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ब्रिटिश संसद के पहले भारतीय सांसद

फारस पर्शिया या आधुनिक समय का ईरान प्राचीन काल से आहुर मजदा धर्म के मानने वालों का क्षेत्र था. इनका धर्म ग्रंथ जेंद अवेस्ता था जिसकी समानता ऋग्वेद के साथ कथ्य के आधार पर की जाती है. इसी आधार पर माना जाता है कि सुदूर अतीत में ऋग्वैदिक आर्य और जेंद अवेस्ता वाले साथ-साथ रहे थे. जेंद अवेस्ता में जरथुस्त्र/ जोरेस्टर के संदेशों का संकलन है और उन्हें आज भी पारसी अपना सर्वाधिक महत्वपूर्ण धार्मिक संदेश देने वाला मानते हैं.

इस्लाम के उदय और उनके साथ हुए संघर्ष और धर्मांतरण के कारण इनकी संख्या घटने लगी. अपनी और धर्म की रक्षा के लिए पारसियों ने अपनी मातृभूमि को छोड़ा और भारत पहुंचे। गुजरात के समुद्री तट पर इनकी नौका लगी. नवसारी के पास इनकी बसाहट अधिक बनी. वहां से महाराष्ट्र में भी फैले.

पारसी अपने कौशल, संयमित व्यवहार तथा दायित्व निभाने के लिए जाने जाते हैं. अर्थव्यवस्था के संचालन में इनकी बड़ी भूमिका होती है. इसका सर्वश्रेष्ठ उदाहरण टाटा, वाडिया, पालखी वाला तथा पेटीट, दिनशा का परिवार है. इन लोगों ने राजनीति और उद्योग दोनों में महत्वपूर्ण हिस्सेदारी की. जनसंख्या में अत्यंत अल्पसंख्यक होने के बाद भी इस समुदाय ने कभी भी आरक्षण संरक्षण की मांग नहीं की.

आज पूरी दुनिया में पारसी धर्म के मानने वालों की संख्या 200000 के लगभग मानी जाती है. इस 200000 में से 60000 लोग भारतवर्ष में हैं, पाकिस्तान में इनकी संख्या का अनुमान 1500 है.

इसी पारसी समुदाय में दादा भाई नौरोजी का जन्म 4 सितंबर 1825 को मुंबई के एक गांव खड़क में हुआ. यह समय भारत में सामाजिक सुधारों के लिए प्रसिद्ध राजा राम राम मोहन राय का था. भारतीय समाज में इस समय कुरीतियों का वर्णन अधिक प्राप्त होता है. बाल विवाह सभी धर्मों में समान रूप से लागू था. इसी तरह से वह परंपरा पारसी समाज में भी पाई जाती थी. अंधविश्वास काफी थे. सड़कों पर राहजनी की घटनाएं होती रहती थी. बाल विवाह के साथ-साथ बहुत पत्नी विवाह की भी परंपरा थी. सारे समुदायों के समर्थ लोग एक से अधिक पत्नी रखते थे. यह समाज मध्यकालीन सामंतवादी रिवाजों तथा अंधविश्वासों से मुक्ति चाहता था. इसी कारण समाज सुधार की भी शुरुआत हुई थी. ऐसे ही समाज में दादा भाई नौरोजी ने अपने व्यक्तित्व को आधुनिक भारत के लिए तैयार किया.

दादा भाई के पिता पालन जी नौरोजी पारसी धर्म के पुरोहित थे. इनकी पारिवारिक संपत्ति नवसारी में थी. नवसारी की जमीन फूल और इत्र के लिए अत्यंत ही उपयोगी थी. अबुल फजल ने अपनी पुस्तक में लिखा है कि पूरी दुनिया में इससे बेहतर सुगंध वाले फूल और इत्र नहीं मिल सकते. ऐसी लोककथा है कि दादा भाई नौरोजी के पूर्वज चांद जी की इत्र के निर्माण में बड़ी खुशबू प्रसिद्ध थी. नूरजहां को जब चांद जी के बारे में मालूम हुआ तो उन्हें दिल्ली बुलाया गया और इस तरह नवसारी से उनका परिवार दिल्ली तक पहुंचा. नूरजहां उनके लाए अतर से प्रसन्न हुई और उन्हें शासकीय उपाधि के साथ 100 बीघा जमीन दी गई दिल्ली में बने रहने के लिए. बाद के दिनों में नौरोजी परिवार दिल्ली से मुंबई आ गया.

