गोस्वामी तुलसीदास भारत के गिने-चुने महान कवियों में हैं जिन्होंने अपनी रचनाओं के माध्यम से मानव-समाज को सतत् ऊपर उठाने का प्रयत्न किया है। यही कारण है कि रामचरित मानस विनयपत्रिका, हनुमान चालीसा जैसी उनकी रचनाएँ आज भी लाखों लोगों के द्वारा रोज घर-घर में पढ़ी जाती है। भारत के बाहर भी जो भारतीय बस गये हैं। वे भी तुलसीदास की रचनाओं का अध्ययन-मनन और पाठ करते हैं। विभिन्न प्रमाण तुलसी के विभिन्न जन्म संवत की पुष्टि करते हैं। अब तक ऐसे छह मत प्रकाश में आए हैं जिनमें ये बहुश्रुत है-
पन्द्रह सौ चौवन विसै कालिंदी के तीर ।
सावन शुक्ला सत्तिमी तुलसी धरेऊ सरीर।।1
अन्तरसाक्ष्य के आधार पर तुलसी-साहित्य के अन्तर्गत पारिवारिक व्यक्तियों में माता के अतिरिक्त और किसी के नाम का उल्लेख नहीं मिलता। माता का नाम का उल्लेख नीचे लिखी पंक्ति में हुआ है-
रामहि प्रिय पावन तुलसी सी।
तुलसिदास हिय हिय हुलसी सी।।2
दूसरा उल्लेख अपने नाम का है बचपन का नाम तुलसी नहीं, वरन् ‘रामबोला’ था। इसका यह कारण दिया गया है कि ये ‘राम’ नाम अधिक लिया करते थे। कतिपय जीवनियों में तथा जनश्रुतियों में यह की तुलसी पांच वर्ष के बालक के रूप में उत्पन्न हुये थे। और जन्मते ही इन्होंने ‘राम’ नाम का उच्चारण किया। इसी से इन्हें ‘रामबोला’ नाम मिला। इनकी कृतियों में इसी नाम का उल्लेख है-
राम को गुलाम नाम रामबोला राख्यों राम,
काम यहै, नाम द्वै हौं कबहूं कहत हौं।
रोटी-लूगा नीके राखे, आगेहूकी बेद भाखै,
भलो ह्वैहै तेरो, ताते आनंद लहत हौं।3
उनके ग्रंथों में माता तथा निजी नामों के अतिरिक्त परिवार के अन्य किसी व्यक्ति का नाम नहीं मिलता किन्तु गुरु-महिमा और कृपा-संबंधी उल्लेख अवश्य है, जैसे-
मैं पुनि निज गुरू सन सुनी कथा सो सूकरखेत।4
तुलसी का साहित्य संपूर्ण संस्कृति एवं मानवता का प्रतिनिधित्व करने वाला भक्तिकाव्य है। महाकवि जयशंकर प्रसाद ने तुलसी की महानता और रामचरित मानस की व्यापक लोकप्रियता को इन शब्दों में व्यक्त किया है –
प्रबल प्रचारक था जो उस प्रभु की प्रभुता का
अनुभव था संपूर्ण जिसे उसकी विभुता का
राम छोड़कर और की जिसने कभी आश की
‘रामचरित मानस‘ कमल जय हो तुलसी दास की।5
महाकवि तुलसी ने दुःख का गरल पान किया, प्राचीन सामाजिक आदर्श की अमृत से अपने काव्य को अमरता प्रदान की, भारत की जनता की सामाजिक उद्धार के लिये प्राचीन और तत्कालीन समाज की गहरी खाई को भक्ति के माध्यम से पाटा, कवि ने प्राचीन सामाजिक विचारधारा का नवीन संस्करण प्रस्तुत किया। उन्होंने भारत की आत्मा को नया संदेश ही नहीं दिया अपितु नई दिशा भी दी। उसी पर चलकर भारत की आदर्श प्राण जनता जीवन के लौकिक सुखों की वृद्धि कर सकने में सफल हुई। मानवीय मूल्यों और तथ्यों की सम्यक रक्षा करते हुये आदर्श जीवन बिता कर पूर्ण मानव की परिकल्पना को सार्थक बनाये रखने में तुलसीदास के योगदान को भुलाया नहीं जा सकता।
करोड़ों स्त्री-पुरुशों के मन-जिह्वा पर राजित तुलसी अपने समय में जीते हुये राम गुण गाते हैं। वे मात्र भजन नहीं करते जनता के सुख-दुख के साथी बनकर खबर रखते हैं। उन्हें जनार्दन के पास पहुँचाते हैं। अपने समय के बादशाह को सचेत करते हैं कि जन है तभी तुम जनार्दन हो, भक्त हैं तभी तुम भगवान हो। अतः प्रजा की पीड़ा को दूर करना राजा का कर्तव्य है। कर्तव्य च्युत् राजा पाप-पीड़ा का अधिकारी है-
