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छत्तीसगढ़ की अजब-गजब होली एवं प्राचीन परम्पराएँ

छत्तीसगढ़ अंचल में जब नगाड़े बजने की आवाज फ़ाग गायन के साथ गांव-गांव, शहर-शहर, डगर-डगर से रात के अंधेरे में सन्नाटे को तोड़ती हुई सुनाई दे लगे तो जान लो कि फ़ागुन आ गया। वातावरण में एक विशेष खुश्बू होती है जो मदमस्त कर देती है, महावृक्षों से धरा पर टपकते सूखे हुए पत्ते तथा टपकते हुए महुए के फ़ूल एवं पलाश से सिंदूरी हुई धरती होली का स्वागत करती करती है।

छत्तीसगढ़ में बस्तर से लेकर सरगुजा तक होली मनाने का अपना ही अंदाज है। बस्तर में होली का प्रमुख आकर्षण “नाट” होता है। हल्बी-भतरी एवं उड़िया भाषा में महाभारत एवं रामायण के प्रसंगों की पारम्परिक वाद्य यंत्रों तथा वस्त्राभूषण के साथ प्रस्तुति की जाती है। जगदलपुर से दस किमी की दूरी पर माड़पाल राजसी होली एवं नाट के प्रसिद्ध है। नाट में कलाकार सिर्फ़ भाव भंगिमा प्रस्तुत करते हैं एवं पर्दे के पीछे से नाटगुरु संवाद बोलकर कहानी को आगे बढ़ाते हैं।

माड़पाल की होली इसलिए चर्चित है कि यहाँ राज परिवार सम्मित होता है। कहते हैं कि पन्द्रहवीं शताब्दी में बस्तर के महाराजा पुरुषोत्तम देव को भगवान जगन्नाथ के श्रेष्ठ सेवक के रुप में रथपति का वरदान मिला। तब वे अपनी राजधानी मधोता लौटते हुए माड़पाल में रुके एवं होलिका दहन किया। तब से यह परम्परा बन गया, आज भी राजपरिवार के लोग होलिका दहन करने माड़पाल पहुंचते हैं।

इस होलिका उत्सव में 12 परगनों के नागरिक जुटते हैं। दिन में पुजारी देवी-देवताओं की पूजा करता है तथा रात में नाट का आनंद लिया जाता है। एक ही रात में चालिस से अधिक नाट का मंचन किया जाता है। रात होते ही मावली की पूजा करने के बाद राजपरिवार ग्रामीणों द्वारा निर्मित काष्ठ रथ में सवार होकर होलिका दहन करता है तथा ग्राम राष्ट्र की सुख समृद्धि की कामना करता है।

ऐसा नाट उत्सव नानगुर में भी मनाया जाता है। इसके अलावा जदगलपुर से चित्रकोट मार्ग पर तीस किमी की दूरी पर तोकापाल ब्लॉक के टाहकापाल में होलिका दहन के पूर्व घोड़े पर सवार देवी से पुजारी होलिका दहन की अनुमति लेता है, उसकी अनुमति के पश्चात होलिका दहन किया जाता है और फ़िर नाट उत्सव होता है।

ग्राम पुजारी सहदेव कहते हैं कि देवी सफ़ेद घोड़े पर सवार होती है पर घोड़े पर दिखाई नहीं देती वह अदृश्य है। देवी की साक्षात उपस्थिति मानकर उसकी पूजा आराधना पुष्प नारियल द्वारा की जाती है तथा होलिका दहन की अनुमति ली जाती है। देवी द्वारा शुभ एवं मांगलिक संकेत मिलने पर होलिका दहन का कार्य किया जाता है। होली में नाट उत्सव नानगुर में भी मनाया जाता है।

गरियाबंद जिले के देवभोग ब्लॉक के सीनापाली में सूखी होली मनाई जाती है। होली के सात दिन पहले ही मुनादी करवा कर मांस मदिरा सेवन पर रोक लगा दी जाती है। इस गांव में होली सिर्फ़ गुलाल से खेलने का नियम है। इसके पीछे कहानी यह है कि लगभग तीस साल पहले होली के अवसर पर गांव में झगड़ा हो गया था तो इसलिए गांव के सियान लोगों ने उपरोक्त नियम बना दिया और बिना मांस मदिरा सेवन के सूखी होली खेली जाने लगी।