परिवार में संरक्षित वंश परंपरा सूची के अनुसार जरथुस्त्र मोबेट पहले पारसी पुरोहित थे जो नवसारी में पूजा कराने के लिए पधारे थे. यह परंपरा जारी रहती अगर दादा भाई नौरोजी के पिता की मृत्यु नहीं हो गई होती. पिता की इस अकाल मृत्यु के कारण दादा भाई पुरोहित के पेशे में दीक्षित नहीं किए जा सके तथा उनका जीवन राष्ट्रवाद के प्रकांड पुरोहित के रूप में उभरा. इस दुखद घटना के समय दादाभाई की आयु मात्र 4 वर्ष की थी. अपने संस्मरण में उन्होंने अनोखी घटना का वर्णन किया है. वह घर के आंगन में चांद को देखते, घर से बाहर निकलते तो चांद को देखते, मोहल्ले में जाते तो चांद को देखते, दादाभाई महसूस करते थे कि वह अनाथ हो चुके हैं इस कारण से चांद / चंदा मामा उनके साथ साथ उनकी देखभाल के लिए हमेशा होता है. वे जहां भी जाते हैं चांद उनके साथ चलता है.

पिता की मृत्यु के बाद उनकी गुणवती माता ने पिता की भी भूमिका उचित ढंग से निभाई. 11 वर्ष की आयु में उनका विवाह सोराबजी श्रॉफ की 7 वर्षीय पुत्री गुलबाई के साथ संपन्न करा दिया गया. अभी के समय में उसे बाल विवाह समझा जा सकता है लेकिन उस समय के अनुसार यह बाल विवाह नहीं था. यह उचित समय पर किया गया विवाह था. तत्कालीन समाज में बच्चों के जन्म के पहले भी उनके माता-पिता आपस में वैवाहिक संबंध तय कर देते थे और बच्चों के जन्म लेने के बाद उसे पूर्ण किया जाता था.

दादा भाई की शिक्षा मुंबई के एलफिंस्टन कॉलेज में हुई वह अत्यंत ही मेधावी छात्र थे. उनके प्रिय विषय दर्शन तथा राजनीतिक अर्थशास्त्र था. उन्हें इन विषयों में महारत हासिल हुई. उनके प्रोफेसर औरलेबार उनसे अत्यंत ही प्रभावित थे तथा उन्हें ‘ भारत का भविष्य ‘ से संबोधित करते थे. दादा भाई नौरोजी इसी एलफिंस्टन कॉलेज में 1850 में सहायक अध्यापक नियुक्त हो गए. यह पद प्राप्त करने वाले वे पहले भारतीय थे. उन्होंने इस पद पर अट्ठारह सौ पचपन तक कार्य किया. इसके बाद वह त्यागपत्र देकर एक पारसी कंपनी केमा एंड सन में काम करने लगे. इस कंपनी के काम से वह इंग्लैंड गए. 1858 में उन्होंने दादा भाई नौरोजी एंड कंपनी की स्थापना में की. इसके बाद से उनकी आर्थिक स्थिति काफी अच्छी हो गई. उन्होंने जोराष्ट्रीयन परिषद की स्थापना की जिसके द्वारा इंग्लैंड में पारसी छात्रों को सहायता दी जाती थी. व्यापार में स्वयं के द्वारा अर्जित धन से उन्होंने अनेक सामाजिक संस्थाओं की भी आर्थिक सहायता की. 1866 में दादा भाई ने ईस्ट इंडियन एसोसिएशन की स्थापना की. इस संस्था का उद्देश्य भारतीयों की समस्याओं को प्रकाश मैं लाना था. इस संस्था की अनेक शाखाएं कोलकाता मद्रास तथा अन्य भारतीय नगरों में स्थापित की गई. मुंबई में पारसी समाज की के बच्चों की शिक्षा के लिए 4 स्कूल खोले गए जिनमें 44 छात्र दाखिल किए गए. पारसियों ने दादा भाई के काम में धन की व्यवस्था की. 2 वर्ष तक इस तरह स्कूल स्वयंसेवी शिक्षकों के बूते चलाए गए. बाद में शासन की तरफ से धन की व्यवस्था की जाने लगी.

