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भारतीय शिक्षण परंपरा और नारी सम्मान का अद्भुत अभियान चलाने वाले : ईश्वर चंद्र विद्यासागर

उन्नीसवीं शताब्दी का आरंभ अंग्रेजों द्वारा भारतीय शिक्षा, संस्कृति, परंपरा और समाज के मानसिक दमन के अभियान का समय था। गुरुकुल नष्ट कर दिये गये थे, चर्च और वायबिल आधारित शिक्षा आरंभ करदी थी। ऐसे समय में किसी ऐसे व्यक्तित्व की आवश्यकता थी, जो भारतीय समाज में आत्मविश्वास जगाकर अपने स्वत्व से जोड़ने का अभियान छेड़े। यही काम सुप्रसिद्ध शिक्षाविद, समाजसेवी ईश्वर चंद्र विद्यासागर ने किया।

अंग्रेजों ने भारत की मूल संस्कृति, शिक्षा, समाज व्यवस्था और आर्थिक आत्मनिर्भरता को नष्ट करने में ही अपनी सत्ता का सुरक्षित भविष्य समझा और इसकी तैयारी 1757 में प्लासी का युद्ध जीतने के साथ ही तैयारी आरंभ कर दी थी और 1773 के बाद चर्च ने भारत के सामाजिक, आर्थिक, शैक्षणिक और मानसिक दमन के लिये बाकायदा सर्वे किया और 1806 में दिल्ली पर अधिकार करने के साथ तेजी से अमल करना भी आरंभ कर दिया था।

यद्यपि कुछ सामाजिक और धार्मिक कार्यकर्ता समाज में जागरण का अभियान चला रहे थे पर फिर भी बदली परिस्थिति के अनुरूप सामंजस्य बिठाकर काम करने की आवश्यकता थी। इसी धारा पर सबसे प्रभावी कार्य किया था ईश्वरचंन्द्र विद्यासागर ने।

उनका जन्म 26 सितम्बर 1820 को बंगाल के मेदिनीपुर जिले के अंतर्गत वीरसिंह गाँव में हुआ था। उनके पिता का नाम ठाकुरदास वन्द्योपाध्याय था। वे संस्कृत के अद्भुत विद्वान थे किंतु आर्थिक स्थिति बहुत कमजोर थी। बचपन में संस्कृत शिक्षा उन्होने घर पर ही पिता से प्राप्त की और फिर कलकत्ता के संस्कृत महाविद्यालय में प्रवेश लिया।

वे बाल अवस्था से ही कलकत्ता में अपने भोजन का प्रबंध करके शिक्षा ले रहे थे, लेकिन हर कक्षा में प्रथम आते थे। अपनी शिक्षा पूरी कर 1841 में फोर्ट विलियम महाविद्यालय में मुख्य पण्डित पद पर नियुक्ति मिल गई। वे अपने निर्धारित कार्य के लिये शास्त्रों के अध्ययन में भी रत रहते थे।

यहीं उन्हें ‘विद्यासागर’ उपाधि से विभूषित किया गया। उन्हें यहाँ पचास रुपये मासिक मानदेय मिलता था। लेकिन वे अपने पास कुछ नहीं रखते थे। वे अपने निजी जीवन में बहुत मितव्यय थे। सारा पैसा निर्धन बच्चों की फीस और भोजन पर व्यय कर देते थे इससे लोग इन्हें ‘दानवीर विद्यासागर’ कहते थे।

1946 में इसी संस्थान में प्राचार्य पर पदोन्नत हुए । 1851 में कॉलेज में मुख्याध्यक्ष बने, 1855 में असिस्टेंट इंस्पेक्टर, और फिर स्पेशल इंस्पेक्टर नियुक्त हुए। 1858 में त्यागपत्र देकर साहित्य एवं समाजसेवा में लग गये।

