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आजादी के आंदोलन में छत्तीसगढ़ अंचल की भूमिका

गणतंत्र दिवस विशेष आलेख

आजादी के आंदोलन में सक्रीय भागीदारी के साथ भारत को गणतंत्र के रुप में स्थापित करने में छत्तीसगढ़ अंचल की भी महती भूमिका रही है, यहाँ के लोगों के स्वातंत्र्य समर में बढ़-चढ़कर भागीदारी निभाई। भारतीय दृष्टिकोण से 1857 की घटनाओं को देखने पर ज्ञात होता है कि कैसे 1857 के पूर्व ही भारत में स्वतंत्रता आन्दोलन के लिए अनेक गतिविधियां शनैः-शनैः उत्पन्न होने लगी थी। भारत के अनेक शूरवीर पूर्ण साहस, वीरता, ज्वलन्त उत्साह से ओत प्रोत होकर भारत को अंग्रेजों से मुक्त कराने हेतु अनेक आन्दोलन कर रहे थे, जिसमें अनगिनत लोगों ने अपना बलिदान दिया। इसमें छत्तीसगढ़ की भी महती भूमिका को रेखांकित करना आवश्यक हो जाता है।

स्वतंत्रता आंदोलन में छत्तीसगढ़ के समाज के हर वर्ग अपनी क्षमता के अनुसार बढ़ चढ़ कर भाग लिया क्योंकि यहाँ के वासी किसी की अधीनता स्वीकार करना जानते ही नहीं। स्वतंत्रता छत्तीसगढ़ के निवासियों के जीवन  मुल्यों में निहित है। जो हमे आज भी दिखाई देता है। वैसे तो माना जाता है कि भारत में प्रथम स्वतंत्रता संग्राम 1857 के सैनिक विद्रोह से प्रारंभ हुआ, परन्तु यहाँ सत्ता के विरुद्ध विद्रोह का प्रारंभ 1800 में हो चुका था। रतनपुर राज्य के 36 गढ़ों में से शिवनाथ नदी के उत्तर के 18 गढ़ों में से एक गढ़ “धमधा” भी था तब भोसलों का शासन था और स्थानीय जानकारों के अनुसार विद्रोही जमींदार/राजा भवानी सिंह को फांसी की सजा दी गई थी।

इस घटना के बाद सन 1817 में धमधा में दूसरा विद्रोह हुआ था तब अंग्रेज अधीक्षक कर्नल एगन्यू रतनपुर राज्य के अधीक्षक नियुक्त हो चुके थे। बताया जाता है कि गोंड़ जमींदार भवानी सिंह के वंशजों के साथ सावंत भारती नामक विद्रोही नेता ने हजारों लोगों को जुटाकर अग्रेजों की व्यवस्था को कुछ दिनों के लिए स्वयं के हाथों में ले लिया था। प्रचलित ऐतिहासिक विवरण के अनुसार सावंत भारती को अंग्रेजों से आजीवन कारावास की सजा दी थी।

धमधा में तीसरा विद्रोह सन 1830 में होरी गोंड़ नामक पुजारी के नेतृत्व हुआ था जिसे अंग्रेजी प्रशासन ने कुचल दिया था। इस विद्रोह के बाद गोंड़ क्षत्रपों का निष्कासन हुआ था या वे वहां से पलायन कर गए थे। इनमें से एक परउ सिंह थे जिन्होंने महासमुंद तहसील के कौड़िया ज़मींदारी में शरण ली थी। कौड़िया की गोंड़ जमींदार रानी विष्णुप्रिया देवी ने परउ सिंह को जीवन यापन के लिए कुछ गाँव दिए थे तथा परउ सिंह पुत्र द्वय ठाकुर बुढ़ान शाह और जहान सिंह ने स्वतंत्रता आंदोलन में सक्रिय रहे। तो हम मान सकते हैं कि अंग्रेजों के विरुद्ध स्वतंत्रता आंदोलन का प्रारंभ 1800 मे  हो चुका था।