बड़ौदा में कुशासन खेल रहा था. अंग्रेज सरकार ने कुशासन दूर करने के लिए कमीशन की नियुक्ति कर दी थी. ऐसे समय में महाराज मल्हार राव गायकवाड ने 7000 मील की दूरी पर रह रहे दादा भाई नौरोजी को दीवान का पद स्वीकारने के लिए अनुरोध भेजा. यह बड़े आश्चर्य की बात थी. दादा भाई नौरोजी के अंग्रेज मित्रों ने कहा कि उन्हें इस चुनौती को स्वीकार करना चाहिए तथा भारत में सुधार और सुशासन की क्षमता प्रदर्शित करनी चाहिए. इस स्थिति में उन्होंने 1874 के प्रारंभिक दिनों में ही बड़ौदा में दीवान का पद स्वीकार किया. इस पद पर अधिक समय तक कार्य करना संभव नहीं हो पाया. बड़ौदा के महाराज मल्हार राव गायकवाड़ इनकी पूरी तरह सुनने के लिए तैयार नहीं होते थे. वह राज्य के कोष से अपने और परिवार के लिए व्यय करने के आदी थे. यह कई बार मूर्खता की हद तक पहुंच जाता था. ऐसा समझा जाता है कि उन्होंने राज्य के कोश से सोने की तोप बनवाई थी. इस तरह के कार्यों को रोकना जरूरी था. अंग्रेज रेजिडेंट भी इनका विरोध करता था. उन्होंने त्यागपत्र दे दिया. उसी समय एक दूरभाग्यशाली घटना घटी. मल्हार राव गायकवाड पर आरोप लगा कि उन्होंने ब्रिटिश रेजिडेंट को मारने के लिए शरबत में संखिया और हीरे का भस्म मिलाकर पिलाने का षड्यंत्र रचा था. ब्रिटिश रेजिडेंट कर्नल फायरे की मृत्यु नहीं हुई लेकिन यह मामला धीरे-धीरे तूल पकड़ गया. महाराज को पद से हटाया गया. महाराज की इच्छा थी कि उनकी प्रिय स्त्री लक्ष्मी के पुत्र को उत्तराधिकारी बनाया जाए. लक्ष्मी एक विवाहित स्त्री थी जिसे महाराज ने अपने रनवास में रख लिया था. विवाह भी कर लिया था. अंग्रेज इसके लिए नहीं तैयार हुए. उनके भाई के पुत्र को शासक बनाया गया. उन्हें गिरफ्तार की स्थिति में मद्रास रखा गया. 1882 में उनकी मृत्यु हो गई. अपनी गिरफ्तारी के पहले उन्होंने अपने प्रिय पुत्र को उत्तराधिकारी बनवाने के लिए दादा भाई नौरोजी तक संदेशा पहुंचाने की कोशिश की. मल्हार राव को अपने संकट के समय ही समझ में आया कि दादा भाई नौरोजी उनके लिए दीवान के रूप में पूरी तरह उपयुक्त है. लेकिन इस प्रसंग में अब कुछ किया जाना संभव नहीं था.

दादा भाई नौरोजी ने सबसे महत्वपूर्ण काम किया था ब्रिटिश शासन की आर्थिक गतिविधियों की समालोचना करने का. उन्होंने देश के प्रबुद्ध वर्ग की आंखें खोल दी. नए क्षेत्रों में जो प्रगति होती हुई दिखती है वह दिखावटी है. यह दिखावटी प्रगति भी जहां से शुरू हुई थी वही रूकी रह गई. समूचा देश लगातार पिछड़ेपन के गड्ढे में गिरता जा रहा है. धीरे-धीरे वे ब्रिटिश शासन के अंधेरों को पहचानने लगे तथा इसकी पड़ताल पर लग गए कि अंधेरों के कारण क्या है?