जासु राज प्रिय प्रजा दुखारी।
ते नृप अवसि नरक अधिकारी।।7
तुलसीदास कोरे धुनी रमाने वाले संत नहीं थे, जिन्हें केवल अपनी ही मुक्ति की चिंता सताती हो। वे लोक मुक्ति की आकांक्षा से प्रेरित संत हैं। उनके राम राजा नहीं लोक है, विश्वास है, जनता रूपी जनार्दन है-
विष्व रूप रघुवंशमनि, करहु वचन विश्वासु।
लोक कल्पना वेदकर, अंग-अंग प्रति जासु।।8
जातिगत् ऊँच-नीच भेद-भाव को मिटाने और सामाजिक न्याय की प्रतिष्ठा के लिए तुलसी ने भक्ति के स्तर पर कमाल का काम किया। उनकी भक्ति दूषित अर्थ वाली धर्म निरपेक्षता से दूर लोक सापेक्ष है। इस भक्ति में सेवा की सर्वोच्च प्रतिष्ठा है। तुलसी के अनुसार भक्त चाण्डल भी अच्छा है-
तुलसी भगत सपच भलौ, भजै रैन दिन राम।
ऊँचों कुल केहि काम को, जहाँ न हरि को नाम।।9
समाज को धार्मिक सम्प्रदायवाद की वितंडा से बचाने वाले तुलसी मानस रचना का प्रारंभ शिव-पार्वती की स्तुति और कथा से आरंभ करते हैं। तुलसी आदि कवि भले ही वाल्मीकि को मानते हैं-
सीतारामगुणग्रामपुण्यारण्यविहारिणौ ।
वन्देविशुद्धविज्ञानौ कवीश्वरकपीश्वरौ।।10
परन्तु रघुनाथ गाथा के आदि कवि शंकरजी को ही मानते हैं, उन्हीं से राम कथा की पुर्नप्रस्तुति के लिए सुमति प्रसाद की याचना करते हैं-
संभु प्रसाद सुमति हियँ हुलसी।
रामचरित मानस कवि तुलसी।।11
महाकवि तुलसी की रचनाएँ स्वान्तः सुखाय होकर भी परान्तः सुखाय है। उनकी सबसे बड़ी विशेषता यह है कि उन्होंने काव्य-कला की अपेक्षा काव्य के विषय को और उसके माध्यम से लोक रंजन एवं लोक-मंगल की भावना को प्रधानता दी है। वाल्मीकि के राजाराम के जन-जन में रमें हुये राम को, घर-घर में पहुंचाने वाले महाकवि तुलसी का आसन बहुत ऊँचा है। ‘नजीर’ बनारसी ने लिखा भी है-
तुलसी की तरह गमक-गमक कर तुमने
भक्ति का भी मैदान किया सर तुमने
जिस राम को बनवास दिया दषरथ ने
उस राम को घर-घर पहुंचा दिया तुमने।
जो दिल में था कागज पर उतारा तुमने
मिटता हुआ हर नक्ष उभारा तुमने
संसार को राम ने सँवारा लेकिन
संसार के राम को संवारा तुमने।12
तुलसी की इन्हीं विशेषताओं की ओर संकेत करते हुए फादर कामिक ने अपनी कृति ‘अकबर द ग्रेट मुगल’ में लिखा है- तुलसीदास का नाम तत्कालीन इतिहास ग्रंथों में नहीं मिलेगा, फिर भी व भारत में अपने समय के सबसे महान व्यक्ति थे। वह अकबर से भी महान थे। अकबर युद्ध में कितनी बार विजयी क्यों न हुए हो, तुलसीदास उनसें कही अधिक महान विजेता हैं। क्योंकि उन्होंने करोड़ों पुरुषो और स्त्रियों का हृदय और मन जीत लिया है। तुलसीदास मध्यकालीन भारत की सामंती समाज व्यवस्था के बीच पैदा हुए जो स्वयं ऊँच-नीच, अवर्ण-सवर्ण, छूत-अछूत, शोषक-शासक आदि अंतर्विरोधों से भरा था। ‘बारे ते ललात बिललात‘ तुलसी दर-दर की ठोकरें खाई। यौवन में सामाजिक विरोधों का सामना किया और साधना के चरम सोपान पर पहुँच कर भी राजाश्रय से उपेक्षित रहे। इसका प्रबल प्रमाण है आईन-ए-अकबरी जिसमें साधारण कोटि के भाषा-कवियों का उल्लेख किया गया है, किन्तु तुलसीदास की एकांत उपेक्षा कर दी गई है। जिस उच्च वर्ग का गुणगान करते वे थकते नहीं, उससे उन्हें सदा ही उपेक्षा मिली। जिस व्यक्तित्व को डॉ. जार्ज अब्राह्म ग्रियर्सन एशिया महाद्वीप के दो चार महानतम व्यक्तियों में से एक स्वीकार करतें हैं अपने ही देश में उनकी राजनैतिक उपेक्षा एक ऐतिहासिक तथ्य है, किन्तु जनता जनार्दन के हृदय में तुलसी आज भी राज कर रहें हैं। राजपद ठुकरा कर भी तुलसी उच्च आसन पर राजित हैं।
