुइयाँ धरमधाम हे(लक्ष्मण मस्तुरिया)
मँय बंदत हँव दिन रात मोर धरती मैया जय होवै तोर(लक्ष्मण मस्तुरिया)
मँय छत्तीसगढ़िया हँव गा(लक्ष्मण मस्तुरिया)
मोर भारत भुइयाँ धरम धाम हे(लक्ष्मण मस्तुरिया)

आव्हान गीत –
मोर संग चलव रे(लक्ष्मण मस्तुरिया)
मोर राजा दुलरुवा बेटा, तँय नागरिहा बन जाबे(लक्ष्मण मस्तुरिया)
हम करतब कारण मर जाबो रे, फेर के लेबो संग्राम(लक्ष्मण मस्तुरिया)
चम चम चमके मा बने नही अब कड़क के बरसे बर परिही (लक्ष्मण मस्तुरिया)
तोर धरती तोर माटी रे भैया (लक्ष्मण मस्तुरिया)
चल जोही जुरमिल कमाबो(लक्ष्मण मस्तुरिया)
चलो जिनगी ला जगाबो (लक्ष्मण मस्तुरिया)

भजन –
अहो मन भजो गणपति गणराज (लक्ष्मण मस्तुरिया)
जय हो जय सरसती माई(लक्ष्मण मस्तुरिया)
जय हो बमलेसरी मैया(लक्ष्मण मस्तुरिया)
प्राण तर जाई रामा, चोला तर जाई

जीवन दर्शन –
माटी होही तोर चोला रे संगी (चतुर्भुज देवांगन),
दिया के बाती ह कहिथे (ब्रजेन्द्र ठाकुर)
हम तोरे संगवारी कबीरा हो(लक्ष्मण मस्तुरिया)

मस्ती –
मोला जावन दे न रे अलबेला मोर (लक्ष्मण मस्तुरिया)
बोकबाय देखे,हाले न डोले कुछु नइ बोलय टूरा अनचिन्हार (लक्ष्मण मस्तुरिया)
मंगनी मा मांगे मया नइ मिले (लक्ष्मण मस्तुरिया)
लहर मारे लहर बुंदिया (लक्ष्मण मस्तुरिया)
हमका घेरी बेरी घूर घूर निहारे ओ बलमा पान ठेला वाला(लक्ष्मण मस्तुरिया)
हर चांदी हर चांदी डोकरा रोवय मनावै डोकरी का या
पता ले जा रे, पता दे जा रे, गाड़ीवाला(लक्ष्मण मस्तुरिया)
छत्तीसगढ़ के माटी, एक अद्भुत रचना।

हिन्दी फिल्मों के संगीत और छत्तीसगढ़ी लोक संगीत के अन्तर्सम्बन्धों में एक विचित्र सा विरोधाभास देखने में आता है। हिन्दी फिल्मों का निर्माण तीस के दशक में प्रारम्भ हुआ। चालीस के दशक तक इन फिल्मों का संगीत एक प्रकार से अनगढ़ सा ही रहा। वहीं इन दशकों में छत्तीसगढ़ी लोक संगीत शिखर पर था।

पचास और साठ के दशकों में हिंदी फिल्मों का संगीत परिष्कृत होकर अत्यंत ही लोकप्रिय हो गया किन्तु छत्तीसगढ़ी लोक गीतों में फिल्मी गीतों के कारण विकृतियाँ आने लगी थी। खासकर नाचा-गम्मतों में जिन लोक गीतों का प्रयोग होता था उनमें बम्बइया प्रभाव के लटके झटके के कारण गिरावट आने लगी थी।