अब हम चर्चा करेंगे छत्तीसगढ़ में जल एवं जंगल आंदोलन की। छत्तीसगढ़ में जल संघर्ष का इतिहास  पुराना है। सर्वविदित है कि कंडेल नहर सत्याग्रह की घटना ब्रिटिश सरकार के फरमान का नतीजा थी। अंग्रेजी सरकार के कारिन्दों ने जिस तरह आदेश को लागू करवाने के लिए जोर-जबर्दस्ती की थी और अमानवीयता का नमूना पेश किया था, उससे संघर्ष को अधिक बल मिला। छत्तीसगढ़ के ग्रामीण अंचलों में रहने वाले लोगों ने अहिंसक आंदोलन किया और अपने अदम्य साहस और अनुशासन की मिसाल कायम की। इतिहास के पन्नों में दर्ज संघर्ष की इन गाथाओं की चर्चा व्यापक स्तर पर नहीं होती।

धमतरी तहसील का कंडेल-सत्याग्रह छत्तीसगढ़ के इतिहास का एक महत्वपूर्ण अध्याय है। राष्ट्रीय चेतना के विकास में धमतरी तहसील अग्रणी रहा है। यह कहना उचित होगा कि छत्तीसगढ़ में राष्ट्रीय चेतना का प्रकाश यहीं से फैला था। पं. सुंदरलाल शर्मा, पं. नारायणराव मेघावाले और बाबू छोटेलाल श्रीवास्तव ने वहां आजादी की अलख जगाई। कंडेल नहर सत्याग्रह एक स्वतंत्र संघर्ष था, लेकिन हम इसे गांधीजी के प्रथम छत्तीसगढ़ आगमन के संदर्भ में याद करते हैं। कंडेल के किसानों ने अगर अंग्रेजी शासन के हुक्म की तामील की होती, तो संभवतः गांधीजी वर्ष 1920 में छत्तीसगढ़ नहीं आते।

कंडेल माडमसिल्ली बांध के नजदीक बनाए गए नहर के मार्ग में स्थित है। ब्रिटिश सरकार किसानों से सिंचाई कर की वसूली करती थी। किसानों पर दबाव था कि वे अंग्रेज सरकार से 10 साल का करार करें। हालांकि, अनुबंध की राशि इतनी अधिक थी कि इससे सिंचाई के लिए गांव में ही एक विशाल तालाब बनाया जा सकता था। इसलिए किसान अनुबंध के लिए तैयार नहीं थे। इस घटना को ब्रिटिश सरकार ने प्रतिष्ठा का मुद्दा बना लिया। कंडेल, छोटेलाल श्रीवास्तव की पैतृक संपत्ति थी। धमतरी की नई पीढ़ी को तराशने में बाबू छोटेलाल श्रीवास्तव की महत्वपूर्ण भूमिका रही है। उन्हीं के सुझाव पर किसान दस वर्षीय करार के लिए तैयार नहीं थे। प्रशासन किसानों की आड़ में बाबू साहब को सबक सिखाने की मंशा रखता था। इसकी सूचना मिलने पर छोटेलाल श्रीवास्तव ने ग्रामीणों से एक साथ बैठक की जिसमें सर्वसम्मति से यह निर्णय लिया गया कि जुर्माना नहीं दिया जाएगा। साथ ही इस अन्याय के विरोध में सत्याग्रह का फैसला किया गया। इस फैसले को तहसील के नेताओं का भी समर्थन प्राप्त था।

अंग्रेजी सरकार के फैसले के खिलाफ गांव-गांव में जनसभाओं का आयोजन किया जाने लगा। ब्रिटिश सरकार के झूठ का पुलिन्दा लोगों के सामने खुलने लगा। लगातार चल रही इन गतिविधियों से प्रशासन बौखला गया और जुर्माना वसूलने और मवेशियों की जब्ती-कुर्की के आदेश जारी कर दिए गए। जब्त पशुओं को धमतरी के इतवारी बाजार में नीलामी के लिए लाया गया। मगर एक भी व्यक्ति बोली लगाने नहीं आया। लोग समझ चुके थे कि यह सिंचाई विभाग की अन्यायपूर्ण कार्रवाई है। यह सिलसिला क्षेत्र के अन्य बाजारों में भी दोहराया गया। हर जगह प्रशासन को असफलता मिली। छोटेलाल श्रीवास्तव के नेतृत्व में तहसील भर में सिंचाई विभाग के खिलाफ अलख जग गई थी। प्रशासन न तो जुर्माना वसूल कर पा रहा था और न ही पशुओं के चारा-पानी की व्यवस्था कर पा रहा था। इस तरह पशु भी बीमार होने लगे। प्रशासन के सामने यह एक नई समस्या थी। दोनों पक्ष झुकने के लिए तैयार नहीं थे।