वे जानते थे कि अंग्रेजों के समानान्तर कार्य नहीं कर सकते इसलिए उन्होंने सामंजस्य का मार्ग निकाला और श्री बेथ्यून की सहायता से एक कन्या शाला की स्थापना की फिर मेट्रोपोलिस कॉलेज की स्थापना की। साथ ही समाज से सहायता प्राप्त करके अन्य स्थानों पर भी विद्यालय आरंभ किये। संस्कृत अध्ययन की सुगम प्रणाली निर्मित की।

इसके साथ ही समाज की विसंगतियों के सुधार का भी अभियान चलाया। इसमें विधवा विवाह, स्त्री शिक्षा आदि थे। उन्होंने न केवल विधवा विवाह का सामाजिक वातावरण बनाना आरंभ किया अपितु अपने पुत्र का विवाह भी एक विधवा स्त्री से ही किया। इसके अतिरिक्त योजनाबद्ध तरीके से सनातन समाज में फैलाये जा रहे भेदभाव को मिटाकर सबको समान नागरिक सम्मान का भी अभियान चलाया।

यद्यपि उनकी मातृ भाषा बँगला थी। उन्होंने बंगला में ही साहित्य रचना की पर वे चाहते थे कि प्रत्येक बंगाली को संस्कृत आनी चाहिए। वे कहते थे कि संस्कृत भारत की पहचान है। उन्होंने कुल 52 पुस्तकों की रचना की, इनमें 17 संस्कृत की थी, पाँच अँग्रेजी में, और तीस पुस्तकों की रचना बँगला भाषा में की। इनमें ‘वैताल पंचविंशति’, ‘शकुंतला’ तथा ‘सीतावनवास’ बहुत प्रसिद्ध हुईं।

वे स्वदेशी भाषा, स्वदेशी दिनचर्या और स्वाभिमान के समर्थक थे। वे अपने निजी जीवन में सभी वस्तुएँ स्वदेशी ही प्रयोग करते थे। यहाँ तक कि कपड़े भी घर में बुने हुये पहनते थे। उन दिनों आजकल का बिहार और झारखंड भी बंगाल का अंग था।

उन्होंने अपने काम का विस्तार किया और 1873 में जामताड़ा जिले के करमाटांड़ में आ गये। यह क्षेत्र अब झारखण्ड में है। यहाँ आकर वे संथाल वनवासियों के बीच सक्रिय हो गये। उन दिनों इस क्षेत्र में चर्च और सरकार के अपने अपने दबाव थे। सरकार जहाँ वन संपदा पर अधिकार करके वनवासियों को भुखमरी की कगार पर ला दिया था तो चर्च उनकी सेवा सहायता करके मतान्तरण का अभियान चलाये हुये थे।

ईश्वर चन्द्र विद्यासागर जी ने इस क्षेत्र में किसी से बिना कोई टकराव लिये संथाल वनवासियों के कल्याण के काम आरंभ किये यहाँ उन्होंने अपना घर भी बनाया जिसका नाम ‘नन्दन कानन’ रखा। कहने के लिये यह उनका घर था। पर वास्तव में यह एक कन्या विद्यालय था। जीवन के अंतिम लगभग अठारह वर्ष उन्होंने इसी क्षेत्र में बिताये और निरन्तर समाज की सेवा करते हुये उन्होंने 28 जुलाई 1891 को संसार से विदा ली।

उनकी मृत्यु पर रवीन्द्रनाथ ठाकुर ने कहा था- “लोग आश्चर्य करते हैं कि ईश्वर ने चालीस लाख बंगालियों में कैसे एक मनुष्य को पैदा किया!”उनकी मृत्यु के कूछ दिनों बाद उनके परिवार ने इस “नन्दन कानन” को कोलकाता के एक व्यापारी को बेच दिया था किन्तु बिहार के बंगाली संघ ने घर-घर से एक एक रूपया एकत्र कर 29 मार्च 1974 को उसे खरीद लिया और पुनः बालिका विद्यालय और एक चिकित्सा केन्द्र प्रारम्भ किया। जिसका नामकरण विद्यासागर जी के नाम पर किया। यह चिकित्सा केन्द्र स्थानीय जनता की निशुल्क सेवा कर रहा है।

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