छत्तीसगढ़ में कई ऐसे गांव हैं जहाँ होली नहीं मनाई जाती, अगर मनाई भी जाती है तो फ़ाल्गुन पूर्णिमा के बाद किसी अन्य दिन को रंग खेला जाता है। इसके पीछे भी इनकी मान्यताएं हैं तथा कई गांवों में तो यह परम्परा डेढ़ दो सौ वर्षों से चली आ रही है तथा ग्रामीण जन कई पीढियों से इसका निर्वहन भी कर रहे हैं।

बालोद जिले के गुंडरदेही ब्लॉक के ग्राम चंदनबिरही में 1926 से होली नहीं मनी है। गांव के सियान बताते हैं कि होली के समय गांव कई मासूमों की मृत्यु हो गई थी। फ़ागुन मास में बीमारियों के चलते कई बच्चे चल बसते थे। इस पर बावन गांव के जमीदार स्व: ठाकुर निहाल सिंह की उपस्थिति में ग्रामवासियों ने होली न मनाने का निर्णय लिया। होली पर रंग गुलाल न खेलकर अखंड रामनाम सप्ताह प्रारंभ किया गया। तब से यह परम्परा वर्तमान तक चली आ रही है।

सिमगा ब्लॉक के ग्राम मोहरा में 1855 से लेकर वर्तमान तक होलिका दहन नहीं हुआ। इसके पीछे की कहानी बताते हुए ग्राम के बुजुर्ग कहते हैं कि होली को देवी माना जाता है, इसमें जो भी सामग्री डाली जाती है उसे निकाला नहीं जाता। कोई गलती कर देता तो गांव हैजा जैसी महामारी के प्रकोप में आ जाता था। स्थिति यह हो जाती थी कि लाश उठाने वाले नहीं मिलते थे।

इसी समय सरफ़ोंगा गांव में धरमु नामक साधू पहुंचा तथा गांव में पूजा अर्चना कर 86 धूप (86 स्थानों पर) जलाकर गांव में फ़ैल रहे हैजा को शांत किया। महात्मा साधु जमीन में 24 घंटे तक समाधि लेकर पूजा आराधना करते रहे। इसके पश्चात जाते हुए गांववासियों को निर्देश दिया कि अपने नाम 86 धूप जलाकर उसमें घी एवं दही का छिड़काव करें तो ग्राम में कभी भी महामारी नहीं आएगी।

इसके पश्चात यहाँ होलिका दहन की परम्परा बंद हो गई एवं फ़ाग गीतों से उत्सव मना लिया जाता है। गांव में नगाड़ों की थाप के साथ सूखी होली खेली जाती है तथा होली के अवसर पर परम्परागत डंडा नाच भी खेला जाता है। डेढ़ शताब्दी पूर्व साधु द्वारा दिए गए निर्देशों का पालन आज भी ग्रामवासी कर रहे हैं।

ऐसे ही दो गांव कोरबा जिले के मड़वा रानी के पास खरहरी और घमनागुड़ी हैं, जहाँ होली नहीं मनाई जाती। मान्यता हैं कि रंग का एक भी कतरा इन गांव में गिरेगा तो तबाही मचेगी और महामारी फ़ैल जाएगी। इसी आशंका एवं भय से इन गांव के निवासी डेढ सौ वर्षों से होली नहीं मना रहे।

कहते हैं कि एक बार होली के अवसर पर ग्राम खरहरी में आग लग गई, लोगों के घर जल गए और लोग तबाह हो गए। इसका कारण बैगा ने बताया कि मड़वा रानी होली मनाने से नाराज है इसलिए यह विपदा आई है। तब से डेढ सौ वर्ष हो गये यहाँ होली नहीं मनी, न नगाड़े बजे, न फ़ाग गायन हुआ और न रंग खेला गया।

आज भी अनिष्ट की आशंका से लोग होली का नाम भी जुबान पर नहीं लाते। यहाँ के लोग न किसी अन्य गांव में जाकर होली मना सकते न अन्य गांव के लोग यहाँ आकर रंग खेल सकते। इस पर पुर्ण पाबंदी है। जिसका पालन डेढ़ शताब्दी के बाद भी ग्रामवासी कर रहे हैं।