सितम्बर 1920 के पहले सप्ताह में छोटेलाल श्रीवास्तव, पं. सुंदरलाल शर्मा और नारायण राव मेघावाले की उपस्थिति में कंडेल में सभा हुई। इस सभा में सत्याग्रह के विस्तार का निर्णय लिया गया। अंग्रेजों का अत्याचार भी बढ़ने लगा, साथ ही सत्याग्रह भी। इस तरह पांच महीने बीत गए। कंडेल के सत्याग्रहियों ने पत्राचार कर गांधीजी से मार्गदर्शन और नेतृत्व का आग्रह किया। महात्मा गांधी ग्रामीणों के इस आंदोलन से खासे प्रभावित हुए और वह किसानों का साथ देने के लिए 21 दिसम्बर 1920 को धमतरी के इस आंदोलन में शामिल हो गए। सत्याग्रह को बड़े पैमाने पर फैलता देख अंग्रेजी शासन बौखला गया। अंग्रेजों ने हाथ खड़े कर दिए। ग्रामीणों की गौधन संपदा जिन्हें अग्रेजों ने जब्त कर लिए थे, वापस कर दिए गए। साथ ही जुर्माने की वसूली भी तत्काल रोक दी गई। किसान विजयी हुए। सत्याग्रह सफलतापूर्वक संपन्न हुआ।

गांधी जी के दक्षिण अफ़्रीका से वापसी एवं कांग्रेस की गतिविघियों में संलग्नता से, सुराजियों में नई आशा जगी थी। सन् 1920 के आते-आते समूची कांग्रेस गांधी जी के नियंत्रण में आ चुकी थी यद्यपि गरमदल के कुछ नेता इस नेतृत्व को नहीं स्वीकारते थे। गांधी जी के असहयोग आंदोलन का आम जनता में यथेष्ट प्रभाव पड़ा और वे सुराजी बनने लगे। जो आंदोलनों में भाग लेने शहरों एवं कस्बों तक नहीं जा सकते थे, उन्होंनें गाँव व जंगलो में अंग्रजो को ललकारा। सिहावा नगरी के जंगल में श्री श्यामलाल सोम, श्री हरख राम सोम, श्री शोभाराम साहू एवं श्री विशंभर पटेल अंग्रेजी सरकार के खिलाफ सिंहनाद करने लगे। इन चारों वीरों के निरन्तर परिश्रम से जनवरी सन् 1922 के प्रथम सप्ताह में ‘वन अधिनियम’ को तोड़ने हेतु सत्याग्रह प्रांरभ हुआ जो तीन सप्ताह तक चला। उस दौरान 33 सत्याग्रही नेताओं को हथकड़ी लगाकर 70 किलोमीटर, पैदल चलाकर धमतरी लाया गया था।

जिन सत्याग्रहियों को 3 से 6 माह के कारावास एवं जुर्माना किया गया हैं। सर्वश्री श्यामलाल सोम 2. विशंभर पटेल 3. हरख राम सोम 4. शोभाराम साहू 5. श्री राम सोम 6. लोहारू ठाकुर 7. पंचम सिंह सोम 8. जगतराम शेष 9. अनंद राम ध्रुव 10. पुराणिक साहू 11. धनसिंह गौर 12. सोनऊ राम साहू 13. तखत सिंह 14. मंसाराम 15. झिटकू गोड़ 16. बिसनाथ 17. बुधराम गोड़ 18. शोभाराम गोड़ 19. सरजू दास वैष्णव 20. आशाराम हल्बा, 21. सुखड़ू राम रावत 22. अमर साय साहू 23. अनंद राम पुजारी 24. मंगलू केंवट 25. सुधर साय 26. धेनू राम हल्बा 27. सहदेव गोड़ 28. हरनारायण पाड़े 29. सुकलाल 30. मनीहार केंवट 31. बुलबुल गोड़ 32. श्रीराम गोड़ 33. समेदास सतनामी। इस आंदोलन का दुखद पहलू भी है, सत्याग्रहियों को यह विश्वास था कि उन्हें कांग्रेस के नेताओं का समर्थन मिलेगा किन्तु तत्कालीन नेताओं ने यह विश्वास तोड़ दिया परिणमस्वरूप कई आंदोलनकारी परिवार पुलसिया जुल्म का शिकार हुआ, कइयों के घर उजड़ गए। इतना कुछ हो जाने के बाद पं. सुन्दरलाल शर्मा सुख-दुख सुनने पहुँचे थे। यही कारण था कि तीव्र गति से उठे जंगल की क्रांति की आग राख के ढेर में दब गई। 1922 का जंगल सत्याग्रह आंदोलन जो छत्तीसगढ़ वासियों के जीवन्त सृजनशीलता का श्रेष्ठ उदाहरण है।