यह भी एक ऐतिहासिक तथ्य है कि गोस्वामी तुलसी कभी भी राज दरबार अथवा राजदरबारियों के पास फटके भी नहीं। डॉ. ईश्वरी प्रसाद ‘भारत का इतिहास‘ में लिखते हैं कि अकबर बादशाह को हिन्दी काव्य और संगीत से बहुत ही रूचि थी और के सभी भागों से प्रसिद्ध कवि और गायक राजदरबार आने के लिये आकर्षित रहते थे परन्तु तुलसी कभी राजदरबार नहीं पहुंचे और न उन्होंने अपने किसी ग्रंथ में तत्कालीन शासन की चलती दृष्टि से भी कोई चर्चा की। तुलसीदास का कोई जिक्र आइन-ए-अकबरी, अकबरनामा अथवा तत्कालीन किसी अन्य मुस्लिम वृत्त-विवरण में नहीं दिया गया है। तुलसी ने न कोई मठ स्थापित किया और न सम्प्रदाय तथा न कोई पंथ ही चलाया। वे लोभ-प्रलोभन तथा भौतिक लौकिक आकर्षणों तथा वैभवों से वीतराग तथा अनासक्त थे।
अपनी दारुण दशा का स्वयं तुलसी ने उल्लेख किया है कि उनके माता-पिता ने संसार में जन्म देकर त्याग दिया था, वे निरादर के पात्र थे कायर कुत्ते के मुँह के टुकड़े के लिए ललचाते थे-
मातु-पिताँ जग जाइ तज्यो विधि हूँ न लिखी कछु भाल भलाई।
नीच-निरादर भाजन, कादर कूकर-टूकन लागि ललाई ।।
रामु-सुभाउ सुन्यो तुलसी प्रभुसों कह्यो बारक पेटु खलाई।
स्वारथ को परमारथ को रघुनाथ सो साहेबु खोरि न लाई।।15
अन्तरसाक्ष्यों से सिद्ध है कि तुलसीदास अपने जीवनकाल में महामुनि भी कहलाने लगे थे। पेट की आग के कारण जाति, सुजाति, कुजाति सभी के टुकड़े माँग-माँगकर खाने वाले तुलसी राम के प्रताप से पूजित हो गए-
जाति के, सुजाति के, कुजाति के पेटागि बस
खाए टूक सबके बिदित बात दुनीं सो।
मानस बचन-कायँ किए पाप सतिभायँ
राम को कहाइ दासु दगाबाज पुनी सो।
राम नाम के प्रभाउ पाउ महिमा, प्रतापु
तुलसी-सो जग मनिअत महामुनी सो।
अतिहीं अभागो, अनुरागत न रामपद
मूढ़! एतो बड़ो अचिरिजु देखि-सुनी सो।।16
समाज में तुलसीदास की खूब प्रतिष्ठा बढ़ गयी। घर-घर टुकड़े माँगने वाले तुलसीदास के राम-कृपा से राजा-महाराजा पैर पूजने लगे-
घर घर माँगे टूक पुनि भूपति पूजे पाय।
जे तुलसी तब राम बिनु ते अब राम सहाय।।17
प्रतिष्ठा बढ़ने से विपत्तियाँ भी बढ़ती जाती हैं, गोस्वामी जी ने जीवन के कटु अनुभव को प्रस्तुत करते हुए कहा कि जब तक मधुकरी माँगकर खाते थे, तब तक पैर पसार कर सोते थे, परन्तु पापमयी प्रतिष्ठा बढ़ने से झगड़े भी बढ़ गए-
मांगि मधुकरी खात ते सोवत गोड़ पसारि।
पाप प्रतिष्ठा बढ़ि परी ताते बाढ़ी रारि।।18
हँसिहहिं कूर कुटिल कुविचारी। जे परदूषन भूषन धारी ।।19
उक्त पंक्तियों से स्पष्ट है कि उनका उपहास करने वालों का अभाव नहीं था। उपहास और विरोध करने वाले संस्कृतवादी कट्टर ब्राम्हण तथा सम्प्रदायवादी शैव मतावलंबियों को तुलसीदास सटीक जवाब भी देते हैं कि ईश गुणगान के लिए क्या भाषा, क्या संस्कृत, सच्चा प्रेम चाहिये, जहाँ कंबल से ही काम चल जाता हो वहाँ बढ़िया दुशाला लेकर क्या करना है?