धमनागुड़ी में भी होली नहीं मनाई जाती। न होलिका दहन होता न फ़ाग रंग खेला जाता। ग्रामीण मानते हैं कि होली खेलने से ग्राम की डंगहीन माता नाराज हो जाती है और महामारी फ़ैल जाती है। खरहरी की तरह यहाँ प्रतिबंध नहीं है। यहाँ के निवासी किसी अन्य गांव में जाकर होली खेल सकते हैं, परन्तु ग्राम में होली खेलना पूर्णत: वर्जित है।

राजधानी रायपुर शहर की सबसे पुरानी होली सदर की होली मानी जाती है, जो डेढ़ सौ वर्षों से मन रही है। आज भी सदर में रंग गुलाल हफ़्ते भर पहले प्रारंभ हो जाता है और लोग धूम-धाम से होली मनाते हैं। इस होली में सफ़र का प्रत्येक नागरिक सम्मिलित होता और पारस्परिक सौहार्द्र का वातावरण बना रहता है।

नगर के राठौर चौक में भी लगभग डेढ सौ वर्षों से होलिका दहन एवं रंग खेलने की परम्परा चल रही है। इसकी खास बात यह है कि राठौर चौक की होली जलने के बाद ही लोग यहाँ से अग्नि लेकर अपने घरों के सामने बनाई गई होली जलाते हैं तथा इस होलिका दहन में सम्मिलित होने आस-पास के मोहल्ले के लोग भी पहुंचते हैं।

वहीं सगुजा अंचल के जशपुर में शिकार खेलकर होली मनाने की परम्परा है। इस क्षेत्र के वनवासी होली से दो दिन पूर्व जंगल में शिकार खेलने निकलते हैं । इसके पीछे मान्यता यह है कि वे हिरण बनकर सीता जी का हरण करने आए मारीच रुपी बुराई का अंत करने निकलते हैं। इस परम्परा में आज भी इनकी श्रद्धा है और विश्वास भी है।

जनजातीय लोग होली मनाने की तैयारी एक महीने पहले से प्रारंभ कर देते हैं। होली के तीन दिन पहले पारम्परिक वेशभूषा धारण कर तीर धनुष लेकर जंगल में शिकार करने निकलते हैं। गांवों में कुछ लोग ही बचते हैं जो शिकार खेलने निकले लोगों के लिए खाना पकाकर ले जाते हैं।

होलिका दहन के दिन तीन डालियों वाले पेड़ से दो लकड़ियां शुद्धता का ध्यान रखते हुए होलिका दहन स्थल पर लाई जाती है। इन डालियों में खैर की घास को बांधा जाता है, जिससे होलिका दहन किया जाता है। इसके अतिरिक्त होलिका दहन के लिए हर घर से लकड़ी दी जाती है।

शाम को होलिका दहन के पूर्व ग्रामवासी सभी पुरुष महिलाओं को आमंत्रित किया जाता है। इसके पश्चात बैगा परम्परागत रुप से होली की पूजा करता है तथा इसके होलिका दहन किया जाता है। होली जलने पर लोग इसमें चावल डालते हैं। इसके पीछे कामना होती है कि सभी बुराईयों, दुखों का अंत हो, नकारात्मकता का दहन हो, आपसे बैर को भुला कर नई जिन्दगी का प्रारंभ हो।

होली मस्ती का त्यौहार है, बेफ़ीक्री का पर्व है, इसलिए आम जन इसे मस्ती के साथ मनाते हैं। वर्तमान में होली का स्वरुप समय के साथ बदलता जा रहा है। जो सौहाद्र इस पर्व की मूल भावना है वह तिरोहित होते जा रहा है तथा इसमें हुड़दंग का समावेश दिखाई देता है। होली जीवन के कलुषों के शमन करने का पर्व है, आईए हम भी अपने कलुषों को होलिका के सुपुर्द करें एवं उत्साह से होली का पर्व मनाएं।

आलेख एवं फ़ोटो

ललित शर्मा इंडोलॉजिस्ट

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