इस जंगल सत्याग्रह का असर राष्ट्रीय स्तर पर भी पड़ा, महाराष्ट्र में जंगल सत्याग्रह प्रारंभ हो गया। सन् 1920 में महात्मा गांधी नमक सत्याग्रह की घोषणा कर दांडी यात्रा के लिये निकले, देशभर के कांग्रेस के बड़े नेता उनके पीछे चल पड़े। विदर्भ के वरिष्ठ नेता श्री माधव श्रीहरि अणे (बापूजी अणे) को पीछे चलना स्वीकार्य नहीं था। वे डा0 हेडगेवार जी से संपर्क कर, स्थानीय स्तरों पर आंदोलन की रणनीति पर विचार किये। डा0 हेडगेवार बापूजी अणे की योजना से सहमत थे। योजनानुसार बापूजी अणे 15 जुलाई 1930 को यवतमाल जिले के पुसद में ‘‘जंगल सत्याग्रह’’ करते हुये गिरफ्तार हो गये, किन्तु आम-जनता से अपेक्षित समर्थन नहीं मिला फिर डा0 हेडगेवार 16 जुलाई को साथियों सहित सत्याग्रह के लिये यवतमाल पहुंचे। स्थानीय सत्याग्रहियों के विचार-विमर्श उपरांत 21 जुलाई को पुसद में सत्याग्रह करने का निर्णय लिया गया।

डा0 हेडगंवार अपने तीन साथियों के साथ ‘सत्याग्रह स्थल’ रवाना हुये, 5 किलोमीटर की पद यात्रा में सैकड़ों स्वयं सेवक एवं आम जनता साथ हो गई थी। डा0 साहब जब सत्याग्रह स्थल पहुंचे, तब तक पांच हजार से अधिक लोग समर्थन में एकत्रित थे। डा0 साहब ने सुरक्षित वन क्षेत्र से घास काटकर, अपनी गिरफ्तारी दिये। उसी दिन उन पर मुकदमा चलाया गया और 9 माह का सश्रम कारावास दिया गया। डा0 साहब को अकोला जेल भेजा गया। यह बात जंगल की आग की तरह फैल गई, जिससे राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ के स्वयं सेवकों में सक्रियता बढ़ने लगी। कुछ दिनो बाद ‘‘चिरनेर नामक स्थान में ‘‘जंगल सत्याग्रह’’ हुआ, जिसमें सत्याग्रहियों एवं पुलिस के बीच हिंसक झड़प हुई। पुलिस की गोली से 8 सत्याग्रही शहीद हो गये। सेंट्रल प्रोविंस के कटनी में मोतीलाल ताम्रकार, राम गोपाल ताम्रकार, बैतुल में डा0 माखनलाल चतुर्वेदी, बालाघाट में अंबर लोधी, किशनलाल, हरदा में सीताचरण दीक्षित के नेतृत्व में जंगल सत्यागृह हुआ।

तत्कालीन रायपुर जिले के महासमुंद शहर से लगभग 20 कि0मी0 दूर जंगल क्षेत्र के तमोरा ग्राम में ‘‘25 जुलाई 1930 को हरेली अमावस के दिन हरेली त्यौहार मनाया जा रहा था। तभी कुछ मवेशी सुरक्षित वन क्षेत्र में घुसकर चारा चर लिये। उन मवेशियों को वन विभाग द्वारा जब्त कर लिया गया। इस बात पर गांव वालों एवं वन विभाग के कर्मचारियों के बीच विवाद हुआ। वन विभाग द्वारा गांव वालों के विरूद्ध झूठी शिकायतें कर मुकदमा दर्ज किया गया, न्यायालय ने मामले की जांच कराया, जिसमें गांव वालों को निर्दोष पाया गया और मुकदमा खारिज कर दिया गया।