का भाषा का संस्कृत प्रेम चाहिऐ साँच ।
काम जु आवै कामरी का लै करिअ कुमाच।।20
राम का गुलाम बना देखकर लोग उन्हें नीच भी कहा करते थे। इससे तुलसी कभी विचलित नहीं हुए, क्योंकि न तो उन्हें किसी के साथ विवाह-सगाई करनी थी और न ही जाति-पाँति से ही कुछ मतलब था। तुलसी का बनना-बिगड़ना तो श्रीराम के रीझने-खीझने में ही था –
लोग कहैं पोच-सो न सोच न संकोच मेरे
ब्याह न बरेखी, जाति-पांति न चहत हौं।
तुलसी अकाज-काज राम ही के रीझे-खीझे
प्रीति की प्रतीति मन मुदित रहत हौं ।।21
लोक निंदा का गरलापान करके भी तुलसीदास विचलित नहीं हुए। कवि की विनम्रता अद्भुत है। इतनी प्रतिष्ठा पाकर भी वे इसे राम का प्रभाव मानते हैं। तुलसीदास की यश वृद्धि के साथ-साथ आचार-विचार वाले संकीर्ण हृदय ब्राम्हणों ने उनका अवष्य विरोध किया होगा। शैव शाक्त और वैष्णव सम्प्रदायों में एकत्व भाव रखकर मानव धर्म की संस्थापना रूढ़िवादी ब्राम्हणों को रूचिकर प्रतीत नहीं हुई होगी और उन लोगों ने तुलसीदास जी को सताने में कोई कोर कसर बाकी न रखी होगी। तुलसीदास को कितना व्यंग्य और कष्ट सहना पड़ा होगा, इसका अंदाज निम्न अवतरण से हो जाएगा-
कोऊ कहै करत कुसाज दगाबाज बड़ो
कोऊ कहै रामको गुलामु खरो खूब है।
साधु जानैंमहासाधु खल जानैं महाखल
बानी झूँठी-साँची कोटि उठत हबूब है।।
चहत न काहूसों न कहत काहूकी कछू
सबकी सहत उर अंतर न ऊब है।
तुलसी को भलो पोच हाथ रघुनाथ ही के
राम की भगति-भूमि मेरी मति दूब है।।22
संघर्ष ने तुलसीदास को अत्यधिक बल दिया होगा, यह निसंदेह सत्य है। वे दूसरे की बुराई का स्वप्न में भी ख्याल नहीं करते थे –
परुष वचन अति दुसह श्रवन सुनि तेहि पावक न दहौंगो।
बिगत मान, सम सीतल मन, पर गुन नहिं दोष कहौंगो।। 23
किन्तु रूढ़िवादी ब्राम्हण समाज उनको क्यों छोड़ता। तुलसीदास की जाति पांति का प्रश्न लेकर उन लोगों ने टंटा खड़ा किया होगा, तभी वे खीझ कर कहते हैं-
धूत कहौ अवधूत कहौ रजपुतु कहौ, जोलहा कहौ कोऊ
काहूकी बेटी सों बेटा न ब्याहब, काहूकी जाति बिगार ने सोऊ
तुलसी सरनाम गुलाम है रामको, जाको रुचै कहै कछु ओऊ
माँगि के खैबो, मसीत को सोइबो लैबो को एकु न दैबे को दोऊ।।24
तुलसी की नेह-नाता सम्पूर्ण समाज और चराचर से था, उसके संचालक ईश्वर से था। ईश भक्ति को सर्वश्रेष्ठ मानने वाले तुलसी ने श्रीराम के माध्यम से शबरी के मिस जो भावनाएँ व्यक्त की हैं उसमें अवर्ण-स्वर्ण, कुल-धरम, जाँति-पाँति, पद प्रतिष्ठा से ऊपर भक्त जन को नरोत्तम और ईश्वर के निकट माना है –
कह रघुपति सुनु भामिनी बाता । मानउँ एक भगति कर नाता ।।
जाति पांति कुल धर्म बड़ाई। धन बल परिजन गुन चतुराई।।25
तुलसीदास की बड़ती हुई प्रतिष्ठा काशी के बहुत से विद्वानों को सहन नहीं हुई। शिवोपासक ब्राम्हणों ने रामोपासक तुलसी का काशी में जबर्दस्त विरोध किया। शिवपुरी काशी में रामोपसना का प्रसार रूढ़िवादी ब्राम्हण कैसे सह सकते थे? फलतः उन्होंने तुलसीदास को नाना प्रकार से कष्ट देने की चेष्टा की होगी जिसका वे स्वयं उल्लेख करते हैं-
देवसरि सेवौं बामदेव गाँव रावरेहीं
नाम राम ही के मागि उदर भरत हौं ।
दीबे जोग तुलसी न लेत काहूको कछुक
लिखी न भलाई भाल, पोच न करत हौं।।
एते पर हूँ जो कोऊ रावरो ह्वै जोर करै
ताको जोर, देव ! दीन द्वारें गुदरत हौं ।
पाइ कै उराहनो उराहना न दीजो मोहि