1876 में अपने लिखे एक लेख ‘ पावर्टी इन इंडिया ‘ तथा बाद को एक पुस्तक के रूप में ‘ पॉवर्टी एंड अनब्रिटिश रूल इन इंडिया ‘ में यह पड़ताल पूरी की. उन्होंने निरंतर अनेक माध्यमों से बताया कि ब्रिटिश शासन भारत का आर्थिक शोषण कर रहा है तथा यहां से धन इंग्लैंड भेजा जा रहा है. अंग्रेज अधिकारियों को अत्यधिक वेतन देकर रखा जाता है. प्रतिवर्ष वे अपनी बचत का एक बड़ा हिस्सा इंग्लैंड भेजते थे. सेवानिवृत्ति उपरांत वे अपनी सारी बची खुची राशि लेकर इंग्लैंड वापस चले जाते थे.

भारत में कुटीर उद्योग को लगातार समाप्त किया गया. वस्त्र उद्योग नष्ट हो चुका था. भारत कच्चे माल और खाद्य पदार्थों की आपूर्ति का काम कर रहा था. ब्रिटेन के फैक्ट्रियों में तैयार माल का उपभोक्ता बन गया था. विदेशी पूंजी भारत में लाई जा रही थी. इस निवेश पर बने हुए मुनाफे के रूप में दौलत को बाहर ले जाते थे. बजट घाटे, बढे हुए कर तथा फौजी खर्चों ने इसे और बोझिल बना दिया. दादा भाई ने जोड़ घटाव कर यह निश्चित किया कि इस तरह प्रत्येक वर्ष 1.2 करोड़ पाउंड की राशि इंग्लैंड पहुंच जाती थी. यह राशि ब्रिटिश भारत की सरकार के कुल राजस्व का कम से कम आधा था. इससे भारत में सीधे-सीधे निर्धनता आती थी और पूंजी निर्माण की प्रक्रिया बाधित होती थी. मालगुजारी की भारी दर के कारण किसान की जमीन घटती जाती थी और वह गरीब होते जा रहे थे. हस्तशिल्प उद्योग नष्ट हो गया था. इस कारण कृषि पर जनसंख्या का बोझ भी बड़ा बढ़ गया था. नौरोजी की गणना के अनुसार भारत वासियों की प्रति व्यक्ति आय ₹20 थी. डिगबी के अनुसार 1899 में यह ₹18 थी. सरकार ने इस गणना को स्वीकार नहीं किया. रिपन के वित्त सचिव ने राशि को ₹27 बताया. कर्जन के अनुसार यह राशि ₹30 थी. नौरोजी ने अंतिम निर्णय समझाया कि ब्रिटिश राज ने भारत में केवल गरीबी पैदा की. इस प्रकार इंग्लैंड धनी होता जा रहा था तथा भारत निर्धन. धन के दोहन या निर्गमन के इस सिद्धांत के आधार पर उदारवादी नेताओं के काल में आर्थिक राष्ट्रवाद का निर्माण हुआ.

दादा भाई नौरोजी के इस प्रकार के लेखन को समर्थन देते हुए आगे बढ़ाने का काम न्यायमूर्ति महादेव गोविंद रानाडे सेवानिवृत्त आईपीएस अधिकारी रमेश चंद्र दत्त ने भी किया इन तीनों के अलावे जी वि जोशी, सुब्रमण्यम अय्यर, गोपाल कृष्ण गोखले, पृथ्वीश चंद्र राय समेत सैकड़ों अन्य राजनीतिक कार्यकर्ताओं और पत्रकारों ने अर्थव्यवस्था के हर पहलू का गहराई से विश्लेषण किया लोकमान्य तिलक ने रेलवे पर किए जा रहे धन के खर्च के लिए टिप्पणी की थी’ यह दूसरे की पत्नी के सिंगार पठार का खर्च उठाने जैसी बात है।’.

दादा भाई नौरोजी उदारवादी नेता थे. उन्हें पूरी तरह से विश्वास था कि जनतांत्रिक संस्थाओं के द्वारा ही स्थिति में परिवर्तन लाया जा सकता है. वह मुंबई नगर निगम के सदस्य चुने गए. अट्ठारह सौ पचासी में मुंबई काउंसिल के सदस्य भी बने. इंग्लैंड में हाउस ऑफ कॉमंस की बैठकों में भारतीय मुद्दों को आगे बढ़ाने के लिए उन्होंने फॉसेट जैसे सदस्यों को सहयोग एवं सूचना देना भी शुरू किया. अंततः यह तय किया गया कि भारतीयों को हाउस ऑफ कॉमंस में प्रतिनिधित्व के लिए प्रयास करना चाहिए तथा इंग्लैंड जाकर चुनाव लड़ना चाहिए. इस उद्देश्य के लिए लाल मोहन घोष जिन्हें संक्षेप में एलएमजी कहा जाता था का नाम तय किया गया. यह बात आगे नहीं बढ़ सकी. दादा भाई नौरोजी ने स्वयं से चुनाव लड़ना तय किया. कंजरवेटिव कमजोर हो रहे थे. ग्लैडस्टोन के नेतृत्व में लिबरल पार्टी आगे बढ़ती जा रही थी.

भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस की स्थापना अट्ठारह सौ पचासी में हुई थी. अगले वर्ष के सत्र हेतु 1886 में दादा भाई नौरोजी को अध्यक्ष चुना गया. इसी वर्ष उन्होंने इंग्लैंड में हालबार्न से हाउस ऑफ कॉमंस में चुने जाने की कोशिश की. यह क्षेत्र कंजरवेटिव गढ़ माना जाता था. काफी कोशिश की गई लेकिन दादा भाई नौरोजी को 1950 वोट मिले और उनके प्रतिपक्षी कंजरवेटिव दल के उम्मीदवार को 3651 वोट मिले.

हाउस ऑफ कॉमंस में भारतीय मांग उठाने के लिए उन्होंने चुनाव क्षेत्र की तलाश जारी रखी. सेंट्रल फिंसबरी क्षेत्र से 1888 में जब लिबरल पार्टी ने उम्मीदवार की तलाश शुरू की तो 3 अंग्रेजों की तुलना में नौरोजी को पार्टी के अंदर अधिक मिले. चुनाव की तैयारी की जाने लगी. टोरी प्रधानमंत्री लार्ड शैलीसबरी ने दादा भाई नौरोजी को अपने संबोधन में काला आदमी कहकर इंगित किया. इसकी विपरीत प्रतिक्रिया हुई. भारतीय छात्रों में मोहम्मद अली जिन्ना उस समय लंदन में पढ़ रहे थे. उन्होंने कहा कि अगर दादा भाई काले हैं तो मैं तो और भी काला अंग्रेजों का यह रवैया बना रहेगा तो हमें उनसे कभी भी इंसाफ नहीं मिल पाएगा. उन्होंने और जोशीले भारतीय युवकों को अपने साथ जोड़ा और दादा भाई नौरोजी के पक्ष में वार्ड स्तर पर जमकर मेहनत की. इस सब का परिणाम यह हुआ कि दादा भाई नौरोजी फिंसबरी से हाउस ऑफ कॉमंस के लिए चुन लिए गए. उनकी विजय 3 मतों से हुई थी इसलिए हाउस ऑफ कॉमंस में इनको मिस्टर नैरो मेजॉरिटी कह कर संबोधित किया जाता था. लिबरल राजनीति के ज्वार के कारण विलियम ग्लाडस्टोन तीसरी बार प्रधानमंत्री बन कर 10 डाउनिंग स्ट्रीट पहुंचे. भारत में भी खुशी की लहर दौड़ी तथा फिंसबरी क्षेत्र के मतदाताओं को धन्यवाद देने की होड़ मची क्योंकि उन्होंने एक भारतीय को अपने प्रतिनिधि के रूप में चुना था. पराजित उम्मीदवार कैप्टन पेंटन ने फिर से मतगणना करने के लिए याचिका लगा दी लेकिन 6 महीने के बाद उन्होंन स्वयं से यह याचिका वापस ले ली. इस तरह 23 जनवरी 1893 को उन्हें विजित उम्मीदवार घोषित कर दिया गया. दादा भाई नौरोजी के मित्रों और समर्थकों ने उनके लिए लंदन में सम्मान समारोह का आयोजन किया. वायसराय लॉर्ड रिपन स्वयं अध्यक्ष होने वाले थे लेकिन उनकी बीमारी के कारण एक अन्य महत्वपूर्ण व्यक्ति आर के कस्र्टन ने अध्यक्षता की जिम्मेदारी पूरी की. हाउस ऑफ कॉमंस में दादा भाई नौरोजी ने भारतीय आवश्यकता को आगे बढ़ाने का काम किया. आईसीएस की परीक्षा भारत और इंग्लैंड में साथ साथ कराने का प्रस्ताव भी पारित कराने में सफल रहे. इस प्रस्ताव को कार्य रूप में परिणत नहीं किया जा सका. उनकी मांग पर भारतीय प्रशासन में सुधार के लिए वेल्बी कमीशन की नियुक्ति की गई. हाउस ऑफ कॉमंस की भी सीमा थी. वह साम्राज्यवादी हितों के विरुद्ध बहुत दूर तक नहीं जा सकती थी.