पचास और साथ के दशक में छत्तीसगढ़ी लोकगीत विकृति की ओर बढ़ने लगे थे। फिर आया सत्तर का दशक। इस दशक में फ़िल्म संगीत पर पाश्चात्य संगीत का प्रभाव पड़ने लगा था। पाश्चात्य वाद्य यंत्रों का भी प्रयोग बढ़ गया था। संगीत का शोर तो बढ़ा किन्तु गुणवत्ता में एकदम से गिरावट आ गई। ऐसा भी नहीं कि समूचा फ़िल्म संगीत ही स्तरहीन हो गया हो। कुछ संगीतकारों ने पाश्चात्य संगीत का अंधानुकरण नहीं किया और संगीत की मधुरता बनाये रखी।

सत्तर का दशक छत्तीसगढ़ी लोक संगीत के लिए प्राणवायु लेकर आया । इसी दशक में दाऊ राम चन्द्र देखमुख के चंदैनी गोंदा ने जन्म लिया। उनके स्वप्न को साकार करते हुए खुमानलाल साव ने छत्तीसगढ़ी लोक संगीत के निष्प्राण होते तन पर अमृत बूँदें बरसा कर उसे पुनः प्रतिष्ठित कर दिया। इन अमृत बूंदों ने सत्तर के दशक के संगीत को ऐसा अमरत्व प्रदान कर दिया कि यह सदियों बाद भी सुना जाता रहेगा।

बात सन् 1999 की है जब मैं और मेरे अनुज हेमन्त निगम ने छत्तीसगढ़ी के दो ऑडियो कैसेट्स रिकॉर्ड कराने का विचार करके लक्ष्मण मस्तुरिया जी से चर्चा की थी। इन कैसेट्स के नाम थे “मया मंजरी” और “छत्तीसगढ़ के माटी”। संगीत देने के लिए हमने खुमान लाल साव जी को तैयार किया था। गायक स्वर लक्ष्मण मस्तुरिया, कविता वासनिक और महादेव हिरवानी के थे। दोनों कैसेट्स के लिए। इसकी रिहर्सल कविता विवेक वासनिक के राजनांदगाँव निवास में हुई थी।

सारे कलाकारों के साथ हम जबलपुर पहुँचे थे। जबलपुर में विजय मिश्रा जी ने सभी के रुकने और भोजन की व्यवस्था कर दी थी। उन्हीं के निवास में रिहर्सल के दौरान लक्ष्मण मस्तुरिया जी ने कहा था – “छत्तीसगढ़ के किसी भी संगीतकार के संगीत में खुमान के संगीत की झलक दिखती है। खुमान का संगीत छत्तीसगढ़ के जनमानस के हृदय में इस प्रकार से छा गया है कि नया राज्य बनने पर इसे बंगाल के रवींद्र संगीत की तरह खुमान संगीत के नाम से स्थापित कर देना चाहिए।” इस प्रकार से खुमान-संगीत की परिकल्पना का श्रेय लक्ष्मण मस्तुरिया जी को जाता है।

छत्तीसगढ़ में छोटे बड़े बहुत से मंच हैं और विभिन्न गीतकारों के गीतों के संगीतबद्ध करके गीत बना रहे हैं । अधिकांश संगीतकारों के संगीत में खुमान लाल साव के संगीत की झलक दिख ही जाती है। बिरले ही संगीतकार हैं जिनके संगीत में कुछ मौलिकता दिखाई दे जाती है। इसका एक कारण यह भी है कि खुमान लाल साव का संगीत उनके मन की गहराई में इस तरह से रच बस गया है कि उनके संगीत में खुमान- संगीत का प्रभाव दिख ही जाता है। इसीलिए छत्तीसगढ़ शासन को भी चाहिए कि खुमान-संगीत को छत्तीसगढ़ की पहचान बनाए।

खुमान लाल साव का संगीत छत्तीसगढ़ के लोक में समाया हुआ है अतः इनके संगीत को भी लोक संगीत मानकर इनके संगीतबद्ध गीतों को लोक गीत के रूप में मान्यता देना चाहिए। क्योंकि ये गीत अब केवल खुमान के न होकर लोक के गीत बन चुके हैं।

आलेख

अरुण कुमार निगम, साहित्यकार, दुर्ग, छत्तीसगढ़

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