कालकला कासीनाथ कहें निबरत हौं ।।26
अपनी पत्नी के उपदेश से ही वैराग्य धारण करने वाले तुलसीदास ने देशाटन के दौरान अपनी आंखों से देश की सामाजिक, धार्मिक और राजनैतिक दुर्दशा का भीषण दृश्य देखा, तदुपरांत वे चित्रकुट में रामभक्ति में लीन हुए अयोध्या में तुलसीचौरा नामक स्थान पर रहकर इन्होंने रामकथा के गूढ़ तत्वों को कथावार्ता के रूप में जनता को समझाने का प्रयास किया। पुनः काशी आकर ‘रामचिरतमानस‘ ग्रंथ की रचना समाप्त की। काशी के ही गोपाल मंदिर की एक कोठरी में तुलसीदास ने विनयपत्रिका की रचना की थी।
मानव धर्म के प्रबल प्रचारक तुलसी का आखर-आखर तुलसीदल है, जिसमें रामायण की विभूति विभूषित है। तुलसी अपने राम को इस रूप में प्रस्तुत करते हैं, जन-मानस में पधराते हैं कि वे जन मानस मंदिर में प्रतिष्ठित हो जाते हैं- आदर्श के रूप में, आचरण के रूप में। गहरे उतर जाते हैं-मूल्य और निष्ठा के रूप में, जीने के रूप में। यदि ऐसा नहीं हो पाता तो अवतार का कार्य अधूरा माना जाता और वह पत्थर की मूर्ति बनकर रह जाता है। तुलसी अपने इष्ट देव को पत्थर होने से बचा ले जाते हैं। वे राम को किशोरवय से ही लोक कल्याण के अनुष्ठान में लगाकर योगियों के भीतर रमने वाले को लोक में रमाते हैं। फैयाज ग्वालियरी के निम्न अवतरण में तुलसीदास के इन्हीं गुणों का उल्लेख हुआ है।
यह लुत्फे खास है फैजे आम तुलसी का
कि खासो-आम का प्यारा है राम तुलसी का ।
वह बंशी वाले से कहते हैं ‘‘छबि है खूब मगर
धनुष लो हाथ में फिर लो सलाम तुलसी का‘‘
है उसे प्यार तो तुलसी से प्यार कर ‘फैयाज‘
कि तुलसी राम के हैं और राम तुलसी का।28
संस्कृत साहित्य का प्रकाण्ड पंडित होते हुए भी तुलसीदास ने जनभाषा में साहित्य रचा। ‘संसकीरित है कूप जल भाखा बहता नीर’ कहकर कबीरदास ने जिस भाषा का महिमा मंडन किया, तुलसी ने भी उसी ‘ग्राम्य गिरा‘ का प्रयोग किया। कविताई करना उनका उद्देश्य नहीं था, कविता तो उनके लिए भक्ति पथ का साधन था, साध्य नहीं। फिर भी काव्यशास्त्र की कसौटी पर उनकी कृतियाँ खरे हैं। आचार्य विश्वनाथ प्रसाद मिश्र ने तुलसी की समन्वय-भावना के संबंध में लिखा है ‘‘गोसाईं तुलसीदास का सारा प्रयत्न लोक के भीतर विभिन्न व्यक्तियों, विचारों और आनंद देने वाले प्रकारों के बीच सामंजस्य स्थापित करने में ही लगा। साम्प्रदायिक लोगों के बीच तो भगवान रामचन्द के उस स्वरूप के द्वारा समन्वय का प्रयास किया जो केवल वैष्णवों की ही संपत्ति न रहकर शैवों की भी विभूति थी।29
आधुनिक हिन्दी के जनक भारतेन्दु हरिश्चन्द्र ने तुलसी के बाल्यकाल की दरिद्रता, श्रीराम के प्रति उनकी एकनिष्ठ भक्ति, तुलसी और उनके साहित्य की विशेषताओं का निम्न अवतरण में मनोरम वर्णन किया है-
विविध मतों का बाहुल्य देख भारत में
श्रुति शास्त्र आदि का मधुर भाव खोला था।
जन-जन में बहाया राघव की भक्ति का स्रोत
प्रेममधु मांहि राम नाम रस घोला था ।।
जननी-जनक दियो त्याग बाल्यकाल से ही
उदर भरन हेतु द्वार-द्वार डोला था
मां भारती के पुनीत ग्रंथ मानस में
वही ‘राम बोला‘ था कि स्वयं राम बोला था।।30
‘मानस‘ इस बात का प्रत्यक्ष प्रमाण है कि तुलसी का नाना कलाओं, विधाओं तथा अलंकार शास्त्रों की पूरी जानकारी थी, परन्तु इस ज्ञान द्वारा चमत्कार-प्रदर्शन की उनकी प्रवृत्ति नहीं थी। प्रतिभावान कवि का यही लक्षण है। अतः