2 दिसंबर 1893 को दादा भाई नौरोजी मुंबई मध्य रात्रि में पहुंचे. स्ट्रीमर को आने में देर लगी थी. हजारों की संख्या में अपोलो बंदरगाह पर लोग अपने इस विशिष्ट नेता का सम्मान करने के लिए इंतजार कर रहे थे. सबसे पहले मुंबई के गवर्नर ने उन्हें बधाई दी. गवर्नर की काउंसिल के 2 सदस्य तथा चीफ जस्टिस ने भी अपनी उपस्थिति दी. अनेक संस्थाओं के डेलिगेशन उनके स्वागत के लिए उपस्थित थे. इस वक्त पर उन्होंने संबोधित करते हुए कहा कि उनकी शक्ति भारत है और हाउस ऑफ कॉमंस में वह सिर्फ भारत को याद करने के कारण पहुंच पाए हैं. इस वर्ष के लिए भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस ने उन्हें अध्यक्ष चुना था 20 दिसंबर को वह मुंबई से लाहौर के लिए रवाना हुए. प्रत्येक स्टेशन पर उनकी रेलगाड़ी के स्वागत में लोग खड़े थे, दिन को भी और रात को भी, ग्रैंड ओल्ड मैन ऑफ़ इंडिया का जबरदस्त स्वागत हो रहा था. साम्राज्य की संसद का एकमात्र प्रतिनिधि जिसने अपने गुण और ज्ञान से उस स्थान को प्राप्त किया था. लाहौर से लौटने के बाद 22 जनवरी को दादा भाई इंग्लैंड वापस पहुंचे. लंदन में भी उनका जबरदस्त स्वागत हुआ क्योंकि वह भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के अध्यक्ष भी थे.

1906 के सालाना अधिवेशन के समय भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के नरम दल और गरम दल के नेता आपसी विरोध में थे. यह भावना हो गई थी कि अंग्रेजों से अधिक दोनों दल एक दूसरे का विरोध कर रहे थे. कांग्रेसमें विभाजन का खतरा था. इस विभाजन को रोकने के लिए दादा भाई नौरोजी को अध्यक्ष बनाने का फैसला सर्वसम्मति से लिया गया. वे इंग्लैंड में थे. उन्हें सूचित किया गया कि नरम दल और गरम दल दोनों ही उनको अपना नेता मानते हैं. इस संकट के समय दादा भाई नौरोजी ने भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस को नेतृत्व प्रदान किया. अगले वर्ष सूरत अधिवेशन के समय विभाजन की स्थिति को नहीं टाला जा सका.

दादा भाई नौरोजी उदारवादी राजनेता थे. उनकी सहानुभूति उदारवादी दल के साथ थी लेकिन प्रकट में उन्होंने अपनी बढ़ती उम्र के कारण विश्राम करना अधिक पसंद किया. गतिविधियां उनकी कम होने लगी. देश अभी उनके स्वशासन वाली मांग को याद करता था. जब होमरूल आंदोलन प्रारंभ हुआ तो होम रूल लीग का अध्यक्ष बनाने के लिए उनकी सहमति मांगी गई. दादा भाई ने कहा कि वह अब थकावट महसूस करते हैं. वह पहले की तरह निरंतर कार्य नहीं कर पाएंगे. यह साफगोई थी ग्रैंड ओल्ड मैन ऑफ़ इंडिया की. अन्यथा की स्थिति में अध्यक्षता के लिए अन्य राजनेता तैयार हो जाते. 30 जून 1917 को दादा भाई नौरोजी का देहावसान हो गया.

आलेख

प्रो. डॉ ब्रजकिशोर प्रसाद सिंह, प्राचार्य शासकीय महाविद्यालय, मैनपुर जिला गरियाबंद

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