इस घटना की चर्चा सुराजियों के बीच होने लगी और कई स्थानों में सत्याग्रह की योजना बनने लगी। धमतरी में पं0 नारायण राव मेधावाले एवं श्री नत्थू जगताप जी ने 1200 सत्याग्रही तैयार कर प्रशिक्षण भी दिये थे। 25 जुलाई 1930 की यह घटना जंगल सत्याग्रह का आधार बनी। तमोरा मामले को लेकर 6 सितंबर 1930 को लभरा में श्री अरिमर्दन गिरी के नेतृत्व में सुराजियों की बैठक हुई, जिसमें 8 सितंबर से सत्याग्रह प्रारंभ करने का निर्णय लिया गया। 8 सितंबर 1930 को तमोरा में बड़ा आम सभा किया गया तथा सर्व श्री बजरंग दास, जनार्दन गिरी, नंबरदास, हिंगराज गिरी एवं सावल दास की टीम को सत्याग्रह के लिये भेजा गया। इस टीम ने घास काटा, किन्तु पुलिस ने गिरफ्तार नहीं किया। 9 सितंबर को कुछ सत्यागहियों के साथ सब-इंस्पेक्टर मिर्जा बेग ने मारपीट किया। 10 सितंबर को सत्याग्रही श्री शंकरराव गनौदवाले गिरफ्तार कर जेल भेज दिये गये। 11 सितंबर को 500 सत्याग्रहियों को रास्ते में रोक कर, 17 प्रमुखों को गिफ्तार किया गया तथा जंगल में दूर ले जाकर रिहा कर दिया गया। 12 सितंबर को हजारों सत्याग्रहियों की उपस्थिति के कारण धारा 144 लागू किया गया।

लगभग 5000 लोगों की भीड़ पर लाठी चार्ज किया गया, जिससे भगदड़ मच गई। सशस्त्र पुलिस संगीन की नोंक में सत्याग्रहियों को हटाने लगी, तभी आदिवासी बाला ‘‘दयावती कंवर’’ के नेतृत्व में 200 महिला सत्याग्रही सशस्त्र पुलिस के सामने आ धमकी। इनके और पुलिस के बीच नोंक-झोंक होने लगा और दयावती की टीम सीना ताने गोली चलाने ललकारने लगी। इस अभूतपूर्व शौर्य को देख, सशस्त्र पुलिस के पांव उखड़ने लगी और अततः पुलिस सत्याग्रह स्थल से खाली हाथ वापस लौट गई।

14 सितंबर को श्री हिरामन साहू, श्री प्रेम गांड़ा एवं श्री लल्लू गांड़ा को गिरफ्तार किया गया तथा हिरामन साहू को जेल भेजा गया एवं दोनो गांड़ा बंधुओं को 10-10 बेंत की सजा देकर, रिहा कर दिया गया। 16 सितंबर को सर्व श्री अद्वैत गिरी, चौथमल, खेलू, रूरू केंवट, रामाधर मरार, मनराखन कोष्टा, एवं महेश मरार को गिरफ्तार किया गया। 17 सितंबर 1930 को सर्व श्री रघुवीर सिंह कंवर, शिव राज गोंड़, कपिल गोड़, मनी गोंड़, राजा राम मरार को गिरफ्तार किया गया, इनमें से रघुवीर सिंह को जेल भेजा गया। इस प्रकार 24 सितंबर तक सत्याग्रह चला और अमेठी गांव में आम सभा के साथ समापन हुआ। इस तरह छत्तीसगढ़ में स्वतंत्रता प्राप्ति के लिए सभी वर्गों नें सक्रीय रुप से भाग लिया। जो आज इतिहास के पन्नों में दर्ज है।

संदर्भ ग्रंथ –

1. ठाकुर प्यारे लाल सिंह के जांच प्रतिवेदन के अनुसार
2. छत्तीसगढ़ का इतिहास डा0 भगवान सिंह वर्मा, पृष्ठ 1027.
3. छत्तीसगढ़ का जनजातीय इतिहास डा0 हीरालाल शुक्ल पृष्ठ 190.
4. छत्तीसगढ़ वृहद संदर्भ संजय त्रिपाठी पृष्ठ 331
5. छत्तीसगढ़ में जंगल सत्याग्रह, आशीष सिंह
6. छत्तीसगढ़ के नारी रत्न केयूर भूषण।
7. डॉ घनाराम साहू, दक्षिण कोसल टुडे

आलेख

ललित शर्मा इण्डोलॉजिस्ट रायपुर, छत्तीसगढ़

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