भनिति मोरि सब गुन रहित विस्व विदित गुन एक ।
सो विचारि सुनहहिं सुमति जिन्ह के विमल विवेक।।31
कवित विवेक एक नहिं मोरे ।
सत्य कहहुँ लिखि कागद कोरे।।32
कहने वाले महाकवि की कविता का ‘विश्व-विदित गुन‘ यही है कि उसमें अपने आराध्य के प्रति अपनी आस्था, श्रद्धा और उत्सर्ग को अत्यंत मार्मिकता और सच्चाई से व्यक्त किया गया है। सच्चाई और पूर्ण आत्मा अभिव्यक्ति के आगे उन्होंने काव्य-कौशल को अधिक महत्व नहीं दिया है। वे कहते हैं कि भारतवर्ष की पवित्र भूमि है, यहाँ जन्म लेना ही उत्तम है ऐसी अवस्था में पुरुष क्रोध और कठोर वचन त्यागकर वर्षा, जाड़ा, वायु और घाम को सहन करते हुए चातक के समान हठपूर्वक सर्वथा भगवान को भजता है, वही चतुर है अन्यथा और सब तो सुवर्ण के हल में कामधेनु जोतकर केवल विष बीज बोते हैं-
भलि भारत भूमि, भलें कुल जन्मु समाजु सरीरु भलो लहि कै।
करशा तजि के परुषा बरषा हिम, मारुत घाम सदा सहि कै।।
जो भजै भगवान सयान सोई ‘तुलसी हठ चातकु जो गहि कै।
नतु और सबै बिष बीज बए, हर हाटक कामदुहा नहि कै ।।34
प्रसिद्ध अंग्रेज विद्वान एडाविन ग्रीव्ज ने अपनी कृति ‘ए स्केच ऑफ हिन्दी लिटरेचर’ में लिखा है-तुलसीदास एक बहुत ही तत्वनिष्ठ और प्यारे व्यक्ति थे, अपनी कृतियों के रूप में वे यथार्थतः जीवत हैं।
रामायण एक ऐसी कृति है, जिससे उसके रचयिता अमर हो गये हैं। वह हिन्दी भाषा-भाषी हिन्दुओं की बाइबिल है। तुलसी की विनय और भक्ति-भावना में हिन्दी में इस ढंग से प्रयोग करने की उनकी योग्यता का संगम हुआ है, जिसमें दूसरा कोई उनके समकक्ष नहीं ठहरता। तुलसीदास ने पांडित्य प्रदर्शन के लिए अथवा पांडित्य का अभिमान रखने वालों को प्रसन्न करने के लिए नहीं लिखा। उनके लेखन का उद्देश्य था लोकरंजन और उसमें उन्हें सफलता प्राप्त हुई। इंग्लैण्ड का कोई भी कवि वहां की जनता के हृदय में वह स्थान नहीं बना पाया जो तुलसीदास ने अपनी मातृभूमि के मन में बना लिया। तुलसी के काव्य में सत्यम शिवम और सुन्दरम की उपब्धियों के साथ-साथ ‘वसुधैव कुटुम्बकम‘ का जो अटूट संकल्प हमें मिलता है वह धरती पर मानवीय आदर्शों की प्रतिष्ठा के लिए कवि तुलसी को कवि से अधिक इस युग के एक महान दार्शनिक एवं समाज उद्धारक की भूमिका में ला खड़ा करता है।
दुर्योग तथा दुर्जनों की भांति सम्भवतः तुलसीदास को वृद्धावस्था में रोगों ने घेर लिया था। जराजीर्णता, बाहुपीड़ा तथा बालतोड़ से वे एक साथ पीड़ित थे। सर्वाधिक कष्टकारिणी बाहुपीड़ा से मुक्ति पाने के लिए ही कवि ने हनुमान बाहुक की रचना की। यह बाहु वेदना असह्य थी-
पायंपीर पेटपीर बांहपीर मुंहपीर
जरजर सकल सरीर पीरमई है
देव भूत पितर करम खल काल ग्रह
मोहिपर दवरि दमानक सी दई है ।।
हौं तो बिन मोलके बिकानो बलि बारेही तें
ओट रामनाम की ललाट लिखि लई है ।
कुंभज के किंकर बिकल बूड़े गोखुरनि,
हाय रामराय ऐसी हाल कहं भई है ।।36
और इस प्रकार भारत का सर्वश्रेष्ठ महाभाष्यकार अपने ये अंतिम विरचित दोहे को पढ़ते-पढ़ते प्राण त्याग दिये –
रामचन्द्र जस वरनि के भयो चहत अब मौन।
तुलसी के मुख दीजिए अबही तुलसी सोन।।37
तुलसी के निधन की तीन तिथियाँ प्राप्त होती हैं। वेणीमाधवदास ने तुलसी की निर्वाण तिथि सावन स्यामा तीज सनि स्वीकार की-
संबत सोरह सै असी असी गंग के तीर।
सावन स्यामा तीज सनि तुलसी तजेउ सरीर।।38
तुलसीदास ने पहले जनता की प्रकृति का मनन किया फिर अपना मार्ग तय किया। तुलसीदास कोरे कवि नहीं थे, वे भक्त कवि थे, और उनकी रामभक्ति ने उनकी रचनाओं में ऐसे व्यावहारिक आदर्शवाद की सृष्टि की है जो उल्लेखनीय है। उनके राम शब्द के वास्तविक अर्थो में मर्यादा पुरुषोत्तम है और मर्यादा पुरुषोत्तम के रूप की तुलसीदास से बढ़कर कदाचित कोई भी कल्पना नहीं कर सका। उनकी रामभक्ति मानवता की अति विशद कल्पना पर आधारित है, और यही कारण है उनका समस्त कार्य रामभक्ति के साथ-साथ मानवता के उच्चतम आदर्शों और मूल्यों का निर्देशक है।
भारतीय साहित्याचार्यों ने काव्यशास्त्र का जो रूप हमारे सामने रखा उसके अनुसार काव्य के पात्र, उनके विचार, उनके भाव उनसे संबंधित घटनाएं आदि सभी अपने में उदात्त होनी चाहिए। भारतीय काव्यशास्त्र में सदैव से ही महान और उदात्त चरित्रों का गान किया गया है। इस परंपरा का अनुगमन करते हुए तुलसीदास ने ‘राम’ जैसे महान चरित्र को चुना। राम जैसे दिव्य, महान, उदात्त और अप्रतिम नायक की कल्पना भारत में ही संभव है और महाकवि तुलसीदास ने उस दिव्य चरित्र पर लेखनी उठाई भी। विश्व का कोई भी देश, वह चाहे यूरोप हो, रोम हो, इरान हो, राम जैसे गरिमामय चरित्र की कल्पना न कर सका। तुलसीदास ने इस चरित्र को एवं इस चरित्र से संबंधित अन्य चरित्रों एवं घटनाओं को जो परिष्कृत रूप प्रदान किया वह अपने में स्तुत्य है। राम एवं राम परिवार के माध्यम से तुलसी ने जो जीवन-शक्ति मानव-जाति को दी वह आज भी अक्षुण्ण है। सुकवि रचित वक्रोक्तिपूर्ण रचना द्वारा रामचरित यदि नहीं गया तो तुलसी की दृष्टि में वह रचना नगण्य है –
भनिति बिचित्र सुकवि कृत जोऊ।
राम नाम बिनु सोह न सोऊ।।40
किंतु यदि कुकवि कृत काव्य गुण हीन भी कोई रचना है, फिर भी यदि उनमें राम का सुयश गाया गया है तो सुधिजनों द्वारा वह समादृत होती है। इसीलिए संतो द्वारा इस काव्य का समादार होता है कि यह जन-सामान्य के लिए मंगलकारी होती है –
भनिति भदेस बस्तु भलि बरनी।
रामकथा जग मंगल करनी।।41
गोस्वामी जी के विचार से सत्य काव्य का प्रतिपाद्य है। गोस्वामी जी के विचार से वह सत्य ‘राम‘ है। रामजी परब्रम्ह रूप हैं। निराकार परब्रम्ह, जब साकार रूप में प्रकट हुआ, तब वह स्वयं कलायुक्त है। वह ‘काव्य‘ स्वयं हो गया। जगत का आधार लेकर काव्य करना मिथ्या का आधार ग्रहण करना है। इसीलए गोस्वामी जी ने आगे लिखा-
कीन्हे प्राकृत जन गुण गाना ।
सिरधुनि गिरा लगति पछिताना ।।42
इन सब कारणों से गोस्वामी जी ने अलंकृति और कवित-विवेक के आधारों को न लेकर ‘सत्य‘ अर्थात परब्रम्ह राम के चरित का आधार लिया। तुलसी की धारणा है कि सत्यानुभूति की अभिव्यक्ति में काव्यगुण स्वतः उत्पन्न हो जाते हैं। अतः कबीर न चाहते हुए भी कवि हैं और तुलसीदास जी भी कवि हैं।43 और तुलसीदास जी भी कहते हैं-
जदपि कवित-रस एकौं नाहीं। रामप्रताप प्रगट एहिमांही।।44
भक्त कवियों की वाणी हमारी महान धरोहर है। अपने युग का दर्पण होने के साथ-साथ इनकी रचनाओं में अपने अतीत की परछाईयां और भविष्य के स्वप्नों का एक सुनहरा संसार भी सृजित हुआ है। तुलसी के ‘रामराज्य‘ की कल्पना में ही हमारे वर्तमान लोकतंत्र के बीच छिपे हैं। केवल एक ही महात्मा और हैं जिनका नाम गोस्वामी के साथ लिया जा सकता है और लिया जाता है। वे हैं प्रोमस्रोतस्वरूप भक्तवर सूरदासजी जब तक हिन्दी साहित्य और हिन्दी भाषा हैं, तब तक सूर और तुलसी का जोड़ा अमर है। पर जैसा कि दिखाया जा चुका है, भाव और भाषा दोनों के विचार से गोस्वामीजी का अधिकार अधिक विस्तृत है। न जाने किसने ‘यमक‘ के लोभ से यह दोहा कह डाला कि ‘सूर सूर तुलसी ससी, उड्डुगन केशवदास” यदि कोई पूछे कि जनता के हृदय पर सबसे अधिक विस्तृत अधिकार रखनेवाला हिन्दी का सबसे बड़ा कवि कौन है तो उसका एकमात्र यही उत्तर ठीक हो सकता है कि भारत हृदय, भारतीयकंठ, भक्तचूड़ामणि गोस्वामी तुलसीदास।45
हिन्दी साहित्य के समूचे इतिहास में गोस्वामी तुलसीदास का कवित्व अप्रतिम है। उनकी वाणी एक ऐसे समाधिस्थ चित्त की अभिव्यक्ति है जिसमें भारतीय दर्शन, धर्म और कला का अद्भूत समन्वय है। वह अनास्था के सिंधु में आस्था का वड़वानल है। वह केवल अतीत का काव्य नहीं है, अपितु आगत का बोधक और अनागत का दिशासूचक भी है। उसमें कन्तासम्मित उपदेश के साथ ही साथ परिनिवृत्ति की क्षमता भी है। उसमें काव्य-कौशल और लोक मंगल की चरम परिणति है। गोस्वामी जी की कविता कबीर से बहुत आगे की चीज है। वह जीवन की समग्रता की कविता है, संसार-सागर की रूप-तरंगों में हिलोरें लेने वाली कविता है, वह हमारे जीवन साक्षात्कार की कविता है।
संदर्भ संकेत
- वेणीमाधवदास – मूल गोसाईं चरित-2
- रामचरितमानस 1/31/12
- विनयप्रत्रिका पद सं. 76
- रामचरितमानस 1/30 क
- रत्नशंकर प्रसाद-प्रसाद वॉंगमय खण्ड-2, लोकभारती प्रकाशन, इलाहाबाद, प्र.स.1977 पृ़.202
- डॉ. मन्नूलाल यदु- राम और राम-काज, वैभव प्रकाशन, रायपुर, स. 2005, पृ. 393
- रामचरितमानस 2/71/6
- रामचरितमानस 4
- वैराग्य संदीपनी दोहा 38
- रामचरितमानस बालकाण्ड श्लोक-4
- रामचरितमानस 1/35-1
- नन्नूलाल खण्डेलवाल- तुलसी पंचशती स्मारिका तुलसी मानस प्रतिष्ठान, भोपाल, पृ. 31
- डॉ. मन्नूलाल यदु-राम और राम-काज पृ. 392
- राममूर्ति त्रिपाठी- तुलसी, लोकभारती प्रकाशन, इलाहाबाद, सं. 2009 पृ.180
- कवितावली उत्तरकाण्ड छ. 57
- वही छ. 72
- दोहावली 109
- वही 494
- रामचरितमानसः 1/8/5
- दोहावली 572
- विनयप्रत्रिका 76-4
- कवितावली उत्तरकाण्ड छ. 108
- विनयपत्रिका पद 172-3
- कवितावली उत्तरकाण्ड छ. 106
- रामचरितमानस अरण्यकाण्ड-4/35/2,3
- कवितावली उत्तरकाण्ड छ.165
- डॉ. शोभाकान्त झा- समूचे के कवि तुलसीदास, सुमित्रा प्रकाशन, रायपुर, प्र.सं. 2002 पृ.-24
- तुलसी पंचशती स्मारिका पृ. 27
- सुधाकर पाण्डेय-रामचरितमानस राधाकृष्ण प्रकाशन, दिल्ली, सं. 1999 पृ. 18
- राजेन्द्रप्रसाद शुक्ल-छत्तीसगढ़ी मानस हिन्दी धारा, प्रवेशांक अगस्त 2002, श्रीतुलसी मानस प्रतिष्ठान, रायपुर छ.ग., पृ. 23
- रामचरितमानस 1/9
- वही 1/9/11
- सुधाकर पाण्डेय-रामचरित मानस, पृ, 54
- कवितावली उत्तरकाण्ड छ. 33
- नन्नूलाल खण्डेवाल-तुलसी पंचशती स्मारिका पृ. 61
- हनुमान बाहुक छ. 38
- मूलगोसाईं चरित दो. 118
- वही दोहा-119
- सुधाकर पाण्डेय-रामचरित मानस, पृ. 17
- रामचरितमानस 10-3
- रामचरितमानस 10-10
- रामचरितमानस 1/11/7
- राममूर्ति त्रिपाठी – तुलसी, पृ. 262
- रामचरितमानस 10-4
- आचार्य रामचन्द्र शुक्ल-गोस्वामी तुलसीदास, वाणी प्रकाशन, नयीदिल्ली, द्वि.सं. 2008, पृ.155
आलेख